Saturday, October 30, 2021

गॉडफादर - 1


            जब दरख़्त के साए उनके कद से लंबे हो चले ठीक तभी एक यात्री विमान चील की मानिंद रनवे की तरफ झपटा। लगभग चंद मिनटों बाद है दो अधेड़ व्यक्ति एयरपोर्ट से बाहर निकले और पार्किंग में खड़ी लग्जरी कार की तरफ बढ़े। उनमें से एक व्यक्ति समकालीन लेखक और दूसरा धनाढ्य, दोनों में गहरी मित्रता, जो स्कूल के जमाने से चली आ रही थी। उन्होंने एक दूसरे को नाम भी दे रखा था राइटर और वेल्दीमैन।

          कुछ देर बाद कार शहर की भीड़भाड़ को चीरती हुई हाईवे पर दौड़ने लगी। खामोशी के एक लंबे अंतराल के बाद वेल्दीमैन ने कुछ दार्शनिक अंदाज में पूछा , " राइटर ! अपनों से दूर एक अजनबी शहर में, .... पराए लोगों के बीच मरना कितना तकलीफदेह होता है ...... तुमने कभी एहसास किया है ?"

   हूं ......  राइटर ने सहमति से अपना सर कई बार हिलाया। फिर ओठों के बीच सिगरेट दबा तल्लीनता से लाइटर जलाने में व्यस्त हो गया। 

      " राइटर ! मुझसे न पूछोगे ? " , 

   राइटर ने गहरी दृष्टि से वेल्थीमैन की तरफ देखा फिर हौले से मुस्कुराते हुए बोला , " वेल्थीमैन ! शायद तुम्हें नहीं मालूम कि ओपन हार्ट सर्जरी क्या होती है ! "

   " हां, सच कहते हो राइटर मुझे तो कुछ याद नहीं, कब चीडफाड़ हुई, कब ऑपरेशन हुआ, और कब टांके लगे, कुछ भी तो नहीं। लगता है सब कुछ एक सपना था, एक खौफनाक सपना ....... " , उसके स्वर में पीड़ा स्पष्ट झलक रही थी।

       राइटर ने दो लंबे-लंबे काश खींचे, " अभी कुछ नहीं बिगड़ा है। कितनी उम्र होगी तुम्हारी ..... यही कोई 45 वर्ष न। अभी भी मौका है ..... सब कुछ भूल कर एक घरौंदा बना सकते हो। फिर तुम्हें एक अजनबी शहर में ...... अपनों से दूर ...  पराए लोगों के बीच ......... " वह हंसा था हा हा हा हा हा हा हा .....

       राइटर की बात अधूरी रह गई। उसकी हंसी लग्जरी कार से बाहर निकलकर नंगे पांव ही कार के पीछे दौड़ने लगी।

उसने अजनबी नजरों से राइटर की तरफ देखा जैसे पहचानने की कोशिश कर रहा हो कि उसके साथ सफर करने वाला यह व्यक्ति कितना अपना और कितना अजनबी है। इस वक्त उसे राइटर का यह अंदाज बिल्कुल भी पसंद न आया। फिर भी वह चेहरे में मुस्कुराहट लाने की भरपूर कोशिश करते हुए बोला, 

        " राइटर ..…. शायद, अब तुम भूल रहे हो.... ओपन हार्ट सर्जरी क्या होती है। जो कुछ भी हुआ वह मेरा मुकद्दर था और जो होगा शायद वह भी मेरा ही मुकद्दर ......

     " मुक्कादर ... हूं ... माय फुट " , राइटर ने अजीब सा मुंह बनाया। जानते हो वेल्दीमैन ! इस दुनिया में समय और मुकद्दर नाम की कोई चीज नहीं होती है ..…. "

   " नहीं मानते न ! . . . तो जरा सोचो .….. यदि दुनिया में मुक़द्दर नाम की कोई चीज न होती तो जलजले क्यों आते ? बड़ी-बड़ी इमारतें रेत के घरौदो की तरह न ढह जाती .... और उनके मलबे में एक भरे पूरे परिवार ..... खुशहाल परिवार ..... की कब्रगाह न बनती ..... जानते हो राइटर पूरे दो दिन लगे थे ... पूरे दो दिन ... तब कहीं मलबे के नीचे से ....." , आगे वह कुछ नहीं बोल सका आंखें भर आई।
        " लेकिन राइटर जानते हो, अब मुझे जिंदगी से कोई शिकायत नहीं। सच अब किड्स हाउस ही मेरी जिंदगी है। जब तक हूं, और मेरे न रहने के बाद भी वही मेरी पहचान होगी . . .

    " मैं तुम्हें एक बात बताना भूल गया था ... " , राइटर ने बीच में ही टोका था, " पिछले दिनों एक लड़की आई थी, तुम्हें पूछ रही थी। जब तुम्हारे बारे में उसे बताया तो काफी घबरा गई। यहां तक कि वह मेरे साथ तुम्हें देखने आना चाहती थी ..."

 उसने आतुरता से पूछा था , " ओह ! क्या नाम बताया था उसने ? " 
       " नाम पूछना तो भूल गया, खैर अब खुद ही मिल लेना। लेकिन उसकी आंखों में तुम्हारे लिए एक अजीब सी कशिश देखी। एक अजीब सी मोहब्बत । याद करो कभी किसी लड़की से मुलाकात हुई हो ..…. हां ! याद करो ..... शायद पहले कभी उसने तुमसे अपनी मोहब्बत का इजहार किया हो …... समथिंग कुछ ऐसा ही .... याद करो ..…. "अपनी बात खत्म करके राइटर फिर वही भद्दी हंसी हंसा था।

        राइटर की बात को अनसुना करते हुए उसने उसी से पूछा, " यह बताओ, सर्जरी के बाद और कितने दिन जी सकता हूं ? "

      राइटर कुछ नहीं बोला और उसने जवाब की प्रतीक्षा भी नहीं की, " पता नहीं इस दिया में और कितना तेल है बचा है ? सोचता हूं , मरने से पहले एक ट्रस्ट बना ही दू ?"

        " बेशक ", राइटर ने पूर्ण सहमत के साथ अपना सर हिलाया और उसने सिगरेट का आखरी कर लिया। बची सिगरेट के टुकड़े को विंडो से बाहर उछलते हुए बोला, " तुम्हारे बाप दादा ने दौलत कमाई और तुम्हें जी भर के लुटाई। मानता हूं कि अच्छे काम के लिए फिर भी वह और कितने दिनों तक चलेगी? "

       उसने सीट में पीठ टिका दी। आंखें स्वत: ही बंद हो गई। जलजला आ रहा था। धरती हिल रही थी, इमारतें ढह रही थी, और चारों ओर चीख-पुकार। देखते ही देखते पूरा शहर मलबे का ढेर बन गया था। उसके कानों में अपने बच्चों की दर्दनाक चीखें गूंज रही थी .....

 पापा .... पापा ..... बचाओ हमें .....
 निकालो हमें ... हम मर रहे हैं पापा .....
आप कहां हैं ... पापा .... पापा ...

      लेकिन वह तो उस समय शहर से दूर एक स्टार होटल के लग्जरी रूम में गहरी नींद सो रहा था। कैसे उनकी मदद करता। दूसरे दिन न्यूज पेपर में तबाही पढ़ी। भागा भागा किसी तरह अपने शहर पहुंचा था, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। मुकद्दर अपना खेल, खेल चुका था। सब कुछ मलबे में दब के रह गया।

      राइटर उसके जज्बातों से बेखबर अपनी ही धुन में आगे कह रहा था, " जिंदगी इतनी कम नहीं मेरे दोस्त ! जितना तुम समझते हो। और खून के रिश्ते इतनी सहजता से नहीं बनते । "
 वह फिर हंसा था। 
      इस बार उसने संजीदगी से कहा था,   " कभी-कभी सोचता हूं,  कि तुम ... मैं होता। और मैं .... तुम होते। "

 राइटर फिर हंस था, " तुम वही सोचते हो, जो हो नहीं सकता ?"
       उसकी इस हसी ने वेल्दीमैन को कुछ पर्सनल बना दिया, " पता नहीं तुम इतने फेमस राइटर कैसे बन गए ? वही दकियानूसी बातें करते हो ? इतने इमोशन लिखते तो हो लेकिन समझते नहीं हो .....
 
     " मैं तुम्हारा दोस्त हूं, दुश्मन नही। हमदर्द हूं तुम्हारा, और मैं नहीं चाहता कि तुम मेरी किसी कहानी के किरदार बनकर रह जाओ। तुम जिंदा इंसान हो दोस्त !  तुम्हें भी खुश होने का उतना ही हक है जितना कि औरों को है ? यह बात अलग है, तुम्हारी खुशी के पैमाने अलग हैं और मेरे अलग ! पर मूल वजह तुम्हारी खुशी है ! इसीलिए तुम्हे समझा रहा हूं, जज्जबाती हो कर लिए गए फैसले जरूरी नहीं कि हमेशा सही हो ? तुम तो कामयाब बिजनेसमैन रहे हो न, तो तुमसे बेहतर इस बात को कौन समझ सकता है"।

     उसने महसूस किया कि जैसे उसकी आंखों की नमी एकाएक राइटर की आंखों में चमकने लगी है। वह चुप हो गया उसने फिर आगे कुछ नहीं कहा। एक लंबी खामोशी ..... सिर्फ इंजन का धीमा स्वर हवा में तीर रहा था।

     किड्स हाउस ! 

            शहर से कुछ दूर लेकिन सभी सुख सुविधाओं से संपन्न एक विशाल इमारत। चारों तरफ गार्डन जिसमें तरह-तरह के झूले। पक्की बाउंड्री। कुछ ही दूर पर एक भव्य स्कूल। इन सब के बीच एक छोटा सा कॉटेज।

      वह लग्जरी कार उसी कॉटेज के ठीक सामने आकर रुकी। दो पहरेदार दौड़ कर सामने आए। राइटर के साथ वह कार से उतरा। दोनों कॉटेज के अंदर चले गए। वह निढाल सा सोफे पे ही लेट गया। राइटर उसी सपाट लहजे में बोला, " थक गए लगता है ? आराम करो, फिर आऊंगा", वह बाहर निकला लेकिन कुछ देर बाद लौट कर हंसते हुए वापस आया,
      " सावधान राइटर! सावधान !! वह आ रही है.... हां वही लड़की ..... जिसके बारे में मैंने तुम्हें रास्ते में बताया था ? हैं वही ..... बेकरार और दीवानों की तरह। अब मैं फाइनली जा रहा हूं, गुड नाइट !"
      वह सजग हो गया, और मन ही मन सोचने लगा, " कौन हो सकती है वह ....? "
to be continued ....
Shailendra S.


Friday, October 29, 2021

आशाओं के दीप - 2

      आशा के मुताबिक उसमें कोई पत्र नहीं था। उसमें कागज का एक छोटा सा टुकड़ा था और उसके नाम से एक डिमांड ड्राफ्ट। हिसाब के टुकड़े में मूलधन प्लस ब्याज मिलाकर जितना टोटल होता था, वह रकम डिमांड ड्राफ्ट में लिखी थी।

    " ओह ! कितना शातिर और बदमाश निकला। तुम्हारे सारे सपने चुरा लिए और देखो भेजा भी तो क्या भेजा! पैसे वापस किए उसने !! हम लोगों ने क्या समझा और वह क्या निकला !!! "

      पारुल भरपूर अपने दिल की भड़ास निकाल रही थी। लेकिन उसकी दीदी चुपचाप खामोशी से पथराई सी आंखों से कभी हिसाब के उस छोटे से कागज के टुकड़े को देखती तो कभी डिमांड ड्राफ्ट को। पल भर के लिए उसे भी महसूस हुआ जैसे किसी ने उसके सारे सपने चुपके से चुरा भी लिए हो।

          "  दीदी हम उसे ऐसे ही नहीं छोड़ेंगे। मैं तो उसकी क्लास लूंगी। मैं तो कहती हूं दीदी तुम्हें उससे कम से कम एक बार मिलना चाहिए। हम पता लगाएंगे शहर का नाम तो मालूम ही है। हम खोज निकलेंगे उसे। और फिर पूछेंगे, तुम न सही लेकिन मैं उससे जरूर पूछूंगी। उसने तुम्हारे साथ ऐसा क्यों किया ? क्यों तुम्हारे जीवन में आशाओं के जलाए। जिस की रोशनी में उजाला तो हुआ लेकिन जिस की आग ने तुम्हारा जीवन ही जला दिया . .  . 

        मैं तो सोच के हैरान होती हूं, कितना बेवफा इंसान है।  पहले कुछ महीनों तक तो फोन भी किया। उसके बाद वह भी करना बंद कर दिया। उसका फोन लगाओ तो सिम बंद होने का मैसेज आता है। एक्चुअली में दीदी वह तुमसे अब मिलना ही नहीं चाहता। उसने कोई और ही दुनिया बसा ली होगी। कर्ज लिया था, सो वापस कर दिया। लेकिन उससे पूछना जरूर है, उससे एक बार मिलना जरूर है। मैं पता लगाती हूं आखिर कोई तो जानता होगा उसे

      पारुल उसे अभी भी जी भरकर कोस रही थी लेकिन पायल उसी तरह खामोश चुपचाप सुनती रही। पता लगाने का एक ही जरिया था और वह था डिमांड ड्राफ्ट। वह उस शहर गई , उस बैंक मैनेजर से मिली जहां से डिमांड ड्राफ्ट बनवाया गया था। डिमांड ड्राफ्ट अकाउंट से बनवाया गया था और उसे अकाउंट होल्डर का एड्रेस लेने में कोई परेशानी नहीं हुई। लेकिन यह क्या ? अकाउंट होल्डर एक लेडी है !!

       खैर जो भी हो दीदी निपट लेगी यही सोचकर वह वापस अपने शहर लौट आई। एक घर का पता देते हुए उसने अपनी दीदी से कहा, " चाहती तो मैं खुद ही मिल सकती थी, लेकिन नहीं, मैं यह चाहती हूं कि सबसे पहले तुम मिलो और पूछो उससे " ।
    हजारों तरह की समझाइश देकर उसने दीदी को उस शहर के लिए रवाना किया। पायल के लिए यह एक अजनबी शहर था, अजनबी लोग थे। कभी वह अजनबी शहर और अजनबी लोगों को फेस करने की अभ्यस्थ थी। लेकिन इन चार वर्षों में वह इन सब से दूर हो चुकी थी। उसके अंदर उसी एक शर्मीली और मासूम लड़की ने जन्म ले लिया था, जिसे कभी छोड़कर वह स्टेज पर उतरी थी।

      वह कुछ डरी सहमी सी एक घर के सामने जाकर रुकी। हाथ में लिए पाते को एक बार फिर देखा। कहीं वह गलत घर में तो नहीं आ गई । और जब उसे सही होने का विश्वास हो गया तो उसने कॉल बेल का स्विच दबा दिया अंदर तेज घंटी बजने की आवाज हुई कुछ देर बाद एक अधेड़ महिला ने दरवाजा खोला और धीरे से पूछा, " जी किससे मिलना है ?"

" जी नमस्ते ! जी वो रोहित से . . .

उसकी बात पूरी भी ना हुई थी कि उस अधेड़ महिला ने आश्चर्य से पूछा, " किससे !! रोहित से . . 
जी . . . उसकी आवाज में मायूसी थी " जी रोहित से मिलना था . . क्या यह घर उनका नहीं है?

उस महिला ने उसे गौर से देखा फिर दरवाजे से एक तरफ हटते हुए बोली अंदर आ जाओ वह पीछे पीछे बैठक रूम पर पहुंची , "आराम से बैठ जाओ . . . 

      दीपावली का दिन था। पारुल ने पूरे घर को साफ-सुथरा करके सजाया। " ट्रेन आती होगी और उसके साथ ही उसकी दीदी भी आ जाएंगी। और क्या पता शायद वह भी साथ में आए। यही सोच सोच कर वह पूरे मन से पूरे घर को सजा रही थी । 

       शाम को पांच बजने हैं, अब तक तो ट्रेन आ गई होगी। दीदी बस आती ही होगी। कुछ शरारती बच्चों ने अभी से फटाके चलाने शुरू कर दिए थे। कहीं से जब एक तेज धमाका होता तो वह डर सी जाती। न जाने दीदी को इतना लेट क्यों हो रहा है ?
      पायल के घर पहुंचते ही पारुल जोर से भागती हुई उसकी तरफ आई और कस कर लिपट गई, जैसे एक छोटी सी बच्ची अपनी मां से लिपट जाती है, और हजारों शिकायतें, 

   " क्या दीदी ! इतना लेट कर दिया ? मुझे तो फिक्र हो रही थी, और सच पूछो डर भी लग रहा था। तुम नहीं जानती जब तुम पास नहीं होती हो तो न जाने मन में क्या-क्या ख्याल आते हैं। अब मैं तुम्हें कहीं नहीं जाने दूंगी। जाओगे भी तो मैं तुम्हारे साथ रहूंगी। तुम्हारे साथ जाऊंगी। "

    उसने पारुल को कस कर भींच लिया, जैसे एक मां अपने शिशु को अंक में समेट लेती है, "ठीक है, अब कही न जाऊंगी "

          पारुल खुश थी, " दीदी बताओ तो मिला वह ? तुम उसे याद तो रही न ? अरे कुछ तो बताओ ? कैसा है वह ? आएगा कि नहीं ? "

   "अरे रुक जा री, सांस तो लेने दे .  . . बताती हूं सब बताती हूं। तू पहले दीपावली की तैयारी तो कर। देख सांझ हो गई दिये कब जलेगी ? ",  कहते हुए  वह फ्रेश होने के लिए बाथरूम मैं घुस गई !
      
