और जब मैं तुम्हारी हरकतों से, तुम्हारे प्रश्नों से परेशान हो गई और उस दिन जब तुम मेरे घर आए तो मैंने तुम्हें एकांत में पाकर मैंने तुमसे कहा था, कि मैं आपसे आपसे कुछ कहना चाहती हूं।
तब तुमने मुझसे कहा था, "हां तो कहो, मैं सुन रहा हूं" और मैंने तुमसे कहा था कि यहां नहीं अकेले में कहना चाहती हूं।
और तुम ने मुस्कुराते हुए कहा था आंख बंद कर लो तो फिर हर जगह एकांत ही होता है ! बंद कर लो अपनी आंखों और कह दो मुझसे।
तुम्हारी आंखों का सम्मोहन था या तुम्हारे व्यक्तित्व का या फिर तुम्हारी आवाज का एक पल को लगा कि तुम सच कहते हो और मैंने दिखावे के लिए ही सही तुम्हारे सामने आंखें बंद कर ली।
अब तो आप भी नहीं दिखाई देते !
जैसे ही मैंने आंखें खोली तो वहां की तस्वीर ही बदल चुकी थी वहां मेरा घर नहीं था। हमारे चारों तरफ मैदान, जलती हुई दुपहरी।
तपते बेजान पत्थरों को अपनी संपूर्ण गर्मी देता हुआ सूरज, चारों तरफ उड़ती हुई धूल जैसा रेगिस्तान, दूर कहीं पर मृगतृष्णा का आभास कराता हुआ सरोवर, पूरी शिद्दत के साथ जलती हुई जमी। तुम से कुछ अधिक न कह पाने की मेरी विवशता, और तुम्हारा मुझसे बार-बार यह कहना - जी अब कहिए ? '
तुम मेरे सामने खड़े थे। और मैं तुम से महज दो कदम की दूरी पर तुम्हारे पास ही खड़ी थी तुम धीरे से मुस्कुरा रहे थे जैसे आसमान से आया कोई फरिश्ता।
तुम्हारा अनजानो की तरह पूछना मुझे नही अखरा था । लेकिन पूछते समय तुम्हारा यू धीरे से मुस्कुराना मेरे दिल में तीर की तरह चुभ रहा था। मेरी विवशता थी कि उस वक्त तुम्हें बेहद नाराजगी भरे अंदाज में नहीं माना करना था। कहते हैं शालीनता से और हंसकर मना करने वाले पर किसी भी प्रकार का दोष नहीं लगता। मुस्कुराकर हंसते हुए नकारात्मक तथ्यों को भी बेहद सकारात्मक ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है। मैं शालीन थी, सभ्य थी, सुसंस्कृत परिवार से थी और इससे कहीं अधिक मैं तुम्हें ठेस नहीं पहुंचाना चाहती थी ।
"देखिए मैं आपको या आपके मन को किसी भी प्रकार की ठेस नहीं पहुंचाना चाहती हूं। लेकिन आपको यह समझना चाहिए कि मैं क्या हूं और कौन हूं। मेरी एक अलग दुनिया है और उस दुनिया में आपको दखलअंदाजी करने का कोई हक नहीं। आप मेरी दुनिया का हिस्सा नहीं है। हां, मैं मानती हूं कि मैंने आपसे कुछ ऐसे पल साझा किए हैं जो मेरे अपने निजी थे तो इसका मतलब यह नहीं हो सकता कि मेरी आपसे कोई मित्रता या अंतरंगता है।
आप किसी गलतफहमी में न रहे तो अच्छा ही है, और इस बात को अब समझ लीजिए कि आपकी जरा सी भूल मेरी जिंदगी तबाह कर सकती हैं। तो क्यों न हम किसी भी प्रकार से एक दूसरे के टच में न रहे । अब मैं आपके उन सवालों के जवाब नहीं दे सकती जो मेरे निजी जिंदगी से संबंधित हैं। हम दोनों की ही अलग दुनिया हैं, इसलिए हमारे बीच कोई राह नहीं, कोई सफर नहीं, कोई मंजिल नहीं। "
मैंने किसी तरह साहस समेट कर तुमसे यह सब कह तो दिया लेकिन अगले ही पल मुझे महसूस हुआ कि मैंने तुम्हें कितनी बुरी तरह से बेइज्जत करके अपनी जिंदगी से निकाल फेंका ? तुमने तो मुझसे कभी कुछ मांगा ही नहीं तो फिर इनकार किस बात का ? जब तुम किसी स्वप्न में ही न थे तो तुम्हें झंगजोड कर जगाने का क्या औचित्य ? पैरों के नीचे जलती हुई जमी, सर पर अपनी पूरी गर्मी के साथ चमकता हुआ सूरज, उफ ! ये सब मैंने क्या कह दिया ? कौन सी आग जला दी तुम्हारे सीने में ? जिसकी तपिश शायद तुम आज भी महसूस करते होगे ?
