Saturday, June 19, 2021

तुम कहां गए - 14

 अपनी सभी समस्याओं, सारी मजबूरियों को दरानिकार कर तुम्हारे प्रति यदि कोई जवाबदेही तय भी करती, तो तुम ही बताओ वह क्या होती ? 

     मान्यताएं टूटती हैं, अवधारणाएं बदलती हैं, किंतु किसके लिए ? किसी को जवाबदेही तो तय करनी होती है, उठानी भी पड़ेगी है।  यदि वह व्यक्ति ही न हो तो यह सब किसके लिए और क्यों ? तब सब कुछ व्यर्थ नहीं लगता ? माया - मोह का निरर्थक प्रपंच ? 


         तुम जहां भी हो, निष्कर्ष तो तुम्हे ही निकालने होंगे। जब तुम मेरी जिंदगी में कभी शामिल हो ही नहीं सकते थे, तो मैं तुमसे क्योंकर कोई संबंध रखती ? 


       यदि हमारे कर्मों के द्वारा पाप - पुण्य का निर्धारण होना होता तो बात कुछ और होती, लेकिन यहां तो विपरीत था। पाप पुण्य की परिभाषा से हमारे कर्म निर्धारित होने थे । जब मान्यताएं और अवधारणाएं दोनों के मापदंड पहले से ही तय हो चुके हो तो उसके बाद ? क्या शेष राह जाता है ?  उनके अधीन रहकर हम क्या पा लेते, यहां तो सिर्फ खोना ही होता। 


  माना कि कुछ पा लेने और कुछ खो जाने के डर से जीवन नहीं रुकता, फिर भी आसान सुलभ रास्तों का परित्याग कर सिर्फ तुम्हारे लिए कठिन रास्तों पर चलना मेरे लिए कहां तक सही और मुमकिन होता ? मेरे लिए तुमसे आसान, बेहतर और सुखदाई विकल्प पहले से ही तैयार किए जा चुके थे, तो फिर भला मैं उनका परित्याग क्यों और कैसे करती या कर देती, बावजूद इसके कि मेरे लिए निर्धारित किए गए रास्तों, मेरी मंजिलों को मेरी पूर्ण सहमति प्राप्त थी। 


   जिससे मैंने प्रेम किया, और जिसने मुझे प्रेम करना सिखलाया। समय के उन टुकड़ों में तुम तो कहीं न थे मेरे दोस्त, और न ही था तुम्हारा कोई विजन।  तो फिर मैं भला कैसे अपनी वफाओं से मुख मोड़ लेती ? न जाने कितने ही अपनों के लिए मैं बेवफा न हो जाती, बोलो ? 

   मैं तुम्हारी जिंदगी की ऐसी वर्जना थी जो सदैव तुम्हें लुभाती रही। संपूर्ण ब्रह्मांड के इस अनंत विस्तार में, यदि हम कहीं एकाकार रहें हैं, तो फिर हमें एक दूसरे से अलग होना ही नहीं चाहिए था। अब जब हो ही गए तो फिर एक दूसरे के प्रति ये कैसा मोह ? चुंबकीय गुणों के आधीन समान धुवो का प्रतिकर्षण ही सही होगा।


  आज जहां कहीं भी भटक रहे हो, तो कहती हूं तुमसे, मत भटको, लौट जाओ उन्हीं रास्तों से अपनी उसी दुनिया में, जहां से मुझे खोजते हुए, भटकते हुए मुझसे आ मिले थे। यह दुनिया तुम्हारी कभी न होगी। तुम इसके लायक कभी ना बन पाओगे। यदि भटकना ही तुम्हारी पूर्व निर्धारित नियति है, तो भटकते हुई एक बार तो तुम मुझ तक आओ, देखो तो, मैं अभी भी तुम्हे रोक न रही !!


 जब न चाहा तो आ मिले, बिना वजह ही ! और जब आज मन से पुकारती हूं तो ... ?

   - हा बताओ ! कहां गए तुम ? बिना वजह ही।

   क्या यकीन कर लूं कि तुम अब इस दुनिया में नहीं रहे . . .

to be continued . . .

Shailendra S.

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