Tuesday, June 8, 2021

तुम कहां गए -8

     पर कभी सोचती इससे क्या होगा ? क्या हो जाएगा यदि मैं तुम्हें दोषी मान लू और तुम्हें हर दोषों से मुक्त भी कर दू ? तब भी क्या कुछ बदल जाएगा ? तुम्हें तो मैं सजा दे ही चुकी हूँ। अपने साथ सहभागी कैद की सजा ! और इससे अधिक कौन सी सजा दे सकूंगी  ?


    क्या अपने आत्मिक सुख के लिए या दिल की तसल्ली के लिए या फिर जमाने के सामने यह सिद्ध करने के लिए कि हाँ, तुम दोषी हो, मेरे गुनहगार हो, यह मानकर, मैं तुम पर आरोप लगाऊं  ? और यदि तुम सारे आरोपों से बरी हो गए तो ? तब क्या ? मैं खुद अपराधबोध से ग्रस्त न हो जाउंगी ?


    मैं अच्छी तरह से जानती हूं कि मुझे यूं छोड़ कर तुम्हारा यूं चले जाना, तुम्हें भी तो अखरा होगा मेरे दोस्त। तुम्हें भी तो कुछ छोड़ना पड़ा होगा। चाहे वह तुम्हारे कदमों के निशान ही कियूं न रहे हो, तुम्हारी यादें ही कियूं न रही हो, या फिर वे पल, वे लम्हे जब तुम मेरे साथ थे।  


      उन्हें तो तुम कहीं नहीं ले गए ? काश उन्हें भी ले जाते, तब मैं तुम्हें दोषी मान लेती। और शायद तब मैं तुम पर बहुत सारे आरोप भी लगाती। हाँ, पर तुम भी गए तो यूं ही खाली हाथ। और क्या पता, मेरी यादों को भी ले गए या नहीं ? कौन जाने तुमने सब कुछ यहीं छोड़ दिया हो , सब कुछ, सब कुछ मेरे लिए।


    क्या ले जाने का दोष लगाऊं मैं तुम्हें ? मेरी रातें, मेरी नींद या फिर मुझे मेरे मन के अंदर ही कैद कर देने की ? 

    हां, कैद हो जाने की तुम्हारी यादों के साथ।  तुम वहां पूरे वजूद के साथ होते हो।  पर मैंने तो ऐसा कभी नहीं चाहा था।  न मैंने कभी नहीं चाहा कि तुम मेरी यादों के साथ कैद होकर रह जाओ।  तुम तो आजाद पंछी थे न ? खुले आसमान में उड़ना चाहते थे। और क्या पता शायद तुम मेरा हाथ थाम मुझे भी इन फिजाओं में इन खुले आसमान में, बादलों के बीच ले जाना चाहते थे, जहां सितारों की दुनिया है।

    कभी-कभी मुझे यह भी लगता है कि तुम कहीं नहीं गए, पर ऐसा नहीं है। तुम तो गए न ? अब तुम्हें पुकारने से क्या होगा ? क्या लौट आओगे ? यदि यह लिख दूँ कि जाने-अनजाने यदि कोई दुख पहुंचाया हो, तुम्हें कोई तकलीफ दी हो, तुम्हारे मन या आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाई हो तो मुझे माफ कर दो।  तो क्या तुम खुश हो जाओगे ?  तुम्हें अच्छा लगेगा?

    तुम अक्सर कहा करते थे कि इस दुनिया में समय नाम की कोई चीज नहीं होती। आज सोचती हो तुम ठीक ही कहा करते थे। हम दोनों के दरमियां कोई समय तो था ही नहीं। थे तो समय के छोटे-छोटे टुकड़े, पल, टाइम स्लाइस। 


        वह गुजरते गए, हम जीते गए। और वे पल, वे  लम्हे पता नहीं कब कहां और कैसे हाथों से फिसलते गए।  सुना है बंद मुट्ठी से रेत भी फिसल जाती है।  लेकिन उन पलों, उन लम्हों उन क्षणों के साथ जिंदगी भी फिसल गई, मेरे दोस्त ! और हम कुछ भी न कर पाए। 


    मैं जानती हूं कि अब तुम मुझसे मिलने की कोशिश नहीं करोगे, जैसा कि पहले तुम किया करते थे।  यदि कभी पहली मुलाकात की तरह ही पूर्व निर्धारित न हुआ, और राह चलते यदि मिल भी जाओ और अपरचित से मुस्कुरा भी दिए तो कोई ताज्जुब नहीं होगा।  


       क्योंकि मैं जानती हूं कि तुम वह नहीं होगे। बस यही टीस उठती है कि अब तुम दोबारा उस तरह से नहीं मिलोगे जैसा कि मैंने चाहा था कि तुम मिलो।


    जिंदगी कोई पजल होती या बहुत बड़ा कोई कठिन सवाल होती, तो निश्चित ही मैं उसे सुलझाने की कोशिश करती।  लेकिन यहां तो जिंदगी आसान थी।  तुम्हारे साथ जीना आसान था, तुमसे बातें करना आसान था, तुमसे मिलना आसान था, तो फिर ? 