    पारुल ने पूजा की पूरी तैयारी की, दीए में तेल भरा और बड़ी सी थाल में एक क्रम से रखा। दोनों बहनों ने शांत मन से पूजा अर्चना की। इस बीच पारुल ने पायल से कुछ भी नहीं पूछा। वह नादान थी लेकिन बेवकूफ नहीं वह जानती थी दीदी का जब मन करेगा तो वह खुद बताएगी।

       पायल ने अपने बैग से तो तस्वीर निकाली। एक पारुल की तरफ बढ़ा दी और दूसरी जो फ्रेम में थी उसे देवताओं की ठीक बगल वाली खाली रैक में रख दी। पूजा की थल से कुछ फूल और एक जलता दीपक उठा कर ठीक उस तस्वीर के सामने रख दिया।

       पीछे खड़ी पारुल ने यह सब देखा और उसे समझते देर न लगी कि क्या घटित हो चुका है। फिर उसने अपने हाथ में पकड़ी उस तस्वीर को देखा, फिर दीदी की तरफ।

       " यह तस्वीर रोहित के छोटे भाई की है। आज वह और उसका परिवार ठीक उसी तरह संघर्ष कर रहा है, जैसा कि पहले रोहित किया करता था। आज उसका परिवार रोहित के बिना अधूरा है। सारी जिम्मेदारियां उसके भाई पर है।

      रोहित ने अपने जिन जिन मित्रों से पैसे लिए थे, उन सभी के नाम डायरी में लिख रखे थे । उसने हमारे और अपने बीच के इस अनकहे रिश्ते को भी मां के साथ शेयर किया था। जब रोहित ही न रहा तो उसके मां की मुझसे मिलने की हिम्मत ही न रही। शायद उन्होंने सोचा होगा कि मिलने से फायदा भी क्या ? शायद समय के साथ मैं भी उसे भूल गई और यदि नहीं भी भूली तो उसे बेवफा समझ कर भूल जाऊंगी। लेकिन यदि रोहित का लिया कर्ज लौटना न होता तो शायद आज भी . . .

        मैंने अभी फाइनल तो कुछ भी नहीं किया। तेरी मर्जी के बिना कर भी कैसे सकती थी। पर आज उस परिवार को मुझसे अधिक तेरी जरूरत है। यदि तुझे मंजूर हो तो मुझसे कह न मंजूर हो तो भी कह देना। 

    " लेकिन दीदी यह सब कैसे कब हो गया ...

   " ठीक उसी तरह जैसे एक अनहोनी हो जाती है। एक एक्सीडेंट ही तो हुआ था, और शायद मरने वाले को भी अपने मरने का एहसास न हुआ होगा। वह भी नहीं सोच पाया होगा कि उसने कब यह दुनिया छोड़ दी ... हमने तो कुछ भी नहीं सहा पारुल। जब हम अकेले थे, कुछ नहीं थे, तब वह हमारे साथ था। हमारे हर दुख को अपना दुख समझ कर हमारे साथ ही चलता रहा। और हम उसे न जाने क्या क्या कहते रहे। बेवफा ... हरजाई ... धोखेबाज ... चलाक ....  अब .... अब खुद सोचती हूं तो शर्मिंदगी महसूस करती हूं।

" लेकिन दीदी तुम .... अकेले रह .  ..

        " न .... अकेली न रहूंगी . . . उसने आशाओं के जो दीप मुझे दिए थे, वे सदैव मेरे साथ रहेंगे। यूं ही जलते रहेंगे . . . 

      ठीक तभी बाहर तेज धमाका हुआ। शायद दीपावली का कोई बड़ा बम फोड़ा गया था। धमाका इतनी तेज था कि पारुल डर कर दीदी से लिपट गई। बहन की गर्म आगोश थी या वह खुद रो कर दीदी को रुलाना चाहती थी, क्या पता ? अपने आंसू गिरने से न रोक पाई। हिचकियां ले ले कर रोने लगी। 


       प्रत्येक इंसान के जीवन में एक ऐसा भी समय आता है, जब मन का सारा उद्वेग शांत हो जाता है। स्थिर मन में सभी चाहते शांत हो जाती हैं। इंसान में कुछ प्राप्त करने के स्थान पर कुछ देने की क्षमता उत्पन्न होने लगती हैं। 

        सभी गिले-शिकवे दूर हो जाते हैं। आंखों के आंसू भी सूख जाते हैं। न कोई क्रंदन न कोई विलाप। बस सब कुछ शांत और स्थिर। इंसान में कर्तव्य बोध का सृजन होता है और वह अपनी सारी आकांक्षाओं सारी चाहतों को किनारे रख अपने उसी मार्ग पर चल पड़ता है। 

       यह भावना कोई त्याग की भावना नहीं, यह भावना तो एक स्थिर मन में उपजे उस समर्पण की है, जिसे कभी आपने स्वयं ही आत्मसात किया था। 

       वह रोहित के किसी भी कर्ज को नहीं चुकाना चाहती और न ही उसके परिवार पर कोई एहसान करना चाहती हैं वह तो बस अपने उसी कर्तव्य पथ पर चलना चाहती है,  जिस पथ पर कभी उसे साथ ले, उसका दिलबर चला था। 

     " चल अब चुप भी हो जा .... जिस दिन कन्यादान कर दूंगी उस दिन रो लेना ... 
लेकिन पारुल कहां छोड़ने वाली थी।
Shailendra S. "Satna"

Thursday, October 28, 2021

आशाओं के दीप - 1

        दीदी कब तक करोगी उसका इंतजार ? दो  साल कम नहीं होते ? वह आने से रहा। पक्का बिजनेसमैन निकला दीदी, सौ लगाए और लाखों लेकर चला गया।

         पारुल ने दीदी के चेहरे में नजरें गड़ा दी। देखना चाहती थी कि उसकी बातों का उसकी दीदी पर क्या असर हुआ। लेकिन उसकी दीदी उसी तरह उदास स्वर में बोली, " उसने कहा था वह आएगा . .  उसने कहा था आशाओं के दीप कभी बुझने न देना . . ."

       " तुम समझती क्यों नहीं दीदी . .",  पारुल कृतिम क्रोध दिखाते हुए बोली थी, " आशाओं के दीप जले और जलकर बुझ भी गए। कभी सोचती हूं . . . तुम्हारी उससे मुलाकात न होती तो अच्छा था . . . उससे कभी बात न होती तो अच्छा था . .  और उससे कभी मोहब्बत न होती तो और अच्छा होता। 

      पारुल उसी कृतिम क्रोध को लिए कमरे से बाहर चली गई। उसे यादों का मृदुल स्पर्श मिला।

     " मुंबई वैरायटी शो ", प्रदर्शनी की जान हुआ करती थी। किशोरवय से लेकर उम्र दराज तक के लोग दर्शक दीर्घा में होते। मादक फिल्मी गानों की प्ले के साथ कम वस्त्रों में थिरकते यौवन को देखने की जिज्ञासा किसमे नहीं होती ! हर तरह के लोग और हर तरह के इशारे। एक शहर से दूसरे, शहर दूसरे से तीसरे।

      दिन में आठ दस शो होते थे। प्रत्येक शो लगभग आधे घंटे का होता। कभी अर्धविक्षिप्त बाप ने न रोका और न कभी उसके मन में कोई अपराध बोध ही जागा।

      जिस्म बेचने से अच्छा था कि उसकी नुमाइश कर ली जाए। एक वर्ष के अंदर ही इस पेशे ने उसे बहुत कुछ सिखा दिया एक शर्मीली लड़की दुनियादारी सीख गई।

      उस वर्ष विदिशा में प्रदर्शनी लगी थी। आठ 10 दिन बीत गए। इन दिनों में उसे महसूस हुआ कि एक लड़का दिन में कम से कम तीन चार शो देखने आता है और अक्सर ही आगे की पंक्ति में बैठता है।

         एक दिन जब उसका शो चल रहा था तो उस लड़के के पास ही बैठे एक लड़के ने उसे अश्लील कमेंट किया। फिर क्या था वह लड़का उस लड़के से उलझ पड़ा। इतना कि शो रोकना पड़ा। कुछ देर बाद शो तो फिर से शुरू हुआ लेकिन आगे की दोनों सीटें खाली थी। शायद सिक्योरिटी वालों ने उन दोनों को ही बाहर का रास्ता दिखा दिया था।

      यह सब उसके लिए नया नहीं था, आए दिन होता रहता था। लेकिन एक बात उसके अंदर घर कर गई कि इस दुनिया में कोई है जो उसे पसंद करता है। उसके सम्मान के लिए किसी से लड़ भी सकता है।

        वह उससे मिलने के लिए बेताब सी हो उठी। तीन-चार दिनों तक इंतजार किया, लेकिन वह किसी शो में नहीं दिखा। एक दिन जब वह शो शुरू होने से पहले सजसवर रही थी कि ग्रुप की एक लड़की ने उसे बताया कि आज वह आया है। फिर उसे छेड़ा था " जरा झूम के नाचना . . . तुम्हारे दिलबर आए हैं !"

       सचमुच उस दिन वह झूम कर नाची थी। निगाहें बराबर उसी पर थी। उसकी हर एक अदा केवल उसी के लिए थी। और वह भी मंत्रमुग्ध सा स्टेज पर झूमते हुए यौवन को न देख केवल उसे ही देख रहा था। पल भर के लिए दोनों की नजरें मिली भी थी।

     दूसरे ही दिन सुबह से ही जमकर बारिश हुई थी। मैदान में चारों तरफ पानी ही पानी भर गया।

        उस दिन कोई शो न हो सका। फिर भी वह आया था। उसे प्रदर्शनी के चक्कर लगाते देख उसी लड़की ने उसे खबर दी, " देख तो सही ! इस तूफानी बारिश में भी तेरे दिलबर आए हैं! मिलेगी उनसे ? उसने हां में सर हिलाया, " लेकिन कैसे ?"

      कुछ देर बाद वह उसके पास आई। चल वह तेरा इंतजार कर रहा है। वह उसे लेकर टिकट काउंटर पर आई , " डर मत 15 मिनट के लिए काउंटर वाले को पटा लिया है, वह मुझ पर फिदा है  "।

     उसने उसकी तरफ देखा, बारिश अभी हो रही थी और वह खिड़की के दूसरी तरफ खड़ा भीग रहा था। उसने हौले से मुस्कुरा कर पूछा, " कैसी हो पायल ?  "

      उसके मुख से अपना नाम सुन वह रो पड़ी वर्षों बाद किसी ने उसे आत्मीयता से पुकारा था, कुछ पूछा था। महसूस हुआ जैसे जन्म जन्मांतर का रिश्ता है। उसने खिड़की से हाथ डाल उसके गालों में लुढ़क आए आंसुओं को पूछ बोला था , " रो मत" ।

    उसे उसके स्पर्श में जादू सा महसूस हुआ। इतना गहरा प्रेम जिसमें वह डूबती चली गई। केवल 15 मिनट में ही दोनों ने एक दूसरे का सुख दुख बांट लिया। उसी से पता चला कि वह भी इस शहर में नया है। पढ़ाई करने आया है। पहला साल ही चल रहा है।

      इसके बाद न तो ऐसा कभी दिन आया और न ही कभी ऐसी बरसात हुई । न ही फुर्सत के लम्हे मिले कि जब वे मिल सके। वह अभी भी शो देखने आता था और सच जिस शो में वह होता पायल के कदम स्टेज पर न पढ़ते।

   प्रदर्शनी खत्म हुई और सामान ट्रकों में भरा जाने लगा। उसी लड़की की मेहरबानी से वे दोनों कुछ पल के लिए फिर मिले थे। उसने आशाओं के दीप उसकी तरफ बढ़ाते हुए कहा , " पायल ! दुनिया भी तो एक स्टेज है. तुम इस छोटे स्टेज को छोड़ बड़े स्टेज में आओ, मैं तुम्हारे साथ हूं "

      आशाओं के दीप प्रज्जवलित करने के लिए वह उसके शहर आया। उसके शहर में उसकी जान पहचान के तमाम लोग थे। वह उन सब से मिला। बैंक मैनेजर से भी, और पायल की धूल खा चुकी सर्टिफिकेट काम आई। फिर शहर के मेन लोकेशन में खुल गई एक मोबाइल शॉप।

      पायल को शंका थी कि वह दुकान चलेगी भी या नहीं । लेकिन वह कहता है, " ऐसा क्यों सोचती हो भला आज की दुनिया में कोई भी इंसान मोबाइल के बिना रह सकता है? "

       उसकी सोच कामयाब हुई। मोबाइल बेचने का बिजनेस चल निकला। महीने दो महीने में वह आता रहता। उसकी उपस्थित उसे उत्साहित करती। इसी तरह दो साल और गुजर गए। 

     एक दिन उसने कृतज्ञ भाव से कहा, " तुमने मेरे लिए इतना सब किया ! कैसे इसका बदला चुका सकूंगी ? "

     तब वह हंसते हुए बोला, " मैंने जो कुछ किया अपने लिए किया . .  "

      उसने आश्चर्यचकित स्वर में पूछा, " मैं समझी नहीं  . . ."

     कुछ पल के लिए उसकी हंसी रुक गई फिर मुस्कुराते हुए बोला, " मैं भी बिजनेस करना चाहता हूं, यह क्या कम है पूजी तुम्हारी, रिस्क तुम्हारा और एक्सपीरियंस मुझे भी मिला।

     उसका मुंह लटक गया, लेकिन वह अपनी ही धुन में आगे कह रहा था, " मेरी पढ़ाई भी पूरी हो चुकी है लेकिन मैं नौकरी करने के इरादे में नहीं हूं। मैं भी बिजनेस ही करूंगा, लेकिन उसके लिए मुझे पैसे जुटाने होंग पायल !"

 तब उसने झट से पूछा, " कितने ! "

" अभी तो मुझे खुद नहीं पता . . . ",  

       पायल ने उससे कहा " कुछ पैसे मेरे पास है, बचा के रखे हैं, लेते जाओ . . . "

         कुछ देर वह खामोश रहा फिर बोला था " ठीक है, लेकिन एक शर्त है? जब भी मैं ब्याज के साथ वापस करूंगा, मना मत करना !"

         " ब्याज !! ",  उसने मन ही मन सोचा, " ब्याज में तो मैं तुमसे, दो प्यारे प्यारे से बच्चे लूंगी, समझे ! "

 फिर वह अपनी ही सोच पर शर्म से लाल हो गई।

        उसे छोड़ने वह स्टेशन तक आई थी। जैसे ही ट्रेन प्लेटफार्म आई तो उसकी आंखों से गंगा जमुना बहने लगी। वह उसे दिलासा देते हुए बोला, " मेरी मां ने मेरे लिए बहुत कुछ सोचा है, सपने देखें हैं, बहुत परेशानियों का सामना भी किया है। मैं अपने पैरों में खड़ा होना चाहता हूं। छोटा भाई अभी पढ़ रहा है, उसके लिए भी कुछ करना चाहता हूं। इसलिए हो सकता है कि अब मैं चार पांच महीने ना आ सकूं।

         ट्रेन ने सिटी दी वह जाने के लिए उठा लेकिन पायल ने उसका हाथ कस कर पकड़ लिया। बस बेबस आंखों में से उसकी तरफ ताकती रही।

     वह भी भावुक हो गया, " मैं जानता हूं कि तुम मुझसे क्या सुनना चाहती हो . . . अरे पागल ! वह तो मैंने पहली मुलाकात में ही तुमसे कह दिया था। देखो ! क्या इन आंखों में तुम नहीं दिखाई देती हो ?

     वह कुछ नहीं बोली, अश्रुकण लगातार बहते ही जा रहे थे। वह प्यार से उन आंसुओं को पोछता हुआ उसी स्वर में बोला , " और देखो मैंने मदद इसलिए नहीं की थी कि मुझे एक्सपीरियंस . . .  बहुत सी बातें हैं जो तुमसे करनी है, लेकिन अभी नहीं। अभी तुम्हारी भी जिम्मेदारियां हैं और मेरी भी। एक बार ये सभी पूरी हो जाए तो फिर अपने बारे में भी हम सोचेंगे और हां तुम मुझसे वादा करो कि इन आशाओं के दीप को कभी बुझने नहीं दोगी ! "

    " देखो तो दीदी! उसका लेटर आया है ", पारुल लगभग भागती हुई सी कमरे में दाखिल हुई । 

उसकी तंद्रा भंग हुई, स्मृतियां बिखर सी गई। वह खुशी से पागल चहक उठी,  " क्या . . सच !! " अगले ही पल खत को पारुल के हाथ से झपट सा लिया . . .
to be continued . . . 2
Shailendra S.

Saturday, October 23, 2021

अक्सर मुझे देख कर !

अक्सर मुझे देख कर,
तुम्हारी ही बातें करते हैं लोग,
हां सच! मैं कुछ भी नहीं पूछता,
फिर भी !
सब कुछ बताते हैं, 
तुम्हारे बारे में लोग।

न जाने क्यों यह भी पूछते हैं कि, 
मैं तुमसे कहीं नाराज तो नहीं?
फिर भी मैं कुछ नहीं कहता !
हां चुप रहता हूं !!
तब बड़ी हमदर्दी से, 
लोग मुझसे कहते हैं,
संभालो खुद को, 
अक्सर दिल में ही तो,
बिजलियां गिरा करती हैं दोस्त!!

फिर भी मैं कुछ नहीं कहता, 
चुप रहता हू, और तब ?
और भी बारीकी से बताते हैं लोग।
कैसे कुछ ने तुम्हें उदास देखा था,
कैसे कुछ ने तुम्हें हंसता भी देखा था।
किसी की याद में गुमसुम,
अपने घर के सामने ही,
कल बैठा हुआ भी देखा था।
चलती राह के मुसाफिरों को रोक,
मेरे बारे में पूछते हुए भी देखा था।

नादान हैं,
न जाने कौन सी कहानियां बनाते हैं लोग?
हां, मैं जानता हूं, मुझे पता है !
बस यह कहानियां ही तो है,
जो अक्सर मुझे सुनाते हैं लोग ।।

और भी ना जाने, 
क्या-क्या बताते हैं लोग।
जैसे वे गवाह हो, 
तुम्हारी तन्हाइयों के,
जैसे वे गवाह हों, 
तुम्हारी रुसवाईयों के,
जैसे वे गवाह हों, 
मेरी बेबाफाइओ के,
कुछ रास्ते भी सुझाते हैं, 
तुमसे मिलने के।
समझाते हैं किस तरीके से वे,
अब सब कुछ ठीक कर देंगे?
तब उन्हें टाल मैं आगे बढ़ जाता हूं।
एक गली से निकल, दूसरी, 
दूसरी से तीसरी ...

