Friday, July 30, 2021

तुम कहां गए ? 25

     संबंधों की इतनी घनिष्ठता के बाद रिश्तो का इतना प्लेटोनिक हो जाना गले नहीं उतरा था, बेवजह की बकबक करते हुए तुम्हारा एकदम से यूं खामोश हो जना मुझे अखरने लगा था, मेरे दोस्त।


   तभी तो तुम्हे सताने के लिए, तुम्हे ये एहसास दिनाने के लिए कि हां तुम मेरे लिए कोई मायने नहीं रखते, कोई महत्व नहीं रखते, मैंने भी तुम्हे दुगने भाव से उपेक्षित किया। जबकि वास्तविकता यही थी कि तुम सदैव ही मेरे अंदर ही रहे। 


   तुम्हारी पावन प्रांजल देवमूर्ति को मैं खुद से कभी अलग और विस्थापित नहीं कर पाई।


     तुम मेरे जीवन के वह सूर्य हो जिससे निकली रश्मि किरणें जलकण से विछिन्न होकर सप्तरंगी और अद्भुत आकृत का निर्माण करती हैं, और वह इंद्रधनुष धरती के एक छोर को दूसरे छोर से मिलाता हुआ प्रतीत होता है। तुम मुझसे जब भी टकराते थे, तो यही होता था मेरे दोस्त। मैं अपने अस्तित्व के एक छोर से दूसरे छोर पर आ मिलती थी। 

    तुम्हारी दृष्टि ही नहीं बल्कि तुम्हारे दृष्टिकोण में भी अपनी विशिष्टता पर मैं खुद को गौरवान्वित महसूस करती। यदि तुम पर अपना अविश्वास जाहिर कर मैंने कोई भूल की तो मेरे इस भूल को मुझे विश्वास दिलाना तुम्हारी सबसे बड़ी भूल थी।  इसीलिए लिखा की संबंधों की इतनी घनिष्ठता के बाद रिश्तो का इतना  प्लेटोनिक हो जाना कदाचित उचित नहीं था। 


     निसंदेह तुम निहायत ही स्वार्थी अपरिपक्व और संवेदनहीन इंसान थे। जो व्यक्ति अपने ही मन की संवेदना को न समझ सके, तो उसे संवेदनहीन न कहें तो क्या कहें ? संबंधों को केवल अपनी भावनाओं के दायरे में सीमित रखना अपरिपक्वता नहीं तो और क्या है ? इस जीवन में या यूं कहें इस जिंदगी में सामाजिक बंधन, मान मर्यादा और उनकी रक्षा करना भी तो जरूरी है। जो संवेदनहीन और अपरिपक्व हो वह स्वार्थी तो होगा ही। उसमे सामाजिक समझ कहां!


    हो सकता है एक दिन ऐसा भी आए कि मैं तुम्हें भूल जाऊं, तुम्हें कभी याद ही न करू, तुम्हें अपने अंतर्मन की कैद देकर खुद को मुक्त कर लूं , तो फिर क्या होगा, जानते हो? . . .

हमारा मिलना बेवजह था,
हमारा यूं बिछड़ना बेवजह था,
मेरा हंसना बेवजह था,
तुम्हारा यूं उदास होना बेवजह था,
मेरा इंतजार करना बेवजह था,
तुम्हारा यूं चले जना बेवजह था,
मेरी खामोशी भी बेवजह थी,
मुझे देख तुम्हारा मुस्कुराना बेवजह था,
इंतजार, आंखों के आंसू बेवजह थे
वह सब कुछ बेवजह था।

मेरी उम्मीद बेवजह थी,
तुम्हारा इंतजार भी बेवजह था।
तुम्हारी आंखों का सूनापन
मेरे होठों का थरथराना,
हां, सब कुछ बेवजह था।

साहिल पर तेरा यूं खामोश खड़े रहना,
और लहरों से जूझता मेरा मुकद्दर
तेरा आंसुओं का समंदर पार करना,
खुद को गुनहगार ना समझ ले तू,
सोच कर मेरा चेहरा घुमा लेना,
सदियों से यू जलते रहना मेरा
सदियों से भटकते रहना तेरा
हां, सब कुछ बेवजह था !!
और फिर अब ?

ये सारे मौसम बेवजह,
दिन का होना, 
रातों का गुजरना बेवजह,
सूरज का तपना बेवजह,
तारों का चमकना बेवजह,
बारिश का बरसना बेवजह,
तुम्हारा न होना बेवजह,
सांसों का चलना बेवजह
हवाओं का बहना बेवजह,
फूलों का खिलना बेवजह,
शाखों से पत्तों का गिरना बेवजह,
पपीहे का प्यासा रहना बेवजह,
स्वाति नक्षत्र का आना भी बेवजह,
हो कर मेरा न होना बेवजह
हां, फिर सब कुछ बेवजह ....
to be continued. . .
Shailendra S.

Thursday, July 15, 2021

तुम कहां गए 24

अश्कों से भरी इन आंखों में,

तेरी तस्वीर छुपा रखी है, 

मिट ना जाए तू कहीं मेरी यादों से,

अश्कों की दीवार बना रखी है।

तुम्हें पा लेने की चाहत, 

और खो देने का डर, 

अपने जीवन में  यही एक, 

इबारत लिखा रखी है।

अब किसे रखूं मैं अपनी यादों में !!

