लेकिन यह भी मानू तो कैसे मानलू ? यदि इस दुनिया में तुम न होते तो मेरे मन में खामोशी होनी चाहिए, स्थिरता होनी चाहिए, शांति होनी चाहिए ? पर ऐसा क्यों नहीं है ?
मैं जानती हूं दो बिंदुओं को मिलाने वाली रेखा, अनंत बिंदुओं से होकर गुजरती है. चाहे वह बिंदु कितने ही पास पास ही क्यों न हो।
अनंत, अनकाउंटेबल। वे तथ्य जो अपरिभाषित हैं। जिसकी, कोई परिभाषा ही न हो। उस अपरिभाषित तक पहुंचने के लिए तुमने भी न जाने कितने अनंत बिंदुओं को पार किया होगा ! मुझसे उपेक्षित होना यदि तुम्हारी नियति थी, तो मेरा यूं खामोश रहना मेरी नियति थी, मेरे दोस्त।
तुम्हारे नि:स्वार्थ सच्चे मन में उपजे प्रेम की परख कर के भी, मेरा यूं खामोश रहना, बेवजह तो न था ? नि:संदेह मैंने तुम्हें भी और-सा ही समझा था। जिनके लिए प्रेम एक मनोरंजन, एकतरफा विश्वास होता है। जबकि तुम्हारे सभी विश्वासों की आधारशिला तो तुम्हारा मुझ पर अटूट विश्वास ही रहा था। तुम तो मेरे विश्वास के साथ चलते रहे और मैंने खामोशी से तुम्हारे उसी विश्वास को तोड़ा था।
मेरा यूं खामोश रह जाना, आज अब जिसकी कोई वजह न रही, उसका दोषी मानकर तुम्हें सजा देना, मुझे नहीं लगता कि अब इसकी कोई जरूरत है।
सब कुछ उस समय इतनी तीव्रता से घटित हुआ की उन घटनाओं का कोई क्रम न था। घटनाएं घटती जा रही थी, सब कुछ स्वचालित-सा होता जा रहा था। जिसे हम नियंत्रित न कर पाए।
प्रत्येक व्यक्ति का एक आत्मसम्मान होता है। चाहे वह छोटे से छोटा या बड़े से बड़ा व्यक्ति ही क्यों न हो। मेरी खामोशियों ने शायद तुम्हारे उसी आत्मसम्मान को भी ठेस पहुंचाई थी। मेरी सभी उपेक्षाओं की परणिति तुम्हें खुद को अपनी ही नजरों पर गिरकर उठाना पड़ा।
मैं चाहती तो तुम्हें सीधे मना कर सकती थी। लेकिन नहीं, मैं तो खामोश रही। नहीं पता था उस समय की मेरी इस खामोशी की गूंज इतनी प्रबल और तीव्र होगी कि तुम्हारा कलेजा चीर देगी।
और एक दिन फिर अपने भग्न हृदय के सारे अवशेष समेटकर तुम्हें मुझसे दूर चले जाना होगा, सच पता नहीं था ? तुम तो स्वभाव से विद्रोही थे। फिर पता नहीं क्यों तुम धीरे-धीरे इतने शांत से क्यों होते जा रहे थे। और मैं ? मेरा ऐसा क्या था तुम्हारे पास जिसे देखकर तुम अपने मन को शांत कर लेते थे ? तुम्हारा विद्रोही स्वभाव भी मन में स्थिरता पैदा कर देता था।
हां बस एक तस्वीर ही थी न ! जिसे शायद तुम अपने इस उज्जवल मन में सदैव स्थापित करके रखते आए थे। क्या उसे देखकर तुम इतने शांत सरल और स्वयं के मान अपमान से भी परे हो जाते थे ?
जानती हूं कि एक सच्चे प्रेम से मन में शांति और स्थिरता का जन्म होता है ? उसकी गहन वेदना का प्रभाव उथले मन पर भी पड़ता है, और फिर उस मन में धीरे - धीरे सागर की सी गहराईयोँ का जन्म होता है, गहराई के गर्भ से निकले आभूषण बेशकीमती होते हैं न !!
और तुम, उन्हें धारण कर अपने व्यक्तित्व को भी विशिष्ट बनाते गए ? तब भी मैं तुमसे दूर खड़ी तुम्हें अर्थहीन भाव से बस ताकती रही। कभी तुम पर इल्जाम लगाया था कि तुम्हारी दुनिया व्यक्ति - परक थी। कभी तुम मुझ तक ही सीमित थे। लेकिन अब तुम अपने व्यक्तित्व का विस्तार कर रहे थे, और सच मानो मेरे स्वार्थी मन को यह बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था कि तुम मेरे सिवा किसी और के बारे में सोचो। यहां तक की चाहे वह समाज ही क्यों न हो, कोई धर्म ही क्यों न हो ?