और फिर न जाने कितनी ही,
गलियों से गुजरता हूं।
एक अजीब सी तन्हाई की तलाश में। 
जहां बैठकर मैं कुछ देर,
खुद को रोने से रोक सकूं।
खुद को समझा सकूं,
हां, तुमने तो कभी मुझे,
प्यार किया ही न था !!
Shailendra S. SATNA (MP)

न जाने क्या पा लिया उसने !

ना जाने क्या कह गया वह जमाने से,
अपना ही शहर छोड़ गया मेरे आने से।
बमुश्किल खोज पाया था मैं उसे,
फिर क्यों रूठा है ?
लौट कर न आने से।
शायद तुमसे ही कुछ कह गया हो मेरे बारे में
अब तुम भी बताना उसे,
क्या गुजरी है उसके जाने से।
ना जाने क्या पा लिया,
उसने किसी खजाने से ?
क्या कम थे ये मोती,
जो गिरे मेरी आंखों से?
ना जाने क्या पा लिया,
उसने चुप रह जाने से?
बमुश्किल छोड़ा होगा उसने भी,
किसी के समझाने से।
बताओ कुछ तो कह गया होगा वह तुमसे?
अब तुम्ही बताना उसे,
क्या गुजरी है उसके जाने से।।
Shailendra S.

Friday, October 22, 2021

आशिकी भी फातिया न पढ़ेगी

 

ख्वाब को अपने अधूरा मत छोड़ शैलेंद्र,
जागने पर तुझे बेचैनियां मिलेंगी।


गर टूट कर बिखर गए राह में तो क्या,
खुद को समेट अभी तो मंजिल मिलेगी।


कौन है जो जज्ब कर लेगा तेरे एहसास,
उम्मीद से ही शमा- ए - महफिल जलेगी।


दफन तो होना है सभी को ब-दस्तूर,
तोड़ मायूसी की कब्र रोशनी दिखेगी।


गर अधूरे छोड़ ख्वाब मर भी गया,
तेरी आशिकी भी फातिया न पढ़ेगी।


जिंदादिली से अभी तो चल वरना ?
मुर्दा को चलता देख दुनिया भी हंसेगी।।


Shailendra S.

Wednesday, October 20, 2021

मैं तेरे गांव की छोरी हूं

मैं तेरे गांव की छोरी हूं,
 तू मेरे गांव का बूढ़ा है।
पकड़ के चूहा लटका दूंगी 
जो तू मुझको छेड़ा है।

आना-जाना दुश्वार किया,
तूने ऐसा व्यवहार किया,
मोहन को भी बदनाम किया,
मुरलीवाला भी अब सोचेगा,
राधा को क्यों बदनाम किया?
मैं तेरी मार की मारी हूं,
तू मेरे प्यार का मारा है।
मैं तेरे गांव की छोरी हूं,
तू मेरे गांव का बुढ़ा है।

तू मरण-सेज पर लेटा है,
मैं प्रिय-सेज पर लेटी हूं,
इतना भी ज्ञान न आता है?
यूं तो तू बदमाश बहुत है,
मैं भी कुछ कम चालाक नहीं,
तू मुझको जिस रस्ते घेरा है,
मैं दूजे से फिर आती हूं।
मैं तेरे गांव की छोरी हूं,
तू मेरे गांव का बुढ़ा है।
पकड़ के चूहा लटका दूंगी,
जो तू मुझको छोड़ा है।

कान पकड़कर बैठक करवा लूंगी,
सरे आम पब्लिक से पिटवा दूंगी,
या फिर,
गांव के पागल कुत्तों को,
 तेरे पीछे दौड़ा दूंगी।
तुझको! तेरे ही घर में बंधवा दूंगी,
या फिर,
थाने के बैरक में डलवा दूंगी।
अबकी जो तू मुझको छेड़ा है?
मैं तेरे गांव की छोरी हूं,
तू मेरे गांव का बुढ़ा है।

क्यों करता बदनाम मुझे?
हाथ फेर सर पे, दे आशीष मुझे,
बचपन में मेरे गाल को चूमा है।
अब क्यों डर लगता है,
मुझको तेरी नादां बदमाशी से?
तू भी तो बचपन में, 
मेरे साथ का खेला है ?
बनकर जब काठ का घोड़ा,
तू भी तो टिक-टिक दौड़ा है?
मैं तेरे गांव की छोरी हूं,
तू मेरे गांव का बूढ़ा है।
पकड़ के चूहा लटका दूंगी,
जो तू मुझ को छेड़ा है।।

Shailendra S.

Tuesday, October 19, 2021

आउट ऑफ सिलेबस 2


नोट: यदि इस का पहला पार्ट नहीं पढ़ा है तो उसे अवश्य पढ़ें ले। वह आपको इसी ब्लॉग में मिल जाएगा।
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    कहानी को जहां विराम दिया गया, वहां घटनाएं घटी और तीन पात्र एक दूसरे से जुदा हुए, अपनी अलग-अलग जिंदगी जीने के लिए।

 कुछ सीख, सिद्धांत और अवधारणाओं के साथ कहानी रुक गई । या यूं कह लीजिए की कहानी को यदि मैंने ठीक उसके दो-तीन वर्ष के बाद लिख दिया होता तो वही उसका अंत होता।

      लेकिन नहीं, जब मैं इस कहानी को लिख रहा हूं, घटनाएं घट चुकी हैं। इसलिए कहानी को अधूरा नहीं छोड़ा जा सकता। उसे उसके अंजाम तक पहुंचाना नितांत आवश्यक है।

      जो अवधारणाएं बनी, और जो कहानी के अंत में बनेगी, वह लेखक की व्यक्तिगत हो सकती है। किंतु आगे की कहानी कहने से पहले मैं इतना अवश्य लिखना चाहता हूं कि " लड़के ऐसे ही होते हैं या लड़कियां ऐसी ही होती हैं " इस सोच को अपने कवर्ड में रखकर ताला मार दीजिए, और खुले दिमाग से आगे पढ़िए।
      
      हम तीनों एक साथ जुदा हुए और लगभग 6 वर्ष बाद जब मिले तो तीनों एक साथ ही मिले। इत्तफाक था,  इत्तेफाक ही सही लेकिन ऐसा हुआ। वह दौर कॉलेज का था और यह एक वैवाहिक समारोह का।

     हम दोनों ने एक दूसरे को देखा, लगा कहीं देखा है, शक्ल सूरत कुछ बदल गई थी। बात चली तो परिचय हुआ कि हां हम वही हैं जो कॉलेज में अक्सर मिला करते थे, और वह मुझे अपनी पोएट्री सुनाया करता था। 

         महफिल थी, भीड़ खचाखच थी। सपरिवार मैं शरीक था। वही मिया बीबी और मेरा लगभग एक वर्ष का बेटा। लेकिन जब मैंने उससे उसके बारे में पूछा, उसकी फैमिली के बारे में पूछा तो उसने मुस्कुराकर बस इतना ही कहा कि उसने अभी विवाह नहीं किया है। मुझे आश्चर्य हुआ। एम. ए. करने के 6 वर्ष बाद भी विवाह नहीं हुआ !!

       मैंने कुछ मजाकिया लहजे में उसकी पीठ थपथपाते हुए पूछा,  " क्या बात है यार, अभी तक उसे नहीं भूले ?"

       बदले में वह केवल मुस्कुरा दिया। मैंने उसे कुछ कुरेद-कुरेद कर पूछा और आश्चर्यजनक कि वह खुद भी उससे 5 वर्षों के बाद मिल रहा है। उसने महफिल की एक टेबल में दूर बैठे एक परिवार की तरफ इशारा करते हुए कहा, " देखो वह रही, अब शायद उसकी शादी हो गई है ?"

        मैंने गौर से देखा, " अरे हां यार, यह तो वही है! क्या बात है!! मुलाकात हुई ?" 

       " नहीं यार, मैंने भी अभी कुछ देर पहले ही देखा था ! "

      बफेलो सिस्टम था, अब हंसिए मत ! यही तो होता है। खाना खुद पारोसो, खड़े-खड़े खाओ। यदि कहीं जगह मिल गई ,कोई टेबल खाली मिल गई तो बैठ कर खा लो।

     क्योंकि भीड़ ज्यादा थी तो उसने मुझसे कहा , " यार, तुम फैमिली के साथ वही बैठो मैं इंतजाम करता हूं" , उसने उसके पास एक खाली टेबल की तरह मुझे इशारा करते हुए कहा।

    बीच लान की जो टेबल खाली थी, वह उस टेबल के बिल्कुल नजदीक थी। जिसमें वे तीनों बैठे थे। मैंने उस वक्त जो अनुमान लगाया वह बाद में सही भी साबित हुआ था। पुरुष उसका पति होगा और 3 वर्ष का एक लड़का जो बेहद चंचल दिख रहा था वह जरूर उन दोनों की संतान।

       अब क्योंकि उसने मेरी तरफ कोई ध्यान नहीं दिया था, और मेरा दोस्त भी टेबल की तरफ इशारा करके खाने के इंतजाम के लिए भीड़ में गुम हो चुका था। मैं अपनी पत्नी और बच्चे के साथ उसके नजदीक की खाली टेबल पर बैठ गया। उसने अभी भी हमारी तरफ कोई ध्यान नहीं दिया था। ना उसने ना उसके पति ने।

       मेरी पीठ उसके पीठ की तरफ थी। यानी दोनो अलग-अलग टेबल में नजदीक होते हुए भी एक दूसरे की विपरीत दिशा में बैठे थे।

        लगभग डेढ़ - दो हाथ का फर्क रहा होगा। उसकी सुरीली आवाज मुझे सुनाई दे रही थी। वह कभी हंसती तो कभी बच्चे को थोड़ा सा डांट देती। कुल मिलाकर मुझे लगा हैप्पी फैमिली।

       सार्वजनिक महफिल में हमें अक्सर यही भ्रम होता है। शायद आपको भी होता हो।
     
     अचानक उसकी यह आवाज सुनकर मैं चौंक गया। वह उस पुरुष साथी अर्थात अपने पति से कह रही थी, " अरे . .  अरे देखो, देखो तो, अरे यही वह है, जिसके बारे में मैंने तुम्हें बताया था। हां, . . वही मेरा दीवाना ! मेरे लिए पोएट्री भी लिखा करता था। हां, और मैं जानबूझकर उसे इग्नोर कर देती थी, मैंने बताया था न तुम्हें ? "

     मैंने उसके इशारे का अनुमान लगाया और देखा, वह मेरे मित्र को भीड़ में देखकर पहचान गई थी, और उसके यह वक्तव्य उसे देख कर ही कहे गए थे।

      प्रत्युत्तर में उसके पति ने उसे क्या कहा और दोनों फिर किस बात पर हस पड़े, मुझे स्पष्ट सुनाई न दिया। लेकिन उसकी बातें मुझे बराबर स्पष्ट सुनाई दे रही थी। वह कुछ दबे स्वर में कह रही थी, "तीन साल तक मेरे पीछे पड़ा रहा। बड़ी मुश्किल से जान छुड़ाई थी !!"

      मुझे उसकी बातें सुनकर हंसी आ रही थी। जिसे मैं बड़ी मुश्किल से रोक पाया था। अपनी बातों से वह बड़ी शालीनता से अपने पति को यह बता रही थी कि मेरा मित्र साइको है। सामने बैठी मेरी पत्नी मुझे देखे जा रही थी, कि मैं ऐसा कौन सा चुटकुला सुन रहा हूं कि हंसी आने के बावजूद भी मैं हंस नही पा रहा हूं?

       मेरा वह मित्र मेरा मेजबान नहीं था। लेकिन एक वही बखूबी मेजबानी धर्म का पालन कर रहा था। हम दोनों को प्लेट ला कर दी और उसके बाद वह अपने लिए भी खाने की एक प्लेट और एक कुर्सी लेकर हाजिर हुआ। 

          इस बीच उसने उस लड़की की तरफ नहीं देखा था। जैसे वह उसे जताना चाहता हो कि अभी उसकी नजर उस पर नहीं पड़ी है।

     लेकिन यह क्या उस लड़की ने उसे स्वयं टोक दिया , "  अरे तुम !! ",  फिर इसके बाद उसका नाम लेते हुए पूछा , " . . .  कैसे हो? बहुत दिनों बाद दिखाई दिए? अच्छे तो हो ? "

      वह उसके पास जाकर खड़ा हो गया। फिर बकायदा क्षमा मांगी कि उसने उसको पहले नहीं देखा। उसने भी कहा " हां मैंने भी तो बस अभी-अभी देखा है "।

       दोनों बराबर झूठ बोले जा रहे थे, और मुझे फिर हंसी आ रही थी। मेरी पत्नी ने फिर से मुझे अजीब नजरों से देखा।

     अब आप इस मुलाकात की कल्पना करें।  जिसमें तीन साहित्यिक पर्सन जानबूझकर अभी-अभी देखने का और मिलने का एक दूसरे को आभास करा रहे हैं, जबकि वास्तव में वे पहले ही एक दूसरे को देख चुके थे। साहित्य के किन-किन आदर्श और लुभावने शब्दों का प्रयोग, और किस अंदाज से किया जा रहा होगा, आप अनुमान लगा सकते हैं। शायद उनके द्वारा पढ़ा गया सारा लिटरेचर अब एक दूसरे के काम आ रहा था।

     औपचारिक अभिवादन के बाद उसने अपने पति को उससे खुद इंट्रोड्यूस करवाया। वही हिंग्लिश में, जिसका अविष्कार शायद इन्ही परिस्थितियों के लिए हुआ है,  

        " मीट माय हस्बैंड, यू नो ब्रॉडकास्टिंग मिनिस्ट्री में ऑफिसर हैं, दिल्ली में, हम लोग वही रहते है, और यह हमारा बेटा बहुत बदमाश है, एक्चुअली वेरी नॉटी। बहुत शैतानी करता है।

     कुछ अजूबे आपस में मिल रहे थे। दो पहले से ही एक-दूसरे से परिचित थे। एक के लिए दो अनुमानित अपरिचित थे। उनमें से एक, दूसरे के लिए कुछ-कुछ अपरिचित था। और तीसरे के लिए एक पूर्णतः अपरचित।

     दो मिनट की हालचाल के बाद यह तय हुआ कि अपनी अपनी जगह बैठ कर खाना खाया जाए।

       इस बीच मैंने महसूस किया कि मेरा वह मित्र कुछ अनुरागी नजरों से अभी भी उस लड़की को चोरी-चोरी, चुपके-चुपके देख रहा है। मैं यहां पर यह स्पष्ट लिख देना चाहता हूं कि मैं किसी भी प्रकार से उसकी भावनाओं को ना तो ठेस पहुंचा रहा हूं और ना ही उसकी चाहतों की किसी भी प्रकार से खिल्ली उड़ा रहा हूं। जो कुछ इस वक्त घट रहा था मैं उसे केवल आपके सामने हुबहू बयां कर रहा हूं।

     वे तीनों अपने में मस्त थे, और हम अपने में। चुकी मेरा दोस्त बिल्कुल मेरे पास बैठा था, इसलिए मैंने उसे पहले की सभी बातें धीरे-धीरे दबी जुबां से बताई, की कैसे उसने अपने पति को तुझे पहले ही इंट्रोड्यूस करवा दिया था।

       तू पागल था, जो समझता रहा कि वह नहीं जानती कि उसकी नोटबुक में तू ही कविताएं लिखता था। और उस दिन उसकी यह सभ्यता थी
 कि उसने अनजान बनते हुए तुझे बता दिया कि उसे तुझ में कोई इंटरेस्ट नहीं है। आखिर वह लिटरेचर की स्टूडेंट थी, इतनी सभ्यता तो उसे निभानी ही चाहिए थी, और उसने बखूबी निभाई।

      तू यह समझता रहा कि उसे कुछ नहीं मालूम और अगले एक वर्ष तक तू उसी ईमानदारी के साथ प्रयास करता रहा। कुल मिलाकर उसने लगातार तीन वर्षों तक तेरा मानसिक संतुलन बिगाड़ के रखा था, और शायद आज भी।

     उसने आश्चर्य से मेरी तरफ देखा जैसे उसे विश्वास ना हो रहा हो। तब मैंने उसे यकीन दिलाया की मैं तुझसे झूठ बोलकर क्या हासिल कर लूंगा। लेकिन जो सच है वह जानना आवश्यक है, क्योंकि उसके लिए तेरी भावनाएं सच्ची हैं और तुझे शायद हक बनता है, इसलिए बता रहा हूं।

       वे तीनों अपना डिनर खत्म करके आइसक्रीम के इंस्टॉल की तरफ बढ़ गए थे। कुछ देर चुप रहने के बाद मेरे उस मित्र ने मुझसे पूछा कि क्या हम लोग भी आइसक्रीम खाएंगे ? 

