मैं यहां पर कोई धार्मिक या उपदेशात्मक कथन नहीं कहने जा रहा हूं। यह आलेख वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित है।
1. ईश्वर कौन/क्या है ?
यदि इस प्रश्न को एक लाइन पर समाप्त करना चाहूं तो लिख सकता हूं कि यह एक सामान्य उर्जा है। शायद इसी लिए इसे प्रवाहित होने के लिए किसी विशेष शरीर की आवश्यकता नहीं होती है। वह प्रकृति के हर एक कण में है। हर सजीव, और निर्जीव में है ?
सजीव को दो मूलभूत वर्गों में विभाजित किया गया। जंतु और वनस्पति। बौद्धिक क्षमता के अनुसार मनुष्य श्रेष्ठ है। चिंतन और जिज्ञासा से बौद्धिक क्षमता में विकास होता है। जिज्ञासा को प्रथम स्थान पर रखा जा सकता है।
यही वजह है कि एक बच्चा 12 वर्ष तक की अवस्था में प्रश्न अधिक पूछता है। उसकी जिज्ञासाएं अन्य उम्र की तुलना में अधिक होती हैं। वह खुद से भी कई सवाल पूछता है। यहां तक की "आओ करके देखें/सीखे ", पर विश्वास करता है। और इस प्रकार से अर्जित ज्ञान स्थाई होता है।
चिंतन से तर्कशक्ति का जन्म होता है, और तर्क शक्ति तुलना करना सिखाती है। अपनी जिज्ञासाओं को दूर करने के लिए उसने जो ज्ञान प्राप्त किया या उसे जो ज्ञान दिया गया वह एक उम्र के बाद चिंतन में बदल जाता है। अर्थात वह विचार करता है कि उसने जो ज्ञान प्राप्त किया है वह तर्कशास्त्र की कसौटी में कितना खरा है। पूरा भी होता है या नहीं !
बाल्यावस्था में एक जिज्ञासा का जन्म हुआ, पानी क्यों बरसता है ? और हमें जवाब दिया गया, भगवान जी बरसाते है ? ऐसी न जाने कितनी जिज्ञासाओं के जवाब यह कहकर टाल दिए जाते हैं या फिर उनसे दामन छुड़ा लिया जाता है कि यह कार्य भगवान जी का है, और एक समय बाद हम सोचते हैं, यह भगवान कौन है ?
यहीं से चिंतन का प्रारंभ होता है। तर्कशक्ति तीव्रता से कार्य करती है। हम अपने द्वारा प्राप्त ज्ञान विज्ञान से उसकी तुलना करते हैं। कसौटी में उसे कसते हैं। आत्मा, परमात्मा, ज्ञान, विज्ञान, जन्म, मरण, पुनर्जन्म, मोक्ष इन सभी की अवधारणा मानव मस्तिष्क की ही उपज है। हमारे लिए अस्तित्व में वही है, जो हमारी नजरों के सामने हैं। जिसके बारे में हम तर्कपूर्ण विचार कर सकते हैं और जिसकी हम परिकल्पना कर सकते हैं।
लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि जो हमारी परिकल्पना से भी परे है उसका अस्तित्व ही नहीं। बंद कमरे से आसमान को नहीं देखा जा सकता तो क्या आसमान का अस्तित्व नहीं ?
जंतु से जंतु जन्म लेता है। वनस्पति से वनस्पति जन्म लेती है। एकलिंगी, उभय लिंगी या फिर कोई भी विधि हो प्रजनन अर्थात रीप्रोडक्शन होता है। शरीर से शरीर का जन्म होता है किंतु उसे गतिशील रखने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। और वह हम प्रकृत प्रदत वस्तुओं का उपयोग कर प्राप्त करते हैं। हमारा शरीर उसे अपने अनुरूप ऊर्जा में परिवर्तित करता है, और हम जीवित रहते हैं।
अर्थात इस सृष्टि में सभी सजीव व निर्जीव में ऊर्जा होती है। चाहे वह स्थैतिक ऊर्जा के रूप में हो, या फिर चाहे गतिज ऊर्जा के रूप में, लेकिन ऊर्जा होती जरूर है। नहीं तो हमारे शरीर को ऊर्जा कहां से मिलती ?
