कभी सोचती हूं उन दिनों में तुम क्या थे, और मैं क्या थी ? यह प्रश्न तुमसे नहीं खुद अपने आप से पूछती हूँ आज ।
आज क्यों तुम्हें याद करके बरबस ही मेरी आंखें भर आती है। सच लिखा था, तुमने मुझे रोने भी न दिया। यदि आज कोई हिचकी भी आती है, तो यही सोचती हूं कि हो सकता है तुमने मुझे याद किया हो।
क्यों मैं अक्सर अपने घर की उन जगहों को देखती रहती हूं, जहां पर तुम आ कर बैठा करते थे। उन सभी चीजों को छू कर देखती हूँ। जिन्हें तुम कभी छुआ करते थे, और तुम्हें महसूस किया करती हूं। बस एक तुम ही तो थे, जिसे मैं कभी छू भी न पाई। अपने अंतर्मन से भले ही तुम्हें छुआ हो, लेकिन उसी छुअन को मैं अपने शरीर पर भी महसूस करना चाहती थी।
सोचती थी, कि कभी तुम मेरे सपनों में आओ और मेरे पास बैठो, और मैं तुम्हें गले से लगा लूं। तुम से लिपट कर अपने मन की सारी बात कह दूं। पर ऐसा कभी नहीं हुआ। तुम मेरे सपने में भी कभी नहीं आए।
अवचेतन मस्तिष्क में कैद घटनाएं और यादें, स्वप्नदर्शी होती हैं ।
शायद तुम मेरे इतने करीब होते हुए भी मेरे अवचेतन मस्तिष्क की किसी भी याद में सम्मिलित नहीं हो पाए। तभी तो मैं तुम्हारा कोई स्वप्न भी न देख पाई।
यदि यह जीवन कोई रहस्य है, तो शायद यह रहस्य इतने गूढ़ और उलझे हुए हैं की तुम्हारा अस्तित्व मेरे जीवन में किसी रहस्य से कम नहीं था। सदैव मैं तुम्हारे होने, या ना होने के बीच की लहरों में तैरती रही, उन्हीं से उलझती रही, और किनारे पर खड़े होकर तमाशा तुम देख रहे थे। और इल्जाम मुझ पर लगाया !! -
साहिल पर खड़ी तू बेखबर,
लहरों से जूझता मेरा मुकद्दर,
क्या जरूरी था ?
मेरे अपने ही होने की पहचान थे तुम। कभी तुमने मेरे लिए कहा था कि मैं जैसी दिखती हूं, वैसी नहीं हूं। पत्थर सी कठोरता का आवरण पहना भी तो शायद यही सोच कर कि कहीं कोई मेरे अंतर्मन के भेद न जान ले । कोई यह न जान सके कि मैं तब भ कितनी भावुक और संवेदनशील थी।
मेरे मन में भी छोटी-छोटी चाहतें जन्म लेती थी। अप्रत्याशित बातें और घटनाएं प्रभावित करती। मेरा भी मन तुम्हारे जैसे ही कभी-कभी छोटी सी बात पर उल्लसित होता। और कभी छोटी से छोटी बात भी दिल को आ-सीधे लगती थी ।
लेकिन मैं ? अपने सभी दर्द छुपा लेती। कभी किसी के सामने अपनी इन भावनाओं का प्रदर्शन नहीं किया। या फिर यूं कह लो, मैं तुम्हारी उपेक्षा इसीलिए करती रही कि मैंने खुद को भी अपने आपसे उपेक्षित ही रखा।
मैं जानती हूं कि मेरी उपेक्षाओं से तुम आहत हुए , और एक दिन मुझसे रूठ, . . चले भी गए। तुमने जो सहा, उसे आंखों से निकाल दिया। वह तुम्हारी आंखों से आंसू बनकर बह निकले। लेकिन मेरा क्या ? मैं तो रो भी न पाई !
आज मैं खुद को ही उपेक्षित करती हूं, यही सोच के कि शायद तुम्हारे उस दर्द को समझ सकूं। तुम्हें उपेक्षित रखा, तुम्हें खुद से दूर रखा, आज उसका दर्द उसकी चुभन मैं अपने अंतर्मन में महसूस करती हूँ । मेरी उपेक्षाओं के तीर आज मेरे हृदय में किसी काटें की भाति चुभते हैं।उसे लहूलुहान करते हैं। आज मैं समझ सकती हूं कि तुमने क्या कुछ नहीं सहा होगा ! तो क्या ? मैं तुम्हारी दोषी बन गई? जिसकी इतनी बड़ी सजा दी तुमने !
यदि मेरे आस-पास होने का आभास दिलाते हुए मुझे उपेक्षित करते तो तुम्हारे दिल को भी ठंडक मिलती शायद ? लेकिन अपनी अंतरात्मा से निष्कासित कर, मुझसे यूं दूर चले जाने पर तुम्हें भी क्या मिला होगा मेरे दोस्त ? कौन सी सुखद अनुभूति पा ली होगी तुमने ? मैं नहीं जानती कि तुम, अब आज इस दुनिया में हो भी या नहीं ? कौन जाने, गुजर गए हो, और मैं यहां बेखबर तुम्हारा इंतजार कर रही हूं !!