सारी यादें तेरे नाम लिखा रखी हैं।

मेरी चाहत की अब ये इंतहा है,

अब भी जो तू रूठा रहा तो,

तेरी कब्र भी इस दिल में बना रखी है।


     जानती हूं भावुकता और जज्बातों के अधीन रहते हुए जिंदगी में लिए गए निर्णय उतने सही नहीं होते हैं जितने कि हम चाहते हैं। 


      यदि कहूं कि मैं तुम्हें बेहद प्रेम करती हूं, तो इस में यह बात भी अंतर्निहित है कि कभी मैं तुम्हें बेहद प्यार नहीं करती थी। 


    यदि कहूं कि आज मैं सच कह रही हूं तो इसका एक अर्थ यह भी है कि मैंने कभी तुमसे झूठ भी कहा था। अर्थात प्रत्येक स्वविकार्य तथ्य का एक विरोधाभासी अस्वाविकार्य तथ्य पहले से मौजूद होता है।


    कुछ होने या न होने के बीच का अंतर व्यापक होता है। यदि यह कहूं कि मैंने सदैव ही तुम्हें प्रेम किया है तब भी एक विरोधाभास तो रह ही जाता है।


       वह है प्रकृति का विरोधाभास। जब  सदैव के लिए अर्थात हमेशा के लिए कुछ हो ही नहीं हो सकता है तो ? तब यहां भी मैं झूठी ही साबित होती हूं न।  


     यदि अंतर व्यापक है और इतना व्यापक है कि हम उसे अनंत यानी कि अपरिभाषित अनकाउंटेबल कह सकते हैं तो इस व्यापकता में विस्तारित प्रेम ही नहीं अपितु हर चीज रहस्यमई है। 


      एक ऐसा रहस्य जो अनंत होते हुए भी अपरिभाषित ही रह जाता है। यदि एक और एक को आपस में जोड़ा जाए तो उसका परिणाम दो होता है, अब यदि हम एक अनंत को दूसरे अनंत से जोड़ते हैं तब क्या दो अनंत होंगे? नहीं तब भी एक ही अनंत होगा ! है ना चकित कर देने वाला तथ्य? 


    यदि हम दोनों का प्रेम अलग-अलग दो अनंत, दो अपरिभाषित हैं तब भी उन्हें एकाकार होना ही होग। दो समानांतर प्रेम किसी न किसी एक अनंत बिंदु में जाकर अवश्य मिलेंगे जोकि अभी अदृश्य है, अपरिभाषित है। यानी कि हमारा किसी एक बिंदु पर मिलना तो नियति है, चाहे आज वह बिंदु अदृश्य, अनंत और अपरिभाषित ही सही। 


     जब हम इस तथ्य को स्वीकार कर रहे हैं तो फिर आज यह स्वीकार करना पड़ेगा कि अभी हमारा मिलन नहीं हो सकता। यही तो जिंदगी है, यही तो इसका विरोधाभास है, मेरे दोस्त।


     सागर की गहराई में मोती खोजते हुए किसी व्यक्ति से पूछिए तो वह बताएगा कि आखिरकार उस मोती को लेकर वह सागर की गहराई से ऊपर ही आएगा तभी वह उस मोती के साथ जीवन व्यतीत कर सकता है। अर्थात वह उसे अपने साथ रख सकता है। 


     यदि वह मोती को ले कर उसी सागर में, उसकी गहराइयों में ही रह जाता है, तो ? तो फिर कितने क्षण, और कितने पल के लिए उन दोनों का साथ होगा ?  यदि तुमसे मिलने के लिए या तुम्हें पा लेने के लिए मुझे मृत्यु की सागर की गहराइयों में भी उतरना हो  तब भी तुम्हारे साथ जीने के लिए पुनर्जन्म तो लेना ही पड़ेगा . . .

to be continued . . .

Shailendra S.

Tuesday, July 13, 2021

तुम कहां गए 23

    कभी सोचती हूं, तुम्हें सजा-ए-मौत लिखकर अपनी कलम तोड़ दूं। 

    मैं भी तुम्हें खारिज कर दूं अपनी जिंदगी से। लेकिन अगले ही पल सोचती हूं, यदि ऐसा कर दिया, तो ये सारे उलाहने, अपने दिल के सारे दर्द फिर किससे कहूंगी? किसे लिखूंगी? 

     मैं यह भी जानती हूं कि तुम मेरे द्वारा निर्धारित कोई भी सजा सहर्ष स्वीकार कर लोगे। तुम कहीं भी रहो मेरी बात तुम तक अवश्य पहुंचेगी, और तुम ? बड़े ही खामोशी के साथ बिना कोई सफाई दिए, वह सजा सहजता से स्वीकार कर लोगे।

   वर्जनाएं आकर्षित करती हैं। सहजता और सरलता से प्राप्त कोई भी वस्तु या व्यक्ति कभी आकर्षित नहीं करता। वह दर्शनीय तो हो सकता है, किंतु आकर्षक नहीं।

        यदि तुम चीखों, चिल्लाओ उत्पाद मचाओ, अपनी सफाई पेश करो, तो मैं अवश्य ही तुम्हें सजा-ए-मौत तक दे सकती हूं। लेकिन तुम्हारे लिए सहजता से स्वीकार कोई भी सजा मुझे स्वविकार्य नहीं। 

      तुम जहां भी रहो सुखी रहो, खुश रहो, ऐसी दुआएं मैं कभी भी नहीं मांग सकती। मैंने तुम्हारे लिए जो सजा निर्धारित की है वही सही है। तुम सदैव मेरे अंतर्मन की कैद में रहो और ठीक उसी तरह छटपटाते रहो जैसा कि मैं तुम्हे कैद कर।

     चलो मैं तुम्हें एक छोटी सी कहानी सुनाती हूं ,

    एक ऋषि ने चक्रवर्ती सम्राट को अक्षय यौवन और चिर आयु बरकरार रखने के लिए एक फल दिया। सम्राट ने वह फल अपनी प्रिय रानी को दिया ताकि उसका यौवन सदैव के लिए बरकरार रहे।

       रानी ने उस फल को अपने प्रेमी राज्य के प्रधान सेनापति को दिया जिससे वह प्रेम करती थी। और प्रधान सेनापति ने यह फल राज दरबार की नृत्यांगना को दिया जिससे वह प्रेम करता था।

    उस नृत्यांगना ने विचार किया कि यदि यह फल उसके राजा को मिल जाए तो वह सदैव सुंदर दिखेगा, उसका यौवन बरकरार रहेगा, वह चिर आयु होगा। और इस तरह इस राज्य को चिरकाल के लिए सहृदय दयालु और प्रशासनिक व्यवस्थाओं को बेहतर ढंग से संभालने और लागू करने वाला राजा मिल जाएगा। और इस तरह उसने निर्णय लिया कि वह इस फल को राजा को देगी।

