Wednesday, June 30, 2021

तुम कहां गए - 17

  अच्छा ही हुआ कि तुम चले गए।

      जब कोई इंसान अपनी जिंदगी के महत्वपूर्ण, अर्थपूर्ण, वैभवयुक्त क्षणों को जी रहा हो तो उसके इस नितांत एकांत के क्षणों में प्रतिरोध नहीं उत्पन्न करना चाहिए। ऐसा करने पर दोष लगता है, और स्वयं में भी अपराध बोध का एहसास होता है। 

    जिन पलों में तुमने मुझे छोड़ा तो मैं अपने जीवन के सार्थक, समर्पित, अर्थपूर्ण और वैभव युक्त जीवन को ही तो जी रही थी ! तब तुमने स्वयं को मुझसे दूर ही रखना उचित समझा और शायद यह दूसरी वजह रही होगी तुम्हारे चले जाने की, इसलिए तुम चले भी गए।


      जानती हूं, तुम ऐसे नहीं थे कि स्वयं अपने आप को दोषी सिद्ध करते या किसी अपराध बोध से ग्रसित हो मुझसे नजरें झुका लेते। जिंदगी को आनंदपूर्वक गुजार लेने की चाह किसमें नहीं होती ? कौन है जो जिंदगी के कष्टों को भोगना चाहता है ? कौन है जो अपने मन मंदिर में एक तस्वीर लिए वेदना को ही अपना जीवन साथी बना लेता है ?

    हां तुम ही बताओ ? ऐसा कौन सा व्यक्ति है जो सरलता का परित्याग कर दुर्गम रास्तों का चयन करता है ? शायद तुम्ही थे ! ! कौन जाने ?

     इंसान की सोच विचारों को जन्म देती है और तथ्य पूर्ण विचार एक परिकल्पना को। तब काल्पनिक दुनिया के पात्र सच होने लगते हैं। परिकल्पना यथार्थ का रूप धारण करने लगती है और एक पूरी तरह से काल्पनिक कहानी, जीवन मूल्यों के इतने निकट होती जाती है, की कल्पना और वास्तविकता में कोई भेद नहीं रह जाता। सारे भेद इस तरह से उलझ जाते हैं कि वह काल्पनिक दुनिया, यथार्थ की दुनिया से अधिक प्रभावशाली हो जाती है।


    अपना हंसता मुस्कुराता चेहरा लिए तुम मेरी काल्पनिक दुनिया में अब भी उतने ही यथार्थ हो जितना कि तुम से अंतिम बार मिलने पर मैंने तुम्हें देखा था। 


    तुम्हारा शांत चित्त होकर बस मुझे मुस्कुराते हुए देखते रहना और मेरा हमेशा की तरह तुम्हें बस यूं ही देखते रहना। जब भी तुम्हारे बारे में सोचती हूं तो अक्सर अतीत की वही दो परछाइयां उभर कर सामने आती है और कहती हैं, देख लो हमें अच्छी तरह से, हम वही हैं। 


   विचारों की शक्ति का प्रवाह प्रेमोन्मुखी होता है, तब जिस काल्पनिक दुनिया का सृजन होता हैं, उसके पात्र अमर होते हैं, कालचक्र से भी परे होते हैं।


   हमारे साथ भी यही तो हुआ मेरे दोस्त। हमने भी तो इसी तरह की एक काल्पनिक दुनिया बनाई और उसमे हम दोनों आज भी वहीं मौजूद हैं। तुम्हारे बारे में तो कुछ नहीं कह सकती, लेकिन अपने बारे में इतना जरूर लिखती हूं कि वही काल्पनिक दुनिया आज मेरी वास्तविक दुनिया से कहीं अधिक प्रभावशाली है।

        तुम मेरी उसी काल्पनिक दुनिया के अजर - अमर पात्र हो, तुम कभी मर नहीं सकते। ठीक उसी एक पल में, मैंने तुमसे प्रेम किया, और खुद को मार भी लिया। ताकि मेरी कल्पना की दुनिया में तुम यथार्थ बनकर हमेशा जीवित रहो।


     मैं नहीं जानती कि तुम कहां और किस हालत में हो ? जीवित भी हो या नहीं ? नहीं जानती ! 
        लेकिन हां, इतना जरूर लिखती हूं कि तुम मर भी जाओ तो भी मेरी काल्पनिक दुनिया में, ठीक उसी तरह जीवित रहोगे, जैसे कि एक आत्मा, जो अजर है, अमर है मिट नहीं सकती। 

       लेकिन नहीं मैं ऐसा कहूं तो भी क्यों कहूं ? जबकि मेरी दुनिया में तो, तुम इस से भी बढ़कर हो। एक आत्मा, जो अजर है, अमर है, मिट नहीं सकती है, और जो सशरीर मेरे सामने है। 

      मैं तुम्हें ना तो वृद्ध होते हुए देखूंगी ना किसी बीमारी से ग्रस्त तिल - तिल मरते हुए, और ना ही तुम्हारे चेहरे की झुर्रियों को देख पाऊंगी जो समय के साथ अवश्य आती।

       तुम तो अपने पूरे वैभवशाली व्यक्तित्व के साथ मेरी उस काल्पनिक दुनिया में रहोगे। हमेशा, हमेशा के लिए। 

        इसीलिए लिखा था - अच्छा ही हुआ, जो तुम चले ही गए।

      शायद तुमने भी यही सोचा हो ? तुम्हारा फिर कभी लौट कर ना आना इस बात को प्रमाणित करता है कि तुम्हारी कल्पना की दुनिया में, मैं भी तुम्हें एकटक, अपलक देखती हुई, अभी भी सजीव, अपनी उसी आकर्षक मोहनी सूरत के साथ तुम्हारी आंखों में बसी हूं। 

    ठीक उसी एक पल में तुमने भी खुद को मार लिया होगा। एकदूजे ने खुद को मार कर अमृत्व का जो वरदान प्राप्त किया, अब उसे कैसे अभिशाप लिख दूं?
काश कि यह सब मैं तुमसे कभी कह पाती! इसलिए पुकारती हूं - आह ! तुम कहां गए . . . 
to be continued . . .
Shailendra S.

Tuesday, June 29, 2021

तुम कहां गए - 16

      अविश्वास, अटूट विश्वास की प्रथम सीढ़ी होती है। अर्थात किसी पर भी किया गया अविश्वास जब विश्वास में परिवर्तित होता है तो वह अटूट हो जाता है।


      अब हम कह सकते हैं कि एक अटूट विश्वास का जन्म एक अविश्वास से होता है। चाहे वह अविश्वास क्षण मात्र के लिए ही क्यों न हो। 


  मानवीय संवेदना से परे यदि कोई दुनिया होती है, तो वह दुनिया देवताओं की दुनिया है। उद्गम और उच्छृंखल लहरों का आवेग मन में उठे तूफान का प्रतिरूप ही होता है।


   तो क्या राम का सीता के वियोग में यूं भटकना उनकी खोज करते हुए पुष्प लताओं, वाटिकाओं, वृक्ष कुंजों, पर्वत श्रृंखलाओं से बार - बार ये पूछना, - तुम देखी सीता मृगनयनी ! 


    एक दूसरे की विरह वेदना में राधा और कृष्ण का संपूर्ण जीवन व्यतीत हो जाना, सामाजिक स्वीकार्यता के बावजूद एक दूसरे से दूर रहना, निरर्थक था ?


    अपने जिस विराट रूप को प्राप्त करने के लिए कृष्ण कर्म योगी बने, उससे भी विराट स्वरूप राधा ने सिर्फ कृष्ण से प्रेम करके प्राप्त किया, और कृष्ण से एक पायदान ऊपर ही रहीं। राधे-कृष्ण कहलाई। 


    कुरुक्षेत्र में दी गई गीता की आध्यात्मिक और वैज्ञानिक परिभाषा का खंडन वर्षों पहले गोपियों के द्वारा उद्धव को मिल चुका था। शायद इसलिए कृष्ण ने भी कभी उद्धव को गीता का ज्ञान देना उचित नहीं समझा। क्योंकि उधव जान चुके थे,
      " मन न भए दस बीस" 

      प्रेम की अनुभूति से ईश्वर का जो विराट स्वरूप प्रदर्शित होता है, वह कुरुक्षेत्र में खड़े कृष्ण के विराट स्वरूप से भी कहीं ... कहीं अधिक प्रभावशाली और स्वीकार्य है। यदि ये सभी देवता थे, तो मानवीय संवेदनाओं से कैसे ग्रसित हो गए? बताओ ?


       क्यों राम, सीता को वन वन भटकते ढूंढते रहे, और क्यों कृष्ण राधा के लिए ताउम्र तरसते रहे ?

   क्यों हमें राम का वही प्रतिरूप भाता है जो सीता को खोजता हुआ वन - वन भटक रहा है ? हम उसी कृष्ण को अपने अंतःकरण में देखना चाहते हैं जो राधा के लिए, उसे रिझाने के लिए, उसे मनाने के लिए, तरह तरह के स्वांग करता है। अपने प्रिय के बरसाने की गलियों में भटकता है, और उसकी पुकार  राधे ! राधे !! के रूप में आज भी हमारे अंतःकरण से निकलती है, हमारे मन के बरसाने की गलियों में आज भी गूंजती है,

राधे ! राधे !! राधे !!!


       जिन मानवीय संवेदनाओं को पा लेने के बाद देवता भी देवता न रहे बल्कि उससे कहीं अधिक ऊंचे पायदान में पहुंच गए, जहां अनुभूतियों के मध्य विभाजित संग्राम एक नए कुरुक्षेत्र को जन्म दे गया, जहां गीता के रहस्य आज भी बिखरे पड़े हैं और मनुष्य तथाकथित उन्हीं राहों में अपने व्यक्तित्व को खोजता हुआ भटकता है।

       तब क्या यह सही नहीं होगा, कि हम अपने अंतःकरण में स्थापित किसी देवता को या उसके किसी ज्ञान को महसूस कर उसे प्रत्यक्ष देख सकने की अनन्य संभावना की चाहत में डूब कर, प्रेम की उत्कृष्ट सृष्टि का निर्माण कर दें ? जहां पर देवता भी आने के लिए तरस जाएं।


     तुम्हारी दुनिया में क्या है मैं नहीं जानती, लेकिन आज मेरी दुनिया में देवत्व एक अभिशाप है। क्योंकि उसे धारण करने वाला चिर वियोग में सुलगता है। यदि भूले से भी कहीं उसने अपनी संवेदनाओं को व्यक्त कर दिया तो वह अपने देवत्व के पद से विमुख हो जाएगा।


      यही एक डर उसे सदैव सताता रहता है। मेरी दुनिया तो वह दुनिया है जहां पर तुम और और तुम्हारी निकटता एक सहजता है। जहां संवेदनाओं का मूल्य देवत्व से कहीं अधिक है। मन में उपजे उद्दवेग और प्रेम अनुभूति को बांधना भी चाहूं तो किस खूंटे से बांध दूं ? उसे बांधने के लिए भी तो तुम ही चाहिए। बात सरल है किंतु उतनी सहज नहीं।


    मैं जानती हूं, तुम्हें पुकारू भी तो अब किसके लिए, और तुम आओगे भी तो किसके लिए ? शायद न तो तुम्हारे पास कुछ शेष बचा है, और न ही मुझे उसे सहेज लेने के लिए कोई हिम्मत ही बची है। 


     तुम अपना सब कुछ कुरुक्षेत्र के मैदान में लुटा चुके, और मैंने अपना सब कुछ तुम्हारे इंतजार में। अब शेष बचा भी तो क्या ? बस एक आस कि कहीं न कहीं तुम फिर मुझ से टकरा जाओगे। कभी न कभी शायद तुम लौट ही आओगे ?


   कई अविश्वासों की गलियों में भटकते हुए मैं, हां मैं, यदि आज इस विश्वास के नजदीक पहुंची हूं कि कहीं ना कहीं से तुम भूले भटके ही सही, मेरे पास लौट आओगे, तब तुम बताओ मेरे इस अटूट विश्वास को तुम कैसे तोड़ सकोगे ? इसलिए पूछ रही हूं, बार-बार पूछती हूं, हां बताओ, तुम कहां गए  ...

to be continued . . .
Shailendra S.

Sunday, June 20, 2021

तुम कहां गए - 15

  लेकिन यह भी मानू तो कैसे मानलू ? यदि इस दुनिया में तुम न होते तो मेरे मन में खामोशी होनी चाहिए, स्थिरता होनी चाहिए, शांति होनी चाहिए ? पर ऐसा क्यों नहीं है ? 


