Tuesday, July 6, 2021

तुम कहां गए 20

   तुम मेरी आह से निकले वो आंसू हो, जिन्हें मैंने कभी पलकों में भी न आने दिया। डर था पलकों में आए तो कहीं यादें न धुंधली हो जाए। पलकों से लुढ़के तो कहीं मेरे जीवन से जुड़ा तुम्हारा अस्तित्व ही न बह जाएं। बेशकीमती अश्क कही जाया न हो जाए, उनमें तुम जो ठहरे हुए से हो।

   प्रेम के विस्तार में ब्रह्मांड की अविनाशी, अनंत शक्तियां अंतर्निहित है। और शायद इसीलिए प्रेम की सीमाओं का विस्तार भी अनंत से कहीं अधिक है। 

    हम प्रेम पर अविश्वास तो जाता सकते है, लेकिन उसके वजूद को झुठला नहीं सकते। जिस तरह की हम शरीर के अस्तित्व को नश्वर मान सकते हैं, किंतु आत्मा रूपी उर्जा को नहीं। जो रिश्तो में सिमट जाए, जो बंधनों में बंध जाए जो स्थूल से सूक्ष्म होने पर अपने अस्तित्व को गवां दे, वह प्रेम कैसा? यह तो उसके होने का भ्रम मात्र है.

     प्रेम को मैं दो जवां दिलों के बीच की धरोहर या बपौती नहीं मानती मेरे दोस्त। प्रेम तो वह भावना है जो एक सबल द्वारा एक निर्बल को सहारा देकर, छोटे से बच्चे को दुलार देकर, बड़े बुजुर्गों को सम्मान देकर, रोते को हंसा कर, अपने प्रिय मित्र को गले लगा कर, शोक संतप्त ह्रदय को सांत्वना देकर और अपने प्रिय को सर्वस्व समर्पित कर व्यक्त की जाती है।

    मैं यह सब जानती हूं और स्वीकार भी करती हूं। इसीलिए अब मानती हूं मेरे दोस्त, प्रेम की अभिव्यक्ति आवश्यक है। हृदय में संजोए हुए प्रेम की यदि अभिव्यक्ति नहीं होती है तो वह सर्वस्व होते हुए भी उस व्यक्ति के लिए निरर्थक होता है, जिसके लिए आपने यह प्रेम धारण किया है। 

     ठीक उसी तरह की एक रोते हुए बच्चे को यदि गोद में उठाकर उसे संताबना न दी जाए और दूर से खड़े होकर सिर्फ उसकी पीड़ा को उसकी करुणा को केवल महसूस किया जाए।

    लेकिन इन सबके बावजूद मेरा जो तुम्हारे प्रति प्रेम है, उसी को सर्वोपरि स्थान पर रखती हूं। इसे मेरा स्वार्थी मन कह सकते हो या फिर अज्ञानता, नासमझी जो मन में आए कह सकते हो ! मैं तुम्हें रोकूंगी नहीं।

    लेकिन मैं क्या करूं? तुमसे एक क्षण मात्र में किए गए प्रेम से मुझ में वे एहसास जागे जिनको समेटकर मैं जब खुद से रूबरू हुई, तो देखा, प्रकृति का हर एक कण प्रफुल्लित है आनंद से झूम रहा है। सभी फूल चाहे वे खिले हुए हो, अधखिले हुए हो या लगभग मुरझाए हुए हो, सभी हंस रहे है, मुस्कुरा रहें हैं।

    उदास कर देने वाले क्षण भी जैसे मन को उल्लासित कर रहे हों। सब कुछ अचानक बदल गया। सभी बहुत प्यारा, बहुत अपना लगने लगा। मेरे अंदर उपजे सभी प्रकार के प्रेम के मूलाधार तुम ही हो गए, तुम्हारा ही प्रेम हों गया। 

   प्रेम की सारी जटिलता सरलता में तब्दील हो गई। खुश रहना, प्रसन्न चित्त रहना, सदा मुस्कुराते रहना। कुछ भी न खो कर भी सब कुछ पा लेने का अभिमान रखना। कितना सहज स्वीकार सत्य था। उस वक्त एहसास नहीं हुआ कि प्रेम में कोई जटिलता भी होती है। महसूस हुआ जैसे यही तो सबसे आसान और सरल है। 

      किसी से घृणा करने के लिए हजार कारण चाहिए लेकिन किसी से प्रेम करने के लिए सिर्फ एक कारण पर्याप्त है। बताओ तो दोस्त वह कारण कौन सा है ?

    लेकिन जरा ठहरो पहले मुझे कह लेने दो, तो पहले मैं ही बताती हूं।

   " कि आप उसे अपना समझते है, आप उसकी परवाह करते हैं और वह आपको अच्छा लगता है। "

    अरे! ये तो एक नहीं तीन कारण हो गए !! चलो बता ही देते है, सिर्फ एक कारण ही पर्याप्त और वह यह है कि, जिसे देखकर मन में उठी तरंगे आपके शरीर को हिला कर रख दे। 

    छोटी सी बात है लेकिन इससे बड़ा कोई सत्य ही नहीं है। शायद इसलिए कि दर्शनशास्त्र की प्रत्येक अवधारणा भौतिकता की आधारशिला पर ही टिकी होती है, मेरे दोस्त।

    मेरे मन के दर्शनशास्त्र भी तुम और मेरे तन के भौतिकशास्त्र भी तुम।

    मन से, वचन से, कर्म से, मैं यदि राम की, सीता के यह कहने पर यदि धरती फट गई थी, तो क्या तुम मेरे अंतर्मन के फटने का इंतजार कर रहे हो ?  तब तुम्हे भी क्या मिलेगा, क्या शेष रह जायेगा, मेरे दोस्त।

     इसीलिए तो कहती हूं तुमसे, तुम मेरे अंतर्मन की इस पुकार को सुनो। इस वेदना को समझो। मेरी इस आह से बंधे  चले आओ तुम।

आह ! तुम कहां गए ...

to be continued . . .
Shailendra S.


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