मैं भी तुम्हें खारिज कर दूं अपनी जिंदगी से। लेकिन अगले ही पल सोचती हूं, यदि ऐसा कर दिया, तो ये सारे उलाहने, अपने दिल के सारे दर्द फिर किससे कहूंगी? किसे लिखूंगी?
मैं यह भी जानती हूं कि तुम मेरे द्वारा निर्धारित कोई भी सजा सहर्ष स्वीकार कर लोगे। तुम कहीं भी रहो मेरी बात तुम तक अवश्य पहुंचेगी, और तुम ? बड़े ही खामोशी के साथ बिना कोई सफाई दिए, वह सजा सहजता से स्वीकार कर लोगे।
वर्जनाएं आकर्षित करती हैं। सहजता और सरलता से प्राप्त कोई भी वस्तु या व्यक्ति कभी आकर्षित नहीं करता। वह दर्शनीय तो हो सकता है, किंतु आकर्षक नहीं।
यदि तुम चीखों, चिल्लाओ उत्पाद मचाओ, अपनी सफाई पेश करो, तो मैं अवश्य ही तुम्हें सजा-ए-मौत तक दे सकती हूं। लेकिन तुम्हारे लिए सहजता से स्वीकार कोई भी सजा मुझे स्वविकार्य नहीं।
तुम जहां भी रहो सुखी रहो, खुश रहो, ऐसी दुआएं मैं कभी भी नहीं मांग सकती। मैंने तुम्हारे लिए जो सजा निर्धारित की है वही सही है। तुम सदैव मेरे अंतर्मन की कैद में रहो और ठीक उसी तरह छटपटाते रहो जैसा कि मैं तुम्हे कैद कर।
चलो मैं तुम्हें एक छोटी सी कहानी सुनाती हूं ,
एक ऋषि ने चक्रवर्ती सम्राट को अक्षय यौवन और चिर आयु बरकरार रखने के लिए एक फल दिया। सम्राट ने वह फल अपनी प्रिय रानी को दिया ताकि उसका यौवन सदैव के लिए बरकरार रहे।
रानी ने उस फल को अपने प्रेमी राज्य के प्रधान सेनापति को दिया जिससे वह प्रेम करती थी। और प्रधान सेनापति ने यह फल राज दरबार की नृत्यांगना को दिया जिससे वह प्रेम करता था।
उस नृत्यांगना ने विचार किया कि यदि यह फल उसके राजा को मिल जाए तो वह सदैव सुंदर दिखेगा, उसका यौवन बरकरार रहेगा, वह चिर आयु होगा। और इस तरह इस राज्य को चिरकाल के लिए सहृदय दयालु और प्रशासनिक व्यवस्थाओं को बेहतर ढंग से संभालने और लागू करने वाला राजा मिल जाएगा। और इस तरह उसने निर्णय लिया कि वह इस फल को राजा को देगी।
इस तरह वह फल पुनः राजा तक पहुंच गया। उस चक्रवर्ती सम्राट को तब यह बात समझ आई कि हम यदि किसी व्यक्ति को अपने जीवन में जितना महत्वपूर्ण समझते हैं, या स्थान देते हैं, जरूरी नहीं कि उस व्यक्ति के जीवन में हम भी उतने ही महत्वपूर्ण हों।
यहां प्रश्न प्रेम के होने या न होने का नहीं था। प्रश्न इस बात का था कि उसका प्रवाह किस दिशा में और कितना प्रबल है।
स्वाभाविक था कि रानी अपने पति राजा से प्रेम करती थी लेकिन उस प्रेम की दिशा और प्रवाह की प्रबलता इतनी तीव्र नहीं थी जितने की अपने प्रेमी के प्रति।
यदि ऐसा न होता तो वह फल वह स्वयं अपने हाथों से राजा को ही खिलाती। उस चक्रवर्ती सम्राट का इस संसार के प्रति मोह भंग हुआ, उसने वह फल उसी ऋषि को वापस, राजपाट छोड़ वैराग्य धारण कर लिया।
मानो तो सत्य कुछ भी नहीं और यदि मान लो तो सत्य बहरूपिये होते हैं मेरे दोस्त। न जाने कितने रुप धारण कर हमारे जीवन में आते हैं और हमें छलते हैं।
प्रेम किसी के प्रति भी हो सकता है लेकिन उसकी तीव्रता यानी कि इंटेंसिटी एक सी नहीं होती। जिसके प्रति प्रेम की तीव्रता सर्वाधिक होती है वह प्रीतम होता है या फिर ईश्वर होता है।
यदि यह सत्य है तो अब तुम मेरे प्रिय भी और मेरी ईश्वर भी।
ईश्वर तो मनुष्य की अंतरात्मा में होता है। अंतर्मन में एकनिष्ठ भाव में समाहित अद्वितीय प्रीतम। तो फिर बताओ भला कि मैं तुम्हें अपने अंतर्मन से कैसे निकाल दूं? कैसे मुक्त कर दूं?