    मैं जानती हूं दो बिंदुओं को मिलाने वाली रेखा, अनंत बिंदुओं से होकर गुजरती है. चाहे वह बिंदु कितने ही पास पास ही क्यों न हो।


    अनंत, अनकाउंटेबल। वे तथ्य जो अपरिभाषित हैं। जिसकी, कोई परिभाषा ही न हो। उस अपरिभाषित तक पहुंचने के लिए तुमने भी न जाने कितने अनंत बिंदुओं को पार किया होगा ! मुझसे उपेक्षित होना यदि तुम्हारी नियति थी, तो मेरा यूं खामोश रहना मेरी नियति थी, मेरे दोस्त।


       तुम्हारे नि:स्वार्थ सच्चे मन में उपजे प्रेम की परख कर के भी, मेरा यूं खामोश रहना, बेवजह तो न था ?  नि:संदेह मैंने तुम्हें भी और-सा ही समझा था। जिनके लिए प्रेम एक मनोरंजन, एकतरफा विश्वास होता है। जबकि तुम्हारे सभी विश्वासों की आधारशिला तो तुम्हारा मुझ पर अटूट विश्वास ही रहा था।  तुम तो मेरे विश्वास के साथ चलते रहे और मैंने खामोशी से तुम्हारे उसी विश्वास को तोड़ा था। 


   मेरा यूं खामोश रह जाना, आज अब जिसकी कोई वजह न रही, उसका दोषी मानकर तुम्हें सजा देना, मुझे नहीं लगता कि अब इसकी कोई जरूरत है। 


   सब कुछ उस समय इतनी तीव्रता से घटित हुआ की उन घटनाओं का कोई क्रम न था। घटनाएं घटती जा रही थी, सब कुछ स्वचालित-सा होता जा रहा था। जिसे हम नियंत्रित न कर पाए।  


      प्रत्येक व्यक्ति का एक आत्मसम्मान होता है। चाहे वह छोटे से छोटा या बड़े से बड़ा व्यक्ति ही क्यों न हो। मेरी खामोशियों ने शायद तुम्हारे उसी आत्मसम्मान को भी ठेस पहुंचाई थी। मेरी सभी उपेक्षाओं की परणिति तुम्हें खुद को अपनी ही नजरों पर गिरकर उठाना पड़ा।


   मैं चाहती तो तुम्हें सीधे मना कर सकती थी।  लेकिन नहीं, मैं तो खामोश रही। नहीं पता था उस समय की मेरी इस खामोशी की गूंज इतनी प्रबल और तीव्र होगी कि तुम्हारा कलेजा चीर देगी। 


     और एक दिन फिर अपने भग्न हृदय के सारे अवशेष समेटकर तुम्हें मुझसे दूर चले जाना होगा, सच पता नहीं था ? तुम तो स्वभाव से विद्रोही थे। फिर पता नहीं क्यों तुम धीरे-धीरे इतने शांत से क्यों होते जा रहे थे। और मैं ? मेरा ऐसा क्या था तुम्हारे पास जिसे देखकर तुम अपने मन को शांत कर लेते थे ? तुम्हारा विद्रोही स्वभाव भी मन में स्थिरता पैदा कर देता था। 


      हां बस एक तस्वीर ही थी न ! जिसे शायद तुम अपने इस उज्जवल मन में सदैव स्थापित करके रखते आए थे। क्या उसे देखकर तुम इतने शांत सरल और स्वयं के मान अपमान से भी परे हो जाते थे ? 


   जानती हूं कि एक सच्चे प्रेम से मन में शांति और स्थिरता का जन्म होता है ? उसकी गहन वेदना का प्रभाव उथले मन  पर भी पड़ता है, और फिर उस मन में धीरे - धीरे सागर की सी गहराईयोँ का जन्म होता है, गहराई के गर्भ से निकले आभूषण बेशकीमती होते हैं न !!


    और तुम, उन्हें धारण कर अपने व्यक्तित्व को भी विशिष्ट बनाते गए ? तब भी मैं तुमसे दूर खड़ी तुम्हें अर्थहीन भाव से बस ताकती रही। कभी तुम पर इल्जाम लगाया था कि तुम्हारी दुनिया व्यक्ति - परक थी। कभी तुम मुझ तक ही सीमित थे।  लेकिन अब तुम अपने व्यक्तित्व का विस्तार कर रहे थे, और सच मानो मेरे स्वार्थी मन को यह बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था कि तुम मेरे सिवा किसी और के बारे में सोचो। यहां तक की चाहे वह समाज ही क्यों न हो, कोई धर्म ही क्यों न हो ? 


      उस वक्त तुम्हारा मुझसे, इस तरह दूरी बनाना अखर रहा था, मेरे दोस्त। जिसका परिणाम मेरी सारी खामोशी और उपेक्षाओ के रूप में तुम्हें ही मिला। 


   ईश्वर को तो मैंने तुम से अधिक ही माना, उस पर आस्था रखी, विश्वास रखा। अपने सभी कर्मों को उसी के नजरिए से देखती रही।  उसी के बनाए नियमों का पालन करती रही। कम से कम उस समय तो मुझे यही प्रतीत होता था । 


      तब पता नहीं था मेरे दोस्त, कि यह नियम ईश्वर ने नहीं अपितु इस ढोंगी समाज ने बनाएं है। देवी, देवताओं - सा जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्तियों के, यदि घरों की दीवारें बोलती, तो इस समाज में होने वाले न जाने कितने ही अनैतिक और अमर्यादित कृत्यों का पर्दाफाश होता, और न जाने कितने ही पर्दानशी बेपर्दा होती। नैतिकता और मर्यादा की परिभाषा को रचने वाले न जाने कितने लोग स्वयं उन्हें तोड़ते हुए खुद-ब-खुद दिखाई देते। 


   चलो छोड़ो यह सब बातें, मैं तो अपनी बात करती हूं । जैसा कि मैंने पहले ही लिखा कि हमारे लिए समाज पहले से ही पाप-पुण्य की परिभाषा गढ़ देता है, और तब कहता है कि इस सीमा के अंदर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करो। 


    मुझे इस बात का कोई अफसोस नहीं कि तुम्हारी उपेक्षा करके मैंने उन नियमों का पालन किया। आज तो दुख इस बात का होता है कि जिन्हें मैं अपना मानती थी, वे भी कहा मुझे समझ पाए और तुम ? तुम भी तो मुझे कहां समझ पाए ? तुमने भी तो मुझे औरों - सा ही समझा ? बताओ क्या यह सच नहीं है ?


   रतिक्रिया में रत क्रौंच पक्षी के जोड़े का वध होने का दृश्य, एक लुटेरे को महाकाव्य का रचयिता बना गया। उस वेदना से उत्पन्न पहले श्लोक में वह दृष्ट समाहित थी जिसने रामायण जैसे महाकाव्य की रचना की। उसे दृष्टि दी। 


     तो फिर यदि आज मैं वर्षों पहले तुम्हारे मन में उठी मेरे प्रति आसक्ति और फिर उस आसक्ति से जिस वेदना का जन्म हुआ, उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप यदि मैं आज कुछ लिख रही हूं, तो वह तुम्हारी ही दृष्टि है, तुम्हारा ही दृष्टिकोण है !!


   यदि एक पक्षी का वह कृत्य प्राकृतिक और नैसर्गिक था, तो उस समय तुम्हारा हाथ भले न थमती पर तुम्हारे साथ, तुम्हारे लिए खड़ी तो हो सकती थी, जब तुम अपनों के बीच ही अपमानित हो रहे थे। तब मेरा यूं मूकदर्शक बनकर खड़े रहना, देखते रहना कितना उचित था ? तुम्ही बताओ ?


   मेरा यूं खामोश खड़े रहना क्या प्रकृति के खिलाफ न था ? तुम्हारा पक्षधर बन कर न सही, लेकीन न्याय हित में तो कुछ कर ही सकती थी। वहां किस मर्यादा के टूटने का भ्रम था या डर था, तुम निर्दोष थे और दुनिया तुम पर इल्जाम लगा रही थी, मेरी तरफ आशान्वित नजरों से तुम्हारा यूं देखते रहना कि शायद मैं अब कुछ बोलूगी, कौन सी अनुचित आशा थी तुम्हारी ? 


   मेरा मूक दर्शक बने रहना क्या अनुचित न था। यदि था, तब तुमने मुझसे कुछ कहा क्यों नहीं ? कोई सवाल जवाब क्यों नहीं किया ? वैसे तो अपने सारे हक का प्रयोग करके आए थे, तो उस समय अपने उस हक को ही क्यों त्याग दिया ? तब मुझसे तुम कुछ भी कह सकते थे , पूछ सकते थे ! मेरी खामोशी का कारण जानने की कोशिश कर सकते थे ? 


   मेरा यूं मूक दर्शक बन खड़े रह जाना क्या तुम्हें अखरा न था, मेरे दोस्त ? मुझे विश्वास है, उस दिन भी था और आज भी है, यदि मेरे स्थान पर तुम होते, तो तुम अपना प्रतिरोध अवश्य व्यक्त करते , चाहे इसके लिए जो भी कीमत चुकानी पड़ती, तुम चुकाते। 

शायद इसलिए कि  - 

तुम्हारे पास एक तस्वीर है

जो इस जहां में है सबसे जुदा।

कनखियों से छुप कर तुम्हे देखती आंखे,

कानों में लटकती छोटी-छोटी बालियां,

वजूद की सारी गर्मी समेटे हुए ये होठ,

जो किसी के आने की आहट पा, चुप हो गए हैं।

गालों को छू लेने की अधूरी लिए आस,

सलीके से सांवरे गए ये रेशमी बाल,

किसी के छू लेने की लिए अधूरी आस,

नर्म, मुलायम ये सिंदूरी गाल।

जिंदगी के अधूरे कैनवास पर,

जिंदगी से उल्लासित एक चेहरा,

वीरान तपते पत्थरों के बीच,

तुम्हारे वजूद का एहसास दिलाता एक चेहरा,

बरसते बादल, कड़कती बिजली,

के बीच दमकता एक चेहरा,

तुम्हारी बेजान उदास रातों में,

तुम्हारे साथ हंसता मुस्कुराता एक चेहरा,

तुम्हारे मन को उसे छू लेने की, लिये एक आस,

आज स्वीकार करती हूं ...

हां, मेरी यही एक, तस्वीर होगी, तुम्हारे पास।

लेकर वह तस्वीर मेरी, अपने साथ  . . ....... हां, तुम कहां गए ?-

to be continued ....

 Shailendra S.


Saturday, June 19, 2021

तुम कहां गए - 14

 अपनी सभी समस्याओं, सारी मजबूरियों को दरानिकार कर तुम्हारे प्रति यदि कोई जवाबदेही तय भी करती, तो तुम ही बताओ वह क्या होती ? 

     मान्यताएं टूटती हैं, अवधारणाएं बदलती हैं, किंतु किसके लिए ? किसी को जवाबदेही तो तय करनी होती है, उठानी भी पड़ेगी है।  यदि वह व्यक्ति ही न हो तो यह सब किसके लिए और क्यों ? तब सब कुछ व्यर्थ नहीं लगता ? माया - मोह का निरर्थक प्रपंच ? 


         तुम जहां भी हो, निष्कर्ष तो तुम्हे ही निकालने होंगे। जब तुम मेरी जिंदगी में कभी शामिल हो ही नहीं सकते थे, तो मैं तुमसे क्योंकर कोई संबंध रखती ? 


       यदि हमारे कर्मों के द्वारा पाप - पुण्य का निर्धारण होना होता तो बात कुछ और होती, लेकिन यहां तो विपरीत था। पाप पुण्य की परिभाषा से हमारे कर्म निर्धारित होने थे । जब मान्यताएं और अवधारणाएं दोनों के मापदंड पहले से ही तय हो चुके हो तो उसके बाद ? क्या शेष राह जाता है ?  उनके अधीन रहकर हम क्या पा लेते, यहां तो सिर्फ खोना ही होता। 


  माना कि कुछ पा लेने और कुछ खो जाने के डर से जीवन नहीं रुकता, फिर भी आसान सुलभ रास्तों का परित्याग कर सिर्फ तुम्हारे लिए कठिन रास्तों पर चलना मेरे लिए कहां तक सही और मुमकिन होता ? मेरे लिए तुमसे आसान, बेहतर और सुखदाई विकल्प पहले से ही तैयार किए जा चुके थे, तो फिर भला मैं उनका परित्याग क्यों और कैसे करती या कर देती, बावजूद इसके कि मेरे लिए निर्धारित किए गए रास्तों, मेरी मंजिलों को मेरी पूर्ण सहमति प्राप्त थी। 


   जिससे मैंने प्रेम किया, और जिसने मुझे प्रेम करना सिखलाया। समय के उन टुकड़ों में तुम तो कहीं न थे मेरे दोस्त, और न ही था तुम्हारा कोई विजन।  तो फिर मैं भला कैसे अपनी वफाओं से मुख मोड़ लेती ? न जाने कितने ही अपनों के लिए मैं बेवफा न हो जाती, बोलो ? 