अब यह तय है कि ऊर्जा के नियम के अनुसार ऊर्जा कभी नष्ट नहीं होती। ना तो उसे उत्पन्न किया जा सकता ना ही नष्ट किया जा सकता है। उसे केवल एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित किया जा सकता है। और यही आत्मा का ज्ञान भी है। आत्मा ना तो मरती है, ना तो उसका जन्म होता है, वह एक शरीर से दूसरे शरीर में गमन करती है।
इस सत्य को विशिष्टता के अधीन सुसज्जित करके बताया गया और हमने उसे गीता का ज्ञान मान लिया। उसके ज्ञान को आत्मसात ना कर हम स्वयं गीता पुस्तक की पूजा करने लगे। मेरे पुस्तक लिख देने से आपके हृदय को चोट पहुंची होगी और मैं यही आपको बताना चाहता हूं वह इसलिए क्योंकि हमें बचपन से यही बताया गया की गीता पुस्तक पूजनीय है यह नहीं बताया गया कि उसमें दिया गया ज्ञान पूजनीय है, आत्मसात करने योग्य है।
कृष्ण ने अर्जुन को ऐसा कोई भी ज्ञान नहीं दिया जिस की अवधारणा पहले से ना रही हो। यहां तक कि आरंभ में ही उन्होंने अर्जुन से यही कहा था कि मैं तुम्हें वह दिव्य ज्ञान देने जा रहा हूं जो अनादि काल से स्थापित है।
अब यदि कहीं ईश्वर की अवधारणा को हम किसी जंतु के रूप में मान लेते हैं, जैसा कि मनुष्य को स्वयं एक जंतु की श्रेणी में रखा गया है, तो वह ऊर्जा का ही एक प्रारूप है।
जंतु से जंतु का जन्म होता है। वनस्पति से वनस्पति का जन्म होता है। वह भी सजातीय। वैज्ञानिक दृष्टिकोण में सजाती का अर्थ होता है, गुणसूत्रों की संख्या का एक समान होना। अर्थात ईश्वर से ईश्वर का जन्म हो सकता है। यदि राम और सीता स्वयं ईश्वर थे तो उन की संताने भी ईश्वर हुई, और उनकी संतानों की संताने भी ईश्वर ही हुई ?
मानव से बिल्ली नहीं जन्म ले सकती और न ही बिल्ली से मानव। अर्थात प्रत्येक सजीव की एक विशिष्टता होती है। अर्थात वह एक विशिष्ट ऊर्जा धारण करता है। लेकिन विशिष्टता का स्तर सभी में अलग-अलग होता है।
अब इस कथन को हम रिवर्स देखते हैं। अर्थात एक विशिष्ट ऊर्जा को प्रवाहित होने के लिए एक विशिष्ट शरीर चाहिए। और यह सही है। क्योंकि यदि मनुष्य से मनुष्य जन्म लेता है, तो यह तथ्य स्वत: प्रमाणित होता है।
लेकिन ऐसी कौन सी उर्जा है जो सजीव और निर्जीव दोनों में कॉमन हो अर्थात एक्जिस्ट करती हो ? और वह है सामान्य ऊर्जा, अर्थात जनरल एनर्जी। जिसमें कोई विशिष्टता नहीं, और इसी लिए उसे किसी विशिष्ट शरीर की आवश्यकता नहीं होती है। वह किसी भी शरीर में गमन कर सकती है।
यह ऊर्जा सभी सजीव और निर्जीव में होती है किंतु हम केवल विशिष्ट ऊर्जा को महसूस करते हैं, और इस सामान्य ऊर्जा के होने का हमें आभास नहीं होता है। सवाल उठता है क्यों ?