       मैंने कहा, " क्यों नहीं, लेकिन शर्त यही है तुझे लेकर आनी पड़ेगी इस भीड़ में मैं तो जाने से रहा।" 

   वह हमारे एक वर्षीय बच्चे को गोद में लेकर उसी इंस्टॉल की तरफ चल पड़ा जहां पर अभी भी वे तीनों खड़े होकर आइसक्रीम खा रहे थे।

       मैंने अपने पत्नी को उसका परिचय कालेज के मित्र के रुप में पहले से करवा दिया था। किंतु मेरी पत्नी की नजरें बराबर उसी का पीछा कर रही थी। मैंने हंसते हुए कहा, " चिंता मत करो, तुम्हारे बेटे को लेकर भाग नहीं जाएगा"

      उसने बकायदा इंस्टॉल के पास एक कुर्सी की तलाश की, उस ने हमारे बेटे को उस पर बैठाया। आइसक्रीम दी और स्वयं वहीं पर खड़ा होकर खाने लगा। और मैं देख रहा था कि वह बहुत हंस हंस के उन से बातें भी कर रहा था। 

      लगभग 5 मिनट बाद वह वापस आ गया लेकिन उसके चेहरे में अब कोई उदासी नहीं थी वह बड़ा प्रसन्न चित दिखाई दे रहा था।

     मैंने उससे पूछा, " यार बड़ा हंस-हस के बातें कर रहा था क्या बात है ? ", और तब उसने मुझे जो बताया, उसे सुनकर अब मैं हैरान था।

     उसने मुझसे पूछा कि मैंने शादी की, तो मैंने कहा, तो क्या ! चार साल हो गए। तुम्हारे बेटे को बताया कि यह मेरा बेटा है। और वहीं से इशरा भी कर दिया, अरे भाभी जी की तरफ . . . कि ये मेरी पत्नी हैं।

      अब मुझे उसकी वे सभी हरकतें याद आ रही थी कि किस तरह आइसक्रीम खिलाते समय वह बार-बार मेरे बेटे के सर पर हाथ फेर रहा था ,और उसने एक-दो बार हम दोनों की तरफ इशारा भी क्यों किया था।

    " अरे ! क्या सचमुच !! और उसने विश्वास भी कर लिया" !!,  मैंने अपनी पत्नी की तरफ देखते हुए उस से पूछा था। और मैंने यह भी देखा कि मेरी पत्नी को उसकी बातें कुछ नागवार गुजर रही थी।

    " तो क्या?  क्यों ना करती ? कौन सा हम पड़ोसी हैं। वह भी जानती है और तुम तो जानते हो कि मैं यहां दूसरे शहर से आया था, रूम लेकर पढ़ रहा था, और लगभग पांच साल बाद हम लोग मिले भी हैं । इस बीच हमारी लाइफ में क्या कुछ गुजरा हमें एक दूसरे के बारे में क्या पता। इसलिए उसे विश्वास करना पड़ा।" , फिर वह हंस पड़ा।

      मैंने कहा " बहुत शातिर दिमाग पाया है यार !!", और मैं भी हंस पड़ा।

   " और इसके बाद, उसने तुम्हारे विषय में कुछ नहीं पूछा? मसलन क्या करते हो? कहां रहते हो ? और जिसकी शादी में तुम दोनों की मुलाकात हो रही है कहीं उस से वेरीफाई किया तो झूठे साबित न हो जाओगे? "

     मेरी बात सुनकर इस बार वह और जोरदार हंसी हंस पड़ा, " नहीं, बिल्कुल नहीं। उसे कभी नहीं मालूम पड़ेगा । क्योंकि मैं इस शादी में गलती से आ गया हूं। दरअसल मुझे धोखा हो गया है।

     इसके पास में ही जो फंक्शन चल रहा है न, एक्चुअल में मुझे वहां जाना चाहिए था। मैं तो यह भी नहीं जानता हूं कि यहां किसकी शादी हो रही है। तुम दोनों सही पते पर होगे, लेकिन मैं आज भी आउट आफ सिलेबस ही हूं . . ."

    सच पूछिए हम दोनों वास्तव में अब मजे ले रहे थे । भरपूर आनंद। अब क्योंकि मेरी पत्नी को आगे और पीछे की कोई स्टोरी नहीं पता थी, इसलिए वह बोर हो रही थी, और मुझसे कहा, " चलिए देर हो रही है "

    उसने बकायदा मेरी पत्नी से क्षमा मांगते हुए कहा, " भाभी जी आप बिलकुल बुरा मत मानिएगा। बस हंसी मजाक हो रहा था। आप इनकी पत्नी है, और रहेंगी"।

"जी ! . . आपका बहुत-बहुत धन्यवाद",  मैंने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा।

  फिर उसने उसके द्वारा कही गई एक बात और बताई। वह यह कि मेरी पत्नी को देखने के बाद उसने इनकी सुंदरता की तारीफ भी की और यह भी कहा कि तुम्हारी पत्नी तो तुमसे कम उम्र की दिखाई देती है "

" तब ? तुमने क्या कहा ? ", मैंने कुछ उत्सुकता से उससे पूछा था।

   और बदले में उसने उसे जलाने के लिए मैंने एक बात और जोड़ दी थी,
      " हां बिल्कुल सही कहा, वह मुझ से नौ-दस साल छोटी हैं। हमने लव मैरिज जो की है ?"

     "अरे वाह!! बहुत खूब !!! . .   और भाई मुझे? मुझे क्या कहकर इंट्रोड्यूस किया था? "

   " भाई, बड़ा भाई " , वह लापरवाही से "भाई" शब्द बकायदा मुझे ही लौटा रहा था। 

अब मेरी शक्ल देखने लायक थी।

     उसने उसे आगे बताया था कि चुकी मैं उसका दोस्त हूं , जैसा कि वह जानती ही है। यदि उसे मेरी शक्ल याद होगी तो? और मेरे घर आते-जाते उसने मेरी बहन से प्रेम कर लिया और उससे शादी भी कर ली, और इस वक्त वह यहां छुट्टियों में आया हुआ है, अपनी ससुराल।

     " तूझे किसी फिल्म का स्क्रिप्ट राइटर होना चाहिए था? क्या ड्रामा रचा है भाई "

      बड़ी बखूबी से, कितनी शालीनता और सभ्यता के साथ वह झूठ पर झूठ बोलता गया और अगले को उसने वही दिखाया जो वह चाहता था। मजे की बात कि सामने वाले ने वही देखा भी जो उसे दिखाया जा रहा था।

    अपनी बातों से फुर्सत होकर जब हमने उस आइसक्रीम इंस्टॉल की तरफ देखा तो वहां वे तीनों नहीं दिखाई दिए। वे जा चुके थे। उसने खुशी- खुशी दूसरी बार आइसक्रीम खिलाई। बिल्कुल शालीन और सभ्य मेजबान की तरह।

   और इस तरह से हम तीनों लगभग आधे घंटे और साथ रहे। ड्रामा खत्म हो चुका था। मेरे वास्तविक मेजबान जो कि काम धाम से फुर्सत होकर जब मिलने आए, तो उसने हाथ जोड़कर हम से विदाई ली, " चलता हूं ".

क्योंकि मेरे मेजबान के लिए वह आउट ऑफ सिलेबस था। कहीं मेजबान ने मुझसे उसका परिचय पूछा तो क्या बताऊंगा ? यही सोच कर मैं उससे बोला , " हां . . हां चल पान खाते हैं फिर चले जाना"

     मैं कुछ कदम उसके साथ चला और उसे बताया की झूठ ही सही लेकिन उसने अंतिम जानकारी जो उसे दी थी वह बिल्कुल सही दी थी। 

    " सचमुच, " भाभी जी तुमसे . . .

      " हां, सचमुच दस साल छोटी है !! . . .और   लव मैरिज वाली बात भी सही है . . ."

     वह अपनी बिंदास हंसी हंसा, " लगता नहीं दोस्त ! ऐसा तो हमारी लिटरेचर की दुनिया में होता है।  फैबुलस यार !! सो रोमांटिक !!! पर लगता नहीं है . . . ",  उसने अपने दिल पर किसी आशिक की तरह हाथ रखा और फिर उन्हीं के अंदाज में बोला था। उसने आगे पूछा, " अच्छा बताओ यह हुआ कैसे ? "

    " मैंने कहा न, अंतिम बातें तुमने सभी सही सही बताई हैं। स्टोरी वही है, लेकिन तुम्हारी स्टोरी में जो तुम हो वह एक्चुअली में मैं हूं। "
   
     ओह गॉड, मतलब अनजाने में मैंने उससे सब कुछ सही सही बताया था ? प्यार तो ठीक है लेकिन उम्र का फासला ?  लगता नहीं है यार ?", उसने प्रश्नवाचक नजरों से मुझे देखा था।

       मतलब? मेरी तारीफ कर रहे हो या भाभी की बुराई ? "

         वह हंसते हुए बोला था , " लिटरेचर तो तुम्हें पढ़नी चाहिए थी !!"

  " अब क्या सोचा है ? " मैंने पूछा था।

       किस बारे में ?", वह अनभिज्ञ बनता हुआ बोला था।

 " यही कि, जैसे कि तुमने बताया था कि तुम अभी तक कुंवारे हो, शादी नहीं की। कब करने का इरादा है ?"

" बहुत जल्द, अब कर लूंगा यार, वैसे भी यार दुनिया आगे निकल गई मैं पीछे रह गया", उसकी आंखों में चमक थी।

        कुछ देर चुप रहने के बाद वह संजीदा आवाज में बोला, " जानते हो, मैंने उसे बहुत चाहा। आज तक, या यूं कह लो कि अभी कुछ देर पहले तक, मैं उसे भूल नहीं पाया था। कुछ अच्छे रिश्ते भी यही सोच कर मना भी किए थे। वही सोच, कि क्या हुआ यदि उसने मुझे नहीं चाहा तो ? मैं तो चाहता हूं न । 

       उसने मुझसे प्यार नहीं किया तो क्या हुआ, लेकिन मैं तो उससे करता हूं न। 

       उसकी दुनिया में मैं कहीं नहीं, लेकिन मेरी पूरी दुनिया तो उसी के लिए है। मैं दिन-रात यही सोचता था। इनफैक्ट तुम्हारे यह बताने के पहले तक कि वह मुझे जानबूझकर इग्नोर कर रही थी, यही सोचता था। एक बार भी उसने मुझे सीधे तौर पर कह दिया होता तो शायद मुझे इतना बुरा नहीं लगता जितना कि अब सब कुछ जानने के बाद लग रहा है। 

      मतलब मैं उसके लिए खिलौना था, और वह बराबर मुझ से खेलती रही। मेरे सामने ना सही लेकिन आखिरकार उसने अपने पति से पहले ही सब कुछ बता दिया था। यह मेरी खिल्ली उड़ाना नहीं तो और क्या था। यही कि मैं उसके लिए पोएट्री लिखता था उसका दीवाना था। क्या जरूरत थी यह सब बताने की ?"

    " शायद इसलिए कि वह आज भी अपने आप को सेफ जोन में रखना चाहती थी। हो सकता है कि तुमसे कोई ऐसी हरकत हो जाती या मुंह से ऐसी कोई बात निकल जाती, जिसमें उसके पति को किसी भी प्रकार की शंका उत्पन्न हो जाती? तब वह उससे कह सकें कि मैंने तो तुम्हें पहले ही बताया था, आई एम नॉट सीरियस अबाउट ही।",

      मैंने उस लड़की का पक्ष इस लिए लिया की अब वह उसके इस अंदाज को इग्नोर कर सकें। इसलिए नहीं कि उसके मन में उस लड़की के प्रति कोई  सेमपथि जागे।

वह आगे कह रहा था, 

        " यदि वह संजीदा होती, कुछ इंसानियत होती, उसके दिल में मेरे लिए कोई भी जज्बात होते तो इस तरह पति के सामने मुझे प्रस्तुत नहीं करती। कौन सा यहां में उसकी पोल खोल देता ? जबकि वह अच्छी तरह से जानती थी कि मैं तो यह भी नहीं जानता हूं कि वह जानती है कि मैं उस से प्रेम करता हू, . . .चलो अच्छा ही हुआ मेरा एक भ्रम टूटा "

" भ्रम? कैसा भ्रम ? ", मैंने पूछा।

   " यही कि, जरूरी नहीं कि किसी के लिए हमारे हृदय में जो जज्बात हैं, वही जज्बात उसके हृदय में हमारे लिए भी हो ?  एक सामान्य सी बात है, और जिसे समझने में मुझे 5 वर्ष लगे ?"

        अंत में उसके द्वारा कहे गए कुछ शब्दों ने इस कहानी को एक मुकम्मल मंजिल दी।

      " लेकिन सोचता हूं आज उस में और मुझ में अंतर ही क्या रह गया ? एक समय सब कुछ जानते समझते हुए उसने मुझे उपेक्षित रखा। मुझ में किसी भी प्रकार की अभिरुचि नहीं दिखाई, न ही जाहिर होने दी। और आज भी खुद को एक सेफ जोन में रखा। 

      बस यही बात मुझे सोचने पर विवश करती है। क्या उसे विश्वास था, क्या उसे इस बात का आज भी इंतजार था, कि मैं जब कभी भी उससे दोबारा मिलूंगा तो किसी न किसी बहाने उसके लिए कोई कविता कहूंगा या उसी तरह लिख कर दूंगा। बिल्कुल चुपके से, किसी भी बहाने से।

         यार जब मैंने उसे तुम्हारी पत्नी को अपनी पत्नी, इंफैक्ट पूर्व में रह चुकी प्रेमिका के रूप में बताया तो उसने मुझे गौर से देखा था। उसकी निगाहें जैसे पूछ रही हो, " तो बताओ जो कुछ पहले गुजरा वह क्या था ? " 

      कभी उससे प्यार किया लेकिन उसे बताया नहीं और आज जो कुछ बताया, वह वास्तव में कुछ था ही नहीं।

        हम जिसे प्यार करते हैं, चाहते हैं, अपना समझते हैं। उसे सदैव एक सेफ जोन में रखते हैं। खुद को यकीन दिलाते हैं कि कोई ना कोई वजह रही होगी, तभी तो उसने ऐसा किया। 

      उसी की तरफ से खुद ही सारे एक्सक्लूजेस देते हैं। उसकी सारी मजबूरियों को, उसकी सभी बेवफाईओं को हम सपोर्ट करते हैं। 

      और शायद इसीलिए हम एक दूसरे के लिए हमेशा आउट आफ सिलेबस ही होते हैं !!"

        मुझे अफसोस रहेगा कि मैंने आज उस से झूठ कहा, और शायद उसे इस बात का कभी न कभी अफसोस होगा कि उसने मुझसे कुछ नहीं कहा।

     " मुझसे कभी बात मत करना। कभी फोन न करन, अपना चेहरा मत दिखाना",  ऐसा कह कर भी हम क्यों सिर्फ और सिर्फ उसी की एक मुलाकात का इंतजार करते हैं ? उसके ही एक फोन का इंतजार करते हैं ? हमेशा उसी के होने का इंतजार करते हैं, जो हम आज नहीं चाहते ? क्यूं ?? क्योंकि हम उसे प्यार करते हैं।

" स्वीकार किए जाने योग्य तथ्यों को हम सदैव ही अस्वीकार करते हैं। और शायद इसलिए जिन्हें हम स्वीकार करते हैं, वे तथ्य हमारे जीवन का सबसे बड़ा भ्रम होते हैं। "

    भविष्य के लिए मेरी शुभकामनाएं लेकर वह एक बार फिर मुझसे जुदा हुआ। तीनों मित्र अलग-अलग हालात में अलग-अलग समय मिले और फिर एक दूसरे से जुदा भी हुए। तो अब यहीं कहानी का अंत होता है, किंतु क्या सचमुच ?

   मेरे मेजबान ने हमें अपने साधन से हमारे घर तक हमे छोड़ा।

   उस दिन मानवीय संवेदनाओं की दो अलग-अलग तस्वीरें मेरे सामने आई थी।

   अपनी तरफ से कहानी को समाप्त करने से पहले मैं वहीं पर आता हूं जहां से मैंने इस दूसरे भाग की शुरुआत की थी । 

       अपनी उसी बात पर जिसे मैंने कहा था कि अपनी कवर्ड में बंद कर ताला लगा लीजिए , " लड़के ऐसे ही होते हैं या लड़कियां ऐसी ही होती हैं ". 

        इस विचारधारा को आप हमेशा के लिए उसी कवर्ड में बंद रहने दे। जरूरी नहीं की यह अवधारणा सही हो।

      अक्सर हम मौन रहकर अपने आप को सेफ जोन में रखते हैं कि कभी बात उठी भी तो कह देंगे, कि हमने तो कुछ कहा ही नहीं था। तुमने सोच लिया तो इसमें मैं क्या करती या करता। लेकिन ? 

        लेकिन क्या आप ने कभी सोचा है कि सामने जो आप के विपतीत सारे इल्जामात के साथ खड़ा है उसके पास आपकी तरफ से अपने ही  इल्जामात   के सारे एक्सक्यूजेस भी  है ?  और इस तरह वह हमेशा आपको सेफ जोन में  रखता हैं,  क्योकि वह आपसे प्रेम करता हैं , आपको चाहता है। शायद दिल की गहराईओं से ?

    तब आपको किसी सेफ जोन की जरूरत है क्या ?

     और इसके बाद भी यदि आप अपनी कवर्ड खोल मेरी कहीं उस बात को बाहर निकालना चाहे तो मैं नहीं रोकूंगा। कोई और विचारधारा बनाना चाहे तो भी मैं नहीं रोकूंगा। मेरा काम था कहानी कहना और मैंने कह दी।

कहानीकार जो ठहरा।
Shailendra S. "Satna"

Monday, October 18, 2021

कलयुग में तीन युगों का

कलयुग में सतयुग का,
 अब तो आरंभ करो।
हरिश्चंद्र से-सत्य पुरुष का,
 अब धारा में अवतार करो।
तारामती की बलिदान शक्ति का
  अब हर नारी में संचार करो।।

गगन-भेदी हुंकार करो,
  हां राम, धनुष टंकार करो।
खड़ा दसों बुराई का रावण,
  अब दिव्यास्त्र संधान करो।
अमृत घट लिए नाभि में तो क्या,
   हां राम! अब तुम संघार करो।।

बाल्यावस्था में ही, अत्याचारी कंस का,
कर भीषण आघात, मुष्ठि प्रहार करो।
सबल पुरुष की वीर सभा में,
खड़ी द्रोपदी की करुण पुकार सुनो।
शस्त्र-त्याग, अर्जुन खड़ा बीच कुरुक्षेत्र,
भगवत गीता का संचार करो।
अधर्म पक्ष में खड़े भीष्म तो क्या,
उन पर भी बाणों की बौछार करो।
पुत्र-मोह, धर्म-विरुद्ध, हैं खड़े गुरुदेव,
उन पर भी द्रष्टधुम तुम वार करो।
युद्ध क्षेत्र के भगोड़े दुर्योधन पर,
हां भीम! तुम अंतिम प्रहार करो।।

इस कलयुग में भी तीन युगों-सा,
हे पुरुषोत्तम!! तुम न्याय करो।।

Shailendra S.