   मैं तुम्हारी जिंदगी की ऐसी वर्जना थी जो सदैव तुम्हें लुभाती रही। संपूर्ण ब्रह्मांड के इस अनंत विस्तार में, यदि हम कहीं एकाकार रहें हैं, तो फिर हमें एक दूसरे से अलग होना ही नहीं चाहिए था। अब जब हो ही गए तो फिर एक दूसरे के प्रति ये कैसा मोह ? चुंबकीय गुणों के आधीन समान धुवो का प्रतिकर्षण ही सही होगा।


  आज जहां कहीं भी भटक रहे हो, तो कहती हूं तुमसे, मत भटको, लौट जाओ उन्हीं रास्तों से अपनी उसी दुनिया में, जहां से मुझे खोजते हुए, भटकते हुए मुझसे आ मिले थे। यह दुनिया तुम्हारी कभी न होगी। तुम इसके लायक कभी ना बन पाओगे। यदि भटकना ही तुम्हारी पूर्व निर्धारित नियति है, तो भटकते हुई एक बार तो तुम मुझ तक आओ, देखो तो, मैं अभी भी तुम्हे रोक न रही !!


 जब न चाहा तो आ मिले, बिना वजह ही ! और जब आज मन से पुकारती हूं तो ... ?

   - हा बताओ ! कहां गए तुम ? बिना वजह ही।

   क्या यकीन कर लूं कि तुम अब इस दुनिया में नहीं रहे . . .

to be continued . . .

Shailendra S.

Friday, June 18, 2021

तुम कहां गए - 13

   कालिदास के मेघदूत के यक्ष की तरह श्रापित अभिशप्त जीवन जीने का श्राप तो तुम मुझसे ले ही चुके, वह भी बिना किसी सवाल - जवाब के। यह मेरे अंतर्मन से निकली एक चित्कार है, जो तुम्हारे अंतर्मन तक अवश्य पहुंचेगी। 


    ओह ! ये मुझसे क्या हो गया, मैं तो ऐसी ही न थी। चलो जो कुछ हुआ अच्छा ही हुआ। अब यही मान लेती हूं, शायद यही तुम्हारी नियति थी, और आज भी है।


   ऐसा नहीं है कि मैं बहुत दुखी हूं या तुमसे मैं बहुत ही क्रोधित हूं, जो मैने तुम्हें यह अभिशप्त जीवन जीने का श्राप दिया। कहीं कुछ ऐसा है, जो पहले घटित हुआ होगा, और जिसका परिणाम मेरी यह चित्कार है। 


   भरी महफिल तुम्हे तन्हा देखा कई बार खुद मेरे साथ होते हुए भी कहीं और खोया हुआ-सा पाया। तब मन होता कि पूछू , तुम किस दुनिया में रहते हो ? और बताओ तो, कौन सी दुनिया से आए हो? 


     जब मेरे पास आकर भी तुम्हारा मन स्थिर नहीं होता है, तो तुम मेरे पास आते ही क्यों हो ? हमेशा कहीं और जाने के लिए तैयार । मैं खुद को जब भी  तुम्हारी आंखों में देखती, सहम सी जाती। मुझे दिखाई देता की जैसे तुम कोई प्रेत-आत्मा हो जो मुझे खींच कर अपने साथ अपनी ही दुनिया में ले जाने के लिए आए हो? मैं और सहम जाती। शायद इसलिए मैं तुम्हें चुपके से ही देखा करती थी जब तुम मुझे नहीं देख रहे होते थे। 


   कहीं सुना था या पढ़ा था, जरूरी नहीं यह सत्य हो, किवदंती भी हो सकती है। राजा दक्ष के अपमान बोध से आहत हो सती ने अग्नि कुंड में प्रवेश कर अपने प्राण त्याग दिए। तब भगवान शिव प्रलयंकारी और विद्रोही हो चले। 

   मृत्यु के देवता ने तांडव नृत्य किया और संपूर्ण सृष्टि भस्म होने लगी। सती के अध जले शरीर को लेकर तीनो लोक में विचरण करने वाले भगवान शिव भी देह मोह को न त्याग सके । तब सुदर्शन चक्रधारी ने सती के पार्थिव शरीर को छिन्न-भिन्न किया और स्वयं महादेव को देह मोह से मुक्त किया। 

   सती का शरीर सुदर्शन चक्र से विछिन्न धरती लोक में जिन - जिन स्थान पर गिरा वहां शक्ति पीठ की स्थापना हुई। भगवान शिव समाधि लीन हो गए दुनिया यही जानती थी की सती के देह मोह से ग्रसित भगवान शिव ने वैराग्य धारण कर लिया।

   लेकिन नहीं , बात कुछ और थी।


    समाधस्थ भगवान शिव ने कालचक्र में प्रवेश कर सती को पुनः अपने काबिल बनाने के लिए, उन्हें कई बार जन्म दिलाते रहे और स्वत: ही उनका संघार करते रहे। कई जन्मों के बाद जब सती पुनः शिव के दुनिया में आने के योग्य हो गई, तब उनका जन्म राजा हिमाचल के यहां पार्वती के रूप में हुआ। 

   लेकिन दुनिया यही समझती रही कि शिव समाधि लीन है। अंततः उनकी समाधि भंग करने के लिए स्वयं कामदेव को उन पर काम का प्रयोग करना पड़ा। परिणाम रति से कामदेव का वियोग।


     मैं ईश्वर को मानती हूं और उसके बनाए या समझाएं गए नियमों को भी शायद। इसलिए मैंने इस किवदंती पर भरोसा कर लिया था।

    तुम्हें देखकर मेरा यू मर जाना, फिर तुम्हारे जाते ही मेरा पुनः जी जाना, मुझे अक्सर इस किवदंती की याद दिलाता। मानो तुम भी समय चक्र में प्रवेश कर मुझे अपने काबिल बनाने के लिए हर पल मारते हो और हर पल जिंदा भी करते हो।


   और जिस दिन मैं तुम्हारे काबिल हो गई तो तुम मुझे अपनी दुनिया में ले कर चले जाओगे। लेकिन तुम्हें क्या पता मेरी दुनिया तो यही है, और मैं किसी भी प्रलोभन में आकर अपनी दुनिया नहीं छोड़ सकती। इसके लिए चाहे मुझे हजारों हजार बार मरना पड़े, जीना पड़े । मैं इसके लिए भी तैयार हूं  . . .


     लिखा न, मैं ईश्वर को मानती हूं और उस पर विश्वास भी करती हूं । जो जन्म लेता है, वह मरता है। और जो मरता है वह पुनः जन्म भी लेगा, यही शाश्वत नियम है। 


   इस जीने और मरने के बीच हम जिंदगी जीते हैं, और वह जिंदगी मुझे जीनी है। इसका फैसला करने वाले तुम कौन होते होते हो ? और मेरी ही दुनिया से मुझसे दूर ले जाने की कोशिश वाले जरा यह तो बताओ , तुम कौन हो और अब कहां गए तुम ?

हां बताओ , तुम कहां गए ? 

   तुम मेरे सारे प्रश्नों के जवाब दे भी दो तो भी मुझे यकीन है कि मेरे इस प्रश्न का तुम्हारे पास कोई जवाब नहीं है और ना ही होगा .  .  .

   यह मेरी अपनी दुनिया है, और सच मानो मेरी इस दुनिया में तुम कहीं नहीं हो, और न ही कभी होगे . . . न  हि आना है मुझे तुम्हारी उस दुनिया में तुम्हारे साथ, जहां पर मोक्ष के पश्चात सब कुछ थम जाता है।

    ना कोई मृत्यु ना कोई जीवन और न ही कोई जिंदगी ! नहीं चलना है तुम्हारे साथ उन रास्तों में, जहां समय चक्र रुक जाता है। जब कोई दृष्टि न होगी तो कोई दृश्य कैसे होगा। मुझे दृष्टि चाहिए दृष्टिकोण चाहिए, चाहे वह दृष्टि मुझे तुम्हारी ही वेदना से ही क्यों न मिले . . .

   तभी तो अचानक ही मेरे अंतर्मन से निकल गया - ' . . .. . जीवनपर्यंत तुम भी मेरे लिए तरसते ही रहोगे कालिदास के मेघदूत के श्रापित यक्ष की तरह . . . '

to be contacted. . .



Tuesday, June 15, 2021

तुम कहां गए - 12

    मेरे जीवन की सभी मान्यताएं, सभी अवधारणाएं जिस मजबूत सिद्धांत पर टिकी थी वह आधारशिला अब कहां गई ! हां तुम ही बताओ कहां गईं ? 


    जिन सिद्धांतों की आधारशिला में मैंने अपना जीवन टिकाया, उसे मजबूती दी, मुझे विश्वास था कि वे अडिग है। ये सिद्धांत सार्वभौमिक है, इन सिद्धांतों का कोई तोड़ नहीं,  इनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। तो फिर आज क्यों ये सभी सार्वभौमिक सिद्धांत जिनका कि कोई अपवाद न था, मेरे लिए मिथ्या साबित हुए।


यह सब क्या है, मेरे दोस्त ?

      यह मेरे मन की दुर्बलता है या कि उन लहरों की प्रबलता, जो मेरे अंतर्मन से उठती हैं, और जिन्हें मैं तुम्हारी ही तरफ मोड़ देती हूं। फिर वही लहरें तुमसे टकरा कर वापस कई-कई गुनी शक्ति और वेग से, मुझसे ही आ टकराती हैं, और मेरे इन सिद्धांतों को तार-तार कर देती है ?


    मेरी जीवन शैली देखकर, यदि तुम यह समझते थे कि, मेरा मन स्थिर है, शांत है और जिसमें तुम्हारे लिए कोई स्थान नहीं है, तो तुम सच समझते थे। तुम गलत नहीं थे मेरे दोस्त। 


     सुनकर आश्चर्य हो रहा है न ! तो सुनो मेरे दोस्त ! पारदर्शी कांच के सम्मुख खड़े होकर देखने पर स्वयं की तस्वीर कभी नहीं दिखाई देती, और न ही दिखाई देता है वह कांच। दिखाई तो देती है आर - पार की पारदर्शी दुनिया ? वह दुनिया जो कई मिथक और बाहरी आडंबरों से भरी होती है। 

     मैं वही पारदर्शी बेदाग सीसा थी मेरे दोस्त। जिसके पीछे कोई बाहरी लेप नहीं था। तो बताओ भला ! तुम उसमें अपना ही अक्स कैसे देख पाते ? तुमने तो देखा मेरे पीछे की दुनिया, जो बेहद रंगीन और खुशमिजाज थी।


और तुम ?

