एक प्रश्न, जब एक पुकार बन जाए, तो वह पुकार मन की सारी व्यथा कह देता है। अंतर्मन की सारी अभिव्यक्ति, जिज्ञासा, देख लेने की चाहत, कुछ प्राप्त करने की अभिलाषा, झुंझलाहट, खीझ, सभी कुछ तो समाहित होता है उस पुकार में।
जैसे कोई प्रिय वस्तु खो जाए, और हम उसे ढूंढते रहे, तो उस तलाश में मन के सारे भावों की अभिव्यक्ति दृश्य होती है ।
मेरे अंतर्मन में एक प्रश्न जागा - तुम कहां गए ? इस एक प्रश्न में तुम्हें पुनः देख लेने की चाहत, जिज्ञासा और कुछ पा लेने की अभिलाषा जागृत होने लगी।
और जब प्रत्युत्तर में तुम सामने न आए तो मन की सारी झुंझलाहट, समाहित होकर एक उलाहना बन गई - कहां गए तुम ? शब्द वही रहे किंतु उनका क्रम बदल गया।
जब इस प्रश्न से मन की सारी हलचल और अशांति समाप्त हो गई तब यही प्रश्न एक पुकार बन गया, तुम कहा गए ...
इस पुकार में जो व्यग्रता थी, मन में हलचल थी, जब सब कुछ शांत हो गया, मन की सारी झुंझलाहट दूर हो गई। तब इस स्थिर मन में शांत सरोवर के जल जैसे शांति छा गई, तो वह पुकार एक दर्द भरी आह बनकर निकली - आह ! तुम कहां गए !!
इसीलिए मैंने कहा न, मेरे दोस्त। शब्दों का सर्वोत्तम क्रम वाक्य नहीं विजन होता है। इन चार शब्दों का यह क्रम मेरे लिए एक विजन बन गया, एक दृश्य, और उसी दृश्य में मैं तुम्हें अक्सर देखा करती हूं।
तुम्हारी ऐसी कौन सी दुनिया है, जिसे लांघ कर अब तुम नहीं आ सकते। मर्यादा की ऐसी कौन सी गांठ है, जिसने तुम्हें बांध रखा है, और जिसे खोलकर तुम मेरे पास नहीं आ सकते।
ऐसा कौन सा रिश्ता है, जो तुम्हें मुझ तक न आने के लिए अभी तक रोक कर रखे हुए है। जबकि तुमने तो कभी भी किसी रिश्ते को स्वीकार ही नहीं किया।
यदि तुमने मुझसे प्रेम किया होता और मुझे धोखा देकर भाग गए होते तो तुम्हारे इस गुनाह के लिए मैं तुम्हें शायद माफ भी कर देती। लेकिन नहीं, तुमने तो उससे भी बड़ा गुनाह किया।
तुमने मुझसे एक ऐसे इंसान को छीन लिया जो सदैव मेरे साथ होता था। जो मुझे जानता था, पहचानता था, समझता था। यहां तक कि मेरी अनकही बातों को भी महसूस कर लेता था। तुमने मेरे ऐसे ही एक मित्र को मुझसे दूर कर दिया। उसकी हत्या की।
इसलिए तुम्हारा गुनाह, गुनाह नहीं, गुनाह-ए-अजीम है। जिसकी अब कोई मुआफी नहीं।
कुरू राजवंश की द्रुतक्रीड़ा भवन में महापुरुषों के बीच बेइज्जत होती द्रोपती ने अपने मित्र को ही पुकारा था। वह जानती थी, सभी रिश्ते नाते किसी न किसी मर्यादा, वचन, लालच और प्रतिज्ञा में बंधे है।
कोई मजबूर है, तो कोई प्रतिज्ञाबद्ध। केवल उसका मित्र हैं जो इन सब से परे हैं। और वह उसकी मदद के लिए जरूर आएगा। प्रत्यक्षत: वह भले ही वहां पर प्रकट न हुआ हो, लेकिन उसने मित्रता के धर्म को निभाया।
कुरुक्षेत्र का मैदान भले ही इस संसार में धर्म की प्रतिष्ठा और न्याय की स्थापना के लिए लड़ा गया हो, किंतु कृष्ण के लिए वह युद्ध मित्र के उसी बेइज्जती का बदला लेने के लिए व्यक्तिगत लड़ा गया युद्ध था।
हम भले ही सुभद्रा के रिश्ते से द्रोपती को कृष्ण की बहन के रूप में स्वीकार कर ले, जो कि अधिकांशत: देखने में भी आता है, लेकिन वे सदैव कृष्ण की प्रिय सखी ही रही हैं। जिन्हें हम आजकल गर्लफ्रेंड कहते हैं।
हर रिश्ते नाते से परे और दूर। शायद इसलिए द्रोपती ने भी सुभद्रा को अर्जुन की दूसरी पत्नी के रूप में कम और कृष्ण की बहन के रूप में अधिक स्वीकार किया। मित्रता कोई रिश्ता नहीं धर्म होता है, मेरे दोस्त। एक व्यक्तिगत धर्म। और अपने उसी धर्म की स्थापना के लिए कुरुक्षेत्र का युद्ध भी कृष्ण के लिए व्यक्तिगत धर्म युद्ध ही रहा है।
कितनी अजीब सी लगने वाली बात है, इस दुनिया में रिश्ते निभाए जाते हैं, लेकिन धर्म ? उसकी तो स्थापना की जाती है।
तब क्या बुरा किया कि यदि मैंने हर रिश्ता पूरी इमानदारी और वफा के साथ निभाए और तुम्हें एक धर्म की तरह अपने मन मंदिर में स्थापित किया।
और शायद मन में यही एक वह आस है जो तुम्हें मुझ तक जरूर खींच लाएगी। तुम भी अपना धर्म जानते हुए, उसकी पूर्ति के लिए, उसकी स्थापना के लिए एक न एक दिन लौट कर आओगे तभी तो पुकारती हूं ...
- ' तुम कहां गए . . .
to be continued . . .
Shailendra S.
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