जिंदगी जी लेने की चाहत किसे नहीं होती मेरे दोस्त ?
यह बात कुछ और है कि मैंने पूरी तरह इसे अपने अंदाज से जीने की कोशिश की । किसी की दखलअंदाजी मुझे पसंद नहीं थी, शायद तुम्हारी भी नहीं।
मैंने कभी नहीं चाहा कि कोई मुझे समझाएं की जिंदगी में क्या अच्छा है, क्या बुरा है। यदि जिंदगी को अपने ढंग से जी लेने की चाहत से मैं बेखबर होती, तो शायद मैं यह बर्दाश्त कर भी सकती थी।
जिंदगी जीने की यदि कला है, तो वह तजुर्बा मैं खुद हासिल करना चाहती थी। यह मेरी जिंदगी थी, और किसी से उधार ली भी नहीं, तो किसी को उसे लौटाने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था। और ना ही अब उठता है। तो फिर कैसे मैं इस बात पर यकीन कर लेती कि जो मेरा अपना है, जिसे मैं अपने ढंग से जी सकती हूं, और जिसे मैं जब चाहूं महसूस कर सकती हूं, हां वही जिंदगी अब तुम्हारी है ?
मैं तुम पर इल्जाम नहीं लगा रही हूं कि तुम मुझे बदल देना चाहते थे या मेरी जिंदगी को अपने तरीके से मुझे जीने के लिए मजबूर करना चाहते थे। लेकिन हां, जब कभी भी तुम मुझे अपनी नजरों से देखते और मुझे ठीक वैसा न पाते, जैसा कि तुम देखना चाहते थे, तब तुम्हारी नजरें मुझसे शिकायत करती हुई नजर आती।
यह मुझे बदलने की तुम्हारे मन में लालसा ही तो थी। तुम्हारी इच्छाएं, तुम्हारी लालसा के वस्त्र भला मैं क्यों ओढ़ लेती ? मैं जैसी थी, वैसी ही रहना चाहती थी। कभी तुम मुझे अपने नजरिए से देखते और मैं उस तरह न दिखती, तब तुम्हारे मन में क्षोभ पैदा होता, तुम दुखी होते, और कई बार तुम मुझसे रूठ भी जाया करते थे।
तब क्या मैं तुम्हें किसी न किसी बहाने मनाया नहीं करती थी, बोलो ?
मैं जानती हूं कि तुम जब भी मुझसे रूठे तो उस लिमिट के पार कर कभी नहीं गए, जहां से मैं तुम्हें मना फिर वापस न सकू। तो क्या आज तुम उस लिमिट को पार कर गए ? क्या तुम्हारे जवाब की प्रतीक्षा मुझे ताउम्र करनी पड़ेगी ? चलो यह भी सही, मेरे दोस्त।
अब सोचती हूं कि शायद मैं उस बंधन में बंध गई होती जिसमें कि तुम मुझे बांधना चाहते थे, तो हो सकता है इस जीवन में कोई नायाब, बेशकीमती चीज ही मिल जाती ? या फिर सर्वस गवा देती, सब कुछ लुटा ही देती ?
कौन जाने क्या होता ? पर कुछ तो होता। भरी महफिल, अपनों के बीच, क्या मैं इस तरह तन्हा होती ? कुछ तो होता मेरे साथ, जो मेरा अपना होता।
अपने प्रश्नों के ठीक ठीक जवाब ना पाकर तुम अक्सर मुझ पर इल्जाम लगाते थे कि मैं तुम्हें गोल - गोल घुमाती हूं। और मैं अक्सर लिखती - " नहीं घूमा रही गोल - गोल। "
कहते हैं समय के साथ साथ स्मृतियां विस्मृत होने लगती हैं । एक उम्र के बाद या उम्र के किसी पड़ाव में आकर यादें धुंधली हो जाती है ! तब शायद कभी मैं भी तुम्हें भुला पाऊं !
लेकिन तुम ? तुम कैसे भुला पाओगे मुझे ?