   तुम  उसी पारदर्शी कांच के सम्मुख खड़े होकर तुमने अपना अक्स देखना चाहा, जहा मै न दिखाई दी, और तुम्हें दिखाई दी कांच के पीछे की विचलित दुनिया।


      हां मेरे दोस्त ! कांच कितना ही महीन और पारदर्शी क्यों न हो, उसके पीछे की दुनिया अपने वास्तविक स्वरूप से विचलित ही दिखाई देती है, भले ही वह विचलन कण मात्र का ही क्यों न हो। 


       काश ! तुम उस कण मात्र के विचलन को देख पाते तो समझते कि तुमसे परे मेरी दुनिया भी कुछ इसी तरह की दुनिया थी। 

     तुम्हारी दृष्टि यदि कण मात्र के उस विचलन को जरा सा भी महसूस कर पाती, उसे देख पाती, तो तुम देखते कि वे सभी अवधारणाएं जो तुम्हे अपनी जगह पर टिकी दिखाई देती थी, वे वास्तव में उस जगह पर तो कभी थी ही नहीं ! आश्चर्यजनक किंतु यही सत्य था। 


      मुझमें और मेरी उस विचलित दुनिया के अंतर को तुम कभी परख ही न पाए। तुम मेरी दुनिया मेरे पार देख रहे, लेकिन वहां मेरी खुद की अपनी दुनिया थी ही कहां ! तुम भी तो मेरी तरह एक भ्रम में ही जीते रहे।


सहज स्वीकार तथ्य, भ्रम ही होते हैं, मेरे दोस्त।


     मूर्त और अमूर्त के बीच का अंतर जितना कम होगा, हम ईश्वर के उतना ही निकट होते है। मैंने इस सहज स्वीकार तथ्य को अपने जीवन की अवधारणा बनाई। इसीलिए मैंने हमेशा प्रयास किया कि मैं अपने मन - मंदिर में तुम्हारी कोई मूर्ति स्थापित न करूं। और इस तरह मैं भी एक भ्रम में जीती रही । 


       लेकिन तुम तो मेरे अंतर्मन के चोर निकले ! वहां से मेरी सभी अवधारणाएं बाहर निकाल स्वयं को धीरे-धीरे स्थापित करते चले गए । 


     यदि कोई भ्रम अंतर्मन में स्थापित हो जाए तो उससे बड़ा सत्य कुछ भी प्रतीत नहीं होता है। तुम मेरे जीवन के सबसे बड़ा भ्रम थे, और मेरे जीवन का सबसे बड़ा सत्य भी। एक ऐसा सत्य जिसे बड़ी सहजता से स्वीकार किया जा सकता था। इस तरह तुम्हारा वजूद मेरे लिए भ्रम होते हुए भी सहज स्वीकार सत्य ही रहा।


     किसी को चाहने के लिए उनके दरम्यान किसी रिश्ते का होना ज़रूरी नहीं, वहां तो भावनाओ का मूल्य होता है। शायद इसलिए भी तुमने मुझसे कोई रिश्ता नहीं बनाया, बस अपना हक जताते रहे। 


       प्रेम जो किसी भी ज्ञान से परे हो और किसी भी अनुभूति से बड़ा हो, यदि कोई उस पर विश्वास न करें, या न कर सके, तो ? उस प्रेम को धारण करने वाला अपराध बोध से ग्रस्त हो जाता है।


     तुम मुझे अपने प्रेम का या जो कुछ भी तुम मेरे लिए महसूस करते थे, विश्वास दिलाना चाहते थे। और मैं करना नहीं चाहती थी। या यूं कह लो कर ही नहीं सकती थी। शायद इसलिए तुम भी अपने स्वयं के उसी अपराध बोध से ग्रस्त हो गए, जिसकी परिणति तुम्हारा यूं मुझे छोड़ कर चले जाने के रूप में हुआ। 


       प्रेम की जिस पावन - शीला नदी में तुम शीतल प्रेम की तलाश करते रहे, वहां तुम्हें मिला क्या ? मेरी घृणा की भभकती ज्वाला न सही किंतु मेरी उपेक्षाओं के भीषण आघात मिले।  उन आघातों से पवन - शीला नदी के कगार टूटते गए। तुम मेरे इतने निकट आना चाहते थे जितना कि हो ही नहीं सकता था। कभी सोचा ही नहीं जा सकता था।


      तुम्हारे भीतर अनगिनत आशंकाएं जन्म लेने लगी और उस पर मेरी उपेक्षाओं की कोड़ों-सी मार। तुम्हारा उद्विग्न हृदय या फिर प्रेम और भी तिलमिला उठा।  तुम्हारे अंतर्मन में यह सब घटित होता रहा और मैं इन सब से अनजान रही। मेरा क्या यही मेरा दोष था ? जिसकी सजा तुमने खुद को दी, और उसके पीछे मुझे भी ?


       मेरी इस कहानी के तुम एकमात्र और बेनाम किरदार हो, इसलिए मुझे यह भी लिखने की कोई जरूरत नहीं कि इस कहानी के सभी पात्र और घटनाएं काल्पनिक हैं। कोई भी समानता महज एक संयोग होगा।


      बिल्कुल नहीं लिखूगी । किस डर से और क्यों लिखूं, जबकि अब तुम हो ही नहीं, और जो घटित हुआ वह हमारे बीच ही रहा, सारे संवाद, सभी मिलन, रूठना  - मानना ! सभी कुछ। 


     और फिर एक दिन बिना कुछ कहे, बिना बताए, बिना कोई शिकायत दर्ज किए, बस यूं ही चले जाना, शायद हमेशा के लिए। तो फिर यह सब क्यों लिखूं। तुम्ही बताओ ? क्या लिखना जरूरी है ? बावजूद इसके कि इस भौतिक धरातल में हमारा मिलना किसी भी भौतिक संबंधों और विचारधारा से परे था। 


    चलो दोनों के मन का हुआ। कभी मैं तुमसे नहीं मिलना चाहती थी और आज तुम मुझसे, और जो कभी तुम मिल भी गए तो मैं जानती हूं कि तुम अपने उस स्वरूप में नहीं होंगे जिससे कि अब मैं मिलना चाहूंगी . . .

       तुम्हारा प्रेम एक कला ( Art ) भी हो सकता था, जो उद्विग्न नहीं संयमित होता, स्थिर होता। आनंद से परिपूर्ण होता। 

       लेकिन नहीं, उसके स्थान पर तुमने वेदना को चुना, और उस वेदना की टीस तुम्हें भी ताउम्र सताती ही रहेगी . . . जीवनपर्यंत तुम भी मेरे लिए तरसते ही रहोगे, कालिदास के मेघदूत के श्रापित यक्ष की तरह। तब भी . . . हां तब भी।

       इसे मेरी पुकार समझो या कि प्रश्न, मैं तो बस इतना ही लिखूंगी, कहूंगी, पुकारूंगी . . .

- हां, तुम कहां गए . . .

to be continued . . .

Shailendra S.


Sunday, June 13, 2021

तुम कहां गए - 11

  तो फिर आज क्यों उद्गम और उच्चश्रंखल आकांक्षाओं के दीप मेरे अंतर्मन में तुम्हारे लिए प्रज्वलित हो रहे हैं ? यदि तुम्हारा मिलन और फिर तुम्हारा बिछड़ना नियति थी, महज एक संयोग था तो फिर आज क्यों मेरा मन उन्हीं पलों को जी लेना चाहता है ?

 मुझे ऐसा क्यों महसूस होता है कि मेरे जीवन की वह अदम्य प्यास तुम्हारी उसी मृगतृष्णा के आडंबर से ही बुझेगी ? कभी लगता था कि यदि पल भर के लिए मेरा मन विचलित हुआ तो संपूर्ण सृष्टि हिल जाएगी, ऐसा लगता था कि इस धरती में न जाने कितने भूकंप आ जाएंगे ? 

तो फिर आज क्यों जब मैं तुम्हें पुकारती हूं - हां तुम कहां गए ! तो यह संपूर्ण  सृष्टि उसी तरह शांत निर्विकार भाव से मुझे अपलक देख रही है, मेरे मन में उठे तूफान से कोई धरती क्यों नहीं हिलती ? क्यों सभी कुछ अपनी जगह पर स्थिर और शांत हैं ?

  मैं क्यों अपने उन्हीं तैतीस करोड़ देवी देवताओं के साथ रहते हुए भी खुद को अकेला पाती हूं ? मेरे मन में उठने वाली लहरें तुम तक क्यों नहीं पहुंच पाती ? 

क्यूं ? क्यूं ?? क्यूं ???

जिन्हें मैं कभी यथार्थ मानती थी तो फिर आज क्यों वे सभी अर्थात मुझे छदम प्रतीत होते हैं ? मेरे मन के सारे दर्शन, दुनिया की सारी फिलॉसफी, भावुकता बन मेरी आंखें भिगो जाती है ?

 यथार्थ की धरातल में मेरे जलते हुए पांव आज तुम्हारे ही साथ तुम्हारी उसी काल्पनिक दुनिया की छांव में, उसी की शीतलता में ही चलना चाहते हैं ? 

आज मैं अपनी इस लेखनी से अपने जीवन की सर्वोत्तम कृति को तुम्हारी ही यादों में, तुम्हारे मन की सारी कल्पनाओं की स्याही में डुबो कर लिखना चाहती हूं ? तुम्हारे मन की सारी संवेदनाओं को अपनी विरह वेदना में सजो कर उसे एक नाम देना चाहती हूं - 

हां तुम कहां गए ! 

मेरे अंतर्मन से उठी यह आवाज तुम तक जरूर पहुंचेगी और जिस दिन वास्तव ने तुम तक पहुंची, सच मानो उस दिन सारे बंधन तोड़, तुम मेरे पास ही चले आओगे ! 

यदि संबंधों की प्रगाढ़ता दूरियां लाती हैं, तो जाओ मैं तुम से कोई संबंध नहीं रखती। 

यदि  प्रत्येक संभावना अनंत संभावनाओं को जन्म देती हैं, तो जाओ मैं तुम में किसी भी संभावना की तलाश नहीं करती। 

 यदि मेरा यह नश्वर शरीर तुम्हें पा लेने की राह में बाधा है, तो सच मानो मेरे अंतर्मन की आत्मा ! तुम एक बार मुझे भरोसा तो दिलाओ कि उसके बाद तुम मिल ही जाओगे तो मै इसका भी परित्याग करने के लिए तैयार बैठी हूं।

अब इससे अधिक क्या लिखूं और तुमसे क्या कहूं ? 

मैं तुम्हें अपने अंतर्मन, अपनी यादों से निष्कासित नहीं कर  सकती, तो तुम्हे अपनी जीवनशैली से निष्कासित कर देने भर से क्या होगा ? 

यदि तुम मेरी आंखों में अक्षय ऊर्जा की भांति आ बसे, तब तुम्हें यूं बूंद - बूंद करके बहा देने मात्र से भी क्या होगा ? 

सागर की गहराई में उतर भी जाऊं और तुम जैसा मोती हाथ न लगे तो सागर में गोते लगाने से फायदा क्या ?

इसीलिए अब मैं किसी विरह वेदना के सागर में खुद को नहीं डुबोना चाहती । 

यदि किसी अध्यात्म दर्शन में भी सुख की अनुभूति न मिले तो ? तो फिर मेरा इस भौतिक धरातल पर ही, अपने सभी सुख - दुख की अनुभूति के साथ खड़े रहना ही क्या बुरा ? 

उस दिन तुमने मेरी तरफ अपने बढ़े हुए हाथ न रोक लिए होते, और मुझे छू ही लिया होता, तो शायद मेरे सम्मुख मेरे जीवन के सारे रहस्य खुल जाते ? नहीं जानती कि आज मुझे यह आभास क्यों हो रहा है कि मैं उसी दुनिया से थी जिस दुनिया से शायद तुम आए थे ?

 जब तुम्हारी दुनिया से अलग मेरी कोई दुनिया हो ही नहीं सकती तो फिर ? तुम मुझे वापस हमारी ही दुनिया में क्यों नहीं ले गए ? मुझे अकेला यू भटकने के लिए इसी दुनिया में क्यों छोड़ दिया ? 

 तुम से पूछने  के लिए बहुत कुछ है, तुमसे बहुत सारे प्रश्न करने है मुझे, जैसे कि कभी तुम किया करते थे। यदि मेरे प्रश्न ही तुम्हारे लिए आरोपपत्र हैं, तो फिर हैं । समझ लो कि फिर तुम्हें मेरे सभी आरोपों के जवाब देने हैं।

 सभी प्रश्नों को मैं वापस ले भी लूं तो एक प्रश्न मैं वापस नहीं ले पाऊंगी। उसे मैं कभी विड्रॉ नहीं करूंगी - हां बताओ, तुम कहां गए ?

to be continued . . .

उम्र के लिहाज से बड़ी, किंतु जिन्हें मैंने अपने मन से अपनी छोटी बहन ही माना है, उन्हें सादर समर्पित - 

शिवकुमारी सिंह चौहान ' बिन्दु',  M.A. ( Hindi Lit.) , हम सभी भाई बहनों में एक आप ही थी जिनका नाम पिताजी ने रखा ' बिन्दु ' , और हमारे पिताजी की ख्वाइश थी कि हम भाई बहनों में से कोई एक लिटरेचर पढ़ें खासकर हिंदी साहित्य से, उनका सपना आपने पूरा किया। मैं तो साइंस में ही उलझा रहा। मैंने आपसे कभी वादा किया था कि मैं अपने जीवन की सबसे अनुपम भेंट आपको ही दूंगा, आज मैं अपना वादा निभा रहा हूं, यह कहानी अभी पूरी नहीं हुई है, लेकिन मुझे विश्वास है कि एक दिन मैं इसे पूरी लिखूंगा। आज यह भले ही अधिक फेमस न हो किंतु एक दिन आएगा कि जब हम दोनों इस दुनिया में नहीं भी होंगे तब भी ये शब्द होंगे और तब भी ये पढ़े जाएंगे . . .

