शून्य आयाम से लेकर अनंत आयाम तक की दुनिया ही हमारी दुनिया होती है। जिसमें किसी के होने का या न होने का एहसास होता है।
शून्य अर्थात कुछ भी नहीं और अनंत अर्थात अनकाउंटेबल अनडिफाइंड। कुछ नहीं और सब कुछ के बीच ही कुछ होता है।
इसलिए लिखती हूं कि सब कुछ सदैव के लिए नहीं रहता, और न ही सदैव के लिए होता ही है। एक न एक दिन चाहे वह अनंत ही क्यों न हो अपरिभाषित ही क्यों न हो, सब कुछ नष्ट होना ही है। एक दिन सारे ब्रह्मांड, सारी सृष्टिया नष्ट होगी। और केवल बचेगा शून्य अर्थात कुछ नहीं।
स्मृतियां भी सदैव के लिए साथ नहीं रहती। ब्रेन डेड एवरी थिंग्स डेड।
इसलिए मैं तुमसे कोई वादा नहीं करती, और न ही कर सकती हूं। सदैव तुम्हें याद रखूंगी ऐसा कोई वादा हो ही नहीं सकता। लेकिन हां, जब तक यह ब्रेन डेड नहीं होता और मेरी स्मृतियां रहेंगी, तब तक तुम मेरी स्मृतियों में जिंदा रहोगे, भले ही चाहे तुम भौतिक रूप से कहीं भी किसी भी स्थान पर मर ही क्यों न जाओ।
तुम्हारी दुनिया में आत्मा होगी सब कुछ। लेकिन मेरी दुनिया में तो मेरा मन, मेरा अंतर्मन, मेरी स्मृति ही सब कुछ है। जबतक तुम मेरे स्मृतियों में हो, मेरे अंतर्मन की कैद में हो, तब तक तुम्हें मर कर भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी।
तुम्हारी जीवात्मा मेरे आस-पास ही भटकती रहेगी। यदि तुम अपने सभी अच्छे कर्मों द्वारा ईश्वर में विलीन होना भी चाहो, तो भी। बताओ जब तक तुम्हारी आत्मा मेरे अंतर्मन की कैद में है, तब तक यह कैसे संभव है? ईश्वर में समाहित होने के लिए तुम्हारी जीवात्मा को भी तुम्हारी आत्मा की आवश्यकता होगी।
जब तक जीवात्मा की आत्मा ईश्वर में विलीन नहीं हो जाती तब तक उसे मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। इसीलिए लिखा था कि तुम मेरे बगैर मोक्ष को भी प्राप्त नहीं कर सकते। जब तक मैं हूं और मेरी स्मृतियों में तुम हो, मेरे अंतर्मन की कैद में हो, तब तक तुम्हें मोक्ष भी नही मिल सकता।
ऐसा नहीं है कि मैं तुम्हें लेकर अध्यात्म की कोई माला जपती हूं। ईश्वर पर और उसके होने पर पूर्ण विश्वास करती हूं। जिस स्थान पर उनके होने का गुमान है या कथित प्रमाण हैं, वह सारे तीर्थ स्थान भी घूमती रही हूं। उनके भले ही दर्शन न हो लेकिन एक आत्मिक और आध्यात्मिक शांति की अनुभूति होती रही है इसलिए मेरी आस्था मेरा विश्वास भी उन पर कायम रहा है। अभी भी है।
प्रश्न जीवन के पूर्व या जीवन के पश्चात का नहीं यहां तो प्रश्न है इस जीवन का, इस जीवन की शुरुआत से इस जीवन के अंत का। यदि इस बीच कहीं कोई ईश्वर है तो उसी को साक्षी मानकर एक बात लिखती हूं, -
' यह संसार मिथ्या है एक भ्रम एक मायाजाल जहां हम भटकते रहते हैं। कभी सुख की चाह में, तो कभी मन की शांति के लिए। कभी परमात्मा की चाह में, तो कभी आत्ममोक्ष के लिए। हमारा कोई भी कार्य नि:स्वार्थ तो हो सकता है, किंतु किसी चाहत से परे नहीं।'
कोई न कोई चाहत मन में होती है, जिसके लिए हम सारे प्रयास करते हैं, कर्म करते हैं, फल की इच्छा स्वयं के लिए न सही पर कहीं न कहीं किसी रूप में उसके प्राप्ति की अभिलाषा जरूर होती है। फिर वह फल चाहे स्वयं के लिए हो या परमार्थ के लिए।
अब तुम ही बताओ कि मैं वह कौन सा कर्म करूं कि जिसके फलस्वरुप तुम बंधे हुए, अर्थात जिस कर्म फल की पूर्ति के लिए तुम मेरे पास आ सको। जैसे कि मैंने पहले लिखा था कि दो बिंदुओं को मिलाने वाली रेखा अनंत बिंदुओं से होकर गुजरती है।
तुम ही बताओ यदि वे दो बिंदु हम दोनों हैं और हम दोनों को मिलाने वाली रेखा अनंत कर्म बिंदुओं से होकर गुजरती है तो वे सारे अपरिभाषित और अनंत कर्म मैं करने के लिए तैयार बैठी हूं।
कैसे हार मान लूं कि इस जीवन में मैं फिर तुम्हें दुबारा न देख पाऊंगी। कैसे हार मान लूं कि मेरी पुकार में वह शक्ति नहीं जो तुम्हें वापस न ला सके, यदि मैं तुम्हें ही न ला सकी तो फिर ईश्वर को कैसे प्राप्त कर सकूंगी ? आखिरकार मुझे भी तो मोक्ष चाहिए।
हम दोनों के मोक्ष की सार्थकता तभी है जब हम कम से कम एक बार प्रत्यक्षत: एक दूसरे को न देख ले। इसी अभिलाषा के साथ मैं फिर तुम्हें पुकारती हूं. - आह ! तुम कहां गए . . .
to be continued . . .
Shailendra S.
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