मेरे जीवन की सभी मान्यताएं, सभी अवधारणाएं जिस मजबूत सिद्धांत पर टिकी थी वह आधारशिला अब कहां गई ! हां तुम ही बताओ कहां गईं ?
जिन सिद्धांतों की आधारशिला में मैंने अपना जीवन टिकाया, उसे मजबूती दी, मुझे विश्वास था कि वे अडिग है। ये सिद्धांत सार्वभौमिक है, इन सिद्धांतों का कोई तोड़ नहीं, इनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। तो फिर आज क्यों ये सभी सार्वभौमिक सिद्धांत जिनका कि कोई अपवाद न था, मेरे लिए मिथ्या साबित हुए।
यह सब क्या है, मेरे दोस्त ?
यह मेरे मन की दुर्बलता है या कि उन लहरों की प्रबलता, जो मेरे अंतर्मन से उठती हैं, और जिन्हें मैं तुम्हारी ही तरफ मोड़ देती हूं। फिर वही लहरें तुमसे टकरा कर वापस कई-कई गुनी शक्ति और वेग से, मुझसे ही आ टकराती हैं, और मेरे इन सिद्धांतों को तार-तार कर देती है ?
मेरी जीवन शैली देखकर, यदि तुम यह समझते थे कि, मेरा मन स्थिर है, शांत है और जिसमें तुम्हारे लिए कोई स्थान नहीं है, तो तुम सच समझते थे। तुम गलत नहीं थे मेरे दोस्त।
सुनकर आश्चर्य हो रहा है न ! तो सुनो मेरे दोस्त ! पारदर्शी कांच के सम्मुख खड़े होकर देखने पर स्वयं की तस्वीर कभी नहीं दिखाई देती, और न ही दिखाई देता है वह कांच। दिखाई तो देती है आर - पार की पारदर्शी दुनिया ? वह दुनिया जो कई मिथक और बाहरी आडंबरों से भरी होती है।
मैं वही पारदर्शी बेदाग सीसा थी मेरे दोस्त। जिसके पीछे कोई बाहरी लेप नहीं था। तो बताओ भला ! तुम उसमें अपना ही अक्स कैसे देख पाते ? तुमने तो देखा मेरे पीछे की दुनिया, जो बेहद रंगीन और खुशमिजाज थी।
और तुम ?
तुम उसी पारदर्शी कांच के सम्मुख खड़े होकर तुमने अपना अक्स देखना चाहा, जहा मै न दिखाई दी, और तुम्हें दिखाई दी कांच के पीछे की विचलित दुनिया।
हां मेरे दोस्त ! कांच कितना ही महीन और पारदर्शी क्यों न हो, उसके पीछे की दुनिया अपने वास्तविक स्वरूप से विचलित ही दिखाई देती है, भले ही वह विचलन कण मात्र का ही क्यों न हो।
काश ! तुम उस कण मात्र के विचलन को देख पाते तो समझते कि तुमसे परे मेरी दुनिया भी कुछ इसी तरह की दुनिया थी।
तुम्हारी दृष्टि यदि कण मात्र के उस विचलन को जरा सा भी महसूस कर पाती, उसे देख पाती, तो तुम देखते कि वे सभी अवधारणाएं जो तुम्हे अपनी जगह पर टिकी दिखाई देती थी, वे वास्तव में उस जगह पर तो कभी थी ही नहीं ! आश्चर्यजनक किंतु यही सत्य था।
मुझमें और मेरी उस विचलित दुनिया के अंतर को तुम कभी परख ही न पाए। तुम मेरी दुनिया मेरे पार देख रहे, लेकिन वहां मेरी खुद की अपनी दुनिया थी ही कहां ! तुम भी तो मेरी तरह एक भ्रम में ही जीते रहे।
सहज स्वीकार तथ्य, भ्रम ही होते हैं, मेरे दोस्त।
मूर्त और अमूर्त के बीच का अंतर जितना कम होगा, हम ईश्वर के उतना ही निकट होते है। मैंने इस सहज स्वीकार तथ्य को अपने जीवन की अवधारणा बनाई। इसीलिए मैंने हमेशा प्रयास किया कि मैं अपने मन - मंदिर में तुम्हारी कोई मूर्ति स्थापित न करूं। और इस तरह मैं भी एक भ्रम में जीती रही ।
लेकिन तुम तो मेरे अंतर्मन के चोर निकले ! वहां से मेरी सभी अवधारणाएं बाहर निकाल स्वयं को धीरे-धीरे स्थापित करते चले गए ।