Shailendra S. 'Satna'




Friday, June 11, 2021

तुम कहां गए - 10

और जब मैं तुम्हारी हरकतों से, तुम्हारे प्रश्नों से परेशान हो गई और उस दिन जब तुम मेरे घर आए तो मैंने तुम्हें एकांत में पाकर मैंने तुमसे कहा था, कि मैं आपसे  आपसे कुछ कहना चाहती हूं।

 तब तुमने मुझसे कहा था, "हां तो कहो, मैं सुन रहा हूं" और मैंने तुमसे कहा था कि यहां नहीं अकेले में कहना चाहती हूं।

   और तुम ने मुस्कुराते हुए कहा था आंख बंद कर लो तो फिर हर जगह एकांत ही होता है !  बंद कर लो अपनी आंखों और कह दो मुझसे।

      तुम्हारी आंखों का सम्मोहन था या तुम्हारे व्यक्तित्व का या फिर तुम्हारी आवाज का एक पल को लगा कि तुम सच कहते हो और मैंने दिखावे के लिए ही सही तुम्हारे सामने आंखें बंद कर ली। 

अब तो आप भी नहीं दिखाई देते !

    जैसे ही मैंने आंखें खोली तो वहां की तस्वीर ही बदल चुकी थी वहां मेरा घर नहीं था। हमारे चारों तरफ मैदान, जलती हुई दुपहरी।

     तपते बेजान पत्थरों को अपनी संपूर्ण गर्मी देता हुआ सूरज, चारों तरफ उड़ती हुई धूल जैसा रेगिस्तान, दूर कहीं पर मृगतृष्णा का आभास कराता हुआ सरोवर, पूरी शिद्दत के साथ जलती हुई जमी। तुम से कुछ अधिक न कह पाने की मेरी विवशता, और तुम्हारा मुझसे बार-बार यह कहना - जी अब कहिए ? '

     तुम मेरे सामने खड़े थे। और मैं तुम से महज दो कदम की दूरी पर तुम्हारे पास ही खड़ी थी तुम धीरे से मुस्कुरा रहे थे जैसे आसमान से आया कोई फरिश्ता।

     तुम्हारा अनजानो की तरह पूछना मुझे नही अखरा था । लेकिन पूछते समय तुम्हारा यू धीरे से मुस्कुराना मेरे दिल में तीर की तरह चुभ रहा था। मेरी विवशता थी कि उस वक्त तुम्हें बेहद नाराजगी भरे अंदाज में नहीं माना करना था। कहते हैं शालीनता से और हंसकर मना करने वाले पर किसी भी प्रकार का दोष नहीं लगता। मुस्कुराकर हंसते हुए नकारात्मक तथ्यों को भी बेहद सकारात्मक ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है। मैं शालीन थी, सभ्य थी,  सुसंस्कृत परिवार से थी और इससे कहीं अधिक मैं तुम्हें ठेस नहीं पहुंचाना चाहती थी । 

     "देखिए मैं आपको या आपके मन को किसी भी प्रकार की ठेस नहीं पहुंचाना चाहती हूं। लेकिन आपको यह समझना चाहिए कि मैं क्या हूं और कौन हूं। मेरी एक अलग दुनिया है और उस दुनिया में आपको दखलअंदाजी करने का कोई हक नहीं। आप मेरी दुनिया का हिस्सा नहीं है। हां, मैं मानती हूं कि मैंने आपसे कुछ ऐसे पल साझा किए हैं जो मेरे अपने निजी थे तो इसका मतलब यह नहीं हो सकता कि मेरी आपसे कोई मित्रता या अंतरंगता है।

      आप किसी गलतफहमी में न रहे तो अच्छा ही है, और इस बात को अब समझ लीजिए कि आपकी जरा सी भूल मेरी जिंदगी तबाह कर सकती हैं। तो क्यों न हम किसी भी प्रकार से एक दूसरे के टच में न रहे । अब मैं आपके उन सवालों के जवाब नहीं दे सकती जो मेरे निजी जिंदगी से संबंधित हैं। हम दोनों की ही अलग दुनिया हैं, इसलिए हमारे बीच कोई राह नहीं, कोई सफर नहीं, कोई मंजिल नहीं। "

    मैंने किसी तरह साहस समेट कर तुमसे यह सब कह तो दिया लेकिन अगले ही पल मुझे महसूस हुआ कि मैंने तुम्हें कितनी बुरी तरह से बेइज्जत करके अपनी जिंदगी से निकाल फेंका ? तुमने तो मुझसे कभी कुछ मांगा ही नहीं तो फिर इनकार किस बात का ? जब तुम किसी स्वप्न में ही न थे तो तुम्हें झंगजोड कर जगाने का क्या औचित्य ? पैरों के नीचे जलती हुई जमी, सर पर अपनी पूरी गर्मी के साथ चमकता हुआ सूरज, उफ ! ये सब मैंने क्या कह दिया ? कौन सी आग जला दी तुम्हारे सीने में ? जिसकी तपिश शायद तुम आज भी महसूस करते होगे ? 

    हृदय वीणा के तार अपने पूरे वेग से झंकृत भी हुए और अगले पल टूट भी गए, और उनके टूटने का दर्द मैंने तुम्हारी आंखों में ही नहीं तुम्हारे पूरे वजूद में देखा था। पल भर के लिए ही सही तुम काप गए, सहसा तुम्हे विश्वास ही न ही रहा था। 

     तुम अपलक एकटक मुझे देखे जा रहे थे जैसे सदियों से देखा गया कोई स्वप्न, अपने पूरे होने की प्रत्येक संभावना के साथ पूरी तरह से टूट गया हो। तुम्हें अपनी तरफ यूं देखता देख मैंने अपना सर दूसरी तरफ घुमा लिया। कुछ क्षणों बाद जब मैंने फिर से तुम्हारी तरफ देखा तो तुम्हारी आंखें बंद थी और तुम्हारे हाथ मेरी तरफ ऐसे बड़े जैसे कि तुम मुझे छू लेना चाहते हो। मैं घबरा कर एक कदम पीछे हट गई। मेरे पीछे हटते ही तुमने आंखें खोल दी और फिर मैंने देखा कि उन आंखों में अब गहरी शांति है जैसे किसी बात का तुम्हें पूर्णतः विश्वास हो चला है । शायद इस बात का कि तुम हमारी नियत नहीं बदल सकते, तुम्हारा मेरे सामने यू खड़े रहना, अब मुझे महसूस हो रहा था कि मुझसे अधिक तो तुम विवश हो, कुछ न कहे पाने के लिए। 

   आज कई बार सोचती हूं कि उस वक्त तुम मुझसे क्या कहना चाहते थे जो कह ना पाए ? तुम्हारी ऐसी कौन सी विवशता थी जिसने मुझे छू लेने के लिए तुम्हारे बढ़े हुए हाथों को भी रोक लिया था । मुझसे अधिक तो तुम मजबूर दिखाई दे रहे थे। तुमने बस इतना ही कहा था - ' शायद अब हमें चलना चाहिए ' !

- " जी " यही तो एक शब्द है जो मैं अक्सर तुमसे कहती आई थी। 

    काश ! उस दिन तुमने मुझसे वह न कहा होता, बल्कि मेरे सारे आरोपों के प्रत्युत्तर में मुझे ही कटघरे में खड़ा किया होता। तुम्हें कुछ भी पूछ लेने का हक दिया था मैंने। काश ! तुमने अपने उस हक का उपयोग किया होता ! हमेशा की तरह उस दिन भी मुझ से उलझ गए होते पूछा होता  कि तुमने ऐसा क्या कह दिया या कर दिया कि मुझे तुमसे यह सब कहना पड़ रहा है ? 

     तुम्हारा कुछ न कहना, कोई स्पष्टीकरण न देना उस वक्त न सही लेकिन आज अखरता है। बार-बार सोचती हूं कि तुम उस वक्त मुझसे क्या कहना चाहते थे और फिर कहा क्यों नहीं ? कोई कैसे इतनी शालीनता से, इतनी सद्भावना से अपना तिरस्कार, अपनी उपेक्षा, अपनी बेइज्जती सहन कर सकता है ? क्या सचमुच, मुझसे बात-बात पर, मेरी छोटी-छोटी सी हरकत पर, मुझसे ही कई तरह के सवाल करने वाले, तुम अचानक ही देवता बन गए थे ? शायद हां, वरना किसी साधारण या आसाधारण मनुष्य में इतनी सहनशक्ति कैसे हो सकती है भला?

तो फिर आज कैसे कोई इल्जाम लगा दूं तुम पर, जबकि उस समय मेरे सारे इल्जाम के जवाब अनुत्तरित ही रह गए ? हां चुपचाप सहन कर, मुझसे दूर भागने का इल्जाम तो तुम्हें स्वीकार करना ही पड़ेगा !

मेरे सभी आरोपों को चुपचाप स्वीकार कर सर झुकाए, हां बताओ - तुम कहां गए . . . ?

to be continued .  . .

Shailendra S. 


Thursday, June 10, 2021

तुम कहां गए - 9

 जिंदगी जी लेने की चाहत किसे नहीं होती मेरे दोस्त ?

      यह बात कुछ और है कि मैंने पूरी तरह इसे अपने अंदाज से जीने की कोशिश की । किसी की दखलअंदाजी मुझे पसंद नहीं थी, शायद तुम्हारी भी नहीं। 

       मैंने कभी नहीं चाहा कि कोई मुझे समझाएं की जिंदगी में क्या अच्छा है, क्या बुरा है। यदि जिंदगी को अपने ढंग से जी लेने की चाहत से मैं बेखबर होती, तो शायद मैं यह बर्दाश्त कर भी सकती थी।


          जिंदगी जीने की यदि कला है, तो वह तजुर्बा मैं खुद हासिल करना चाहती थी। यह मेरी जिंदगी थी, और किसी से उधार ली भी नहीं, तो किसी को उसे लौटाने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था। और ना ही अब उठता है। तो फिर कैसे मैं इस बात पर यकीन कर लेती कि जो मेरा अपना है, जिसे मैं अपने ढंग से जी सकती हूं, और जिसे मैं जब चाहूं महसूस कर सकती हूं, हां वही जिंदगी अब तुम्हारी है ?


        मैं तुम पर इल्जाम नहीं लगा रही हूं कि तुम मुझे बदल देना चाहते थे या मेरी जिंदगी को अपने तरीके से मुझे जीने के लिए मजबूर करना चाहते थे।  लेकिन हां, जब कभी भी तुम मुझे अपनी नजरों से देखते और मुझे ठीक वैसा न पाते, जैसा कि तुम देखना चाहते थे, तब तुम्हारी नजरें मुझसे शिकायत करती हुई नजर आती।


       यह मुझे बदलने की तुम्हारे मन में लालसा ही तो थी। तुम्हारी इच्छाएं, तुम्हारी लालसा के वस्त्र भला मैं क्यों ओढ़ लेती ? मैं जैसी थी, वैसी ही रहना चाहती थी। कभी तुम मुझे अपने नजरिए से देखते और मैं उस तरह न दिखती, तब तुम्हारे मन में  क्षोभ पैदा होता, तुम दुखी होते, और कई बार तुम मुझसे रूठ भी जाया करते थे। 


       तब क्या मैं तुम्हें किसी न किसी बहाने मनाया नहीं करती थी, बोलो ? 


      मैं जानती हूं कि तुम जब भी मुझसे रूठे तो उस लिमिट के पार कर कभी नहीं गए, जहां से मैं तुम्हें मना फिर वापस न सकू। तो क्या आज तुम उस लिमिट को पार कर गए ? क्या तुम्हारे जवाब की प्रतीक्षा मुझे ताउम्र करनी पड़ेगी ? चलो यह भी सही, मेरे दोस्त। 


      अब सोचती हूं कि शायद मैं उस बंधन में बंध गई होती जिसमें कि तुम मुझे बांधना चाहते थे, तो हो सकता है इस जीवन में कोई नायाब, बेशकीमती चीज ही मिल जाती ? या फिर सर्वस गवा देती, सब कुछ लुटा ही देती ? 


     कौन जाने क्या होता ? पर कुछ तो होता। भरी महफिल, अपनों के बीच, क्या मैं इस तरह तन्हा होती ? कुछ तो होता मेरे साथ, जो मेरा अपना होता। 


      अपने प्रश्नों के ठीक ठीक जवाब ना पाकर तुम अक्सर मुझ पर इल्जाम लगाते थे कि मैं तुम्हें गोल - गोल घुमाती हूं। और मैं अक्सर लिखती  - " नहीं घूमा रही गोल - गोल। "

      कहते हैं समय के साथ साथ स्मृतियां विस्मृत होने लगती हैं । एक उम्र के बाद या उम्र के किसी पड़ाव में आकर यादें धुंधली हो जाती है ! तब शायद कभी मैं भी तुम्हें भुला पाऊं ! 

      लेकिन तुम ? तुम कैसे भुला पाओगे मुझे ?