Sunday, October 10, 2021

अर्धनारीश्वर

ऑफिस का माहौल उसके लिए बिल्कुल नया था। स्कूल, कॉलेज के जमाने में राह चलते कुछ मनचलों को सीटी मारते, कमैंट्स करते उसने देखा और सुना था। किंतु यहां सभ्य और सुसंस्कृत वातावरण में उसे ऐसा माहौल मिलेगा उसने कल्पना नहीं की थी।
    बात - बात पर निकम्मी और बेहूदी हंसी मजाक करने वाले, और गुडलक कह कर जबरन पीठ थपथपा देने वाले, बिना किसी अचीवमेंट के वेल्डन कहते हुए अपना हाथ बढ़ाकर इस आशा के साथ कि वह उन से हाथ मिला लेगी, और तब वे अपने पुरुषत्व का परिचय देंगे। और ना जाने कितनी ही ललचाई और स्वप्नदर्शी आंखे जिनमें शायद उस से गले मिलते, उसके साथ लिपटते, चूमते दृश्य को कैद करने की क्षमता लिए, येसे न जाने कितने लोगों को उसे रोज सामना करना पड़ता था। आश्चर्य तो उसे तब होता जब इस श्रेणी में उम्रदराज भी होते, शायद स्त्री देह से इनकी जिज्ञासाएं अभी भी समाप्त नहीं हुई थी।  

    उसका एक वर्ष का अनुभव उसे प्रतीत होता जैसे 10-20 साल उसे इन्हीं के बीच रहते गुजरा हो। हर रोज उसे मर कर फिर जीना पड़ता था।

       मोहित !! उसका सब कुछ, दोस्त, पति, हमदर्द। उसके यू लाचार होने से वह अचानक ही अपने आप को इन मुश्किलों में कैद पाती है। यदि मोहित का एक्सीडेंट न हुआ होता तो शायद वह अभी भी आराम से घर पर घरेलू कामकाज करके अपनी पसंद का टीवी सीरियल देख रही होती।

एक्सीडेंट इतना भयानक था की मोहित की सांसे तो बच गई लेकिन उसके दोनों पैर लगभग नाकाम हो गए। अब डॉक्टर की माने तो मुश्किल है कि पूरे जीवन वह दोनों पैरों पर सामान्य जिंदगी चल कर गुजार सके। हो सकता है की दो-तीन सालों बाद वह व्हीलचेयर में बैठने लायक भी हो सके, कौन जाने ?

     विपत्ति के समय अपनों की हमदर्दी बहुत बड़ा सहारा होती है। उनके द्वारा की जाने वाली मदद को हम ईश्वर की मदद मान स्वीकार कर लेते हैं।

    और यही हमदर्दी उसे मोहित के मित्र अशोक से मिली। एक दिन, जब वह घर आया तो उसने मोहित को बताया कि मैनेजमेंट तुम्हारे स्थान पर सृष्टि को सर्विस देने के लिए तैयार हैं। इतनी बड़ी कंपनी और बिना किसी एक्सपीरियंस के वह सिर्फ तुम्हारे लिए यह करने के लिए तैयार है। अब तुम्हें और सृष्टि को सोचना है कि उनके इस ऑफर को स्वीकार करते हो या नहीं।

सृष्टि स्वाभिमानी थी। उसने माता - पिता या भाई बहन की मदद लेने के स्थान पर इस ऑफर को स्वीकार करना अधिक उचित समझा। ऐसा नहीं है कि उसके पिता उसकी मदद नहीं करना चाहते। मोहित के ट्रीटमेंट के समय सभी साधन सुविधा, डॉक्टर इत्यादि की व्यवस्था उन्होंने स्वयं की थी, बावजूद इसके कि कभी सृष्टि ने उनके खिलाफ जाकर मोहित से लव मैरिज की थी।

     कुछ भी हो पिता ने अपना फर्ज निभाया और आगे के लिए भी यही कहा कि बेटी किसी भी प्रकार की दिक्कत हो परेशानी हो तो संकोच मत करना लेकिन स्वयं के स्वाभिमान की बात होती तो वह कहती भी लेकिन यहां तो मोहित के स्वाभिमान को भी ध्यान में रखना था।

        इसलिए उसने पिता से अधिक सहायता लेने के लिए कभी सोचा ही नहीं। आभाव ग्रस्त जीवन जीते हुए सभी से कहना कि सभी कुछ ठीक-ठाक चल रहा है, आसान नहीं होता है। लेकिन उसने इसे आसान बनाया।

   सभ्यता की चाशनी में लिपटे हुए दो अर्थीय अश्लील शब्द और अशोक का बिना वजह बार-बार उसे छू लेना अब उसे अखरने लगा था।
 उसकी निजी जिंदगी से संबंधित उसके प्रश्न उसे विचलित करने लगे।

     जैसे सृष्टि अब तुम्हारा क्या होगा ? अभी तो पूरी जिंदगी पड़ी है ? कैसे जी सकोगी ? मुझे मोहित के लिए पूरी हमदर्दी है लेकिन उसके साथ मैं अक्सर तुम्हारे बारे में भी सोचता हूं। तब मुझे बहुत दुख होता है। 

     अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है ? कैसे तुम पूरा जीवन उसके साथ गुजार सकोगी जबकि उसके चलने फिरने की अब कोई आशा ही नहीं?

     हद की परकष्ठा तो उस दिन हो गई जब उसने बच्चों के जन्म होने या न होने की संभावना पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दिया ?

    लेकिन खुद के अपमान से अधिक मोहित का अपमान होते देख उसे बहुत दुख हुआ था। वह सोचने लगी, कैसा दोस्त है यह ! जो दोस्त की विपत्ति में साथ तो दे रहा है लेकिन उसकी नजर बराबर उसकी पत्नी पर है। 

    वह खुले तौर पर न सही किंतु अप्रत्यक्ष रूप से क्या कहना चाहता है वह भली-भांति समझने लगी थी।

एक दिन उसने नोटिस किया की अशोक अक्सर उसे छू लेने और पास आने के इरादे से, उसके माथे की बिंदिया यह कहकर दुबारा चिपकाता है , "देखो न, तुमने आज भी तिरछी लगाई है. "

      और बॉस !  वह भी कम आशिक मिजाज न थे। बिना वजह के बस केबिन में उन्हें सृष्टि चाहिए। किसी ना किसी बहाने वह उसे दो-तीन बार तो बुला ही लेते थे। 

      उसे बॉस से मिलने का पहला दिन भी अच्छी तरह से याद है। जब अशोक ने बॉस के केबल मैं उसे लगभग ठेलते हुए ले गया था ,
    "सर ये सृष्टि हैं, वही मोहित की वाइफ। मैंने इन्ही के लिए आप से बात की थी "

        बॉस की नजरों से उसे ऊपर से नीचे तक देखा था। पूरे शरीर का एक्स-रे लेने के बाद वह कुछ मुस्कुराते हुए बोले " आह, सृष्टि ! वेरी नाइस नेम, नाइस लेडी। प्लीज सिट। एक्सपीरियंस नथिंग ? कोई बात नहीं। अशोक है, सब कुछ समझा देगा। वैसे मोहित हमारा बहुत ही काबिल एम्पलाई था। रियली ही डिजर्व इट, मैंने कोई एहसान नहीं किया है। टेक इट ईजी। 

" मोहित एक काबिल एम्प्लॉय था ! " ये " था " उसे चुभा था।

यहां भी बॉस की एक बात उसने नोटिस की। जब भी बॉस उसे बुलाते हैं, पता नहीं क्यों उसके मुख से पहले " ब " शब्द निकलता है। 

    जिस शाम लौटते वक्त अशोक ने उसे बच्चों के होने या ना होने की संभावना के बारे में छेड़ा तो उसका मन बहुत खराब हो गया। वह घर आ कर मोहित से लिपटकर सुबक सुबक के रोने लगी।

" मुझे नहीं करना यह नौकरी। मैं नहीं कर सकती। बहुत बुरे लोग हैं वहां। पता नहीं क्या-क्या बातें करते हैं। कभी मेरे बारे में कभी तुम्हारे बारे में। अब मैं नहीं सह सकती . . . मैं नहीं सह सकती मोहित! मैं किसी दूसरी जगह जॉब तलाश कर लूंगी। प्लीज अब वहां मुझे जाने के लिए मत कहना।"

    मोहित ने उसे दिलासा दिया। उसके बाल को सहलाते हुए कुछ देर उसे चुप करता रहा। फिर हंसते हुए बोला " कहां जाओगी सृष्टि ? किस दुनिया में जाओगी ? जहां भी जाओगी कुछ इसी तरह के लोग मिलेंगे जो किसी न किसी बहाने तुम से हमदर्दी जताएंगे और फिर तुम्हारा इस्तेमाल करना चाहेंगे। ऐसा नहीं है कि इस दुनिया में अच्छे लोग नहीं हैं ? होते हैं, बस हम उन्हें पहचान नहीं पाते।

      हम अंतर नहीं कर पाते वास्तविक और झूठी हमदर्दी के बीच। यह गलती तो हमारी स्वयं की है, फिर दोषी क्यों किसी और को ठहरा सकते हैं। अब यह मान कर चलो कि यह समस्या, अब तुम्हारी है। अब तुम्ही को इसे फेस करना है। यदि मैं किसी से कुछ कहूं भी तो क्या कहूंगा ? यही कि मेरी बीवी को लाइन मारना बंद कर दो ?

      तुम अपने विश्वास को कायम रखो। उसी पर चलो। और मुझे ? कहने दो डॉक्टर जो कहता है !  मुझे पूरा विश्वास है कि मैं एक दिन अपने इन्हीं पैरों पर चलने लायक बन जाऊंगा। तब हम दोनों इस दुनिया को एक साथ फेस करेंगे। तब तक यह दुनिया अब तुम्हारी दुनिया है। इससे जैसे भी लड़ना चाहो लड़ो। जैसे भी उलझना चाहो उलझो, मैं नहीं रोकूंगा। और हां जहां तक विश्वास की बात है, विश्वास मैं तुम पर पहले भी करता था, और आज भी करता हूं !

      मैं तुम्हें स्वतंत्र करता हूं, और वादा करता हूं कि जब और जहां मेरी जरूरत होगी मैं तुम्हारे साथ रहूंगा। फिजिकल ना सही लेकिन एक सोच बन कर।

मोहित के शब्दों ने जादू किया। वह कुछ निश्चय कर उस रात गहरी नींद सोई। अगले दिन हैप्पी न्यू ईयर का दिन था। उसने अपनी मनपसंद की ड्रेस पहनी और माथे की बिंदिया को जानबूझकर थोड़ा तिरछा ही लगाया।

    वह ऑफिस पहुंची और सीधे बॉस के कमरे का बेबाकी से दरवाजा खोलते हुए एंट्री ली ,  " हेलो सर ! हैप्पी न्यू ईयर "

     बॉस उसे अचानक सामने देख चौक गए, और हमेशा की तरह वही शब्द उसके मुख से पहले निकला " अरे श्रृष्टि आओ आओ ब . . ."

      वे शब्दों में कुछ सुधार करते, उससे पहले ही सृष्टि ने तपाक से कहा,  " कोई बात नहीं सर, बेटी ही कहिए न! वैसे भी मेरे बराबर की तो आपकी बेटी होगी, निकल जाता है मुंह से, कोई बात नहीं। "

     बॉस झेप गए, बस इतना ही कह पाए, " हां .. हां क्यूं नहीं " 

      वह वापस अपने केबिन पर आई प्रवेश करते ही उसने देखा कि अशोक वहां पहले से ही मौजूद है। और ठीक वही हुआ जैसा कि उसने सोचा था।

" अरे सृष्टि! तुम तो हद करती हो !! अब देखो, यह बिंदिया तुमने आज फिर तिरछी लगाई है। अच्छा नहीं लगता न। कोई बात नही चलो मैं ही ठीक कर देता हूं . . .

      अशोक के बढ़े हुए हाथ को सृष्टि ने कठोरता से पकड़ लिया और मुस्कुराते हुए कहा,

        " कोई बात नहीं अशोक, मैं ठीक कर लूंगी। वैसे भी यह शिव की तीसरी आंख है, हाथ लगाओगे तो जल कर भस्म हो जाओगे।  बच के रहना, कोई कामदेव इसे छू नहीं सकता"

सृष्टि के इस अंदाज से अशोक भौचक्का रह गया। कुछ लज्जित और तिलमिलाते हुए बोला, 
" सृष्टि ! शायद तुम भूल रही हो, तुम शिव नहीं शिवा हो . . . 

    भला सृष्टि कहां चुप रहने वालों में से थी। आखिर उसने भी लिटरेचर से पी. एच. डी. की है।  वह उसी अंदाज में मुस्कुराते हुए बोली,

" नहीं मिस्टर अशोक! शायद तुम भूल रहे हो शिव और शिवा एक दूसरे से अलग नहीं। शायद इसीलिए वही एकमात्र देवता हैं जिन्हें हम अर्धनारीश्वर के रूप में भी पूजते हैं, क्यूं ? "

      अपने आप को अपमानित महसूस करता हुआ अशोक बिना कोई जवाब दिए केबिन से बाहर निकल गया।

       उसने एक नजर पूरे कमरे में दौड़ाई। कम उम्र का वह लड़का जो घंटी बजाते ही उसकी सेवा में हाजिर हो जाता है, उसने बखूबी इस कमरे को सजा कर रखा है। वह थोड़ा सा मुस्कुराते हुए उस जगह पर आकर खड़ी हो गई जहां से सातवीं मंजिल से नीचे का नजारा साफ देखा जा सकता था। रोड पर चलने वाले इंसान गुड्डे गुड़ियों जैसे दिख रहे थे। मोटर कार खिलौनो जैसी। अचानक ही उसे महसूस हुआ कि आज वह उस वास्तविक ऊंचाई पर खड़ी है, जिसके लिए वह डिजर्व करती है।

       उसने खिड़की के पूरे परदे खोल दिए ठंडी हवा का झोंका अंदर आया उसने गहरी सांस ली और टेबल पर रखी घंटी बजा दी। लड़का शालीनता के साथ सामने हाजिर हो गया , " जी मैम !"

   वह उसके पास पहुंची और उसकी तरफ हाथ बढ़ाते हुए बोली, " हैप्पी न्यू ईयर "

     लड़का सकुचा गया। पद की गरिमा का ख्याल रख उसने कहा, " नहीं मैडम, मैं आपसे हाथ कैसे मिला सकता हूं !! "

तब उसने उस लड़के का हाथ पकड़ कर उससे हाथ मिलाया, और कहा , "क्यों नहीं मिला सकते ? तुम जरूर मिला सकते हो "

वह लड़का बहुत खुश हुआ, " थैंक्स मैम ! "

वह थोड़ा सा मुस्कुरा दी , " अच्छा तुम जाओ, और जब आफिस में फंक्शन शुरू हो तो मुझे बता देना। मैं भी चलूंगी । "

      वह लड़का जिस शालीनता से आया था उसी शालीनता से दरवाजा बंद करके बाहर निकल गया।

       वह अपनी रिवाल्विंग चेयर पर आराम से बैठ गई। मोहित के शब्द उसे याद आ रहे थे -
" इस दुनिया में अच्छे और बुरे दोनों तरह के लोग मिलेंगे। यह हमारे ऊपर है कि हम उन्हें सही ढंग से पहचाने। यदि हम उन्हें पहचानने में गलती कर जाते हैं तो यह गलती हमारी है उनकी नहीं . . . अब ये दुनिया तुम्हारी है  . . जिस तरह से भी चाहो इसे फेस करो  . . . मैं तुम्हारे साथ हूँ। 

Shailendra S.


Saturday, October 9, 2021

तुम्हारे लिए

  
      उस दिन वह खुद नहीं उठा, बल्कि उठाया गया। मां तो हमेशा कहती कि बेटा जल्दी उठा करो। जल्दी उठना स्वास्थ्य के लिए अच्छा होता है। लेकिन वह कभी भी सुबह जल्दी नहीं उठ पाता था। आज की सुबह अचानक ही उसकी पालतू बिल्ली चूहे को पकड़ने के चक्कर में उसके ऊपर ही कूद पड़ी। और उसे उठना ही पड़ा। बिल्ली को चूहा मिला या ना मिला, उसे नहीं मालूम। लेकिन वह हड़बड़ा कर बिस्तर छोड़ खड़ा हो गया और  अपनी पालतू बिल्ली को जी भर कोसा।

     झटका इतना तेज था कि वह दुबारा सोने का प्रयास न कर सका। सर्दी के दिनों की बेहद ठंडी सुबह थी वह। उसने देखा मां अपने सुबह के रूटीन कामकाज में व्यस्त है। घड़ी में छोटा वाला कांटा 5 को पार कर चुका था 

वह बाहर आया तो मां को आश्चर्य हुआ, " आज इतनी सुबह कैसे उठ गया ! "

 उसने छोटा सा संक्षिप्त जवाब दिया, "  अपनी इस बिल्ली को संभाल के रखो नहीं तो मैं किसी दिन इस का गला काट दूंगा। यह जब देखो तब चूहे को पकड़ती रहती है "

 उसने मूंह हाथ धोए, कपड़े पहने और बाहर की तरफ चल निकला। मां ने फिर पूछा, " इतनी सुबह कहां जा रहा है ? "
 उसने कहा, " आज जल्दी उठ गया, तुम्हारी मनोकामना पूरी हुई, अब देखता हूं सुबह जल्दी उठने से मुझे कौन सा नायाब हीरा मिलता है ! "

  मां हंस कर बोली, " जरूर मिलेगा, तथास्तु। "

वह घर से बाहर रोड पर आ गया। सुबह के 5 बज चुके थे। सड़क पर सुबह वाकिंग करने वालों को वह बड़े ध्यान से देखने लगा। तभी उसकी नजर एक मोटे किंतु कम उम्र के लड़के पर गई। वह जितनी तेजी से चल रहा था उतनी ही तेज सांसे ले रहा था।

  उसे अपने दिन याद आ गए।  इस उम्र में वह भी ऐसा ही था।  मां अक्सर समझाया करती कि थोड़ा सा कम खाया कर, कुछ मेहनत के काम कर लिया कर। नहीं तो सुबह वाक ही कर लिया कर। लेकिन उसने कभी भी मां की बातों पर ध्यान नहीं दिया था। 

   लेकिन आज ? उसे देख कर कौन कह सकता है कि कभी वह भी इस लड़के की तरह रहा होगा। 

     सांस रोके इंतजार करते वक्त ने जब उसे और उसके परिवार को चोट दी तो सारा मोटापा दूर हो गया। नहीं . . नहीं . . अब आगे वह कुछ भी नही सोचेगा !! लापरवाही से वह आगे बढ़ गया।

चौराहे का चायवाला अंगीठी सुलगा चुका था। वह चौराहे के आसपास ही टहलने लगा। कुछ देर यूंही फालतू टहलने के बाद वह उसी चाय की दुकान में बैठ गया। 
" आज भैयाजी सुबह !! चाय बनाऊं? पीजिएगा ?"
" हूं, बनालो " 

अब दोनो व्यस्त। चायवाला चाय बनाने में, और वह न्यूज़पेपर में।

तभी एक लक्जरी स्लीपर बस चौराहे में ठीक चाय की दुकान के सामने खड़ी हुई। ब्रेक तेजी से मारा गया था, आवाज से उसका ध्यान पेपर से हट बस की तरफ गया। 

    उसने देखा एक सामान्य कद काठी की लेकिन निहायत ही खूबसूरत लड़की गहरे आसमानी कलर की सलवार सूट पहने अपने दुपट्टे को सम्हालते बस से नीचे उतरी। खलासी डिक्की से समान निकलकर उसके सामने रखे जा रहा था। एक बड़ा सूटकेश, दो बड़े बैग और भी छोटे मोटे समान थे, जिसकी तरफ उसने विशेष ध्यान नहीं दिया।

बस उसे उतरकर आगे बढ़ गई। लड़की ने चायवाले से पूछा , " क्यूं , यहा आसपास कोई अवस्थी जी रहते हैं क्या ? वही जो सेंट्रल बैंक में मैनेजर हैं ? "

" जी मैडमजी, रहते हैं, ये जो उत्तर तरफ रोड जाति है, उसी रोड में उनका मकान है "
" कोई रिक्शा या आटो मिलेगा " उसने फिर पूछा।

" मुश्किल है मैडम जी ! छोटा कस्बा है, कोई बड़ा शहर नहीं, ऊपर से ठंडी के दिन है, बहुत ही मुश्किल है , फिर भी आप बैठ लीजिए, शायद कोई मिल जाए। चाय पीजियेगा ? "

" नहीं " 

अब उस लड़की की चिंता वास्तव में बढ़ गई। कभी वह अपने सामान की तरफ देखती तो कभी सेलफोन में टाइम को। बस एक बार, एक नजर उसने उस की तरफ देखा था।
और उसी एक नजर में उसे महसूस हुआ कि उसे उसकी मदद करनी चाहिए। वह उसके पास पहुंचा " हेलो ! मैं अवस्थी जी को जनता हूं, यदि आपको कोई एतराज न हो तो मैं उनके घर तक छोड़ सकता हूं।"

" भला मुझे क्या एतराज होगा ! लेकिन इतना सारा सामान, ये कैसे . . .