यदि कोई भ्रम अंतर्मन में स्थापित हो जाए तो उससे बड़ा सत्य कुछ भी प्रतीत नहीं होता है। तुम मेरे जीवन के सबसे बड़ा भ्रम थे, और मेरे जीवन का सबसे बड़ा सत्य भी। एक ऐसा सत्य जिसे बड़ी सहजता से स्वीकार किया जा सकता था। इस तरह तुम्हारा वजूद मेरे लिए भ्रम होते हुए भी सहज स्वीकार सत्य ही रहा।
किसी को चाहने के लिए उनके दरम्यान किसी रिश्ते का होना ज़रूरी नहीं, वहां तो भावनाओ का मूल्य होता है। शायद इसलिए भी तुमने मुझसे कोई रिश्ता नहीं बनाया, बस अपना हक जताते रहे।
प्रेम जो किसी भी ज्ञान से परे हो और किसी भी अनुभूति से बड़ा हो, यदि कोई उस पर विश्वास न करें, या न कर सके, तो ? उस प्रेम को धारण करने वाला अपराध बोध से ग्रस्त हो जाता है।
तुम मुझे अपने प्रेम का या जो कुछ भी तुम मेरे लिए महसूस करते थे, विश्वास दिलाना चाहते थे। और मैं करना नहीं चाहती थी। या यूं कह लो कर ही नहीं सकती थी। शायद इसलिए तुम भी अपने स्वयं के उसी अपराध बोध से ग्रस्त हो गए, जिसकी परिणति तुम्हारा यूं मुझे छोड़ कर चले जाने के रूप में हुआ।
प्रेम की जिस पावन - शीला नदी में तुम शीतल प्रेम की तलाश करते रहे, वहां तुम्हें मिला क्या ? मेरी घृणा की भभकती ज्वाला न सही किंतु मेरी उपेक्षाओं के भीषण आघात मिले। उन आघातों से पवन - शीला नदी के कगार टूटते गए। तुम मेरे इतने निकट आना चाहते थे जितना कि हो ही नहीं सकता था। कभी सोचा ही नहीं जा सकता था।
तुम्हारे भीतर अनगिनत आशंकाएं जन्म लेने लगी और उस पर मेरी उपेक्षाओं की कोड़ों-सी मार। तुम्हारा उद्विग्न हृदय या फिर प्रेम और भी तिलमिला उठा। तुम्हारे अंतर्मन में यह सब घटित होता रहा और मैं इन सब से अनजान रही। मेरा क्या यही मेरा दोष था ? जिसकी सजा तुमने खुद को दी, और उसके पीछे मुझे भी ?
मेरी इस कहानी के तुम एकमात्र और बेनाम किरदार हो, इसलिए मुझे यह भी लिखने की कोई जरूरत नहीं कि इस कहानी के सभी पात्र और घटनाएं काल्पनिक हैं। कोई भी समानता महज एक संयोग होगा।
बिल्कुल नहीं लिखूगी । किस डर से और क्यों लिखूं, जबकि अब तुम हो ही नहीं, और जो घटित हुआ वह हमारे बीच ही रहा, सारे संवाद, सभी मिलन, रूठना - मानना ! सभी कुछ।
और फिर एक दिन बिना कुछ कहे, बिना बताए, बिना कोई शिकायत दर्ज किए, बस यूं ही चले जाना, शायद हमेशा के लिए। तो फिर यह सब क्यों लिखूं। तुम्ही बताओ ? क्या लिखना जरूरी है ? बावजूद इसके कि इस भौतिक धरातल में हमारा मिलना किसी भी भौतिक संबंधों और विचारधारा से परे था।
चलो दोनों के मन का हुआ। कभी मैं तुमसे नहीं मिलना चाहती थी और आज तुम मुझसे, और जो कभी तुम मिल भी गए तो मैं जानती हूं कि तुम अपने उस स्वरूप में नहीं होंगे जिससे कि अब मैं मिलना चाहूंगी . . .
तुम्हारा प्रेम एक कला ( Art ) भी हो सकता था, जो उद्विग्न नहीं संयमित होता, स्थिर होता। आनंद से परिपूर्ण होता।
लेकिन नहीं, उसके स्थान पर तुमने वेदना को चुना, और उस वेदना की टीस तुम्हें भी ताउम्र सताती ही रहेगी . . . जीवनपर्यंत तुम भी मेरे लिए तरसते ही रहोगे, कालिदास के मेघदूत के श्रापित यक्ष की तरह। तब भी . . . हां तब भी।
इसे मेरी पुकार समझो या कि प्रश्न, मैं तो बस इतना ही लिखूंगी, कहूंगी, पुकारूंगी . . .
- हां, तुम कहां गए . . .
to be continued . . .
Shailendra S.
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