     इस तरह वह फल पुनः राजा तक पहुंच गया। उस चक्रवर्ती सम्राट को तब यह बात समझ आई कि हम यदि किसी व्यक्ति को अपने जीवन में जितना महत्वपूर्ण समझते हैं, या स्थान देते हैं, जरूरी नहीं कि उस व्यक्ति के जीवन में हम भी उतने ही महत्वपूर्ण हों। 

    यहां प्रश्न प्रेम के होने या न होने का नहीं था। प्रश्न इस बात का था कि उसका प्रवाह किस दिशा में और कितना प्रबल है।

    स्वाभाविक था कि रानी अपने पति राजा से प्रेम करती थी लेकिन उस प्रेम की दिशा और प्रवाह की प्रबलता इतनी तीव्र नहीं थी जितने की अपने प्रेमी के प्रति।

     यदि ऐसा न होता तो वह फल वह स्वयं अपने हाथों से राजा को ही खिलाती। उस चक्रवर्ती सम्राट का इस संसार के प्रति मोह भंग हुआ, उसने वह फल उसी ऋषि को वापस, राजपाट छोड़ वैराग्य धारण कर लिया। 


     मानो तो सत्य कुछ भी नहीं और यदि मान लो तो सत्य बहरूपिये होते हैं मेरे दोस्त। न जाने कितने रुप धारण कर हमारे जीवन में आते हैं और हमें छलते हैं।


    प्रेम किसी के प्रति भी हो सकता है लेकिन उसकी तीव्रता यानी कि इंटेंसिटी एक सी नहीं होती। जिसके प्रति प्रेम की तीव्रता सर्वाधिक होती है वह प्रीतम होता है या फिर ईश्वर होता है। 


     यदि यह सत्य है तो अब तुम मेरे प्रिय भी और मेरी ईश्वर भी।

    ईश्वर तो मनुष्य की अंतरात्मा में होता है। अंतर्मन में एकनिष्ठ भाव में समाहित अद्वितीय प्रीतम। तो फिर बताओ भला कि मैं तुम्हें अपने अंतर्मन से कैसे निकाल दूं? कैसे मुक्त कर दूं? 

     यदि एक ईश्वर जो निराकार है, अदृश्य है, अपने निर्धारित कर्म को करने के लिए अवतार ले सकता है। तो फिर भला तुम मेरी पुकार सुनकर मेरे अंतर्मन से बाहर निकलकर प्रकट क्यों नहीं हो सकते ? 

    कोई कसम या वादा निभाने के लिए न सही किंतु एक बार सिर्फ एक बार सशरीर मुझे गले से लगा कर मुझे सांत्वना देने के लिए ही सही, आ तो सकते हो न?

    काश ! उस दिन समय अवधि के उस क्षण को मैं रोक लेती। अस्ताचलगामी सूर्य को वही ठहरा देती, और कहती कि ये रुको, तुम अब डूब नहीं सकते। यह पल यह क्षण इसी समय मैं रोकती हूं। यदि तुम्हें रोक दिया तो वह क्षण भी रुक जायेगा। तब मेरे मन का यह प्रीतम कुछ और पल के लिए मेरी नजरों के सामने रहेगा। यही रुका हुआ मेरे सामने खड़ा रहेगा।


   काश कि तब मैं तुम्हें जी भर कर एक बार फिर देखती, या न भी देखती, तो भी तुम वहीं खड़े रहते, ठीक मेरे सामने।

    तुम पर कोई आरोप लगाने से पहले खुद मुझे अपने प्रश्नों के जवाब तलाशने होंगे, मेरे दोस्त।

      आखिर वह वजह क्या थी कि तुम मुझे यूं छोड़ कर चले गए। फिर कभी न लौट आने की तुम्हारी कसम या मजबूरी क्या है? दिल के कौन से रास्ते, ऐसी कौन सी मंजिल है जिन पर मैं न चल सकी ? 

      मेरी अज्ञानता, मेरा अहम या फिर मेरा अंतर्मुखी स्वभाव इन सब के रास्ते में स्वत ही आ गया था क्या।

     जहां तक मैं अपने बारे में जानती हूं, थोड़ा जिद्दी हूं, लेकिन घमंडी नहीं। उस वक्त नासमझ नहीं थी। इसलिए यह भी नहीं कह सकती कि मैं अज्ञानी थी, कुछ नहीं समझती थी। या तुम्हारी आंखों की बेचैनियों को मैं पढ़ नहीं पाती थी।

     हां उन्हें नजरअंदाज जरूर करती थी। अब परवाह नहीं कि तुम कैसे हो ? अभी भी मैं तुम्हारे बारे में उतना ही सोचती हूं जितना कि कभी-कभी एकांत में उस समय तुम्हारे लिए सोचा करती थी।

    अनावश्यक वाचाल न होने के कारण तुम मुझे अंतर्मुखी स्वभाव का कह सकते हो।

      पता नहीं क्यों और कैसे इतना कुछ लिख गई। यदि सामने तुम होते, तो शायद इतना कभी न कह पाती। जिनकी दुनिया खुद तक सीमित हो और वह उन्हीं दायरों में रहना सीख लेते हो, तो हम उन्हे अंतर्मुखी स्वभाव का कह सकते हैं। 


     लेकिन जब उसकी दुनिया में उसके साथ कोई और भी हो और वह उससे कभी यह न कह सके या समझा पाए तो क्या कहेंगे? सहचर होते हुए भी कुछ अनकहा शेष रह जाए तो फिर ऐसा कौन सा शब्द है जो इसे परिभाषित कर सके।

 तुम मेरे लिए वही एक अनकहा अपरिभाषित शब्द हो . . . हां मेरे दोस्त ... तुम आज भी वही ... एक अनकहा अपरिभाषित शब्द हो मेरे लिए ...
to be continued 
Shailendra S.







