सशर्त जिंदगी गुजारी तो जा सकती हैं, जी नहीं जा सकती! जिंदगी जी लेने के लिए यह आवश्यक है कि वह सभी बंधनों और शर्तों से मुक्त हो। किसी के होने या न होने को समय से नहीं मापा जा सकता।
समय तो वह यूनिट है जिससे घटनाओं की अवधि या जिसे हम अब समयावधि कह सकते हैं को व्यक्त करना है। शायद इसीलिए ही तुम भी कहते थे कि इस दुनिया में समय नाम की कोई चीज नहीं होती। अब देखो तो मैं तुम्हारी ही भाषा बोलने लगी हूं !
आश्चर्य किंतु इस निर्धारित सत्य जिससे होकर गुजरना ही था। जिस समयावधि के लिए तुम मेरी जिंदगी में निर्धारित थे, वह गुजर चुका है। अब इसलिए मेरे लिए यह समय भी किसी काम का नहीं।
यदि हम जिंदगी अपने तरीके से नहीं जी सके, उसे शर्तों के बंधनों में बांधकर रखा तो अब पछताना कैसा ? यह तो हमारे ही द्वारा स्वीकार किया गया निर्धारित सत्य था।
काश, हम यह कर पाते, काश कि हम यह कह पाते, कि काश ऐसा हुआ होता, कि काश ऐसा न हुआ होता, कि काश शायद तुम मिल ही गए होते। अब इन सब के बारे में सोचना बेमानी होगा, मेरे दोस्त।
यदि यह जिंदगी हमारी थी, तो इसे हमें अपनी शर्तों के अनुसार जीना चाहिए था। न कि अपनों या कि दूसरों द्वारा निर्धारित और तयशुदा शर्तों के अधीन। मैंने लिखा न, समय है लेकिन अब वह समयावधि नहीं, इसलिए मेरे लिए अब किसी समय के होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है।
मानलो की मेरे लिए समय अब कुछ भी नहीं। उसका कोई अस्तित्व नहीं।
पता नहीं क्यों आज मुझे महसूस होता है, कि तुम सितारों की दुनिया से आए थे। शायद वहीं से भटक कर मेरी जिंदगी में यूं ही आ गए थे, बेवजह ही।
मैं न जानती थी कि एक साधारण से दिखने वाले तुम इतने सेंसेटिव भी हो सकते हो कि एक दिन बिना कुछ कहे बिना कोई शिकायत दर्ज किए मेरी जिंदगी से यूं ही चले जाओगे, इतने सेंसिटिव की भूलकर भी मेरी सुध न लोगे ? कि मैं जीती हूं या मर गई, इस की भी तुम्हें अब परवाह है ना होगी !!
यदि तुम किसी समय में होते, तो मैं तुम्हें अवश्य पकड़ लेती। लेकिन क्या करूं तुम समयावधि जो ठहरे। अब उस टाइम स्लाइस को मैं कहां से लाऊं ? बताओ ??
इसलिए इस मन में बार-बर यही आता है कि काश तुम वह कह पाते जो तुम्हें कहना चाहिए था और मैं वह सब सुनती जो मुझे सुन लेना चाहिए था। या यूं कहूं कि जिसे सुन लेना मेरी नियत होती है।
कहते हैं कि एक अच्छे तैराक की मृत्यु सदैव पानी में होती है, क्योंकि वह डूबने के प्रति लापरवाह होता है! वह कभी नहीं सोच पाता की वह डूब भी सकता है!!
हमने भी यही सोचा था और देखो तो आज तुम्हें एकबार देख भर लेने की चाहत इस कदर बड़ी की अब हर जगह तुम ही तुम नजर आते हो।
तुम जिन नयनों के नैनाभिराम थे उन नयनों की प्रतीक्षा तुम्हें क्यों ना दिखाई देती है ? क्यों कर, और किस बात पर तुम मुझसे इतना रूठ गए हो ? मेरी पुकार तुम तक पहुंच कर भी तुम्हारे मन को उद्वेलित नहीं करती ? ह्रदय में मुझसे मिलने की एक हुक सी क्यूं नही उठाती?
तो क्या यह मान लूं कि जितना कि आज तुम मेरे लिए हो, मैं तुम्हारे लिए कभी भी उतना भी नही थी ? उस दिन तुम किसी भ्रम में थे या फिर आज मैं किसी भ्रम में हूं ? या फिर कि आज मैं जिंदगी जी रही हूं, और तुम उस वक्त जिंदगी गुजार गए।
या फिर कि . . .
काल्पनिक दुनिया के हम दोनों एक ऐसे पात्र थे जो यथार्थ की दुनिया में कभी आ ही न पाए। पूर्वाग्रह पूर्व परिभाषित शर्तों के अधीन अपनी काल्पनिक दुनिया में ही रह गए. . .
पत्थरों के शहर होंगे, तो न कदमों के निशा होंगे . . . .
to be continued . . .
Shailendra S.
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