        क्योंकि, तुम मुझसे अक्सर ही कहा करते थे, कि तुम्हारी दुनिया में समय नाम की कोई चीज नहीं होती। तब भला मैं कैसे मान लूं की समय गुजरने के बाद भी तुम मुझे भुला पाओगे ? 


      कहानियां बनती हैं, चलती हैं, ठहरती हैं, उलझती हैं, और एक स्थान पर पुहुच कर रुक सी जाती हैं, कुछ बिगड़ भी जाती हैं। लेकिन यह वह कहानी है जो ना तो कभी रुकेगी न कभी कहीं ठहरेगी, न किसी से उलझेगी, और न ही कभी बिगड़ेगी। 

       शायद इसलिए कि तुम्हारी जिंदगी में मैं, किसी कहानी की तरह या किसी कहानी का कोई पात्र नहीं हूं। काश कि तुम समय को मानते। तब शायद मैं तुम्हें कभी समझा पाती कि ठहरे हुए लम्हों में जिंदगी नहीं जी जा सकती, मेरे दोस्त। 

      उसे तो गुजरते जाना है मेरी तरह, समय के साथ-साथ। शायद तुम कहीं किसी एक जगह जा ठहर गए हो, मेरे इंतजार में। 


      अब शायद तुम्हें मेरे ठहरने का इंतजार होगा। प्रतीक्षा होगी उन पलों की, जब मैं ठहर जाऊं, रुक जाऊं। 

      शायद उसी मोड़ पर मैं फिर तुम्हें दोबारा मिल पाऊं। यानी कि हम दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं। एक दूसरे के इंतजार में, फर्क सिर्फ इतना है कि तुम, मेरे ठहर जाने का इंतजार कर रहे हो और मैं तुम्हारे लौट आने का। इंतजार तो दोनों को ही है न ?

        मैं तुम्हें चलते हुए फिर से पाना चाहती हूं, यूं ही पहली मुलाकात की तरह और तुम एक जगह ठहर कर मेरे इंतजार में . . .


      जानते हो, कुछ कांसेप्ट को मैं भी नहीं मानती क्योंकि मेरी समझ समझ में ऐसे कांसेप्ट होते ही नहीं या नहीं होने चाहिए। 

        जैसे कि किस्मत, यानी कि मुकद्दर। अब यह कहूं कि एक पल में लिए गए हमारे फैसले, हमारी किस्मत बन जाते है, तो क्या गलत होगा ? 


     यदि दीपक ने स्वयं जलकर रोशनी करने का फैसला न लिया होता तो शायद उसकी किस्मत में ठीक उसके नीचे अंधेरा ना होता। अपनों की जिंदगी को वजह देने के लिए, मैंने फैसला न लिया होता तो मेरी खुद की जिंदगी बेवजह ना होती, मेरे दोस्त। 


     यदि तुम मुझसे रूठे हो तो रूठे रहो, मेरी बला से। मैंने तुमसे ऐसा क्या पा लिया कि उसे संजो कर रखू ? और मैंने तुम्हें ऐसा क्या दे दिया कि तुम उसे भुला ना पाओगे ?


      दुनिया का ऐसा कौन सा दर्शनशास्त्र है, जो जिंदगी को जीने की कला सिखला दे ?  और ऐसी कौन सी जिंदगी है जो, खुद अपने आप में एक दर्शनशास्त्र न हो ? बताओ क्या है कोई ? 


        दुनिया की ऐसी कौन सी घटना है जिसका न होना, या कि उसका होना, बेवजह हो ? तो फिर मेरी जिंदगी में आने की तुम्हारी वजह क्या थी ? क्यों आए  तुम मेरी जिंदगी में ? मैंने स्वयं तो तुम्हें नहीं बुलाया था, तो फिर क्यों चले आए ? क्या इसलिए, एक दिन जब मन पड़ेगा, अचानक ही मुझे यूं ही छोड़कर चले जाओगे ?

सदियों से तेरा यूं ही भटकते रहना,

यदि बेवजह न था ?

तो यूं मुझे अकेला छोड़ कर,

तेरा यूं चले जाना, 

फिर लौट कर न आना,

तो अब तुम ही बताओ,

इसकी वजह क्या है।

हां, तुम कहा गए . . . !

to be contacted . . . 

Shailendra S. 


Tuesday, June 8, 2021

तुम कहां गए -8

     पर कभी सोचती इससे क्या होगा ? क्या हो जाएगा यदि मैं तुम्हें दोषी मान लू और तुम्हें हर दोषों से मुक्त भी कर दू ? तब भी क्या कुछ बदल जाएगा ? तुम्हें तो मैं सजा दे ही चुकी हूँ। अपने साथ सहभागी कैद की सजा ! और इससे अधिक कौन सी सजा दे सकूंगी  ?


    क्या अपने आत्मिक सुख के लिए या दिल की तसल्ली के लिए या फिर जमाने के सामने यह सिद्ध करने के लिए कि हाँ, तुम दोषी हो, मेरे गुनहगार हो, यह मानकर, मैं तुम पर आरोप लगाऊं  ? और यदि तुम सारे आरोपों से बरी हो गए तो ? तब क्या ? मैं खुद अपराधबोध से ग्रस्त न हो जाउंगी ?


    मैं अच्छी तरह से जानती हूं कि मुझे यूं छोड़ कर तुम्हारा यूं चले जाना, तुम्हें भी तो अखरा होगा मेरे दोस्त। तुम्हें भी तो कुछ छोड़ना पड़ा होगा। चाहे वह तुम्हारे कदमों के निशान ही कियूं न रहे हो, तुम्हारी यादें ही कियूं न रही हो, या फिर वे पल, वे लम्हे जब तुम मेरे साथ थे।  


      उन्हें तो तुम कहीं नहीं ले गए ? काश उन्हें भी ले जाते, तब मैं तुम्हें दोषी मान लेती। और शायद तब मैं तुम पर बहुत सारे आरोप भी लगाती। हाँ, पर तुम भी गए तो यूं ही खाली हाथ। और क्या पता, मेरी यादों को भी ले गए या नहीं ? कौन जाने तुमने सब कुछ यहीं छोड़ दिया हो , सब कुछ, सब कुछ मेरे लिए।


    क्या ले जाने का दोष लगाऊं मैं तुम्हें ? मेरी रातें, मेरी नींद या फिर मुझे मेरे मन के अंदर ही कैद कर देने की ? 

    हां, कैद हो जाने की तुम्हारी यादों के साथ।  तुम वहां पूरे वजूद के साथ होते हो।  पर मैंने तो ऐसा कभी नहीं चाहा था।  न मैंने कभी नहीं चाहा कि तुम मेरी यादों के साथ कैद होकर रह जाओ।  तुम तो आजाद पंछी थे न ? खुले आसमान में उड़ना चाहते थे। और क्या पता शायद तुम मेरा हाथ थाम मुझे भी इन फिजाओं में इन खुले आसमान में, बादलों के बीच ले जाना चाहते थे, जहां सितारों की दुनिया है।

    कभी-कभी मुझे यह भी लगता है कि तुम कहीं नहीं गए, पर ऐसा नहीं है। तुम तो गए न ? अब तुम्हें पुकारने से क्या होगा ? क्या लौट आओगे ? यदि यह लिख दूँ कि जाने-अनजाने यदि कोई दुख पहुंचाया हो, तुम्हें कोई तकलीफ दी हो, तुम्हारे मन या आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाई हो तो मुझे माफ कर दो।  तो क्या तुम खुश हो जाओगे ?  तुम्हें अच्छा लगेगा?

    तुम अक्सर कहा करते थे कि इस दुनिया में समय नाम की कोई चीज नहीं होती। आज सोचती हो तुम ठीक ही कहा करते थे। हम दोनों के दरमियां कोई समय तो था ही नहीं। थे तो समय के छोटे-छोटे टुकड़े, पल, टाइम स्लाइस। 


        वह गुजरते गए, हम जीते गए। और वे पल, वे  लम्हे पता नहीं कब कहां और कैसे हाथों से फिसलते गए।  सुना है बंद मुट्ठी से रेत भी फिसल जाती है।  लेकिन उन पलों, उन लम्हों उन क्षणों के साथ जिंदगी भी फिसल गई, मेरे दोस्त ! और हम कुछ भी न कर पाए। 


    मैं जानती हूं कि अब तुम मुझसे मिलने की कोशिश नहीं करोगे, जैसा कि पहले तुम किया करते थे।  यदि कभी पहली मुलाकात की तरह ही पूर्व निर्धारित न हुआ, और राह चलते यदि मिल भी जाओ और अपरचित से मुस्कुरा भी दिए तो कोई ताज्जुब नहीं होगा।  


       क्योंकि मैं जानती हूं कि तुम वह नहीं होगे। बस यही टीस उठती है कि अब तुम दोबारा उस तरह से नहीं मिलोगे जैसा कि मैंने चाहा था कि तुम मिलो।


    जिंदगी कोई पजल होती या बहुत बड़ा कोई कठिन सवाल होती, तो निश्चित ही मैं उसे सुलझाने की कोशिश करती।  लेकिन यहां तो जिंदगी आसान थी।  तुम्हारे साथ जीना आसान था, तुमसे बातें करना आसान था, तुमसे मिलना आसान था, तो फिर ? 

       मैं ऐसा कुछ भी नहीं कर पाई। क्योंकि शायद मैंने यह सब करना उचित नहीं समझा या यूं कह लो कि मैं तुम्हें कोई अहमियत ही नहीं देना चाहती थी। 


      हां सच ! यही सच है। तुम मेरे लिए उस वक्त कुछ भी नहीं थे और शायद आज भी नहीं हो।  नहीं तो क्या ऐसा नहीं हो सकता था कि मैं तुम्हें खोजती हुई तुम तक ही पहुंच जाऊं ? किसी भी बहाने से?


    आरोपों के जिस कटघरे में मैं तुम्हें खड़ा करना चाहती हूं, उस कटघरे के ऑपोजिट में मैं भी तो खड़ी हूं, तुम पर आरोप लगाते हुए? मान लिया कि मैं मजबूर थी। यह भी मान लिया कि मुझे तुमसे कोई प्यार नहीं था। कोई चाहत नहीं थी। उस वक्त तुम मेरे लिए कुछ भी नहीं थे। क्या तब भी तुम्हें यूं नजरअंदाज करना चाहिए था ? तुम ही बताओ ?


    तुम्हारे मजाक को मैं सीरियस ले लिया करती थी, और जहां तुम सीरियस होते थे, तो उसे मजाक में। जिस दिन तुम्हारे प्रति मेरी संवेदनाएं निष्ठुर हो गई, शायद उसी दिन मैंने तुम्हें मार दिया।  तुम्हारा कत्ल कर दिया। उस वक्त तुम्हें नजरअंदाज करना तुम्हें मिटा देने के बराबर ही तो था, मेरे दोस्त।

       तुम मुझ में जिंदगी तलाश करते रहे और मैं तुम्हें नजरअंदाज करती रही। तुम मुझे में जीना चाहते थे, और मैं तुम्हें हर पल मारती रही।  हर पल तुम्हें विश्वास दिलाती गई कि तुम मेरे लिए कुछ भी नहीं हो। तुम्हें यूं हर लम्हें मार कर आज फिर क्यों पुकारती हूँ -  आह ! तुम कहां गए ?


    कल को कोई और दुनिया होगी, कोई और लोग होंगे, जो शायद मेरी इस कहानी को पढ़ेंगे और हमें जानेगे। और तब शायद वही लोग तय कर पाए कि मैं कितनी निर्दोष हूं, और तुम कितने दोषी?


     तुम्हारे यूं चले जाने का मैंने मातम नहीं मनाया। गहरे शोक सागर में नहीं डूबी। सब कुछ उसी तरह रखने का प्रयास किया।  खुद को भी नहीं बदलना चाहा।  मैं उसी तरह बनी रहना चाहती थी।  क्योंकि मैं जानती हूं कि जब कभी तुम सामने आओगे, मुझे बदला हुआ देख शायद तुम्हें ही कोई खुशी न हो।  


      लेकिन अब ऐसा नहीं रहा ? बदलने या ना बदलने की चाहत के बीच मैं ऐसी उलझी की अब मैं क्या हूं ? मैं खुद ही नहीं समझ पा रही हूं ! मुझे खुद आश्चर्य होता है कि जब मैं तुम्हें भीत हृदय से पुकारती हूं, आह ! तुम कहां गए ?