Friday, July 9, 2021

तुम कहा गए 22

   जिंदगी को जी लेना और गुजार लेना दोनों में फर्क होता है, मेरे दोस्त ! 

      सशर्त जिंदगी गुजारी तो जा सकती हैं, जी नहीं जा सकती! जिंदगी जी लेने के लिए यह आवश्यक है कि वह सभी बंधनों और शर्तों से मुक्त हो। किसी के होने या न होने को समय से नहीं मापा जा सकता। 

    समय तो वह यूनिट है जिससे घटनाओं की अवधि या जिसे हम अब समयावधि कह सकते हैं को व्यक्त करना है। शायद इसीलिए ही तुम भी कहते थे कि इस दुनिया में समय नाम की कोई चीज नहीं होती। अब देखो तो मैं तुम्हारी ही भाषा बोलने लगी हूं ! 

    आश्चर्य किंतु इस निर्धारित सत्य जिससे होकर गुजरना ही था। जिस समयावधि के लिए तुम मेरी जिंदगी में निर्धारित थे, वह गुजर चुका है। अब इसलिए मेरे लिए यह समय भी किसी काम का नहीं। 

     यदि हम जिंदगी अपने तरीके से नहीं जी सके, उसे शर्तों के बंधनों में बांधकर रखा तो अब पछताना कैसा ? यह तो हमारे ही द्वारा स्वीकार किया गया निर्धारित सत्य था। 

   काश, हम यह कर पाते, काश कि हम यह कह पाते, कि काश ऐसा हुआ होता, कि काश ऐसा न हुआ होता, कि काश शायद तुम मिल ही गए होते। अब इन सब के बारे में सोचना बेमानी होगा, मेरे दोस्त।

   यदि यह जिंदगी हमारी थी, तो इसे हमें अपनी शर्तों के अनुसार जीना चाहिए था। न कि अपनों या कि दूसरों द्वारा निर्धारित और तयशुदा शर्तों के अधीन। मैंने लिखा न, समय है लेकिन अब वह समयावधि नहीं, इसलिए मेरे लिए अब किसी समय के होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। 

     मानलो की मेरे लिए समय अब कुछ भी नहीं। उसका कोई अस्तित्व नहीं।
पता नहीं क्यों आज मुझे महसूस होता है, कि तुम सितारों की दुनिया से आए थे। शायद वहीं से भटक कर मेरी जिंदगी में यूं ही आ गए थे, बेवजह ही। 

     मैं न जानती थी कि एक साधारण से दिखने वाले तुम इतने सेंसेटिव भी हो सकते हो कि एक दिन बिना कुछ कहे बिना कोई शिकायत दर्ज किए मेरी जिंदगी से यूं ही चले जाओगे, इतने सेंसिटिव की भूलकर भी मेरी सुध न लोगे ? कि मैं जीती हूं या मर गई, इस की भी तुम्हें अब परवाह है ना होगी !!

      यदि तुम किसी समय में होते, तो मैं तुम्हें अवश्य पकड़ लेती। लेकिन क्या करूं तुम समयावधि जो ठहरे। अब उस टाइम स्लाइस को मैं कहां से लाऊं ? बताओ ??

     इसलिए इस मन में बार-बर यही आता है कि काश तुम वह कह पाते जो तुम्हें कहना चाहिए था और मैं वह सब सुनती जो मुझे सुन लेना चाहिए था। या यूं कहूं कि जिसे सुन लेना मेरी नियत होती है। 

     कहते हैं कि एक अच्छे तैराक की मृत्यु सदैव पानी में होती है, क्योंकि वह डूबने के प्रति लापरवाह होता है! वह कभी नहीं सोच पाता की वह डूब भी सकता है!!

     हमने भी यही सोचा था और देखो तो आज तुम्हें एकबार देख भर लेने की चाहत इस कदर बड़ी की अब हर जगह तुम ही तुम नजर आते हो। 

      तुम जिन नयनों के नैनाभिराम थे उन नयनों की प्रतीक्षा तुम्हें क्यों ना दिखाई देती है ? क्यों कर, और किस बात पर तुम मुझसे इतना रूठ गए हो ? मेरी पुकार तुम तक पहुंच कर भी तुम्हारे मन को उद्वेलित नहीं करती ? ह्रदय में मुझसे मिलने की एक हुक सी क्यूं नही उठाती?

    तो क्या यह मान लूं कि जितना कि आज तुम मेरे लिए हो, मैं तुम्हारे लिए कभी भी उतना भी नही थी ? उस दिन तुम किसी भ्रम में थे या फिर आज मैं किसी भ्रम में हूं ? या फिर कि आज मैं जिंदगी जी रही हूं, और तुम उस वक्त जिंदगी गुजार गए। 

या फिर कि . . .

      काल्पनिक दुनिया के हम दोनों एक ऐसे पात्र थे जो यथार्थ की दुनिया में कभी आ ही न पाए। पूर्वाग्रह पूर्व परिभाषित शर्तों के अधीन अपनी काल्पनिक दुनिया में ही रह गए. . .

     पत्थरों के शहर होंगे, तो न कदमों के निशा होंगे . . . .

to be continued . . .
Shailendra S.


