Wednesday, June 30, 2021

तुम कहां गए - 17

  अच्छा ही हुआ कि तुम चले गए।

      जब कोई इंसान अपनी जिंदगी के महत्वपूर्ण, अर्थपूर्ण, वैभवयुक्त क्षणों को जी रहा हो तो उसके इस नितांत एकांत के क्षणों में प्रतिरोध नहीं उत्पन्न करना चाहिए। ऐसा करने पर दोष लगता है, और स्वयं में भी अपराध बोध का एहसास होता है। 

    जिन पलों में तुमने मुझे छोड़ा तो मैं अपने जीवन के सार्थक, समर्पित, अर्थपूर्ण और वैभव युक्त जीवन को ही तो जी रही थी ! तब तुमने स्वयं को मुझसे दूर ही रखना उचित समझा और शायद यह दूसरी वजह रही होगी तुम्हारे चले जाने की, इसलिए तुम चले भी गए।


      जानती हूं, तुम ऐसे नहीं थे कि स्वयं अपने आप को दोषी सिद्ध करते या किसी अपराध बोध से ग्रसित हो मुझसे नजरें झुका लेते। जिंदगी को आनंदपूर्वक गुजार लेने की चाह किसमें नहीं होती ? कौन है जो जिंदगी के कष्टों को भोगना चाहता है ? कौन है जो अपने मन मंदिर में एक तस्वीर लिए वेदना को ही अपना जीवन साथी बना लेता है ?

    हां तुम ही बताओ ? ऐसा कौन सा व्यक्ति है जो सरलता का परित्याग कर दुर्गम रास्तों का चयन करता है ? शायद तुम्ही थे ! ! कौन जाने ?

     इंसान की सोच विचारों को जन्म देती है और तथ्य पूर्ण विचार एक परिकल्पना को। तब काल्पनिक दुनिया के पात्र सच होने लगते हैं। परिकल्पना यथार्थ का रूप धारण करने लगती है और एक पूरी तरह से काल्पनिक कहानी, जीवन मूल्यों के इतने निकट होती जाती है, की कल्पना और वास्तविकता में कोई भेद नहीं रह जाता। सारे भेद इस तरह से उलझ जाते हैं कि वह काल्पनिक दुनिया, यथार्थ की दुनिया से अधिक प्रभावशाली हो जाती है।


    अपना हंसता मुस्कुराता चेहरा लिए तुम मेरी काल्पनिक दुनिया में अब भी उतने ही यथार्थ हो जितना कि तुम से अंतिम बार मिलने पर मैंने तुम्हें देखा था। 


    तुम्हारा शांत चित्त होकर बस मुझे मुस्कुराते हुए देखते रहना और मेरा हमेशा की तरह तुम्हें बस यूं ही देखते रहना। जब भी तुम्हारे बारे में सोचती हूं तो अक्सर अतीत की वही दो परछाइयां उभर कर सामने आती है और कहती हैं, देख लो हमें अच्छी तरह से, हम वही हैं। 


   विचारों की शक्ति का प्रवाह प्रेमोन्मुखी होता है, तब जिस काल्पनिक दुनिया का सृजन होता हैं, उसके पात्र अमर होते हैं, कालचक्र से भी परे होते हैं।


   हमारे साथ भी यही तो हुआ मेरे दोस्त। हमने भी तो इसी तरह की एक काल्पनिक दुनिया बनाई और उसमे हम दोनों आज भी वहीं मौजूद हैं। तुम्हारे बारे में तो कुछ नहीं कह सकती, लेकिन अपने बारे में इतना जरूर लिखती हूं कि वही काल्पनिक दुनिया आज मेरी वास्तविक दुनिया से कहीं अधिक प्रभावशाली है।

        तुम मेरी उसी काल्पनिक दुनिया के अजर - अमर पात्र हो, तुम कभी मर नहीं सकते। ठीक उसी एक पल में, मैंने तुमसे प्रेम किया, और खुद को मार भी लिया। ताकि मेरी कल्पना की दुनिया में तुम यथार्थ बनकर हमेशा जीवित रहो।


     मैं नहीं जानती कि तुम कहां और किस हालत में हो ? जीवित भी हो या नहीं ? नहीं जानती ! 
        लेकिन हां, इतना जरूर लिखती हूं कि तुम मर भी जाओ तो भी मेरी काल्पनिक दुनिया में, ठीक उसी तरह जीवित रहोगे, जैसे कि एक आत्मा, जो अजर है, अमर है मिट नहीं सकती। 

       लेकिन नहीं मैं ऐसा कहूं तो भी क्यों कहूं ? जबकि मेरी दुनिया में तो, तुम इस से भी बढ़कर हो। एक आत्मा, जो अजर है, अमर है, मिट नहीं सकती है, और जो सशरीर मेरे सामने है। 

      मैं तुम्हें ना तो वृद्ध होते हुए देखूंगी ना किसी बीमारी से ग्रस्त तिल - तिल मरते हुए, और ना ही तुम्हारे चेहरे की झुर्रियों को देख पाऊंगी जो समय के साथ अवश्य आती।

       तुम तो अपने पूरे वैभवशाली व्यक्तित्व के साथ मेरी उस काल्पनिक दुनिया में रहोगे। हमेशा, हमेशा के लिए। 

        इसीलिए लिखा था - अच्छा ही हुआ, जो तुम चले ही गए।

      शायद तुमने भी यही सोचा हो ? तुम्हारा फिर कभी लौट कर ना आना इस बात को प्रमाणित करता है कि तुम्हारी कल्पना की दुनिया में, मैं भी तुम्हें एकटक, अपलक देखती हुई, अभी भी सजीव, अपनी उसी आकर्षक मोहनी सूरत के साथ तुम्हारी आंखों में बसी हूं। 

    ठीक उसी एक पल में तुमने भी खुद को मार लिया होगा। एकदूजे ने खुद को मार कर अमृत्व का जो वरदान प्राप्त किया, अब उसे कैसे अभिशाप लिख दूं?
काश कि यह सब मैं तुमसे कभी कह पाती! इसलिए पुकारती हूं - आह ! तुम कहां गए . . . 
to be continued . . .
Shailendra S.

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