       मैं ऐसा कुछ भी नहीं कर पाई। क्योंकि शायद मैंने यह सब करना उचित नहीं समझा या यूं कह लो कि मैं तुम्हें कोई अहमियत ही नहीं देना चाहती थी। 


      हां सच ! यही सच है। तुम मेरे लिए उस वक्त कुछ भी नहीं थे और शायद आज भी नहीं हो।  नहीं तो क्या ऐसा नहीं हो सकता था कि मैं तुम्हें खोजती हुई तुम तक ही पहुंच जाऊं ? किसी भी बहाने से?


    आरोपों के जिस कटघरे में मैं तुम्हें खड़ा करना चाहती हूं, उस कटघरे के ऑपोजिट में मैं भी तो खड़ी हूं, तुम पर आरोप लगाते हुए? मान लिया कि मैं मजबूर थी। यह भी मान लिया कि मुझे तुमसे कोई प्यार नहीं था। कोई चाहत नहीं थी। उस वक्त तुम मेरे लिए कुछ भी नहीं थे। क्या तब भी तुम्हें यूं नजरअंदाज करना चाहिए था ? तुम ही बताओ ?


    तुम्हारे मजाक को मैं सीरियस ले लिया करती थी, और जहां तुम सीरियस होते थे, तो उसे मजाक में। जिस दिन तुम्हारे प्रति मेरी संवेदनाएं निष्ठुर हो गई, शायद उसी दिन मैंने तुम्हें मार दिया।  तुम्हारा कत्ल कर दिया। उस वक्त तुम्हें नजरअंदाज करना तुम्हें मिटा देने के बराबर ही तो था, मेरे दोस्त।

       तुम मुझ में जिंदगी तलाश करते रहे और मैं तुम्हें नजरअंदाज करती रही। तुम मुझे में जीना चाहते थे, और मैं तुम्हें हर पल मारती रही।  हर पल तुम्हें विश्वास दिलाती गई कि तुम मेरे लिए कुछ भी नहीं हो। तुम्हें यूं हर लम्हें मार कर आज फिर क्यों पुकारती हूँ -  आह ! तुम कहां गए ?


    कल को कोई और दुनिया होगी, कोई और लोग होंगे, जो शायद मेरी इस कहानी को पढ़ेंगे और हमें जानेगे। और तब शायद वही लोग तय कर पाए कि मैं कितनी निर्दोष हूं, और तुम कितने दोषी?


     तुम्हारे यूं चले जाने का मैंने मातम नहीं मनाया। गहरे शोक सागर में नहीं डूबी। सब कुछ उसी तरह रखने का प्रयास किया।  खुद को भी नहीं बदलना चाहा।  मैं उसी तरह बनी रहना चाहती थी।  क्योंकि मैं जानती हूं कि जब कभी तुम सामने आओगे, मुझे बदला हुआ देख शायद तुम्हें ही कोई खुशी न हो।  


      लेकिन अब ऐसा नहीं रहा ? बदलने या ना बदलने की चाहत के बीच मैं ऐसी उलझी की अब मैं क्या हूं ? मैं खुद ही नहीं समझ पा रही हूं ! मुझे खुद आश्चर्य होता है कि जब मैं तुम्हें भीत हृदय से पुकारती हूं, आह ! तुम कहां गए ?

कभी यूं ही अचानक तुम मिल गए,

हो सकता है अब,  

जब कभी तुम मिलो मुझसे,

मैं वह न रही हूँ ,

जिससे तुम अक्सर मिला करते थे।

शायद मेरे पास वह कुछ भी न हो,

तुम्हें देने के लिए,

जिसकी चाहत तुम अक्सर, 

किया करते थे ।

हां इसलिए कहती हूं अब तुमसे,

उसी तरह लौट कर न आ जाना,

तुम फिर से।

जिस तरह अक्सर तुम, 

लौट आया करते थे।

अब चाहे जितना पुकारू - 

हां, तुम कहां गए ! , , , ,

to be continued . . . 

Shailendra S. 'Satna'



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