" कुछ आप उठाइए , कुछ मैं "

उसकी इस बात पर लड़की थोड़ा सा हसते हुए बस इतना कह पाई , " जी "

कुछ ही देर में वे दोनों अवस्थी जी के मक़ान की तरफ जाने वाली सड़क में अपनीअपनी क्षमता के अनुसार समान उठाए चले जा रहे थे।

लड़का चुप था, यह सोच कर कि यह लड़की उसे गलत न नोटिस करे, और वह लड़की यह सोचकर की कहीं ये लड़का उसे बातूनी न समझे, जैसा कि वह नहीं है। लेकिन खामोशी उसी ने तोड़ी,

 "आप अवस्थी जी के घर के पास ही रहते हैं "
 " नहीं , लेकिन आप यहां ? "
" वे मेरे पापा के दोस्त हैं, उन्हीं के यहां अब मुझे रहना है, लेकिन आप अपनी बताइए, यहीं के रहने वाले हैं ? "

" नहीं , हम लोग खुद इस कस्बे में नए हैं दो साल हुए हैं। इससे पहले हम भी एक बड़े शहर में रहते थे" । बाद में वह थोड़ा हसा भी।

" अच्छा कौन से शहर में . .  ?

और जब उसने शहर का नाम बताया तो उस लड़की ने उसे गौर से देखा। फिर पूछा क्या तुम वहां के मशहूर बिजनेस मैन ए. भास्कर को जानते हो ?

लड़की के इस अप्रत्याशित प्रश्न ने उसके वजूद में एक भूकंप-सा ला दिया। कई सारे प्रश्न एक साथ उसके दिमाग में कौंध गए। यह लड़की भास्कर को कैसे और क्यों जानती हैं? उनसे इसका क्या संबंध रहा होगा?

 उसने आश्चर्य से उस लड़की से कहा " जी हां ! जानता हूं लेकिन आपको मालूम ही होगा अब वे नहीं रहे . . .

लड़की ने कुछ गंभीर स्वर में कहा " हां जानती हूं। दो साल पहले उनकी डेथ हो चुकी है। अच्छा यह बताइए, उनका एक लड़का था, क्या नाम था . .  हां अनुपम, आप उसे जानते थे?

अनुपम ! !

      उसे लगा एक झटके में धरती हिल गई और वह लड़खड़ा कर गिर ही पड़ेगा। लेकिन उसने अपने आप को संभाला। लड़की की तरफ इस बार उसने सशंकित दृष्टि से देखा। अपने चेहरे में आए भावों को छुपाते हुए उसने जवाब दिया " जी ! ज्यादा कुछ नहीं, पर एकआध बार मिला था, लेकिन क्या आप उसे जानती हैं?

 लड़की बोली, स्वर में लापरवाही थी , "नहीं कोई खास नहीं, बस उसकी मां मेरी मम्मी की फ्रेंड थी .  . उन्हें तो जानती हूं, एक शादी के फंक्शन में मैंने उन्हें अपनी मां के साथ देखा था। लेकिन उनके लड़के से कभी नहीं मिली . . .

इसके आगे उस लड़की ने उससे क्या कहा, वह न तो सुन रहा था और न ही सुनना चाहता था। वह चुपचाप उसके साथ चल रहा था। जब वह अवस्थी जी के मकान के पास पहुंचा तब ही बोला  "लीजिए, आपकी मंजिल आ गई . . . 
और उसने अपने हाथ में पकड़े सामान गेट के सामने रखते हुए सिर्फ इतना कहा " अच्छा जी,  मैं चलता हूं "

     और वह वापस तेज कदमों से वापस चल पड़ा। पीछे से लड़की पुकारती रह गई " अरे सुनिए . .   सुनिए तो ! "

      लेकिन उसकी तरफ उसने कोई ध्यान नहीं दिया। उसके कदमों की तेजी बढ़ती गई और वह कुछ ही पल में ठीक अपने घर के सामने खड़ा था। अब रोड में चहल-पहल बढ़ रही थी।

एक सफलतम बिजनेसमैन बनने के फार्मूले उसे अपने पिता से मिल सकते थे, और मिले। इंसानियत और इंसानों की कद्र करने की तहजीब उसे अपनी मां से मिल सकती थी, और वह मिली। 

    लेकिन शिक्षा ! उसे अपने टीचर्स से स्कूल कॉलेज से मिल सकती थी, जो उसने नहीं ली। उसने आवश्यक नहीं समझा।

      एक दौलतमंद सफलतम बिजनेसमैन ने उसके दिमाग में यह कूट-कूट कर भर दिया था की स्कूल में उसे सिर्फ किताबी ज्ञान मिलता है। और तुम्हें कौन सा नौकरी करना है। आफ्टर ऑल तुम्हें मेरा यह बिजनेस ही तो संभालना है। तो क्यों न अभी से इस में ध्यान दो।

   इस तरह उसने पढ़ाई और स्कूल जाने में दिलचस्पी लेना छोड़ दिया। किसी तरह 12 वीं पास हुआ। और कॉलेज में मां के कहने पर एडमिशन भी ले लिया। लेकिन लगातार अनुपस्थित और फेल होने के कारण कॉलेज से भी निकाल दिया गया।

    हां यह हो सकता था कि उसके पिता दौलत के दम पर डिग्री उसके लिए खरीद सकते थे, लेकिन क्योंकि उसके पिता को भी उसकी पढ़ाई से कोई खास मतलब नहीं था, इसलिए यह भी आवश्यक नहीं समझा गया। और वह रह गया केवल 12वीं पास।


मां से मिले संस्कार से वह अच्छा इंसान बना। वह इंसान की कद्र करता था। इंसानियत समझता था। इसलिए उसने जरूरतमंदों की मदद भी की। इस बात के लिए उसके पिता ने उसे कभी भी नहीं रोका। उनकी तो बस एक अभिलाषा थी कि उनके एकमात्र बारिश को पैसा कमाना और बिजनेस करना आना चाहिए। बिजनेस को वह अच्छी तरह से संभाल ले।


     पैसे की कोई कमी नहीं थी। लेकिन उसकी मां ? उसे पैसे से बिल्कुल प्यार नहीं था । वह अपने पास केवल जरूरी चीजें ही रखती थी। और उसे भी समझाया करती की फिजूलखर्ची और दिखावा मत करो। यह पैसा है बेटा, कभी किसी का नहीं होता। आज इसकी जेब में है, तो कल उसकी। इसलिए इस पर घमंड मत करना।


     और अक्सर उसे दो चीजों की समझाइश दिया करती थी। पहली सुबह जल्दी उठो। दूसरी, शरीर फिट रखो फिर बाद में मुस्कुरा कर जोड़ देती थी " कल को तेरी शादी भी तो करनी है, आगे चलकर बहुत मोटा हो गया तो लड़कियां रिजेक्ट कर देंगी।" 


उसके लिए रिश्ते भी आने शुरू हुए लेकिन कोई भी रिश्ता उसकी मां को पसंद नहीं आया। वह टलती गई और एक दिन उसने सुना जब वे उसके पिता से कह रही थीं 
यो

" जब आप उनके शहर जा ही रहे हैं, तो उनसे भी मिल लीजिएगा। बात करके देखिएगा मैंने तो बात की थी। उसकी मां तैयार हैं और बोला था कि सोनू से और उसके पापा से पूछ कर बताएगी। लेकिन अभी तक कोई जवाब नहीं आया। आप स्वयं जाकर पता करिएगा आपके जाने से उन्हें भी अच्छा लगेगा  . . "

पापा के जाने के बाद उस रात मां ने डिनर टेबल पर उससे पूछा था " शादी करेगा न ? मेरी सहेली की एक लड़की है। पढ़ी लिखी है। बहुत सुंदर है। बहुत ही अच्छी लड़की है। मैंने उससे तेरे रिश्ते की बात की है। मेरे पास उसकी अभी कोई तस्वीर तो नहीं है पर मैं मगा लूंगी। तू देख लेना, तुझे जरूर पसंद आएगी "

वह मां की बात सुनकर मन ही मन हस रहा था " क्या बात है मां, आपने देख ली न, तो समझो मैंने भी देख ली। जब सेहरा बांध के जाना होगा तो बता देना, बस "

    उस रात वह देर तक बिस्तर में जागता रहा। मां की कही बातें याद आती रही। लड़की पढ़ी-लिखी है बहुत सुंदर है बहुत अच्छी है।

    कैसी होगी ! कैसी सुंदर होगी ? क्या ऐसे ? मन ही मन में उसकी तस्वीर बनाता रहा। वह उसके तसव्वुर में खो जाना चाहता था। एक अनजान शख्सियत, एक अनजान चेहरा जिसका वह हो जाना चाहता था। और उसने फिर महसूस किया कि जैसे उसके दिल की धड़कन बढ़ने लगी है। उसने अपने नोटबुक उठाई और पेंसिल से अपने तसव्वुर की वह तस्वीर बनाई। देर तक उसमें रंग भरता रहा और नीचे नाम लिखा दिया "सोनू "। उस रात वह उस नोटबुक को अपने तकिए के नीचे रख कर सोया था।

अब मां की तरह उसे भी अपने पिता के आने का इंतजार था। और जब उसके पिता दो दिन बाद घर वापस आए तो मां। ने आते ही पूछा " क्या हुआ ? गए थे उनके यहां ? लड़की देखी ? अच्छी है ना ? ना जाने कितने सवाल और वह चोर दरवाजे पर खड़ा चुपचाप दोनों की बातें सुन रहा था।
आशा के विपरीत पिता ने जवाब दिया

    " लड़की को रिश्ता पसंद नहीं है। उसने मुझसे स्वयं माना कर दिया। उसने कहा कि अंकल ! एक कम पढ़े लिखे लड़के से मैं शादी नहीं कर सकती। प्लीज आप बुरा मत मानिएगा। रिश्ते हमेशा के लिए होते हैं। यदि वे मन से न बने तो टूट जाते हैं ? आगे आप खुद समझदार हैं।"

 अब तुम्ही बताओ और क्या करता, चला आया ।

 सहसा मां को विश्वास ना हुआ "अरे मना कर दिया ! कैसे ? उसकी मां ने तो कहा था  . .

" अब तुम छोड़ो भी, उसकी मां ने कहा था न, उस लड़की ने तो नहीं। जब रिश्ता उसे ही पसंद नहीं तो आगे क्या बात करेंगे?  अच्छा सुनो ! मेरे दोस्त की फैमिली आएगी अगले महीने। उनकी एक लड़की है अनु से बोलना, देख लेगा, दोनों एक दसरे को पसंद कर लेते हैं तो उसका रिश्ता उसी से करेंगे ।अच्छी लड़की है, अच्छे लोग हैं। वह नही तो यहां सही, क्या फर्क पड़ता है। अब तुम टेंशन मत लो . . 
मैं वापस अपने कमरे में आ गया दिल में आया कि नोटबुक से तस्वीर फाड़ दे। फेंक दे। लेकिन फिर भी वह ऐसा कुछ भी नहीं कर पाया था। उस रात मां ने उसे डिनर टेबल में अपने पास ही बैठाया।
   
       मां हंसी मजाक करती रही, बीच-बीच में अपने हाथों से कौर खिलाती रही। और उसने भी यह जाहिर नहीं होने दिया कि उसने उनके और पिताजी के बीच की बात सुन ली है।

 उस रात उसे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा। उसे उस लड़की से कोई शिकायत नहीं थी। हां, वह मानता है कि वह कम पढ़ा लिखा है। उसे स्कूल कॉलेज का किताबी ज्ञान कम है। लेकिन जब उसकी मां कहती है कि वह एक अच्छा इंसान है, तो कम से कम उसे एक बार उस से मिल लेना चाहिए था। इसके बाद कोई फैसला लेती। बिना मिले, बिना जाने, बिना पहचाने, बिना समझे इस तरह से किसी को रिजेक्ट कर देना ? उफ !! वह उसे क्या होता जा रहा है ! वह इतना क्यों सोचता है?  कहीं , कहीं कहीं पागल तो नहीं हो रहा है। नहीं . . नहीं मुझे कुछ नहीं सोचना चाहिए।

 लेकिन अपने मन में बसी उस एक तस्वीर को जो कि खुद उसकी कल्पनाओं ने बनाई थी, ना तो मैंली होने दिया और ना ही किसी भी प्रकार की गंदगी होनी थी। अपने मन में किसी भी प्रकार का मैल उत्पन्न नहीं होने दिया। वह उसके हृदय में उसी तरह सुरक्षित थी। देर रात जागते रहने के बाद वह सो गया। 

      इस घटना की तीसरे दिन वह भीषण हादसा हुआ था। कपड़े की पूरी फैक्ट्री एक तरफ से जलकर राख हो गई। देखते ही देखते उसके पिता दिवालिया घोषित हो चुके थे। कम पढ़े लिखे यानी किताबी ज्ञान न होने का खामियाजा भुगतना पड़ा।

      बीमा एक्सपायर हो चुका था, उसे रिन्यू नहीं किया गया था। मैनेजर पर अधिक विश्वास करना घातक हुआ। अकाउंट सेक्शन भी कमजोरी ही था। सही ढंग से लिखा पढ़ी ना होने से जो देनदार अपनी देनदारी से मुकर गए, और लेनदार हावी हो गए।  भास्कर जी दिवालिया घोषित हुए। उनकी सभी चल अचल संपत्ति या तो नीलाम कर दी गई, या बिक गई।

     6 महीने के अंदरअंदर कोठी भी नीलाम हो गई। तब उस रात उनके द्वारा किया गया एक पुण्य काम सामने आया। उन्होंने अपने पुराने नौकर को शहर से दूर एक छोटे से कस्बे में रहने के लिए मकान खरीद कर दिया था। इस विपत्ति के समय वही काम आया हालांकि वहां पहुंचने से पहले ही वह स्वर्ग सिधार गए।

नौकर ने अपना फर्ज निभाया मालकिन के हाथ में चाबी दे दी, और वृद्धावस्था में भी वह बराबर मालकिन और छोटे मालिक की उसी तरह सेवा में लग गया जैसे कि वह पहले किया करता था।

      लेकिन अनुपम के लिए यह असहनीय था। वह उस वृद्ध आदमी को परेशान होते हुए जब भी देखता तो उसे अपनी युवा अवस्था में होने का दुख होता। वह सोचता क्यों वह कोई काम नहीं कर सकता। घर के खर्चे तो खर्चे होते हैं, वे उसी तरह आते हैं।

    तब उसने फैसला लिया कि 12वीं की मार्कशीट और इस मकान के आधार पर बैंक से कुछ पैसे कर्ज लेगा।

      लेकिन उसके लिए यह सब भी आसान नहीं था। डूब चुके जहाज का वह उड़ा हुआ पंछी था। अब कोई भी जल्दी उस पर विश्वास नहीं कर पाता था। चाहे वह कोई व्यक्ति हो या फिर बैंक।

     पूरी जहाज डूबते हुए उसने देखा और वह कुछ नहीं कर पाया था। तो इस बात की क्या गारंटी है कि लिए गए पैसे वापस किए जाएंगे। वह बैंक के चक्कर पर चक्कर लगाता रहा। फाइल इधर से उधर घूमती रही लेकिन उसे लोन अभी तक सेंसन नहीं हुआ था।

उसने देखा मां कपड़े धो रही थी। मां ने पूछा , " क्या हुआ, गया था घूमने, और लौटा तो मुंह लटकाए ?"