हृदय वीणा के तार अपने पूरे वेग से झंकृत भी हुए और अगले पल टूट भी गए, और उनके टूटने का दर्द मैंने तुम्हारी आंखों में ही नहीं तुम्हारे पूरे वजूद में देखा था। पल भर के लिए ही सही तुम काप गए, सहसा तुम्हे विश्वास ही न ही रहा था।
तुम अपलक एकटक मुझे देखे जा रहे थे जैसे सदियों से देखा गया कोई स्वप्न, अपने पूरे होने की प्रत्येक संभावना के साथ पूरी तरह से टूट गया हो। तुम्हें अपनी तरफ यूं देखता देख मैंने अपना सर दूसरी तरफ घुमा लिया। कुछ क्षणों बाद जब मैंने फिर से तुम्हारी तरफ देखा तो तुम्हारी आंखें बंद थी और तुम्हारे हाथ मेरी तरफ ऐसे बड़े जैसे कि तुम मुझे छू लेना चाहते हो। मैं घबरा कर एक कदम पीछे हट गई। मेरे पीछे हटते ही तुमने आंखें खोल दी और फिर मैंने देखा कि उन आंखों में अब गहरी शांति है जैसे किसी बात का तुम्हें पूर्णतः विश्वास हो चला है । शायद इस बात का कि तुम हमारी नियत नहीं बदल सकते, तुम्हारा मेरे सामने यू खड़े रहना, अब मुझे महसूस हो रहा था कि मुझसे अधिक तो तुम विवश हो, कुछ न कहे पाने के लिए।
आज कई बार सोचती हूं कि उस वक्त तुम मुझसे क्या कहना चाहते थे जो कह ना पाए ? तुम्हारी ऐसी कौन सी विवशता थी जिसने मुझे छू लेने के लिए तुम्हारे बढ़े हुए हाथों को भी रोक लिया था । मुझसे अधिक तो तुम मजबूर दिखाई दे रहे थे। तुमने बस इतना ही कहा था - ' शायद अब हमें चलना चाहिए ' !
- " जी " यही तो एक शब्द है जो मैं अक्सर तुमसे कहती आई थी।
काश ! उस दिन तुमने मुझसे वह न कहा होता, बल्कि मेरे सारे आरोपों के प्रत्युत्तर में मुझे ही कटघरे में खड़ा किया होता। तुम्हें कुछ भी पूछ लेने का हक दिया था मैंने। काश ! तुमने अपने उस हक का उपयोग किया होता ! हमेशा की तरह उस दिन भी मुझ से उलझ गए होते पूछा होता कि तुमने ऐसा क्या कह दिया या कर दिया कि मुझे तुमसे यह सब कहना पड़ रहा है ?
तुम्हारा कुछ न कहना, कोई स्पष्टीकरण न देना उस वक्त न सही लेकिन आज अखरता है। बार-बार सोचती हूं कि तुम उस वक्त मुझसे क्या कहना चाहते थे और फिर कहा क्यों नहीं ? कोई कैसे इतनी शालीनता से, इतनी सद्भावना से अपना तिरस्कार, अपनी उपेक्षा, अपनी बेइज्जती सहन कर सकता है ? क्या सचमुच, मुझसे बात-बात पर, मेरी छोटी-छोटी सी हरकत पर, मुझसे ही कई तरह के सवाल करने वाले, तुम अचानक ही देवता बन गए थे ? शायद हां, वरना किसी साधारण या आसाधारण मनुष्य में इतनी सहनशक्ति कैसे हो सकती है भला?
तो फिर आज कैसे कोई इल्जाम लगा दूं तुम पर, जबकि उस समय मेरे सारे इल्जाम के जवाब अनुत्तरित ही रह गए ? हां चुपचाप सहन कर, मुझसे दूर भागने का इल्जाम तो तुम्हें स्वीकार करना ही पड़ेगा !
मेरे सभी आरोपों को चुपचाप स्वीकार कर सर झुकाए, हां बताओ - तुम कहां गए . . . ?
to be continued . . .
Shailendra S.
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