Wednesday, July 7, 2021

तुम कहां गए 21

   स्वयं पर मोहित होना अज्ञानता की पराकाष्ठा है। 

    पंच तत्वों से बने स्थूल शरीर की उपेक्षा नहीं की जा सकती। आश्चर्यजनक किंतु सत्य है कि मानव के सूक्ष्म शरीर के निर्माण में सम्मिलित 18 तत्त्वों में सभी प्रकार की इंद्रियां, काम, क्रोध, मद, लोभ इत्यादि जैसे तत्व भी सम्मिलित हैं। 

   स्थूल और सूक्ष्म शरीर की उत्पत्ति का एकमात्र कारण जीव और उसकी आत्मा में पारस्परिक संतुलन है, जो प्राकृतिक है।

       इसलिए इसे सभी शरीरों का कारण भी कहते हैं।  शरीर की परिभाषा इतनी सरल कहां कि हम उसे सही-सही समझ सके, मेरे दोस्त। 

      24 तत्व से बने स्थूल, सूक्ष्म और कारणशरीर यानी प्राकृतिक शरीर। अब जरा मेरी लिखी बात पर ध्यान पूर्वक विचार करो -

   "जिसे देखकर मन में उठी तरंगे, आपके शरीर को हिला कर रख दे " - 

    क्या अब भी कहोगे कि मैं भौतिकता से परे नहीं सोचती हूं ? मैं विश्वास करती हूं, कि प्रत्येक वैराग में राग स्वत: ही समाहित है। इसके बगैर वैराग्य की कल्पना ही नहीं की जा सकती। 

     प्रेम इतना सरल नहीं है, मेरे दोस्त। उस तक पहुंचने के लिए शरीर के इन सभी 24 आयामों को पार करना होता है। संपूर्ण शरीर को वीणा के तार की तरह झंकतृत करना होता है। 

       यह सब इतना सरल कहां होता है मेरे दोस्त। किन्ही शब्दों में उसकी परिभाषा नहीं दी जा सकती। उसे शब्दों में नहीं कैद किया जा सकता है। यह तो एक अनुभूति है। एक एहसास है तो फिर इसकी अभिव्यक्ति कैसे हो ?
    
      प्रेम की अभिव्यक्ति के पूर्व इंसान को कई कई बार सोचना चाहिए। आई लव यू और मैं तुमसे प्रेम करता हूं या करती हूं, इत्यादि कहना जितना आसान और सरल लगता है, उसे समझना उतना ही कठिन होता है।

    शायद इसलिए मैंने भी कभी तुमसे नहीं कहा या तुम्हें कभी जताने की कोशिश नहीं की कि मेरे मन में तुम्हारे लिए क्या है? कैसे बता सकती थी कि लफ्जों से बयां कर सकती थी। 

       यदि उस अनुभूति को मैं महसूस कर सकती थी और शायद जिसे तुम भी महसूस करते रहे होगे। तो उसकी अभिव्यक्ति का मात्र एक जरिया था कि हम स-शरीर भी मिले होते हैं। 

    और शायद इसीलिए मैंने पूर्व में लिखा है कि कभी-कभी मैं चाहती थी, मेरे मन में आता था कि मैं तुम्हें गले से लगा लूं ! तुमसे लिपट जाऊं !! बस तुम्हारी ही होकर रह जाऊं।

    तो आज ये कहना कि मेरे मन के दर्शनशास्त्र भी तुम और मेरे इस तन के भौतिक शास्त्र भी तुम, पर्याप्त नहीं है?

    संवेदनाओ को परिभाषित करना आसान नहीं, एक छोर पकड़ो तो दूसरा अस्पष्ट और अपरिभाषित सा दिखाई देने लगता है। 

     शार्ट में लिखूं तो सो कन्फ्यूजन।

      टूटने के बाद बिखरना एक नियति है। बिखर कर फिर एकत्र होना, क्रिया के फलस्वरुप होने वाली प्रतिक्रिया है। 

    कभी तुम्हारे टूटने की वजह मैं बनी, तो यदि आज कहीं तुम संभल रहे होगे, अपने आप को समेट रहे होगे, पुनःस्थापित कर रहे होगे, तो इनकी वजह भी मैं ही हूंं,  मेरे दोस्त। 

    प्रश्न यह नहीं है कि मैं कितनी सही हूं या तुम कितने गलत। प्रश्न तो यह है कि यदि इस वक्त मैं सही हूं तो उस वक्त मैं गलत कैसे हो सकती हूं ? जबकि तुम मानो या ना मानो, मैं जो आज हूं वही कल भी थी, सच बिल्कुल नहीं बदली हूं।

     यदि काम क्रोध मद और लोभ मानवी विकार है तो इन से परे जाने के लिए इनके दायरे में आना भी आवश्यक है। श्रृंगार रस का स्थाई भाव रति अर्थात काम होता है। जब हम किसी को अपलक अर्थात एकटक देख रहे होते हैं तो मन में ये स्थाई भाव भी जागृत होते हैं और प्रकृत के अनुपम श्रृंगार की रचना करते हैं। 

   अंतर्मन में स्थाई शोक की भावना से ही करुण रस की उत्पत्ति होती है। हमारे शोक संतृप्त हृदय को जो संभाल सके उसका निदान कर सके वह करूणानिधान अर्थात ईश्वर होता है। 

    क्रोध की संपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए शिव का रुद्र अवतार भी आवश्यक है। यदि यह मानवीय विकार हैं तो इनके बिना हम ईश्वर की प्राप्ति कैसे कर सकते हैं ? अर्थात उसे पाने के लिए इन विकारों का होना भी आवश्यक है।

क्या मैं ऐसा मानती हूं ?

    नहीं, बिल्कुल नहीं। इनके बगैर भी हम ईश्वर तक पहुंच सकते हैं और वह एकमात्र पथ प्रेम है, स्वयं जिसके अधीन ईश्वर भी है।

    यदि इस पथ पर चलने पर ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है तो फिर तुम्हें क्यों नहीं, मेरे दोस्त ? तुम्हे क्यूं नही ??
To be continued....
Shailendra S.