" मुझे ये सुबह अच्छी नहीं लगी" उसने कुछ रूखे लहजे मैं बोला , " और मां , तुम्हारा तथास्तु भी खाली गया, कोई कोहनूर नही मिला" 

मां ने उसे आश्चर्य से देखा। अगले ही पल उसे एहसास हुआ वह क्या कह गया। माफी भरे लहजे में कहा " सॉरी माफ कर देना, मैं ऐसे ही बोल गया एक बिल्ली ने रास्ता काट दिया था। "

और वह हंस पड़ा उसके साथ ही उसकी मां भी।

      दोपहर को वह उठा, अपनी कार्बन फाइल ली और बैंक पहुंच गया पता चला कि बैंक के लोन सेक्शन में एक नई आफिसर आई है। अब उसी से बात करनी होगी। वह उसके कमरे में प्रवेश करता कि उसे कुछ लोगो के पहले से बैठे होने का अंदेशा हुआ और एक जानी पहचानी आवाज सुनाई दी। वह ठिठका, परदे को थोड़ा सा हटा कर अंदर देखा। सामने वही लड़की दिखी। उस वक्त उसे कुछ नहीं सूझा कि अब वह मिले या वापस जाए? 

वह वापस लौट आया । मां ने फिर पूछा, " क्या हुआ? कुछ बात हुई?" 

    उसने मां से फिर झूठ बोला " नहीं, वहां आज  अधिक भीड़ थी, कुछ नहीं हुआ। कल जाऊंगा "

बात वही खत्म हो गई लेकिन पूरा दिन उसका यूं ही गुजरा कई दिनों बाद उसने वही नोटबुक निकली। उसका वही पन्ना खोला, और अपनी ही बनाई इस तस्वीर को बहुत देर तक देखता रहा। कब शाम हुई पता ही ना चला। तभी कॉल बेल बजी। मा ने उसे पुकारा " अनु देख तो कोई आया है, दरवाजा खोल "

     वह नोटबुक को अपने सिरहाने रख दरवाजा खोलने की के लिए बाहर आ गया और जैसे ही दरवाजा खोला वह चकित रह गया।

     वही लड़की सामने खड़ी थी, " आप यहां, मतलब कैसे, मेरा पता . . .

"आपकी फाइल से मिला। उसी में आपकी तस्वीर देखी . . अब अंदर आने के लिए नहीं कहेंगे "

वह कुछ बोलता उससे पहले मां आ गई "  अरे तुम और यहां ? अंदर आओ "

"आपसे ही मिलना था आंटी ",  अंदर आते हुए वह बोली।

औपचारिक बाते हुई, उसकी मां ने अपनी सहेली की बातें कि उसका हालचाल पूछा उसे वहां बैठे रहना मुश्किल हो रहा था। वह बोला " मां, मैं अंदर हूं , कोई जरूरत हो तो बताइएगा " 

और जवाब की प्रतीक्षा किए बिना वह वापस अपने बेडरूम में आ गया। 

" आंटी आप लोगों के साथ इतना बड़ा हादसा हुआ, फिर भी आपने हमे बताया तक नही, जब तक हमे मालूम पड़ा तब तक आप लोग वह शहर ही छोड़ चुके थे, मां ने आप लोगों को बहुत तलाश करने की कोशिश की, हमें इतना गैर समझ लिया गया, हमेशा शिकायत रहेगी "

" शिकायत तो मुझे भी रहेगी",  वे कह गई, लेकिन बाद में मन पछताया कि यह नहीं कहना चाहिए था। लेकिन शब्द थे, वे तो निकल चुके थे।

" शिकायत ! हम लोगों से आंटी !! वो क्या ? "

" अब रहने भी दो बेटी, बस ऐसे ही , . .

" नहीं प्लीज आंटी, बताइए , आपको बताना होगा, प्लीज " उसके स्वर में रिक्वेस्ट और जिद दोनों थीं।

मां ने पूरी बात बताई । वही सब कुछ बताया जो अनु के पापा ने उन्हें बताया था। कुछ देर तक लड़की आश्चर्य से सुनती रही, फिर भरे स्वर में बोले " सॉरी ! मैं नादान थी। मुझे . . . मुझे माफ कर दीजिए . . .गलती हो गई"

इस सॉरी शब्द ने मन की कड़वाहट को धो डाला।
" कोई बात नहीं, हम अक्सर वह कर जाते हैं जो हमें नहीं करना चाहिए, हम अक्सर वह कह जाते हैं जो हमें नहीं कहना चाहिए। लेकिन हो जाता है। शायद इसी को कुदरत कहते हैं. इंसानी फितरत कहते हैं। "

" तुम अनु से मिल लो, अपने कमरे में है, शरमाओ मत आखिर तुम मेरी दोस्त की बेटी हो, वह अपने कमरे में बैठा किताबें पढ़ रहा होगा, अब उसे पढ़ने का भी शौक है।"


जब उसने अनु के कमरे में प्रवेश किया तो उसे उसी नोटबुक के साथ बेड में बैठे हुए देखा। उसे देखते ही वह हड़बड़ा कर उठ खड़ा हुआ, नोटबुक बिस्तर में बिखर गई " अरे आप कमरे में !! नॉक तो करना चाहिए था "


" क्यू करती ! आपकी मां ने खुद भेजा है, आखिर मैं . . आपकी मां की सहेली की बेटी जो ठहरी"

और वह पूरे हक के साथ बिस्तर पर बैठ गई। उसने उस नोटबुक को उठाया। पलट कर देखा। सभी पन्ने खाली थे सिवाय एक पन्ने के और उसमे थी वही एक तस्वीर जिसे अनु ने कभी  बनाई थी। तस्वीर के ठीक नीचे वह अपना नाम देख कर थोड़ा सा मुस्कुराई। 


" आप भी बैठी न, देखिए न आप ड्राइंग बहुत बेकार करते हैं, क्या मैं ऐसे . . इस तस्वीर की तरह दिखती हूं !! "

"मैंने आपका रिश्ता ठुकराया। रिजेक्ट किया, फिर भी आप ने अपनी कल्पनाओं से मेरी यह तस्वीर बनाई अपने पास रखी ।  बताइए तो क्यों ? "

 जवाब में वह चुप रहा था । आगे वही कह रही थी , " अभी आपकी मां ने मुझसे एक अच्छी बात कही, हम अक्सर वह कर जाते हैं जो हमें नहीं करना चाहिए। हम अक्सर वह कह जाते हैं जो हमें नहीं कहना चाहिए। यही तो कुदरत है, यही तो इंसानी फितरत है ।

    हम सब कुछ अपनी मर्जी के मुताबिक पाना चाहते, हासिल करना चाहते।

" मैं जानती हूं कि मैं आपसे कहूं या न कहूं लेकिन एक दिन आएगा जब यह सारी बातें आपको मालूम पड़ेंगी, तब आप भी मेरी तरह ही सोचेंगे। उस वक्त हम दोनों के साथ झूठ बोला गया था। आपके पापा ने मेरी मां से कहा कि लड़के को रिश्ता पसंद नहीं है और आपकी मां से कहा कि मुझे आपके कम पढ़े लिखे होने की वजह से रिश्ता पसंद नहीं है।

    जबकि सच यह था कि न तो आप ने मना किया था और न ही मैंने। आज सारी सच्चाई मुझे आपकी मां ने बताई। एक बार मन में आया भी कि उनसे सब कुछ सचसच कह दू। लेकिन अगले ही पल यह सोचकर चुप रह गई कि जो व्यक्ति अब इस दुनिया में नहीं है उसकी एक कमी की वजह से उसकी पत्नी के सामने उसे क्यों लज्जित करू। आखिर उनके बीच भी प्यार और विश्वास का रिश्ता रहा होगा। उनकी एक खराब तस्वीर आपकी मां के सामने मैं नहीं रख सकी, कहीं से हिम्मत ही न हुई।"

     वह चुपचाप सुन रहा था। अभी भी उसकी नजरें अपनी नोटबुक की उसी तस्वीर में थी। आंखों में आंसू आ गए, उसने कहा " आपने सच कहा, मैंने आपकी बिल्कुल भी अच्छी तस्वीर नहीं बनाई थी . . .।"

मुलाकातें बढ़ी, नजदीकियां बढ़ी, एक दूसरे की पसंद, नापसंद को समझते गए। संघर्ष ही उन्नति का मार्ग प्रशस्त करता है । उसने मेहनत करना सीख लिया था । अब वह एक बड़े बिजनेस का मालिक न सही लेकिन बनने के पूरे गुण उसमें आ चुके थे। 

एक रात दोनों ही कस्बे के सबसे अच्छे रेस्टोरेंट में कैंडल डिनर के लिए गए। बातों और संबोधनो में औपचारिकताएं समाप्त हो चुकी थी। उस लड़की ने उस लड़के से पूछा -

   "  मैं तो अपनी पढ़ाई में व्यस्त रह गई, कभी शादी के बारे में सोचा ही नहीं। लेकिन यह बताओ, तुम किसके लिए अब तक रह गए कुंवारे . . . ?

     वह आगे कुछ पूछती कुछ और कहती, इससे पहले ही उसने अपना हाथ बढ़ाकर उसके हाथ के ऊपर रख दिया . . .

"तुम्हारे  लिए !"

और तुम . . . ?

वह मुस्कुरा दी . . . नजरें झुका कर वापस भरपूर नजरों से केवल उसकी तरफ देखा . . . 

Shailendra S.

Thursday, October 7, 2021

छोटी सी गुड़िया

उस दिन पार्क में उसे देख, उससे बातें कर, उससे मिलकर मुझे मॉरिसन का एक कथन याद आया था -
" शिक्षण एक कम परिपक्व व्यक्ति को ज्ञान की ओर अग्रेषित करना है "

 शिक्षक और शिक्षण के लिए यह एक मोटिवेशनल कॉन्सेप्ट हो सकता है।

एक शाम मैं अपने मित्र के साथ अपने ही शहर के एक नवनिर्मित पार्क घूमने गया था। मित्र एक प्राइवेट स्कूल में कॉमर्स का टीचर था। 

पार्क में कुछ आकर्षक प्राणी जैसे खरगोश, बंदर, सफेद चूहे, रंग बिरंगी चिड़िया इत्यादि। उन सभी को इस तरह जालियों के घर बना सहेज के रखा गया था कि आम जनता उन्हें दूर से देख सके, किंतु उन्हें परेशान न कर सके। 

मेरा मित्र अति क्रांतिकारी स्वभाव का था।  व्यवस्था के प्रति उसमें इतना आक्रोश था कि कभी-कभी वह व्यवस्था के लिए जिम्मेदार वरिष्ठ पदों पर आसीन व्यक्तियों को भी गाली देने में सभी मर्यादाओं की तिलांजलि दे दिया करता था।

" साला इस देश का कुछ नहीं हो सकता। यहां सभी स्वार्थी और अपने-अपने पर मरने वाले लोग हैं। बदलाव हो भी तो कैसे ? सबको अपने अपने हितों की पड़ी है। सभी अपनी-अपनी जेब भरने में लगे हुए हैं। चाहे मंत्री हो, मिनिस्टर हो, अधिकारी हो, सभी को सिर्फ अपनी पड़ी है। साला सरकारी ऑफिस देखो चपरासी से लेकर बाबू तक की जेब गर्म करो तब कहीं जाकर काम होता है . . .

वह कह रहा था और मैं उदासीन भाव से सुन रहा था। बिना अपनी किसी राय मशवरे के। उसने अब मुद्दे की बात छेड़ी 

" और साले को हम ? मर गए बीकॉम, एम काम करते करते। सोचा था, चलो कुछ ना सही तो टीचर तो बन ही जाएंगे लेकिन यहां गवर्नमेंट के पास पढ़े लिखों को सर्विस देने के लिए कोई ठोस प्लानिंग ही कि नहीं ! साला गलती हम लोगों की ही है, पढ़े-लिखे ज्यादा हो गए हैं, इसलिए अब हमारी वैल्यू कम हो गई है ....

  कहते कहते हुए एक जाली के घर के सामने रुक गया। उस जाली में सामान्य कद काठी के बंदर थे। कुछ लोग वहां पहले से ही खड़े थे और जाली के अंदर घूमने वाले बंदरों को कुछ खिला पिला रहे थे। 

     उस मित्र ने भी अपनी जेब से एक मुट्ठी चने निकाले जो उसने पार्क घुसते समय शायद स्वयं के खाने के लिए खरीदे थे। जाली के अंदर उसने हाथ थोड़ा सा डाला। 

    एक बंदर उसकी तरफ आकर्षित हुआ शेष सभी किसी न किसी के हाथ से या किसी न किसी के द्वारा फेंके हुए दानों को चुन-चुन के खा रहे थे। 
      बंदर सभ्य था, उसने बड़ी शालीनता से मित्र के हाथ से चने खाने शुरू किए।

 अब वह आगे कह रहा था " सरकार जैसा चाहे हमे इन बंदरों की तरह नचाती है। अब देख लो, भर्ती भी कैसे होती है? यही टीचरों वाली ! कैसे अजीब-अजीब से नाम दिए गए अतिथि शिक्षक, संविदा शिक्षक गुरु जी. और पहले एलटीडी, यूटीडी, लेक्चरर, तब लगता था कि अच्छे जॉब में हैं!!

 मैं तो प्राइवेट कर रहा हूं। साला झक मार के पढ़ाना पड़ता है। लेकिन मैंने देखा है कि कुछ जो सरकारी स्कूल में पढ़ाते हैं वह उसी तरह पढ़ाते हैं। जैसी पेमेंट वैसे पढ़ाई का स्तर। थोड़ा बहुत पढ़ाया। अपनी अटेंडेंस दी और फिर घर को।

 अब तू ही सोच ऐसा टीचर घर आकर ट्यूशन या कोचिंग ना पढ़ाए तो वह कैसे जी लेगा ? ऊपर से अब इसमें भी रोक लगाई जा रही है। . . .  कभी कभी लगता है, हमसे अच्छे तो ये बंदर हैं।

स्पष्ट विरोधाभास !!

 कुछ देर पहले उसने सरकार पर इल्जाम लगाया था कि सरकार पढ़े लिखों को बंदरों की तरह नाचा रही है। अब खुद से अच्छा वह बंदरों को बता रहा था। मैं उससे कुछ कहता इससे पहले ही उसने मुझसे कहा ,

" ले तू भी खिला ले !"

 और उसने अपनी जेब से उसने कुछ चने निकाल कर मुझे थमा दिए। और मैंने जैसे ही अपना हाथ जाली के अंदर डाला तो वह बंदर जो अभी तक मेरे मित्र को सुख दे रहा था कूदकर मेरे सामने आ गया और मेरे हाथों से उठाकर चने खाने लगा।

     मैंने अपने मित्र का वह एकमात्र बंदर भी छीन लिया था। मुझे इस बात का अफसोस होता कि उससे पहले पीछे से किसी ने पुकारा या यूं कहें पीछे से आवाज आई,

    " हेलो सर ! "

हम दोनो पलटे, ठीक पीछे तीन लड़कियां खड़ी थी। एकबारगी तो मैंने यह सोचा कि हो ना हो ये मेरे मित्र की स्टूडेंट होंगी। मैंने उसकी तरफ इस अंदाज से देखा जैसे मैं उससे पूछ रहा हूं " जानता है क्या ? "

 किंतु यह क्या? वह भी आंखें फाड़ फाड़ कर कभी मुझे तो कभी उन्हें देख रहा था। 

    उनमें से एक लड़की जिसने शायद आवाज दी थी, जी हां उसने मुझसे पूछा, " आपने नहीं पहचाना सर ? "

मैंने अपना सर इनकार में हिलाया " नहीं, सॉरी " ।

जवाब सुनकर उसे कुछ निराशा हुई, फिर उसने अपना नाम और परिचय दिया और यह भी बताया कि मैं कैसे और कब उसका टीचर रह चुका हूं।

   हां, एकदम से सामने देखकर मैं उसे बिल्कुल नहीं पहचान पाया था। वह मेरी स्मृतियों से ओझल हो चुकी थी। 

      घटना कोई ज्यादा पुरानी नहीं थी, किंतु चेहरा बदल गया था, बात करने का ढंग बदल गया था। एक बेहद चपल और चंचल 7 - 8 वर्ष की बालिका  18 - 19 वर्ष की स्थिर बुद्धि से परिपूर्ण, शांत और नर्म लहजे में बात करने वाली लड़की में तब्दील हो चुकी थी।

     उन दिनों में मैं अपने ही शहर के एक कंप्यूटर इंस्टिट्यूट में पढ़ाया करता था। कंप्यूटर बेसिक से लेकर कंप्यूटर प्रोग्रामिंग लैंग्वेज पढ़ने के लिए छोटी बड़ी उम्र से लेकर बड़े बुजुर्ग तक आया करते थे। 

     कंप्यूटर उन दिनों फुल क्रेज में था। 22-23 वर्ष की उम्र में एक तो कंप्यूटर टीचर ऊपर से जब मेरी उम्र से बड़े यहां तक कि कुछ सर्विस करने वाले व्यक्ति भी सीखने के लिए आते, तो मुझे बतौर टीचर बड़ी मुश्किल से स्वीकार कर पाते।

     वे दिन मेरे स्ट्रगल के दिन थे, मैं यह नहीं कहना चाहूंगा। बल्कि मैं अपनी उस टीचिंग कैरियर को इंजॉय कर रहा था। जब 22 वर्ष की उम्र में आप एक अच्छी संस्था के कंप्यूटर इंस्ट्रक्टर हो तो भविष्य की चिंता करने के लिए तो अभी समय था। 

   उस समय कंप्यूटर टीचिंग मेरा फुल टाइम कैरियर था। पार्ट टाइम में कंपटीशन एग्जाम की तैयारी भी कर लेता था। वर्किंग डेज में सुबह 8 से 1 बजे तक और फिर शाम को 5 से 8 बजे तक मेरी क्लास होती थी।

 एक दिन जब मैं रात को क्लास खत्म करके 8:30 बजे के लगभग घर पहुंचा तो एक सम्मानित किंतु आगंतुक अपरिचित व्यक्ति को अपने पिताजी से बात करते हुए पाया।
     पहले तो मैंने यही सोचा था कि यह जरूर मेरे पिताजी के जान पहचान वाले होंगे। किंतु मुझे देखते ही पिताजी ने कहा - ' लीजिए - आ गए , यही हैं "

उस व्यक्ति ने मुझसे एक हेल्प मांगी ।

      उनकी एक छोटी सी बेटी है 4th क्लास में। शहर के एक बड़े और इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ती हैं।  क्योंकि गवर्नमेंट का अब उद्देश है कि बच्चों को निचले क्लास से ही कंप्यूटर ऐडेड कर दिया जाए, तो उसके लिए उन्होंने अन्य विषय की तरह कंप्यूटर सब्जेक्ट भी रखा है। उसकी भी क्लास लगती है।

     समस्या यह है कि और सभी विषय में उस लड़की का इंटरेस्ट है किंतु कंप्यूटर पढ़ने पर नहीं है। उनकी रिक्वेस्ट थी कि मैं उनकी बेटी को कुछ समय के लिए कंप्यूटर घर आकर पढ़ा दिया करू। शायद उसका इंटरेस्ट जाग जाए।

      मेरे लिए यह मुश्किल था। दोपहर के वक्त उसकी स्कूल थी जब मैं खाली था। और जब मैं खाली नहीं होता था तो वह फ्री होती थी। अब बचता था रात के 8:00 से 9:00 के बीच का टाइम।

      मुश्किल, बेहद मुश्किल। हालांकि उसका घर कोई दूर नहीं था। लेकिन दिनभर थकने के बाद फिर उस छोटी सी बच्ची के साथ माथापच्ची करने का मेरा बिल्कुल कोई इरादा नहीं था।

       मैंने मना कर दिया, फिर भी वे एक न माने और अंततः मुझे कहना पड़ा " ठीक है, मैं कल आकर देख लूंगा . . .