यदि एक ईश्वर जो निराकार है, अदृश्य है, अपने निर्धारित कर्म को करने के लिए अवतार ले सकता है। तो फिर भला तुम मेरी पुकार सुनकर मेरे अंतर्मन से बाहर निकलकर प्रकट क्यों नहीं हो सकते ?
कोई कसम या वादा निभाने के लिए न सही किंतु एक बार सिर्फ एक बार सशरीर मुझे गले से लगा कर मुझे सांत्वना देने के लिए ही सही, आ तो सकते हो न?
काश ! उस दिन समय अवधि के उस क्षण को मैं रोक लेती। अस्ताचलगामी सूर्य को वही ठहरा देती, और कहती कि ये रुको, तुम अब डूब नहीं सकते। यह पल यह क्षण इसी समय मैं रोकती हूं। यदि तुम्हें रोक दिया तो वह क्षण भी रुक जायेगा। तब मेरे मन का यह प्रीतम कुछ और पल के लिए मेरी नजरों के सामने रहेगा। यही रुका हुआ मेरे सामने खड़ा रहेगा।
काश कि तब मैं तुम्हें जी भर कर एक बार फिर देखती, या न भी देखती, तो भी तुम वहीं खड़े रहते, ठीक मेरे सामने।
तुम पर कोई आरोप लगाने से पहले खुद मुझे अपने प्रश्नों के जवाब तलाशने होंगे, मेरे दोस्त।
आखिर वह वजह क्या थी कि तुम मुझे यूं छोड़ कर चले गए। फिर कभी न लौट आने की तुम्हारी कसम या मजबूरी क्या है? दिल के कौन से रास्ते, ऐसी कौन सी मंजिल है जिन पर मैं न चल सकी ?
मेरी अज्ञानता, मेरा अहम या फिर मेरा अंतर्मुखी स्वभाव इन सब के रास्ते में स्वत ही आ गया था क्या।
जहां तक मैं अपने बारे में जानती हूं, थोड़ा जिद्दी हूं, लेकिन घमंडी नहीं। उस वक्त नासमझ नहीं थी। इसलिए यह भी नहीं कह सकती कि मैं अज्ञानी थी, कुछ नहीं समझती थी। या तुम्हारी आंखों की बेचैनियों को मैं पढ़ नहीं पाती थी।
हां उन्हें नजरअंदाज जरूर करती थी। अब परवाह नहीं कि तुम कैसे हो ? अभी भी मैं तुम्हारे बारे में उतना ही सोचती हूं जितना कि कभी-कभी एकांत में उस समय तुम्हारे लिए सोचा करती थी।
अनावश्यक वाचाल न होने के कारण तुम मुझे अंतर्मुखी स्वभाव का कह सकते हो।
पता नहीं क्यों और कैसे इतना कुछ लिख गई। यदि सामने तुम होते, तो शायद इतना कभी न कह पाती। जिनकी दुनिया खुद तक सीमित हो और वह उन्हीं दायरों में रहना सीख लेते हो, तो हम उन्हे अंतर्मुखी स्वभाव का कह सकते हैं।
लेकिन जब उसकी दुनिया में उसके साथ कोई और भी हो और वह उससे कभी यह न कह सके या समझा पाए तो क्या कहेंगे? सहचर होते हुए भी कुछ अनकहा शेष रह जाए तो फिर ऐसा कौन सा शब्द है जो इसे परिभाषित कर सके।
तुम मेरे लिए वही एक अनकहा अपरिभाषित शब्द हो . . . हां मेरे दोस्त ... तुम आज भी वही ... एक अनकहा अपरिभाषित शब्द हो मेरे लिए ...
to be continued
Shailendra S.
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