Tuesday, July 6, 2021

तुम कहां गए 20

   तुम मेरी आह से निकले वो आंसू हो, जिन्हें मैंने कभी पलकों में भी न आने दिया। डर था पलकों में आए तो कहीं यादें न धुंधली हो जाए। पलकों से लुढ़के तो कहीं मेरे जीवन से जुड़ा तुम्हारा अस्तित्व ही न बह जाएं। बेशकीमती अश्क कही जाया न हो जाए, उनमें तुम जो ठहरे हुए से हो।

   प्रेम के विस्तार में ब्रह्मांड की अविनाशी, अनंत शक्तियां अंतर्निहित है। और शायद इसीलिए प्रेम की सीमाओं का विस्तार भी अनंत से कहीं अधिक है। 

    हम प्रेम पर अविश्वास तो जाता सकते है, लेकिन उसके वजूद को झुठला नहीं सकते। जिस तरह की हम शरीर के अस्तित्व को नश्वर मान सकते हैं, किंतु आत्मा रूपी उर्जा को नहीं। जो रिश्तो में सिमट जाए, जो बंधनों में बंध जाए जो स्थूल से सूक्ष्म होने पर अपने अस्तित्व को गवां दे, वह प्रेम कैसा? यह तो उसके होने का भ्रम मात्र है.

     प्रेम को मैं दो जवां दिलों के बीच की धरोहर या बपौती नहीं मानती मेरे दोस्त। प्रेम तो वह भावना है जो एक सबल द्वारा एक निर्बल को सहारा देकर, छोटे से बच्चे को दुलार देकर, बड़े बुजुर्गों को सम्मान देकर, रोते को हंसा कर, अपने प्रिय मित्र को गले लगा कर, शोक संतप्त ह्रदय को सांत्वना देकर और अपने प्रिय को सर्वस्व समर्पित कर व्यक्त की जाती है।

    मैं यह सब जानती हूं और स्वीकार भी करती हूं। इसीलिए अब मानती हूं मेरे दोस्त, प्रेम की अभिव्यक्ति आवश्यक है। हृदय में संजोए हुए प्रेम की यदि अभिव्यक्ति नहीं होती है तो वह सर्वस्व होते हुए भी उस व्यक्ति के लिए निरर्थक होता है, जिसके लिए आपने यह प्रेम धारण किया है। 

     ठीक उसी तरह की एक रोते हुए बच्चे को यदि गोद में उठाकर उसे संताबना न दी जाए और दूर से खड़े होकर सिर्फ उसकी पीड़ा को उसकी करुणा को केवल महसूस किया जाए।

    लेकिन इन सबके बावजूद मेरा जो तुम्हारे प्रति प्रेम है, उसी को सर्वोपरि स्थान पर रखती हूं। इसे मेरा स्वार्थी मन कह सकते हो या फिर अज्ञानता, नासमझी जो मन में आए कह सकते हो ! मैं तुम्हें रोकूंगी नहीं।

    लेकिन मैं क्या करूं? तुमसे एक क्षण मात्र में किए गए प्रेम से मुझ में वे एहसास जागे जिनको समेटकर मैं जब खुद से रूबरू हुई, तो देखा, प्रकृति का हर एक कण प्रफुल्लित है आनंद से झूम रहा है। सभी फूल चाहे वे खिले हुए हो, अधखिले हुए हो या लगभग मुरझाए हुए हो, सभी हंस रहे है, मुस्कुरा रहें हैं।

    उदास कर देने वाले क्षण भी जैसे मन को उल्लासित कर रहे हों। सब कुछ अचानक बदल गया। सभी बहुत प्यारा, बहुत अपना लगने लगा। मेरे अंदर उपजे सभी प्रकार के प्रेम के मूलाधार तुम ही हो गए, तुम्हारा ही प्रेम हों गया। 

   प्रेम की सारी जटिलता सरलता में तब्दील हो गई। खुश रहना, प्रसन्न चित्त रहना, सदा मुस्कुराते रहना। कुछ भी न खो कर भी सब कुछ पा लेने का अभिमान रखना। कितना सहज स्वीकार सत्य था। उस वक्त एहसास नहीं हुआ कि प्रेम में कोई जटिलता भी होती है। महसूस हुआ जैसे यही तो सबसे आसान और सरल है। 

      किसी से घृणा करने के लिए हजार कारण चाहिए लेकिन किसी से प्रेम करने के लिए सिर्फ एक कारण पर्याप्त है। बताओ तो दोस्त वह कारण कौन सा है ?

    लेकिन जरा ठहरो पहले मुझे कह लेने दो, तो पहले मैं ही बताती हूं।

   " कि आप उसे अपना समझते है, आप उसकी परवाह करते हैं और वह आपको अच्छा लगता है। "

    अरे! ये तो एक नहीं तीन कारण हो गए !! चलो बता ही देते है, सिर्फ एक कारण ही पर्याप्त और वह यह है कि, जिसे देखकर मन में उठी तरंगे आपके शरीर को हिला कर रख दे। 

    छोटी सी बात है लेकिन इससे बड़ा कोई सत्य ही नहीं है। शायद इसलिए कि दर्शनशास्त्र की प्रत्येक अवधारणा भौतिकता की आधारशिला पर ही टिकी होती है, मेरे दोस्त।

    मेरे मन के दर्शनशास्त्र भी तुम और मेरे तन के भौतिकशास्त्र भी तुम।

    मन से, वचन से, कर्म से, मैं यदि राम की, सीता के यह कहने पर यदि धरती फट गई थी, तो क्या तुम मेरे अंतर्मन के फटने का इंतजार कर रहे हो ?  तब तुम्हे भी क्या मिलेगा, क्या शेष रह जायेगा, मेरे दोस्त।

     इसीलिए तो कहती हूं तुमसे, तुम मेरे अंतर्मन की इस पुकार को सुनो। इस वेदना को समझो। मेरी इस आह से बंधे  चले आओ तुम।

आह ! तुम कहां गए ...

to be continued . . .
Shailendra S.