जब मैं उसके घर पहुंचा तो मेरा स्वागत एक पामेलियां डॉग ने किया। वह जोर जोर से भौंकने लगा। शायद यह उनके घर की कॉल बेल थी। 

      जब मैं उसके स्टडी रूम में पहुंचा तो हालत खराब थी। ढेर सारी किताब कॉपी इधर-उधर बिखरी पड़ी थी और वह उन्हीं बिखरी हुई किताब कॉपियों के बीच शांत बैठी थी। 

     बिल्कुल फर्श पर, एक छोटी सी गुड़िया की तरह। जब उसके पिताजी ने उसे बताया कि मैं उसे कंप्यूटर पढ़ाऊंगा तो उसने बहुत ही अजीब नजर और घृणा से मुझे देखा।

     खैर, किताब कॉपियां समेटी गई। हम दोनों टेबल के आमने सामने बैठे थे, और कंप्यूटर की किताब सामने थी। मैंने उससे पूछा " बताओ ! क्या दिक्कत है ? और जवाब में उसने कहा " सर ! ये बुक ही दिक्कत है "

      मैं उसकी सरलता पर हंस पड़ा और किताब को एक तरफ हटाते हुए बोला " तो पहले इस दिक्कत को दूर करते हैं "

 अब वह खुश थी। उसने मुझे अपने बारे में सब कुछ बताया, एक सांस में। उसे क्या पसंद है, क्या नहीं पसंद है, कौन-कौन से सब्जेक्ट उसके फेवरेट हैं, क्लास में उसके फेवरेट टीचर कौन है, फेवरेट गेम कौन सा है और उसकी बेस्ट फ्रेंड कौन सी है। 

     मैं लगभग उसे 10 मिनट तक केवल सुनता रहा, फिर मैंने उससे पूछा " अच्छा ! यह बताओ, तुम फुल एजुकेटेड पर्सन बनना चाहती हो या आफ एजुकेटेड ? "

जवाब में उसने दोनों हाथों की उंगलियों से हवा में रैक्टेंगल बनाया और बोली  " फुल "

जैसे कि बच्चों को सभी चीजें पूरी की पूरी चाहिए होती हैं। वे आधे से समझौता नहीं कर सकते। तो उसने भी वही किया। ऑप्शन फुल चुना। मैंने कहा " मालूम है, हाफ एजुकेटेड और फुल एजुकेटेड पर्सन में क्या अंतर है, क्या फर्क है ?"

 उसने इंकार ने सर हिलाया " नहीं "!

मैंने उसे समझाते हुए बताया कि किसी भी क्षेत्र या क्राइटेरिया में आधा अधूरा ज्ञान। यानी जिसे पूरा ज्ञान ना हो। और जानती हो जिस युग में तुम जी रही हो, और आगे जा रही हो, कल तुम्हें इस कंप्यूटर एजुकेशन की बहुत जरूरत होगी।

     यदि इसका तुम्हें ज्ञान नहीं होगा तो फिर तुम्हे बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। तुम्हारे सारे ज्ञान यानी एजुकेशन आधी अधूरी मानी जाएंगी। अब सोच लो इसे पढ़ना है या हमेशा आफ एजुकेटेड रहना है?

वह कुछ डरी और सहमी सी दिखी। आश्चर्य से पूछा " सच में !!

    और मैंने हां मे अपना सर हिलाया " बिल्कुल सच " 

 और शायद ठीक उसी वक्त, उसने मन में तय कर लिया कि वह कंप्यूटर पड़ेगी। किताब फिर से हम दोनों के सामने थी। छोटी-छोटी डेफिनेशन थीं। कंप्यूटर के छोटे-छोटे कॉन्सेप्ट थे। मैंने उसे बताएं, और कहा, " अगली क्लास में मैं तुमसे पूछूगा। तुम याद करके रखना। उसने इकरार में दोनों तरफ सर हिलाया " जी " और साथ में एक प्रश्न भी " आप कल आएंगे न ? " 

मैंने कहां, " बिल्कुल, यदि याद करके सुनाने का वादा करो तो मैं जरूर आऊंगा "

 अगले 2 दिन मैं नहीं गया। समय नहीं मिला।

 तीसरे दिन जब गया तो उसने वह सारी डेफिनिशन मुझे एक सांस में सुनाई। मैं आश्चर्यचकित था, उसकी याददाश्त को देखकर। इतनी बढ़िया मेमोरी होने के बावजूद वह इस सब्जेक्ट से दूर थी।

   केवल इसलिए कि वह इसे पढ़ना नहीं चाहती थी। धीरे धीरे उसकी बेरुखी दूर होने लगी। अब कंप्यूटर पढ़ने में या उसे पढ़ाने में मुझे किसी भी प्रकार की दिक्कत नहीं होती थी।

 मैं उसे जो कुछ भी पढ़ाता था, वह ध्यान से पढ़ती। उसे याद करती और फिर अगली क्लास में सुनाती। हां यह बात कुछ अलग है कि मेरी अगली क्लास कभी भी दूसरे दिन या कंटिन्यू नहीं हो पाती थी । उसके लिए मैं बीच बीच में गायब हो जाता था। 

   वह मुझसे इतनी घुल मिल गई कि वह मुझे अपनी हर बात शेयर करने लगी थी। चाहे वह स्कूल की हों, चाहे वे घर की हो या चाहे उसके बड़े भाई की हो। मम्मी पापा तक की बातें वह मुझे बताती कि मम्मी ने कब डांटा। पापा कब गुस्सा हुए।

      एक दिन उसने मुझसे एक अजीब सा प्रश्न पूछा - 
   " सर मेरे मम्मी पापा इतने लड़ते झगड़ते हैं, फिर भी एकसाथ क्यों रहते हैं? अलग क्यों नहीं रहते ? कभी-कभी तो मेरा दिमाग खराब हो जाता है ।" 

 मैं उसकी बातें सुनकर चौकन्ना हो गया। वह अपने माता-पिता की नोकझोंक को भी सीरियस लेने लगी थी। 

    मैंने उसे समझाते हुए कहा , " नहीं, लड़ाई झगड़ा नहीं होता होगा। बस ऐसे ही कंट्रोवर्सी में एक दूसरे के लिए कुछ कह देते होंगे। और फिर अलग कैसे हो जाएं ? आफ्टर आल उनकी तो शादी हुई है न ? "

" तो क्या शादी के बाद, एकसाथ रहना जरूरी है सर ? " मासूमियत से पूछा गया एक यक्ष प्रश्न।

 " बिल्कुल ! "

वह कुछ देर तक बिल्कुल चुप रही। फिर एकदम से बोली " सर ! आप मुझसे शादी कर लीजिए न प्लीज ! "

मैं एकदम से चौंक पड़ा था। मैने उसकी तरफ ध्यान से देखा। उसके स्वर में कुछ याचना भी थी। ये बालिश्ते भर की लड़की और मुझसे शादी !! लेकिन उसके दिमाग में ये बात आई ही क्यूं ?

और जो स्पेसिफिकेशन उसने दिया, उसे सुन कर मेरा दिमाग चकरा गया। कोई इतनी दूर की भी सोच सकता है भला !! कैसे ?

उसने अपनी बात को बड़े बुजुर्गों की तरह से मुझे समझनी शुरू की  -

" देखिए सर, जब आपकी, और मेरी शादी हो जायेगी तो आप और हम हमेशा साथ रहेंगे। रहेंगे न ? और तब मैं जब चाहूं आपसे कंप्यूटर पढ़ सकती हूं। पढ़ सकती हूं न ? . .  . और हां, आप गैप भी नहीं मारेगे "
 अंतिम लाइन में मुझ पर कटाक्ष किया गया था। 

     मैं उसकी बात सुन कर दंग था। मैने उससे कुछ लहजे मैं कहां " यह कैसे हो सकता है? कहां मैं इतना बड़ा और तुम बिल्कुल छोटी सी गुड़िया की तरह ! शादी तो लगभग हम उम्र वालों में होती है" ।

     तब उसने एक प्रपोजल रखा , " अभी इंगेजमेंट कर लेते हैं। जब मैं बड़ी हो जाऊंगी तो शादी कर लीजिएगा " ? 

     यानी वह हर हाल में मुझे बतौर टीचर इंगेज रखना चाहती थी।

      " इसके लिए तो रिंग चाहिए होगी !!" इस बार मैने उसे टरकाना चाहा, " इसलिए रहने दो "

      वह कुछ उदास हो गई, लेकिन नहीं उसने हार नही मानी " सर ! अभी आप मेरी ये पेन रख लीजिए, जब बड़ी हो जाऊंगी, खूब सारे पैसे कमाऊंगी तो मैं आप के लिए रिंग भी खरीदूगी।"

     मुझे इस बात का भी ध्यान रखना था कि उस बाल्या अवस्था की सुकोमल भावनाओं को ठेस न लगे, लेकिन यदि उसकी दी हुई पेन मैं रख लेता हूं, तो यह भी अनुचित ही होगा। ठीक है, आज वह नसमझ है, छोटी बच्ची है, किंतु कल को वह बड़ी होगी, रिश्तों को समझने लायक होगी। तब ?

      तब क्या होगा? वह तो यही सोचेगी न कि मैंने उसकी इस अज्ञानता और कमउम्र की नसमझी का गलत फायदा उठाया था? निर्णय मुझे लेना था, और मैंने निर्णय लिया। कुछ सोच विचार कर उसकी दी हुई पेन रख ली थी। फिर उसे समझाते हुए बोला " वैसे इसकी कोई जरूरत नहीं है, मैं तुम्हे वैसे ही पढ़ाऊंगा, तुम बस पढ़ो, और देखो मम्मी पापा की  बातें किसी को भी मत बताया करो "

मैं ने उसे लगभग 5-6 माह तक पढ़ाया। इस बीच वह उसी तरह बातें करती रही, पढ़ती रही।

चुकी उसके पिता ने मुझसे मदद मांगी थी, पेमेंट की कोई बात नहीं हुई थी। इसलिए प्राश्रमिक की बात न तो मैने की और न ही उन्होंने कभी पूछा।

उसे पढ़ते समय मुझे यही एहसास होता, जैसे कि मैं खुद अपनी बेटी को पढ़ा रहा हूं। दिल में यही आता कि, हे ईश्वर ! यदि मेरी बेटी हो तो इसी तरह की हो, बिल्कुल छोटी सी गुड़िया की तरह।

       4th क्लास में वह कंप्यूटर में अच्छे नंबरों से पास हुई। कुछ दिन पीछे पता चला की उसके पापा ने कहीं दूसरी जगह घर ले लिया था, इसलिए अब वो यहां नहीं रहते।

मैं धीरे-धीरे उसे भूल सा गया। आगे की जिंदगी स्ट्रगल से भरी थी। गुजरे चेहरे याद न रहे। वही एक चेहरा सामने खड़ा था , " हां, तो कहो, कैसी हो, किस क्लास में पहुंची ?"

  " सर ! स्कूल की क्लास नही, कॉलेज में हूं, इंजीनियरिंग कालेज पूना में"

" अरे वाह ! किस सब्जेक्ट से " ?

     तब उसने मुस्कुराते हुए कहा " सी. एस.  से"

 " सी.एस. से !! " मैने आश्चर्य से पूछा "  तुम्हें तो कंप्यूटर से डर लगता था न ! ?"

    " था  सर, अब नहीं, आपकी हाफ एजुकेटेड पर्सन वाली बात हमेशा याद रही " फिर उसने शिकायत भरे लहजे में कहा , " देखिए न सर, मैं आपको और आपकी कही बातों को आज तक नहीं भूली, और एक आप है कि मुझे भूल गए !! मै स्कूल जाते समय कभी कभी अपनी बस से, आपको घर के सामने देखा करती थी, न्यूज पेपर पढ़ते हुए"

मैंने तपाक से कहा "तो अच्छा ! तुम इसीलिए नहीं भूली!! तुम तो देख लिया करती थी, लेकिन मैं तो नहीं देख पाता था ! है न ? शायद इसी लिए मैं भूल गया ? "

 औपचारिक बातों के बाद उसने हमेशा की तरह मुझसे एकदम से पूछा , " सर ! मैंने आपको एक पेन दी थी, क्या आपको याद है ?"

जब उसने मुझे अपने बारे में बताया तो यह घटना भी मुझे उस वक्त याद आ चुकी थी। जिंदगी का पहला प्रपोजल ! भला कैसे भूल जाता ?

    लेकिन प्रत्यक्षत: मैंने उससे यही कहा - " पेन !! कौन सी पेन ? मुझे तो कुछ याद नहीं "

       मैं पूरी तरह से अनजान बन गया ।  शायद इसलिए कि इस वक्त उसकी बातों को उसी से कहना कहीं से उचित नहीं लगा। अब वह समझदार है, कोई नादान बच्ची नहीं !

      उस वक्त की नसमझी आज की शर्मिंदगी बन सकती थी, और मैं उसे शर्मिंदा होते हुए कैसे देख लेता ? उसका टीचर जो ठहरा।

मैने विषय बदल दिया। उसके पापा मम्मी, बड़े भैया के बारे में पूछने लगा। चलते वक्त उसने मुझे विश किया " सर आज टीचर्स डे है, ये पेन आप के लिए, एक गिफ्ट है "

" ओह ! थैंक्स, अब मुझे विश्वास हो चला है कि तुम मेरी वो एक अच्छी स्टूडेंट हो, जो पार्क में भी पेन लेकर चलती है "।

उसके साथ उसकी दोनों सहेलियां भी हंस पड़ी , " हां सर ! यह बात तो है, यह बड़ी पढ़ाकू है "

  वह चली गई । मैं उसे जाते हुए देखता रह गया। उसे रोक कर यह भी न बता पाया कि जिस दिन पहली बार उसने मुझे पेन दी थी उस दिन भी टीचर्स डे ही था। और मैंने उस दिन यही सोच कर पेन अपने पास रखा ली थी कि एक स्टूडेंट द्वारा टीचर्स के लिए दिया गया एक उपहार है।

    मेरा यह स्पेसिफिकेशन उसे शर्मिंदा कर सकता था।

  संबंध रिश्तो के मोहताज नहीं होते। वे समय से भी परे होते हैं।  किसी भी उम्र से परे।

 उस दिन मैंने उसे पार्क में उसी रूप में देखा जैसा कि पहली बार मेरे मन में आया था कि काश ! यदि मेरी बेटी हो तो इसी की तरह की हो। आज जब कभी अपने शिक्षक द्वारा किसी स्टूडेंट को प्रताड़ित होने या फिर अभद्र व्यवहार करने की खबर पढ़ता हूं, तो मन आहत होता है। कैसे लोग हैं वे, जो ऐसा कर जाते हैं ? क्या इंसान कहलाने लायक भी हैं ?

मेरे मित्र ने उस बंदर को दोबारा चने खिलाने की कोशिश की लेकिन वह आकर्षित नहीं हुआ। वह अब किसी और के हाथ से मजे ले ले कर चने खा रहा था। उसने मेरे मित्र को अनदेखा कर दिया था। 

     उपेक्षा भाव से आहत मेरे मित्र ने चने खुद अपने मुंह में डालकर चबाते हुए कहा  "चलो चलते हैं, वैसे इस लड़की को तुमने कब पढ़ाया था ?"
जब यह चौथी कक्षा में थी, और शायद उसी दौर में, जब मैं भी तुम्हारी जैसी सोच रखता था "

वह तिलमिला गया। मैं समझ गया, मेरी भाषा गलत है, मेरे कहने का अंदाज गलत है।

    मैंने उसे समझाया कि यदि इस प्रोफेशन में पैसे नहीं है, तो कोई दूसरा कर लो, लेकिन इसके प्रति पूरी निष्ठा रखो। हम समाज बदलने की बात करते हैं, और जो समाज को बदल सकते हैं, नई व्यवस्थाये स्थापित कर सकते हैं, उनमें वह सोच नहीं पैदा करते हैं। जरा सोचो कि यदि हमारे टीचर्स ने भी हमें पढ़ाते समय बेईमानी की होती, तो क्या हम इस मुकाम पर होते ? नहीं न? 

   तो फिर हम क्यों आने वाली जनरेशन को वह सोच व शिक्षा नहीं दे सकते ? यदि व्यवस्थाएं बदलनी है उनमें सुधार लाना है तो शिक्षा का स्तर बेहतर करना होगा उसके प्रति गद्दारी नहीं चलेगी।

 प्रतिउत्तर में वह धीरे से मुस्कुरा दिया था। शायद उसकी यह मुस्कान मौन स्वीकृति रही होगी ?

Shailendra S.

अजनबी - 2

अजनबी (पार्ट 2)       पांच साल बाद मेरी सत्य से ये दूसरी मुलाकात थी। पहले भी मैंने पीहू को उसके साथ देखा था और आज भी देख रहा हूं...