कभी यूं ही अचानक तुम मिल गए,

हो सकता है अब,  

जब कभी तुम मिलो मुझसे,

मैं वह न रही हूँ ,

जिससे तुम अक्सर मिला करते थे।

शायद मेरे पास वह कुछ भी न हो,

तुम्हें देने के लिए,

जिसकी चाहत तुम अक्सर, 

किया करते थे ।

हां इसलिए कहती हूं अब तुमसे,

उसी तरह लौट कर न आ जाना,

तुम फिर से।

जिस तरह अक्सर तुम, 

लौट आया करते थे।

अब चाहे जितना पुकारू - 

हां, तुम कहां गए ! , , , ,

to be continued . . . 

Shailendra S. 'Satna'



Monday, June 7, 2021

तुम कहां गए - 7

     कोई आरोप पत्र जारी हो उससे पहले मैं कुछ देर के लिए ही सही इस कहानी की डोर अपने हाथ में लेता हूं।  हैलो ! पहले अपने बारे में बता दूँ  - मैं इस कहानी का तीसरा और अहम किरदार हूँ, इतना अहम कि मेरे बगैर यह कहानी पूरी या अपने मुकम्मल अंजाम तक पहुंच ही नहीं सकती । तो मैं कौन हूं ? 

मैं वो हूँ जो इस कहानी के दोनों प्रमुख पात्रों की स्मृतियों को सजोयें निर्विकार भाव से कहानी को अपनी स्मृति में लिख रहा हूं। दोनों की स्मृतियां बना रहा हूं। सुन रहा हूं। 


     पहले किरदार ने अपनी या अपने बारे में लिख दी, और आगे भी लिखेगी। वह आरोप - पत्र भी तैयार कर दूसरे किरदार पर आरोपित भी करेगी। लेकिन उसके किसी भी आरोप का खंडन या जवाब देने के लिए वह हैं कहा ! वह तो जहा से आया था वही वापस लौट चुका है। लेकिन हाँ , उस पर लगाए जाने वाले सभी आरोपों के जवाब मेरी स्मृतियों में कैद हैं।  जब वह वापस लौट रहा था तो मैंने उससे पूछा था कि जब वह जनता हैं कि उसपर आरोप लगेंगे तो वह खुद अपने ऊपर लगने वाले सभी आरोपों के जवाब भी खुद ही देता जाये ? 

" नहीं , यदि मैं ऐसा करता हूँ तो मुझे पहले उसे बताना होगा कि मैं वास्तव में कौन हूँ ? कहा से आया हूँ ? और यदि मैं ऐसा करता हूँ, तो मैं उसे हमेशा के लिए खो दूंगा। वह यही की हो कर रह जाएगी और मैं फिर उससे कभी न मिल पाऊंगा  "

उसने बस इतना ही कहा था।

 फिर से मिल पाने की प्रत्येक संभावना को अपने साथ साथ ले  वह चुपचाप चला गया।  

जब तक आरोप तय नहीं किये जाते तब तक मैं अपनी स्मृतियों के उस भाग तक नहीं पहुंच पाऊंगा जहा उसके जवाब सुरक्षित हैं । इसलिए जरूरी हैं पहले आरोप-पत्र जारी हो  . . . 

कहानी की डोर मैं पुनः पहले किरदार को सौपता हूँ   . . . 

to be continued . . .

Shailendra S. 'Satna'


Saturday, June 5, 2021

तुम कहां गए - 6

     कभी सोचती हूं उन दिनों में तुम क्या थे, और मैं क्या थी ? यह प्रश्न तुमसे नहीं खुद अपने आप से पूछती हूँ आज । 


    आज क्यों तुम्हें याद करके बरबस ही मेरी आंखें भर आती है। सच लिखा था, तुमने मुझे रोने भी न दिया।  यदि आज कोई हिचकी भी आती है, तो यही सोचती हूं कि हो सकता है तुमने मुझे याद किया  हो। 


       क्यों मैं अक्सर अपने घर की उन जगहों  को देखती रहती हूं, जहां पर तुम आ कर बैठा करते थे। उन सभी चीजों को छू कर देखती हूँ। जिन्हें तुम कभी छुआ करते थे, और तुम्हें महसूस किया करती हूं। बस एक तुम ही तो थे, जिसे मैं कभी छू भी न पाई। अपने अंतर्मन से भले ही तुम्हें छुआ हो, लेकिन उसी छुअन को मैं अपने शरीर पर भी महसूस करना चाहती थी।


      सोचती थी, कि कभी तुम मेरे सपनों में आओ और मेरे पास बैठो, और मैं तुम्हें गले से लगा लूं।  तुम से लिपट कर अपने मन की सारी बात कह दूं। पर ऐसा कभी नहीं हुआ। तुम मेरे सपने में भी कभी नहीं आए। 


     अवचेतन मस्तिष्क में कैद घटनाएं और यादें, स्वप्नदर्शी होती हैं । 

        शायद तुम मेरे इतने करीब होते हुए भी मेरे अवचेतन मस्तिष्क की किसी भी याद में सम्मिलित नहीं हो पाए। तभी तो मैं तुम्हारा कोई स्वप्न भी न देख पाई। 


       यदि यह जीवन कोई रहस्य है, तो शायद यह रहस्य इतने गूढ़ और उलझे हुए हैं की तुम्हारा अस्तित्व मेरे जीवन में किसी रहस्य से कम नहीं था। सदैव मैं तुम्हारे होने, या ना होने के बीच की लहरों में तैरती रही, उन्हीं से उलझती रही, और किनारे पर खड़े होकर तमाशा तुम देख रहे थे।  और इल्जाम मुझ पर लगाया !! -

साहिल पर खड़ी तू बेखबर,

लहरों से जूझता मेरा मुकद्दर,

क्या जरूरी था ?

    मेरे अपने ही होने की पहचान थे तुम। कभी तुमने मेरे लिए कहा था कि मैं जैसी दिखती हूं, वैसी नहीं हूं। पत्थर सी कठोरता का आवरण पहना भी तो शायद यही सोच कर कि कहीं कोई मेरे अंतर्मन के भेद न जान ले । कोई यह न जान सके कि मैं तब भ कितनी भावुक और संवेदनशील थी।


     मेरे मन में भी छोटी-छोटी चाहतें जन्म लेती थी। अप्रत्याशित बातें और घटनाएं प्रभावित करती। मेरा भी मन तुम्हारे जैसे ही कभी-कभी छोटी सी बात पर उल्लसित होता। और कभी छोटी से छोटी बात भी दिल को आ-सीधे लगती थी ।


     लेकिन मैं ? अपने सभी दर्द छुपा लेती। कभी किसी के सामने अपनी इन भावनाओं का प्रदर्शन नहीं किया। या फिर यूं कह लो, मैं तुम्हारी उपेक्षा इसीलिए करती रही कि मैंने खुद को भी अपने आपसे उपेक्षित ही रखा।


     मैं जानती हूं कि मेरी उपेक्षाओं से तुम आहत हुए , और एक दिन मुझसे रूठ, . .  चले भी गए।  तुमने जो सहा, उसे आंखों से निकाल दिया। वह तुम्हारी आंखों से आंसू बनकर बह निकले। लेकिन मेरा क्या ? मैं तो रो भी न पाई ! 


    आज मैं खुद को ही उपेक्षित करती हूं, यही सोच के कि शायद तुम्हारे उस दर्द को समझ सकूं। तुम्हें उपेक्षित रखा, तुम्हें खुद से दूर रखा, आज उसका दर्द उसकी चुभन मैं अपने अंतर्मन में महसूस करती हूँ । मेरी उपेक्षाओं के तीर आज मेरे हृदय में किसी काटें की भाति चुभते हैं।उसे लहूलुहान करते हैं। आज मैं समझ सकती हूं कि तुमने क्या कुछ नहीं सहा होगा ! तो क्या ? मैं तुम्हारी दोषी बन गई? जिसकी इतनी बड़ी सजा दी तुमने ! 


    यदि मेरे आस-पास होने का आभास दिलाते हुए मुझे उपेक्षित करते तो तुम्हारे दिल को भी ठंडक मिलती शायद ? लेकिन अपनी अंतरात्मा से निष्कासित कर, मुझसे यूं दूर चले जाने पर तुम्हें भी क्या मिला होगा मेरे दोस्त ? कौन सी सुखद अनुभूति पा ली होगी तुमने ? मैं नहीं जानती कि तुम, अब आज इस दुनिया में हो भी या नहीं ? कौन जाने, गुजर गए हो, और मैं यहां बेखबर तुम्हारा इंतजार कर रही हूं !!


    मैं यह भी जानती हूँ कि मेरे प्रति तुम्हारी चाहत, अब जिसे शायद मैं प्रेम या उससे अधिक कह सकती हूँ , तुम्हारी किसी भी भौतिक चाहत से परे थी। लेकिन तुमने जब भी तारीफ कि तो मेरे इसी शरीर की , मेरे रंग - रूप की। तुम्हारी प्रत्येक तारीफ मेरे आईज , नोज़ , लिब्स , चीक के इर्द - गिर्द ही रही। यहाँ तक कि मेरे कान की छोटी - छोटी बालिया , मेरे पैंरो की पायल जैसी बेजान वस्तुए भी रही। कभी तुमने मेरे मन की तारीफ नहीं की , मुझे तो याद नहीं , शायद कभी की भी हो ? 


    अब तुम ही बताओ जब स्वयं तुम भी मेरे मन को मेरे शरीर से पृथक न देख पाए तो फिर जिस लौकिक संसार में हम हैं, तब और कौन देख पता ?


       तुम्हारे छू लेने मात्र से मैं अपवित्र न हो जाती , बावजूद इसके कि मैं अक्सर सोचा करती थी कि तुम मेरे सपनों में आओ, मैं तुम्हे गले लगा तुमसे लिपट जाऊं, और तुम्हे जी भरकर प्यार करलूं ।तुम्हें चूँम लू ।


       कैसी अजीब दुनिया है ये ? कोई शरीर छू ले तो तुम दूषित-कलंकित , और यदि कोई अंतर्मन को ही छू ले तो . . ?


       मैं आज भी उसी एक कैद में हूं, हां कैद ! और यह कैद मैंने स्वयं स्वीकार की और अपने लिए बनाई भी। यदि मैं उस कैद से,  जब तुम मिले, उस वक्त खुद को आजाद करने की कोशिश भी करती, तो जानते हो क्या होता ? 


      मैं तुम्हें भी खो देती, आसमान जमीन पर गिर पड़ता। दुनिया तहस-नहस हो जाती। समाज के बनाए सभी नियम, कानून-कायदे और मर्यादा टूटती। आसान शब्दों में कह लो बवंडर मच जाता।


      यदि तुम मेरे लिखे को कभी कहीं पढ़ो तो तुम जरूर हंस पढ़ोगे। मैं भी हंस लेती हूं - वाह रे दुनिया ! और उसके बनाए नियम कानून कायदे ? लेकिन छोड़ो इन सब को जाने दो, हमें क्या करना . क्या लेना, क्या देना इनसे। मैं तो बात कर रही थी कैद की।


    कैद !! जिसे बनाया भी मैंने, और जिसे स्वीकार भी मैंने ही किया। मैं आज भी उसी कैद में हूं। लेकिन एक फर्क है, उस कैद में तुम मेरे सहभागी हो। 

      अपने तसव्वुर में तुम्हारी वही सूरत  जो कि कभी मैंने अंतर्मन में बैठा ली थी, उसे लेकर चुपचाप उसी कैद में चली गई।  वह कैद अब जिसमें तुम भी मेरे सहभागी हो, वहां न तो किसी समाज के कानून के टूटने का डर है और ना ही किसी मर्यादा के भंग होने का प्रश्न। 


       और अब तुम ही बताओ कि यह कैद, यदि मेरे लिए इस जन्म की ना होकर जन्म जन्मांतर के लिए हो और तुम मेरे सहभागीदार रहे तो ? तो क्या होगा ? 

    कभी-कभी इंसान अपने कमजोर पक्ष को सबल पक्ष में परिवर्तित कर जीने के प्रति अपने दृष्टिकोण बदल देता है। मैंने भी वही किया। अपने अंतर्मन में तुम्हें साथ लेकर मैं उसी कैद में चुपचाप चली गई।


        कहते हैं अगर कोई ख्वाहिश इस जन्म में पूरी नहीं होती, तो इंसान उसके लिए दूसरा जन्म लेता है, उसे पूरी करने का प्रयास जरूर करता है । लेकिन मैंने तो अपने इसी एक जन्म में अपनी सारी ख्वाहिशें पूरी कर ली, तो अब पुनर्जन्म की आवश्यकता ही क्या ? इसलिए अब तुमसे यह भी नहीं कह सकती कि तुम मुझे दूसरे जन्म में मिलो। 

यही सजा मुकर्रर की है अपने आप की।

और तुम्हारी ? कैसे लिख दू अभी ! 