क्योंकि हमारा संपूर्ण चेतन, अवचेतन विशिष्टता की ओर आकर्षित होता है। हम संपूर्ण रूप से उसी का चिंतन करते हैं। और जो हमारे अंदर एक सामान्य सी ऊर्जा के रूप में है हम उस तक नहीं पहुंच पाते। हम अपनी विशेषता में ही उलझे रहते हैं।
इसीलिए ईश्वर को ज्ञान, विज्ञान, तर्कशक्ति इत्यादि से प्राप्त नहीं किया जा सकता। उसके लिए बिल्कुल सामान्य बनना होता है। अपनी उस सामान्य ऊर्जा को पहचानना होता है जो हमारे अंदर है। और जो प्रकृति के हर एक कण-कण में विद्यमान है। चाहे वह सजीव हो चाहे निर्जीव हो। विशिष्टता का बोध खत्म होना ही ईश्वर तक पहुंचना है। या यूं कहिए स्वयं ईश्वर हो जाना है।
और शायद यही वजह है कि ईश्वर का ना तो जन्म होता, ना मृत्यु होती, और ना ही पुनर्जन्म होता है। स्मृतियां शेष रह जाएं तो वह पुनर्जन्म है। पुनर्जन्म ना हो तो मोक्ष है।
यह एक अलग विषय वस्तु है जिस पर हम कभी बाद में चर्चा करेंगे शायद My Inception 11 में ही।
जिसमें विशिष्टता का स्तर सर्वाधिक हो वह अवतार होता है। इसलिए उसकी अपनी खुद की कोई स्मृति नहीं होती। वह पिछले जन्म में क्या था, कभी नहीं सोचता। वह सिर्फ इसी जन्म को जीता है।
अपने सभी श्रेष्ठ गुणों के साथ जिसे वह स्वयं यह स्वीकार कर लेता है कि यह गुण उसे जन्म से या प्रकृति से मिले है। लेकिन कॉमन एनर्जी सभी में होती है और वही वास्तव में ईश्वर है और सभी विशिष्ट ऊर्जाओं को नियंत्रित करती है।
कृष्ण ने कभी नहीं कहा कि वह पिछले जन्म में राम थे। न तो राम और कृष्ण ने कहा कि हम विष्णु के अवतार हैं। हमने इसे स्वीकार कर लिया या यूं कहूं स्वयं स्थापित कर दिया। कृष्ण ने तो यह कहा कि मैं हर युग में था। ऐसा कोई भी युग नहीं था, जब मैं न रहा हूं और तुम न रहे हो।
अब मैं आपसे पूछूं कि बिना उर्जा के जब हम किसी जीव या निर्जीव की कल्पना नहीं कर सकते, तो कौन सी विशिष्ट बात कह दी ? उन्होंने तो यही कहा ऊर्जा जो आज है, प्रत्येक युग में थी, और रहेगी।
लेकिन नहीं हमने उनकी बातों में विशिष्टता देखी, और अपनी पीढ़ियों को भी यही समझाया। एक विशिष्ट ऊर्जा को अर्थात अवतार को हमने ईश्वर मान लिया। जबकि उन्होंने स्वयं कहा कि मैं हर कण में हूं, हर जीव, निर्जीव में हूं। यहां मैं का अर्थ था उनके अंदर वह सामान्य ऊर्जा।
इसलिए उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि हम ईश्वर हैं। स्वयं को ईश्वर कहकर महिमामंडन नहीं किया। यह बात अलग है कि पुराण (महिमा-मंडित जीवन परिचय अर्थात यशोगान, जी हां पुराण का मतलब यही होता है) जो हमने लिखी, परिकल्पनाए हमारी थी, और हम उसमें अपनी विशिष्टता डालते गए।
आज भी यही कहा जाता है की ईश्वर तक पहुंचने के लिए इंसान को सरल सामान्य होना पड़ता है। केवल अपनी विशिष्टता को धारण कर उसका आभास नहीं कर सकते।
सामान्य को शक्तिहीन मत समझिए। उसमे स्वयं की शक्तियां अंतर्निहित होती हैं। उदाहरण के तौर पर एक कंपनी में जनरल मैनेजर (GM) की पोस्ट ऊंची होती है, अर्थात अधिक शक्तिशाली होती है या फिर सेल्स या प्रोडक्शन मैनेजर की?
जनरल थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी, जनरल थ्योरी ऑफ अनइप्लॉयमेंट, जनरल रूल्स आफ डबल एंट्री सिस्टम, यहां तक कि उर्जा का यह सार्वभौमिक सिद्धांत कि केवल उसका रूपांतरण होता है वह भी एक सामान्य सिद्धांत है।
सहज हो जाइए, सरल हो जाइए। आप स्वयं ही अपनी सामान्य ऊर्जा तक पहुंच जाएंगे।
क्योंकि .....
विशिष्टता से परे, जो सहज है, सरल है, सामान्य है, ईश्वर है।
Shailendra S.
यह आर्टिकल परम आदरणीय चाचा जी श्री बब्बू सिंह गहरवार (मास्टर साहब) जी, शिक्षक विषय विज्ञान, चितरंगी, जिला सिंगरौली को सादर समर्पित।
Shailendra S.
सुझाव सादर आमंत्रित है 🙏, अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराएं।
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