Saturday, July 3, 2021

तुम कहां गए - 19

     शून्य आयाम से लेकर अनंत आयाम तक की दुनिया ही हमारी दुनिया होती है। जिसमें किसी के होने का या न होने का एहसास होता है।

    शून्य अर्थात कुछ भी नहीं और अनंत अर्थात अनकाउंटेबल अनडिफाइंड। कुछ नहीं और सब कुछ के बीच ही कुछ होता है। 

   इसलिए लिखती हूं कि सब कुछ सदैव के लिए नहीं रहता, और न ही सदैव के लिए होता ही है। एक न एक दिन चाहे वह अनंत ही क्यों न हो अपरिभाषित ही क्यों न हो, सब कुछ नष्ट होना ही है। एक दिन सारे ब्रह्मांड, सारी सृष्टिया नष्ट होगी। और केवल बचेगा शून्य अर्थात कुछ नहीं।

     स्मृतियां भी सदैव के लिए साथ नहीं रहती। ब्रेन डेड एवरी थिंग्स डेड। 

    इसलिए मैं तुमसे कोई वादा नहीं करती, और न ही कर सकती हूं। सदैव तुम्हें याद रखूंगी ऐसा कोई वादा हो ही नहीं सकता। लेकिन हां, जब तक यह ब्रेन डेड नहीं होता और मेरी स्मृतियां रहेंगी, तब तक तुम मेरी स्मृतियों में जिंदा रहोगे, भले ही चाहे तुम भौतिक रूप से कहीं भी किसी भी स्थान पर मर ही क्यों न जाओ। 

    तुम्हारी दुनिया में आत्मा होगी सब कुछ। लेकिन मेरी दुनिया में तो मेरा मन, मेरा अंतर्मन, मेरी स्मृति ही सब कुछ है। जबतक तुम मेरे स्मृतियों में हो, मेरे अंतर्मन की कैद में हो, तब तक तुम्हें मर कर भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी। 

    तुम्हारी जीवात्मा मेरे आस-पास ही भटकती रहेगी। यदि तुम अपने सभी अच्छे कर्मों द्वारा ईश्वर में विलीन होना भी चाहो, तो भी। बताओ जब तक तुम्हारी आत्मा मेरे अंतर्मन की कैद में है, तब तक यह कैसे संभव है? ईश्वर में समाहित होने के लिए तुम्हारी जीवात्मा को भी तुम्हारी आत्मा की आवश्यकता होगी। 

    जब तक जीवात्मा की आत्मा ईश्वर में विलीन नहीं हो जाती तब तक उसे मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। इसीलिए लिखा था कि तुम मेरे बगैर मोक्ष को भी प्राप्त नहीं कर सकते। जब तक मैं हूं और मेरी स्मृतियों में तुम हो, मेरे अंतर्मन की कैद में हो, तब तक तुम्हें मोक्ष भी नही मिल सकता।

      ऐसा नहीं है कि मैं तुम्हें लेकर अध्यात्म की कोई माला जपती हूं। ईश्वर पर और उसके होने पर पूर्ण विश्वास करती हूं। जिस स्थान पर उनके होने का गुमान है या कथित प्रमाण हैं, वह सारे तीर्थ स्थान भी घूमती रही हूं। उनके भले ही दर्शन न हो लेकिन एक आत्मिक और आध्यात्मिक शांति की अनुभूति होती रही है इसलिए मेरी आस्था मेरा विश्वास भी उन पर कायम रहा है। अभी भी है।

   प्रश्न जीवन के पूर्व या जीवन के पश्चात का नहीं यहां तो प्रश्न है इस जीवन का, इस जीवन की शुरुआत से इस जीवन के अंत का। यदि इस बीच कहीं कोई ईश्वर है तो उसी को साक्षी मानकर एक बात लिखती हूं, -

' यह संसार मिथ्या है एक भ्रम एक मायाजाल जहां हम भटकते रहते हैं। कभी सुख की चाह में, तो कभी मन की शांति के लिए। कभी परमात्मा की चाह में, तो कभी आत्ममोक्ष के लिए। हमारा कोई भी कार्य नि:स्वार्थ तो हो सकता है, किंतु किसी चाहत से परे नहीं।'

      कोई न कोई चाहत मन में होती है, जिसके लिए हम सारे प्रयास करते हैं, कर्म करते हैं, फल की इच्छा स्वयं के लिए न सही पर कहीं न कहीं किसी रूप में उसके प्राप्ति की अभिलाषा जरूर होती है। फिर वह फल चाहे स्वयं के लिए हो या परमार्थ के लिए। 

  अब तुम ही बताओ कि मैं वह कौन सा कर्म करूं कि जिसके फलस्वरुप तुम बंधे हुए, अर्थात जिस कर्म फल की पूर्ति के लिए तुम मेरे पास आ सको। जैसे कि मैंने पहले लिखा था कि दो बिंदुओं को मिलाने वाली रेखा अनंत बिंदुओं से होकर गुजरती है। 

   तुम ही बताओ यदि वे दो बिंदु हम दोनों हैं और हम दोनों को मिलाने वाली रेखा अनंत कर्म बिंदुओं से होकर गुजरती है तो वे सारे अपरिभाषित और अनंत कर्म मैं करने के लिए तैयार बैठी हूं। 

   कैसे हार मान लूं कि इस जीवन में मैं फिर तुम्हें दुबारा न देख पाऊंगी। कैसे हार मान लूं कि मेरी पुकार में वह शक्ति नहीं जो तुम्हें वापस न ला सके, यदि मैं तुम्हें ही न ला सकी तो फिर ईश्वर को कैसे प्राप्त कर सकूंगी ? आखिरकार मुझे भी तो मोक्ष चाहिए। 

  हम दोनों के मोक्ष की सार्थकता तभी है जब हम कम से कम एक बार प्रत्यक्षत: एक दूसरे को न देख ले। इसी अभिलाषा के साथ मैं फिर तुम्हें पुकारती हूं. - आह ! तुम कहां गए . . . 
to be continued   . . .
Shailendra S.

Friday, July 2, 2021

तुम कहां गए - 18

    शब्दों का सर्वोत्तम क्रम वाक्य नहीं विजन होता है मेरे दोस्त!