मैं यह भी जानती हूँ कि मेरे प्रति तुम्हारी चाहत, अब जिसे शायद मैं प्रेम या उससे अधिक कह सकती हूँ , तुम्हारी किसी भी भौतिक चाहत से परे थी। लेकिन तुमने जब भी तारीफ कि तो मेरे इसी शरीर की , मेरे रंग - रूप की। तुम्हारी प्रत्येक तारीफ मेरे आईज , नोज़ , लिब्स , चीक के इर्द - गिर्द ही रही। यहाँ तक कि मेरे कान की छोटी - छोटी बालिया , मेरे पैंरो की पायल जैसी बेजान वस्तुए भी रही। कभी तुमने मेरे मन की तारीफ नहीं की , मुझे तो याद नहीं , शायद कभी की भी हो ?
अब तुम ही बताओ जब स्वयं तुम भी मेरे मन को मेरे शरीर से पृथक न देख पाए तो फिर जिस लौकिक संसार में हम हैं, तब और कौन देख पता ?
तुम्हारे छू लेने मात्र से मैं अपवित्र न हो जाती , बावजूद इसके कि मैं अक्सर सोचा करती थी कि तुम मेरे सपनों में आओ, मैं तुम्हे गले लगा तुमसे लिपट जाऊं, और तुम्हे जी भरकर प्यार करलूं ।तुम्हें चूँम लू ।
कैसी अजीब दुनिया है ये ? कोई शरीर छू ले तो तुम दूषित-कलंकित , और यदि कोई अंतर्मन को ही छू ले तो . . ?
मैं आज भी उसी एक कैद में हूं, हां कैद ! और यह कैद मैंने स्वयं स्वीकार की और अपने लिए बनाई भी। यदि मैं उस कैद से, जब तुम मिले, उस वक्त खुद को आजाद करने की कोशिश भी करती, तो जानते हो क्या होता ?
मैं तुम्हें भी खो देती, आसमान जमीन पर गिर पड़ता। दुनिया तहस-नहस हो जाती। समाज के बनाए सभी नियम, कानून-कायदे और मर्यादा टूटती। आसान शब्दों में कह लो बवंडर मच जाता।
यदि तुम मेरे लिखे को कभी कहीं पढ़ो तो तुम जरूर हंस पढ़ोगे। मैं भी हंस लेती हूं - वाह रे दुनिया ! और उसके बनाए नियम कानून कायदे ? लेकिन छोड़ो इन सब को जाने दो, हमें क्या करना . क्या लेना, क्या देना इनसे। मैं तो बात कर रही थी कैद की।
कैद !! जिसे बनाया भी मैंने, और जिसे स्वीकार भी मैंने ही किया। मैं आज भी उसी कैद में हूं। लेकिन एक फर्क है, उस कैद में तुम मेरे सहभागी हो।
अपने तसव्वुर में तुम्हारी वही सूरत जो कि कभी मैंने अंतर्मन में बैठा ली थी, उसे लेकर चुपचाप उसी कैद में चली गई। वह कैद अब जिसमें तुम भी मेरे सहभागी हो, वहां न तो किसी समाज के कानून के टूटने का डर है और ना ही किसी मर्यादा के भंग होने का प्रश्न।
और अब तुम ही बताओ कि यह कैद, यदि मेरे लिए इस जन्म की ना होकर जन्म जन्मांतर के लिए हो और तुम मेरे सहभागीदार रहे तो ? तो क्या होगा ?
कभी-कभी इंसान अपने कमजोर पक्ष को सबल पक्ष में परिवर्तित कर जीने के प्रति अपने दृष्टिकोण बदल देता है। मैंने भी वही किया। अपने अंतर्मन में तुम्हें साथ लेकर मैं उसी कैद में चुपचाप चली गई।
कहते हैं अगर कोई ख्वाहिश इस जन्म में पूरी नहीं होती, तो इंसान उसके लिए दूसरा जन्म लेता है, उसे पूरी करने का प्रयास जरूर करता है । लेकिन मैंने तो अपने इसी एक जन्म में अपनी सारी ख्वाहिशें पूरी कर ली, तो अब पुनर्जन्म की आवश्यकता ही क्या ? इसलिए अब तुमसे यह भी नहीं कह सकती कि तुम मुझे दूसरे जन्म में मिलो।
यही सजा मुकर्रर की है अपने आप की।
और तुम्हारी ? कैसे लिख दू अभी !
अभी तो तुम मेरे गुनहगार हो. तुम्हारा मुकदमा पूरा कहां हुआ है ! वह तो अभी जारी है . . .
,......... To be continued
Shailendra S. 'Satna'
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