मैं जानती हूं की तुम्हारी कल्पनाओं की दुनिया में मैं अभी सजीव हूं। मुझे यकीन है कि तुम अभी तक मुझे भूले नहीं होगे।
जानते हो, मेरे पास भी कुछ ऐसी बातें हैं जो शायद तुम नहीं जानते हो, या शायद फिर जानते ही होगे, अंतर्यामी जो ठहरे।
यथार्थ के धरातल पर ही सही, मेरी भी कल्पनाओं की एक अलग दुनिया थी। जिसे मैं जीना चाहती थी। यह बात अलग है कि मेरी उस कल्पना की दुनिया में मेरे अपनों के साथ ही पूरा यह समाज था।
उनके उत्कर्ष, उनके बेहतर ढंग की जीवन शैली के लिए उनके हक के लिए ही लड़ना मेरा मकसद था। मेरी कल्पना की दुनिया व्यक्तिपरक नहीं थी, जैसा कि तुम्हारी।
यदि मान सको तो मान लो इल्जाम ही लगा रही हूँ, तुम्हारी दुनिया में, तुम्हारी कल्पना में, किसी एक व्यक्ति के लिए इतना महत्व तुम्हारे लिए ही घातक था। चाहे वे सभी कल्पनाएं मेरे लिए ही क्यों ना रही हों !
मैं शायद कुछ अधिक ही प्रैक्टिकल हो रही हूं। कहीं मन में यह डर तो नहीं की आज मेरे अंतर्मन में तुम्हारे लिए भावनाओं के जो तूफान उठ रहे हैं, उन्हें में अपने इस प्रैक्टिकल अंदाज से दबा लेना चाहती हूँ।
मैं तो तुम्हें आज भी सोचना ही नहीं चाहती। पर क्या करुँ ?
यदि मैं तुम्हें अपनी जिंदगी से, अपनी यादों से, अपनी सारी वफाओं से खारिज कर भी दूँ , तो इससे क्या होगा ? क्या मेरे खारिज करने मात्र से तुम, मुझसे विस्थापित हो जाओगे ?
जबकि मानती हूं कि मैंने तुम्हें अपने मन में कभी स्थापित ही नहीं किया है। तो फिर यह डर कैसा ?
सच अब दर्पण के सामने खड़े होकर मैं यह बिल्कुल नहीं सोचना चाहती हूं कि हां मैं वैसे दिख रही हूं जैसा कि तुम मुझे देखना चाहते थे ?
खुद से ही, हद से भी ज्यादा मोहब्बत करने वाली मै, अब कहीं अपने चेहरे में तुम्हारा ही अक्स तो नहीं देखना चाहती ?
सोचा था उन दिनों कि तुम मेरी सारी उलझन सारी समस्याओं का समाधान होगे , लेकिन तुम ? तुम तो मेरी सबसे बड़ी उलझन बने, और चले भी गए। बताओ , तुम कहां गए ?
हां बताओ ! तुम कहां गए !!
मृगतृष्णा का आडंबर फैलाकर, उसमें मुझे भटकने के लिए तुम छोड़कर क्यों चले गए ? तुम्हारी कल्पनाओं को यथार्थ मानकर अब उसमें जीने की चाहत क्यों हो रही है ?
क्यों जी चाहता है कि तुम फिर आ जाओ, और मैं तुम्हें देख कर ही सही, जी भर कर रो लू, तुमसे छुप कर ही सही तुम्हें जी भर के फिर से देख तो लूं।
कभी-कभी मौन, अभिव्यक्ति का सबसे सुंदर माध्यम होता है। लेकिन तब, जब दोनों सामने हो, और उन में से कोई एक दूसरे को देख रहा हो, और दूसरा इस बात से बिलकुल बेखबर हो।
उस समय देखने वाला अपने मन में जो मूर्ति स्थापित करता है, चिरकाल के लिए मन में बस जाती है । हां ऐसे ही, बस ऐसे ही, मैं तुम्हें एक बार फिर देखना चाहती हूं।
पता नहीं तुम ने नोटिस किया हो या न किया हो ? पर मैं तुम्हें अक्सर ऐसे ही देखती थी । जब तुम कहीं और देख रहे होते थे।
सच में ! जी भर के देखना चाहती थी पर क्या करती, तुम अक्सर ही मुझे यूं देखते हुए देख ही लिया करते थे। तुम्हें यूं देखते हुए देख मैं फिर दूसरी तरफ देखने लगती थी। सच कहो ! क्या ऐसा नहीं होता था ?
आज मैं, तुमसे वे सारे पल साझा करना चाहती हूं। जो शायद तुम्हें पता ही नहीं होंगे या तुमने ध्यान नहीं दिए होंगे ? यह उन्ही एक पलों में से एक था। जब मैं तुम्हे देख रही होती थी और तुम इस बात से बेखबर होते थे।
जो की थी कभी मैने, बातें तेरी तस्वीर से,
वो बातें न कह पाया तुझसे कभी मेरे यार।
हो के जुदा अब ...… तुझसे चले हम,
लेकर वही दिल में तस्वीर मेरे यार।
अब किससे कहेंगे ... कैसे कहेंगे,
वो सारी बाते.... वो सारी यादें
बस रहेंगी दिल में ही मेरे यार।
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यही एक कविता थीं जो तुमने जाते समय लिखी रही होगी, शायद मेरे लिए !! खुद अपने लिए !!!
बस उसी राह में ला छोड़ दिया है तुमने मुझे। तुम आहिस्ता-आहिस्ता मेरी जिंदगी से खुद को ख़ारिज करते जा रहे थे , और मैं नादाँ , समझ ही न पाई। तुम्हे कभी समझा न सकी कि तुम मेरे लिए क्या हो। क्या यह तुम्हे समझाना जरूरी था ? तो फिर तुम कियूं न समझ पाए ?
जब कभी तुम .... करोगी मुझे याद,
आऊंगा नजर मैं, यही कहीं आसपास।
फिर न जाने देना, मुझे खुद से दूर।
इतने करीब ला हमें। .........
न करना फिर हमें खुद से दूर।
भटकता रहूंगा मैं,
,तुम्हारी ही यादों के आस - पास।
यदि तुंहारी ये कविता मुझसे किया कोई वादा न थी , तो तुमसे कुछ न कहूँगी। लेकिन हां , यदि थी, तो बस इतना कहती हूं - ' अपना किया वादा तो निभाओ '
तो लो ! कर रही हूँ न तुम्हे याद। तुम्हे अपना वादा निभाने के लिए मेरे पास तो आना ही होगा। नहीं तो ?
लेती रहोगी हिचकियां करके याद,
रो भी ना सकोगी .... तुम मेरे यार।
......... यही तो लिखा था तुमने।
--------- to be continued
Shailendra S. 'Satna'
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