   एक प्रश्न, जब एक पुकार बन जाए, तो वह पुकार मन की सारी व्यथा कह देता है। अंतर्मन की सारी अभिव्यक्ति, जिज्ञासा, देख लेने की चाहत, कुछ प्राप्त करने की अभिलाषा, झुंझलाहट, खीझ, सभी कुछ तो समाहित होता है उस पुकार में। 

    जैसे कोई प्रिय वस्तु खो जाए, और हम उसे ढूंढते रहे, तो उस तलाश में मन के सारे भावों की अभिव्यक्ति दृश्य होती है ।

   मेरे अंतर्मन में एक प्रश्न जागा - तुम कहां गए ? इस एक प्रश्न में तुम्हें पुनः देख लेने की चाहत, जिज्ञासा और कुछ पा लेने की अभिलाषा जागृत होने लगी।

      और जब प्रत्युत्तर में तुम सामने न आए तो मन की सारी झुंझलाहट, समाहित होकर एक उलाहना बन गई - कहां गए तुम ? शब्द वही रहे किंतु उनका क्रम बदल गया।

       जब इस प्रश्न से मन की सारी  हलचल और अशांति समाप्त हो गई तब यही प्रश्न एक पुकार बन गया, तुम कहा गए ...

     इस पुकार में जो व्यग्रता थी, मन में हलचल थी, जब सब कुछ शांत हो गया, मन की सारी झुंझलाहट दूर हो गई। तब इस स्थिर मन में शांत सरोवर के जल जैसे शांति छा गई, तो वह पुकार एक दर्द भरी आह बनकर निकली - आह ! तुम कहां गए !!

     इसीलिए मैंने कहा न, मेरे दोस्त। शब्दों का सर्वोत्तम क्रम वाक्य नहीं विजन होता है। इन चार शब्दों का यह क्रम मेरे लिए एक विजन बन गया, एक दृश्य, और उसी दृश्य में मैं तुम्हें अक्सर देखा करती हूं।

    तुम्हारी ऐसी कौन सी दुनिया है, जिसे लांघ कर अब तुम नहीं आ सकते। मर्यादा की ऐसी कौन सी गांठ है, जिसने तुम्हें बांध रखा है, और जिसे खोलकर तुम मेरे पास नहीं आ सकते। 

       ऐसा कौन सा रिश्ता है, जो तुम्हें मुझ तक न आने के लिए अभी तक रोक कर रखे हुए है। जबकि तुमने तो कभी भी किसी रिश्ते को स्वीकार ही नहीं किया।

    यदि तुमने मुझसे प्रेम किया होता और मुझे धोखा देकर भाग गए होते तो तुम्हारे इस गुनाह के लिए मैं तुम्हें शायद माफ भी कर देती। लेकिन नहीं, तुमने तो उससे भी बड़ा गुनाह किया। 

    तुमने मुझसे एक ऐसे इंसान को छीन लिया जो सदैव मेरे साथ होता था। जो मुझे जानता था, पहचानता था, समझता था। यहां तक कि मेरी अनकही बातों को भी महसूस कर लेता था। तुमने मेरे ऐसे ही एक मित्र को मुझसे दूर कर दिया। उसकी हत्या की।

     इसलिए तुम्हारा गुनाह, गुनाह नहीं, गुनाह-ए-अजीम है। जिसकी अब कोई  मुआफी नहीं। 

     कुरू राजवंश की द्रुतक्रीड़ा भवन में महापुरुषों के बीच बेइज्जत होती द्रोपती ने अपने मित्र को ही पुकारा था। वह जानती थी, सभी रिश्ते नाते किसी न किसी मर्यादा, वचन, लालच और प्रतिज्ञा में बंधे है।

    कोई मजबूर है, तो कोई प्रतिज्ञाबद्ध। केवल उसका मित्र हैं जो इन सब से परे हैं। और वह उसकी मदद के लिए जरूर आएगा। प्रत्यक्षत: वह भले ही वहां पर प्रकट न हुआ हो, लेकिन उसने मित्रता के धर्म को निभाया। 

    कुरुक्षेत्र का मैदान भले ही इस संसार में धर्म की प्रतिष्ठा और न्याय की स्थापना के लिए लड़ा गया हो, किंतु कृष्ण के लिए वह युद्ध मित्र के उसी बेइज्जती का बदला लेने के लिए व्यक्तिगत लड़ा गया युद्ध था।

     हम भले ही सुभद्रा के रिश्ते से द्रोपती को कृष्ण की बहन के रूप में स्वीकार कर ले, जो कि अधिकांशत: देखने में भी आता है, लेकिन वे सदैव कृष्ण की प्रिय सखी ही रही हैं। जिन्हें हम आजकल गर्लफ्रेंड कहते हैं।

     हर रिश्ते नाते से परे और दूर। शायद इसलिए द्रोपती ने भी सुभद्रा को अर्जुन की दूसरी पत्नी के रूप में कम और कृष्ण की बहन के रूप में अधिक स्वीकार किया। मित्रता कोई रिश्ता नहीं धर्म होता है, मेरे दोस्त। एक व्यक्तिगत धर्म। और अपने उसी धर्म की स्थापना के लिए कुरुक्षेत्र का युद्ध भी कृष्ण के लिए व्यक्तिगत धर्म युद्ध ही रहा है। 

    कितनी अजीब सी लगने वाली बात है, इस दुनिया में रिश्ते निभाए जाते हैं, लेकिन धर्म ? उसकी तो स्थापना की जाती है।

       तब क्या बुरा किया कि यदि मैंने हर रिश्ता पूरी इमानदारी और वफा के साथ निभाए और तुम्हें एक धर्म की तरह अपने मन मंदिर में स्थापित किया। 

     और शायद मन में यही एक वह आस है जो तुम्हें मुझ तक जरूर खींच लाएगी। तुम भी अपना धर्म जानते हुए, उसकी पूर्ति के लिए, उसकी स्थापना के लिए एक न एक दिन लौट कर आओगे तभी तो पुकारती हूं ...
- ' तुम कहां गए . . .
 to be continued . . .
Shailendra S.

अजनबी - 2

अजनबी (पार्ट 2)       पांच साल बाद मेरी सत्य से ये दूसरी मुलाकात थी। पहले भी मैंने पीहू को उसके साथ देखा था और आज भी देख रहा हूं...