Tuesday, June 29, 2021

तुम कहां गए - 16

      अविश्वास, अटूट विश्वास की प्रथम सीढ़ी होती है। अर्थात किसी पर भी किया गया अविश्वास जब विश्वास में परिवर्तित होता है तो वह अटूट हो जाता है।


      अब हम कह सकते हैं कि एक अटूट विश्वास का जन्म एक अविश्वास से होता है। चाहे वह अविश्वास क्षण मात्र के लिए ही क्यों न हो। 


  मानवीय संवेदना से परे यदि कोई दुनिया होती है, तो वह दुनिया देवताओं की दुनिया है। उद्गम और उच्छृंखल लहरों का आवेग मन में उठे तूफान का प्रतिरूप ही होता है।


   तो क्या राम का सीता के वियोग में यूं भटकना उनकी खोज करते हुए पुष्प लताओं, वाटिकाओं, वृक्ष कुंजों, पर्वत श्रृंखलाओं से बार - बार ये पूछना, - तुम देखी सीता मृगनयनी ! 


    एक दूसरे की विरह वेदना में राधा और कृष्ण का संपूर्ण जीवन व्यतीत हो जाना, सामाजिक स्वीकार्यता के बावजूद एक दूसरे से दूर रहना, निरर्थक था ?


    अपने जिस विराट रूप को प्राप्त करने के लिए कृष्ण कर्म योगी बने, उससे भी विराट स्वरूप राधा ने सिर्फ कृष्ण से प्रेम करके प्राप्त किया, और कृष्ण से एक पायदान ऊपर ही रहीं। राधे-कृष्ण कहलाई। 


    कुरुक्षेत्र में दी गई गीता की आध्यात्मिक और वैज्ञानिक परिभाषा का खंडन वर्षों पहले गोपियों के द्वारा उद्धव को मिल चुका था। शायद इसलिए कृष्ण ने भी कभी उद्धव को गीता का ज्ञान देना उचित नहीं समझा। क्योंकि उधव जान चुके थे,
      " मन न भए दस बीस" 

      प्रेम की अनुभूति से ईश्वर का जो विराट स्वरूप प्रदर्शित होता है, वह कुरुक्षेत्र में खड़े कृष्ण के विराट स्वरूप से भी कहीं ... कहीं अधिक प्रभावशाली और स्वीकार्य है। यदि ये सभी देवता थे, तो मानवीय संवेदनाओं से कैसे ग्रसित हो गए? बताओ ?


       क्यों राम, सीता को वन वन भटकते ढूंढते रहे, और क्यों कृष्ण राधा के लिए ताउम्र तरसते रहे ?

   क्यों हमें राम का वही प्रतिरूप भाता है जो सीता को खोजता हुआ वन - वन भटक रहा है ? हम उसी कृष्ण को अपने अंतःकरण में देखना चाहते हैं जो राधा के लिए, उसे रिझाने के लिए, उसे मनाने के लिए, तरह तरह के स्वांग करता है। अपने प्रिय के बरसाने की गलियों में भटकता है, और उसकी पुकार  राधे ! राधे !! के रूप में आज भी हमारे अंतःकरण से निकलती है, हमारे मन के बरसाने की गलियों में आज भी गूंजती है,

राधे ! राधे !! राधे !!!


       जिन मानवीय संवेदनाओं को पा लेने के बाद देवता भी देवता न रहे बल्कि उससे कहीं अधिक ऊंचे पायदान में पहुंच गए, जहां अनुभूतियों के मध्य विभाजित संग्राम एक नए कुरुक्षेत्र को जन्म दे गया, जहां गीता के रहस्य आज भी बिखरे पड़े हैं और मनुष्य तथाकथित उन्हीं राहों में अपने व्यक्तित्व को खोजता हुआ भटकता है।

       तब क्या यह सही नहीं होगा, कि हम अपने अंतःकरण में स्थापित किसी देवता को या उसके किसी ज्ञान को महसूस कर उसे प्रत्यक्ष देख सकने की अनन्य संभावना की चाहत में डूब कर, प्रेम की उत्कृष्ट सृष्टि का निर्माण कर दें ? जहां पर देवता भी आने के लिए तरस जाएं।


     तुम्हारी दुनिया में क्या है मैं नहीं जानती, लेकिन आज मेरी दुनिया में देवत्व एक अभिशाप है। क्योंकि उसे धारण करने वाला चिर वियोग में सुलगता है। यदि भूले से भी कहीं उसने अपनी संवेदनाओं को व्यक्त कर दिया तो वह अपने देवत्व के पद से विमुख हो जाएगा।


      यही एक डर उसे सदैव सताता रहता है। मेरी दुनिया तो वह दुनिया है जहां पर तुम और और तुम्हारी निकटता एक सहजता है। जहां संवेदनाओं का मूल्य देवत्व से कहीं अधिक है। मन में उपजे उद्दवेग और प्रेम अनुभूति को बांधना भी चाहूं तो किस खूंटे से बांध दूं ? उसे बांधने के लिए भी तो तुम ही चाहिए। बात सरल है किंतु उतनी सहज नहीं।


    मैं जानती हूं, तुम्हें पुकारू भी तो अब किसके लिए, और तुम आओगे भी तो किसके लिए ? शायद न तो तुम्हारे पास कुछ शेष बचा है, और न ही मुझे उसे सहेज लेने के लिए कोई हिम्मत ही बची है। 


     तुम अपना सब कुछ कुरुक्षेत्र के मैदान में लुटा चुके, और मैंने अपना सब कुछ तुम्हारे इंतजार में। अब शेष बचा भी तो क्या ? बस एक आस कि कहीं न कहीं तुम फिर मुझ से टकरा जाओगे। कभी न कभी शायद तुम लौट ही आओगे ?


   कई अविश्वासों की गलियों में भटकते हुए मैं, हां मैं, यदि आज इस विश्वास के नजदीक पहुंची हूं कि कहीं ना कहीं से तुम भूले भटके ही सही, मेरे पास लौट आओगे, तब तुम बताओ मेरे इस अटूट विश्वास को तुम कैसे तोड़ सकोगे ? इसलिए पूछ रही हूं, बार-बार पूछती हूं, हां बताओ, तुम कहां गए  ...

to be continued . . .
Shailendra S.

No comments:

Post a Comment

अजनबी - 2

अजनबी (पार्ट 2)       पांच साल बाद मेरी सत्य से ये दूसरी मुलाकात थी। पहले भी मैंने पीहू को उसके साथ देखा था और आज भी देख रहा हूं...