क्योंकि, तुम मुझसे अक्सर ही कहा करते थे, कि तुम्हारी दुनिया में समय नाम की कोई चीज नहीं होती। तब भला मैं कैसे मान लूं की समय गुजरने के बाद भी तुम मुझे भुला पाओगे ?
कहानियां बनती हैं, चलती हैं, ठहरती हैं, उलझती हैं, और एक स्थान पर पुहुच कर रुक सी जाती हैं, कुछ बिगड़ भी जाती हैं। लेकिन यह वह कहानी है जो ना तो कभी रुकेगी न कभी कहीं ठहरेगी, न किसी से उलझेगी, और न ही कभी बिगड़ेगी।
शायद इसलिए कि तुम्हारी जिंदगी में मैं, किसी कहानी की तरह या किसी कहानी का कोई पात्र नहीं हूं। काश कि तुम समय को मानते। तब शायद मैं तुम्हें कभी समझा पाती कि ठहरे हुए लम्हों में जिंदगी नहीं जी जा सकती, मेरे दोस्त।
उसे तो गुजरते जाना है मेरी तरह, समय के साथ-साथ। शायद तुम कहीं किसी एक जगह जा ठहर गए हो, मेरे इंतजार में।
अब शायद तुम्हें मेरे ठहरने का इंतजार होगा। प्रतीक्षा होगी उन पलों की, जब मैं ठहर जाऊं, रुक जाऊं।
शायद उसी मोड़ पर मैं फिर तुम्हें दोबारा मिल पाऊं। यानी कि हम दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं। एक दूसरे के इंतजार में, फर्क सिर्फ इतना है कि तुम, मेरे ठहर जाने का इंतजार कर रहे हो और मैं तुम्हारे लौट आने का। इंतजार तो दोनों को ही है न ?
मैं तुम्हें चलते हुए फिर से पाना चाहती हूं, यूं ही पहली मुलाकात की तरह और तुम एक जगह ठहर कर मेरे इंतजार में . . .
जानते हो, कुछ कांसेप्ट को मैं भी नहीं मानती क्योंकि मेरी समझ समझ में ऐसे कांसेप्ट होते ही नहीं या नहीं होने चाहिए।
जैसे कि किस्मत, यानी कि मुकद्दर। अब यह कहूं कि एक पल में लिए गए हमारे फैसले, हमारी किस्मत बन जाते है, तो क्या गलत होगा ?
यदि दीपक ने स्वयं जलकर रोशनी करने का फैसला न लिया होता तो शायद उसकी किस्मत में ठीक उसके नीचे अंधेरा ना होता। अपनों की जिंदगी को वजह देने के लिए, मैंने फैसला न लिया होता तो मेरी खुद की जिंदगी बेवजह ना होती, मेरे दोस्त।
यदि तुम मुझसे रूठे हो तो रूठे रहो, मेरी बला से। मैंने तुमसे ऐसा क्या पा लिया कि उसे संजो कर रखू ? और मैंने तुम्हें ऐसा क्या दे दिया कि तुम उसे भुला ना पाओगे ?
दुनिया का ऐसा कौन सा दर्शनशास्त्र है, जो जिंदगी को जीने की कला सिखला दे ? और ऐसी कौन सी जिंदगी है जो, खुद अपने आप में एक दर्शनशास्त्र न हो ? बताओ क्या है कोई ?
दुनिया की ऐसी कौन सी घटना है जिसका न होना, या कि उसका होना, बेवजह हो ? तो फिर मेरी जिंदगी में आने की तुम्हारी वजह क्या थी ? क्यों आए तुम मेरी जिंदगी में ? मैंने स्वयं तो तुम्हें नहीं बुलाया था, तो फिर क्यों चले आए ? क्या इसलिए, एक दिन जब मन पड़ेगा, अचानक ही मुझे यूं ही छोड़कर चले जाओगे ?
सदियों से तेरा यूं ही भटकते रहना,
यदि बेवजह न था ?
तो यूं मुझे अकेला छोड़ कर,
तेरा यूं चले जाना,
फिर लौट कर न आना,
तो अब तुम ही बताओ,
इसकी वजह क्या है।
हां, तुम कहा गए . . . !
to be contacted . . .
Shailendra S.
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