उस वक्त तुम्हारा मुझसे, इस तरह दूरी बनाना अखर रहा था, मेरे दोस्त। जिसका परिणाम मेरी सारी खामोशी और उपेक्षाओ के रूप में तुम्हें ही मिला।
ईश्वर को तो मैंने तुम से अधिक ही माना, उस पर आस्था रखी, विश्वास रखा। अपने सभी कर्मों को उसी के नजरिए से देखती रही। उसी के बनाए नियमों का पालन करती रही। कम से कम उस समय तो मुझे यही प्रतीत होता था ।
तब पता नहीं था मेरे दोस्त, कि यह नियम ईश्वर ने नहीं अपितु इस ढोंगी समाज ने बनाएं है। देवी, देवताओं - सा जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्तियों के, यदि घरों की दीवारें बोलती, तो इस समाज में होने वाले न जाने कितने ही अनैतिक और अमर्यादित कृत्यों का पर्दाफाश होता, और न जाने कितने ही पर्दानशी बेपर्दा होती। नैतिकता और मर्यादा की परिभाषा को रचने वाले न जाने कितने लोग स्वयं उन्हें तोड़ते हुए खुद-ब-खुद दिखाई देते।
चलो छोड़ो यह सब बातें, मैं तो अपनी बात करती हूं । जैसा कि मैंने पहले ही लिखा कि हमारे लिए समाज पहले से ही पाप-पुण्य की परिभाषा गढ़ देता है, और तब कहता है कि इस सीमा के अंदर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करो।
मुझे इस बात का कोई अफसोस नहीं कि तुम्हारी उपेक्षा करके मैंने उन नियमों का पालन किया। आज तो दुख इस बात का होता है कि जिन्हें मैं अपना मानती थी, वे भी कहा मुझे समझ पाए और तुम ? तुम भी तो मुझे कहां समझ पाए ? तुमने भी तो मुझे औरों - सा ही समझा ? बताओ क्या यह सच नहीं है ?
रतिक्रिया में रत क्रौंच पक्षी के जोड़े का वध होने का दृश्य, एक लुटेरे को महाकाव्य का रचयिता बना गया। उस वेदना से उत्पन्न पहले श्लोक में वह दृष्ट समाहित थी जिसने रामायण जैसे महाकाव्य की रचना की। उसे दृष्टि दी।
तो फिर यदि आज मैं वर्षों पहले तुम्हारे मन में उठी मेरे प्रति आसक्ति और फिर उस आसक्ति से जिस वेदना का जन्म हुआ, उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप यदि मैं आज कुछ लिख रही हूं, तो वह तुम्हारी ही दृष्टि है, तुम्हारा ही दृष्टिकोण है !!
यदि एक पक्षी का वह कृत्य प्राकृतिक और नैसर्गिक था, तो उस समय तुम्हारा हाथ भले न थमती पर तुम्हारे साथ, तुम्हारे लिए खड़ी तो हो सकती थी, जब तुम अपनों के बीच ही अपमानित हो रहे थे। तब मेरा यूं मूकदर्शक बनकर खड़े रहना, देखते रहना कितना उचित था ? तुम्ही बताओ ?
मेरा यूं खामोश खड़े रहना क्या प्रकृति के खिलाफ न था ? तुम्हारा पक्षधर बन कर न सही, लेकीन न्याय हित में तो कुछ कर ही सकती थी। वहां किस मर्यादा के टूटने का भ्रम था या डर था, तुम निर्दोष थे और दुनिया तुम पर इल्जाम लगा रही थी, मेरी तरफ आशान्वित नजरों से तुम्हारा यूं देखते रहना कि शायद मैं अब कुछ बोलूगी, कौन सी अनुचित आशा थी तुम्हारी ?
मेरा मूक दर्शक बने रहना क्या अनुचित न था। यदि था, तब तुमने मुझसे कुछ कहा क्यों नहीं ? कोई सवाल जवाब क्यों नहीं किया ? वैसे तो अपने सारे हक का प्रयोग करके आए थे, तो उस समय अपने उस हक को ही क्यों त्याग दिया ? तब मुझसे तुम कुछ भी कह सकते थे , पूछ सकते थे ! मेरी खामोशी का कारण जानने की कोशिश कर सकते थे ?
मेरा यूं मूक दर्शक बन खड़े रह जाना क्या तुम्हें अखरा न था, मेरे दोस्त ? मुझे विश्वास है, उस दिन भी था और आज भी है, यदि मेरे स्थान पर तुम होते, तो तुम अपना प्रतिरोध अवश्य व्यक्त करते , चाहे इसके लिए जो भी कीमत चुकानी पड़ती, तुम चुकाते।
शायद इसलिए कि -
तुम्हारे पास एक तस्वीर है
जो इस जहां में है सबसे जुदा।
कनखियों से छुप कर तुम्हे देखती आंखे,
कानों में लटकती छोटी-छोटी बालियां,
वजूद की सारी गर्मी समेटे हुए ये होठ,
जो किसी के आने की आहट पा, चुप हो गए हैं।
गालों को छू लेने की अधूरी लिए आस,
सलीके से सांवरे गए ये रेशमी बाल,
किसी के छू लेने की लिए अधूरी आस,
नर्म, मुलायम ये सिंदूरी गाल।
जिंदगी के अधूरे कैनवास पर,
जिंदगी से उल्लासित एक चेहरा,
वीरान तपते पत्थरों के बीच,
तुम्हारे वजूद का एहसास दिलाता एक चेहरा,
बरसते बादल, कड़कती बिजली,
के बीच दमकता एक चेहरा,
तुम्हारी बेजान उदास रातों में,
तुम्हारे साथ हंसता मुस्कुराता एक चेहरा,
तुम्हारे मन को उसे छू लेने की, लिये एक आस,
आज स्वीकार करती हूं ...
हां, मेरी यही एक, तस्वीर होगी, तुम्हारे पास।
लेकर वह तस्वीर मेरी, अपने साथ . . ....... हां, तुम कहां गए ?-
to be continued ....
Shailendra S.
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