अभी तो तुम मेरे गुनहगार हो. तुम्हारा मुकदमा पूरा कहां हुआ है ! वह तो अभी जारी है  . . . 

,......... To be continued

Shailendra S. 'Satna'


Friday, June 4, 2021

तुम कहां गए - 5

  

      मैं जानती हूं की तुम्हारी कल्पनाओं की दुनिया में मैं अभी सजीव हूं। मुझे यकीन है कि तुम अभी तक मुझे भूले नहीं होगे। 


       इंसान इसी एक जिंदगी में कई जिंदगी जीता है। मैंने भी जिए हैं वे सारे पल, जो तुम्हारे साथ गुजरे थे, या तुम्हारे साथ होने का एहसास दिलाते थे।

    जानते हो, मेरे पास भी कुछ ऐसी बातें हैं जो शायद तुम नहीं जानते हो, या शायद फिर जानते ही होगे, अंतर्यामी जो ठहरे।


       यथार्थ के धरातल पर ही सही, मेरी भी कल्पनाओं की एक अलग दुनिया थी। जिसे मैं जीना चाहती थी। यह बात अलग है कि मेरी उस कल्पना की दुनिया में मेरे अपनों के साथ ही पूरा यह समाज था।


       उनके उत्कर्ष, उनके बेहतर ढंग की जीवन शैली के लिए उनके हक के लिए ही लड़ना मेरा मकसद था। मेरी कल्पना की दुनिया व्यक्तिपरक नहीं थी, जैसा कि तुम्हारी।

      यदि मान सको तो मान लो इल्जाम ही लगा रही हूँ, तुम्हारी दुनिया में, तुम्हारी कल्पना में, किसी एक व्यक्ति के लिए इतना महत्व तुम्हारे लिए ही घातक था। चाहे वे सभी कल्पनाएं मेरे लिए ही क्यों ना रही हों !


    मैं शायद कुछ अधिक ही प्रैक्टिकल हो रही हूं।  कहीं मन में यह डर तो नहीं की आज मेरे अंतर्मन में तुम्हारे लिए भावनाओं के जो तूफान उठ रहे हैं, उन्हें में अपने इस प्रैक्टिकल अंदाज से दबा लेना चाहती हूँ।


      मैं तो तुम्हें आज भी सोचना ही नहीं चाहती। पर क्या करुँ ?

    यदि मैं तुम्हें अपनी जिंदगी से, अपनी यादों से, अपनी सारी वफाओं से खारिज कर भी दूँ , तो इससे क्या होगा ? क्या मेरे खारिज करने मात्र से तुम, मुझसे विस्थापित हो जाओगे ?

       जबकि मानती हूं कि मैंने तुम्हें अपने मन में कभी स्थापित ही नहीं किया है। तो फिर यह डर कैसा ? 

        सच अब दर्पण के सामने खड़े होकर मैं यह बिल्कुल नहीं सोचना चाहती हूं कि हां मैं वैसे दिख रही हूं जैसा कि तुम मुझे देखना चाहते थे ?


     खुद से ही, हद से भी ज्यादा मोहब्बत करने वाली मै, अब कहीं अपने चेहरे में तुम्हारा ही अक्स तो नहीं देखना चाहती ?


        सोचा था उन दिनों कि तुम मेरी सारी उलझन सारी समस्याओं का समाधान होगे , लेकिन तुम ? तुम तो मेरी सबसे बड़ी उलझन बने, और चले भी गए। बताओ , तुम कहां गए ?

हां बताओ ! तुम कहां गए !!

मृगतृष्णा का आडंबर फैलाकर, उसमें मुझे भटकने के लिए तुम छोड़कर क्यों चले गए ? तुम्हारी कल्पनाओं को यथार्थ मानकर अब उसमें जीने की चाहत क्यों हो रही है ? 


        क्यों जी चाहता है कि तुम फिर आ जाओ, और मैं तुम्हें देख कर ही सही, जी भर कर रो लू, तुमसे छुप कर ही सही तुम्हें जी भर के फिर से देख तो लूं। 


      कभी-कभी मौन, अभिव्यक्ति का सबसे सुंदर माध्यम होता है। लेकिन तब, जब दोनों सामने हो, और उन में से कोई एक दूसरे को देख रहा हो, और दूसरा इस बात से बिलकुल बेखबर हो।

      उस समय देखने वाला अपने मन में जो मूर्ति स्थापित करता है, चिरकाल के लिए मन में बस जाती है । हां ऐसे ही, बस ऐसे ही, मैं तुम्हें एक बार फिर देखना चाहती हूं।


        पता नहीं तुम ने नोटिस किया हो या न किया हो ? पर मैं तुम्हें अक्सर ऐसे ही देखती थी । जब तुम कहीं और देख रहे होते थे। 

       सच में ! जी भर के देखना चाहती थी पर क्या करती, तुम अक्सर ही मुझे यूं देखते हुए देख ही लिया करते थे। तुम्हें यूं देखते हुए देख मैं फिर दूसरी तरफ देखने लगती थी। सच कहो ! क्या ऐसा नहीं होता था ?


       आज मैं, तुमसे वे सारे पल साझा करना चाहती हूं। जो शायद तुम्हें पता ही नहीं होंगे या तुमने ध्यान नहीं दिए होंगे ? यह उन्ही एक पलों में से एक था। जब मैं तुम्हे देख रही होती थी और तुम इस बात से बेखबर होते थे। 


जो की थी कभी मैने, बातें तेरी तस्वीर से,

वो बातें न कह पाया तुझसे कभी मेरे यार।

हो के जुदा अब ...… तुझसे  चले हम,

लेकर वही दिल में तस्वीर मेरे यार।

अब किससे कहेंगे ... कैसे कहेंगे,

वो सारी बाते.... वो सारी यादें

बस रहेंगी दिल में ही मेरे यार।

--------

     यही एक कविता थीं जो तुमने जाते समय लिखी रही होगी, शायद मेरे लिए !! खुद अपने लिए !!!

     

     बस उसी राह में ला छोड़ दिया है तुमने मुझे। तुम आहिस्ता-आहिस्ता मेरी जिंदगी से खुद को ख़ारिज करते जा रहे थे , और मैं नादाँ , समझ ही न पाई। तुम्हे कभी समझा न सकी कि तुम मेरे लिए क्या हो। क्या यह तुम्हे समझाना जरूरी था ?  तो फिर तुम कियूं न समझ पाए ? 


जब कभी तुम .... करोगी मुझे याद,

आऊंगा नजर मैं, यही कहीं आसपास।

फिर न जाने देना,  मुझे खुद से दूर।

इतने करीब ला हमें। ......... 

न करना फिर हमें खुद से दूर।

भटकता रहूंगा मैं,

,तुम्हारी ही यादों के आस - पास।


     यदि तुंहारी ये कविता मुझसे किया कोई वादा न थी , तो तुमसे कुछ न कहूँगी। लेकिन हां , यदि थी, तो बस इतना कहती हूं  - ' अपना किया वादा तो निभाओ '


       तो लो ! कर रही हूँ न तुम्हे याद। तुम्हे अपना वादा निभाने के लिए मेरे पास तो आना ही होगा। नहीं तो ?

लेती रहोगी हिचकियां करके याद,

रो भी ना सकोगी .... तुम मेरे यार। 

 .........  यही तो लिखा था तुमने। 

--------- to be continued 

Shailendra S. 'Satna'

Thursday, June 3, 2021

तुम कहां गए - 4

      मेरी उपेक्षाओं से व्यथित तुम्हारा मन, बार-बार मेरे ही पास क्यों आता था ? तुम्हारा सवाल पे सवाल पूछना और मेरा यूं ही खामोश रहना, तुम्हें क्यों ना समझ आया था, मेरे दोस्त ? 

        तुम्हे तो उस वक्त ही समझ जाना चाहिए था कि जब कोई इंसान किसी से माफी मांगे और सामने वाला कोई जवाब ना दे, तो माफी मांगने वाले का गुनाह गुनाह नहीं बल्कि गुनाह - एं - अजीम होता है । उसे माफ नहीं किया जा सकता। 

        तब मैं तुमसे बात ही नहीं करना चाहती थी, या तुम्हारे किसी भी सवाल का मेरे पास कोई जवाब नहीं था, ऐसा नहीं था ! एक सवाल के जवाब में तुम्हारा यूं ही दूसरा सवाल पूछना मुझे तकलीफ देता था। मैं ऊब जाती थी।  तब भी तुम किस आशा में मुझसे प्रत्युत्तर की आशा रखते थे ?


         मुझे याद है, अच्छे से याद है। तुम जहां अक्सर अपनी राते गुजारते हो, वहां सामने ही एक मंदिर है।  उस मंदिर को छाया सागौन के सूखे दो पेड़ देते हैं। तुमने बताया था, और एक रोज उनकी एक तस्वीर भी भेजी थी।


       मैं मानती थी कि तुम सेंसेटिव पर्सन हो, जो प्रकृत यानी नेचर की भाषा को समझते हो । तब तुम मेरा नेचर क्यों ना समझ पाए ?

      शायद जहां तक मुझे याद है कि तुमने उन पेड़ों और उस मंदिर पर एक कविता भी लिखी थी - -

मैं एक ऐसे सुनसान वीरान इलाके में रहता हूं,

जहां तुम्हारे दिल की आवाज नहीं पहुंचती,

न मेरी आवाज तुम तक जाती है,

सूख गए हैं वे दरख़्त भी,

जिनकी सरपरस्ती में कभी देवता रहा करते थे।

गुजर रही है मेरी जिंदगी भी,

इन्हीं सूखे दो दरख़्तों की तरह,

हां  !  कभी मेरी सरपरस्ती में भी,

कुछ जिंदा इंसान रहा करते थे।।

. . . .

      चाहत से भी बड़ी चाहत थी तुम्हारे मन में मेरे लिए। मैं समझती हूं, ऐसा भी नहीं है कि मैं उन दिनों नहीं समझती थी। 

लेकिन हम दोनों ही उस चाहत को कोई नाम नहीं दे सके। जिस तरह तुम मजबूर थे, उस तरह मैं भी मजबूर थी। तुम्हें इतना तो समझना ही चाहिए था।

बात आकर वहीं ठहर गई . . .

किसने किसको सजा  दी,

कौन किसका गुनहगार ठहरा।

      मन के सभी आवेगो को समेटकर, यदि मैं आज तुमसे कहूं कि तुम मेरे लिए कितनी अहमियत रखते थे, जो कि शायद आज भी रखते हो। "हां ! अजनबी तुम बहुत प्यारे थे मेरे लिए", तो गलत नहीं होगा।

      तुम्हारे मन के करीब आना और इसका अहसास होते ही खुद को समेट लेना ठीक उसी तरह था जैसा कि तुमने लिखा - 

साहिल पर खड़ी तू बेखबर,

लहरों से जूझता मेरा मुकद्दर,

क्या जरूरी था ?


       तो जान लो मेरे प्रियवर ! जरूरी था, समाज की कोई मान्यता या मर्यादा न टूटे, इसके लिए न सही, लेकिन उन रिश्तो के लिए बेहद ही जरूरी था, जिन्हें मैं पूरी वफा और इमानदारी के साथ जी रही थी, निभा रही थी। 


     एक उद्दाम और उच्चश्रृंखल लहर की तरह मैं तुम्हें चूम कर फिर अपनी ही दुनिया में लौट गई।  और किनारे पर मैं नहीं, तुम खड़े रह गए, बेखबर से। तुम मुझे समझ ही कहां पाए कि मैंने चुपके से ही सही तुम्हें अपनाया था।

     अंगीकार किया था, स्वीकार किया था! आश्चर्य हो रहा है  न? पर यही सच था, है , और रहेगा मेरे दोस्त।


'  ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार '  बच्चों की पोयम मैं जीवन के रहस्य को देखने वाले, तुम्हें तो यह समझना चाहिए था कि ' हाउ आई वंडर व्हाट यू आर '..

आह ! तुम कहां गए  . . . . !

मेरी बेरुखी को याद करके,

कोई आंसू तो आया होगा, 

तुम्हारी पलकों में भी।

मुझ तक ना पहुंच, 

ठहर गया होगा कहीं शायद,

जब भी याद किया होगा तुमने मुझे ।।

यूं ही बेवजह तो कोई ,

 रोता नहीं किसी के लिए ।

तुम कहां गए . ...... हां .... तुम कहां गए

To be continued . . .

Shailendra S. 

अजनबी - 2

अजनबी (पार्ट 2)       पांच साल बाद मेरी सत्य से ये दूसरी मुलाकात थी। पहले भी मैंने पीहू को उसके साथ देखा था और आज भी देख रहा हूं...