Wednesday, July 13, 2022

My Inception 09 (बंदऊं गुरु पद पदुम परागा)

एक मल्लाह की पुत्री सत्यवती के प्रति उत्पन्न असमय ऋषि पाराशर की कमाशक्ति की परणिति कृष्णद्वैपायन वेदव्यास का जन्म था। जो कालांतर में महाभारत, पुराण इत्यादि के रचयिता बने, और गुरुओं के बीच अपना स्थान सुनिश्चित किया। उनका जन्मदिन गुरु पूर्णिमा के रूप में आज भी याद किया जाता है।

      अन्य किवदंती को यदि किनारे रख विचार किया जाए तो गुरु का पद जन्म से नहीं कर्म से स्थापित होता है। चाहे उनका जन्म आज स्थापित किसी भी जाति / वर्ण व्यवस्था में हुआ हो। 

    बाद में उनकी माता सत्यवती का विवाह हस्तिनापुर के राजा शांतनु से हुआ। और इस तरह से वे देवव्रत की सौतेली मां बनी और उनकी प्रतिज्ञा का कारण भी। इसी वंश में 100 कौरवों और 05 पांडवों का जन्म हुआ। अपने पिता और प्रतिज्ञा के एकनिष्ठ भाव के कारण देवव्रत स्वयं कालांतर में भीष्म कहलाए। और इसके बदले में उन्हें पिता से मिला इच्छा मृत्यु का वरदान।

     वेदम व्यास नाम नहीं, अपितु यह एक पद है, और यह पद उसी को प्राप्त होता था जो वेदों, महा पुराणों और आध्यात्मिक पुस्तकों की रचना कर सकने के समर्थ के साथ सामाजिक राजनीतिक और पारिवारिक परिस्थितियों में अद्भुत निर्णय लेने की अद्भुत क्षमता रखता हो। 

     गुरु का स्थान प्राप्त करना सहज नहीं है। इसके लिए व्यक्ति विशेष में वह सामर्थ होना चाहिए कि वह अपने आधीन शिष्यों की शंकाओं का समाधान कर सके। उनके बेहतर निवारण में उनकी उनकी मदद कर सकें। वे सत्यवती के पुत्र थे किंतु सत्यवती ने हमेशा उनसे अपनी विपरीत परिस्थितियों में उत्पन्न हुई शंकाओं के निवारण हेतु राज्य परिवार में आमंत्रित किया। और इस तरह से पुत्र होते हुए भी उन्होंने अपनी माता के लिए गुरु के कर्तव्य निभाएं।

     महाराज शांतनु से विवाह होने के पश्चात सत्यवती के चित्रांगद और विचित्रवीर्य नाम के दो पुत्र हुए जो वैवाहिक संबंधों के बावजूद पिता बनने में असमर्थ रहे। राज परिवार में वंश समाप्ति का संकट उत्पन्न हो गया, और उस समय सत्यवती ने व्यास जी को इस संकट से उभारने के लिए और सलाह मशवरा करने के लिए राजपरिवार में आमंत्रित किया।

      राज परिवार में उत्पन्न इस संकट को एक ही तरीके से दूर किया जा सकता था। और वह था देवरथ अर्थात भीष्म अपनी प्रतिज्ञा को तोड़ विवाह करें। जिसके लिए देवव्रत तैयार नहीं हुए।

     तब सत्यवती और देवव्रत ने एक दूसरा रास्ता निकाला। चुकी व्यास देवव्रत के सौतेले ही सही लेकिन भाई थे, और उन से उत्पन्न संतान से राजवंश चल सकता है। अब समस्या यह थी कि वे भी विवाह नहीं करना चाहते थे। 

      कारण भी स्पष्ट था, क्योंकि आज के युग में जो कार्य वैज्ञानिक या रिसर्चर का होता है वही, वही कार्य ऋषि का होता था। उसे भी अपने कर्म के प्रति समर्पित जीवन जीना पड़ता था। गृहस्थ जीवन उनके कर्म पथ पर रुकावट डालता था।

     काफी विचार-विमर्श के बाद जो निर्णय लिया गया, वह आश्चर्यजनक और आज के दृष्टिकोण में निंदनीय भी कहा जा सकता है। मिट्टी, मिट्टी को रचती है। यह अकाट्य सत्य है। और सहज संतान उत्पत्ति के लिए शारीरिक मिलन आवश्यक है। व्यास को अपने अनुज वधुओ अम्बे और अंबिका से संतान उत्पत्ति के लिए शारीरिक संबंध स्थापित करना पड़ा। 

    और इसीलिए मैंने ऊपर लिखा कि अपने अधीनस्थ शिष्य की समस्त शंकाओं का निवारण यहां तक कि विपत्ति के समय हर संभव मदद करने का सामर्थ एक सच्चे गुरु में होना चाहिए, और गुरु को यही करना भी चाहिए। इसलिए गुरु पद देने से पहले या स्वीकार करने से पहले हमें इस तथ्य को स्वीकार करना आवश्यक है।

      जिनसे हमें शिक्षा मिलती है वह शिक्षक हैं, और जिनसे हमें अपने जीवन में गुरूता का आभास होता है, मार्गदर्शन मिलता है, वह गुरु होता है। शिक्षक और गुरु दोनों पद पृथक हैं। और इसलिए इन्हें पृथक-पृथक ही देखना चाहिए चाहिए।

     शिक्षक से आप ज्ञान का दर्शन प्राप्त करते हैं। ज्ञानार्जन में आई समस्त बाधाओं को दूर एवम शंकाओं का निवारण शिक्षक करते हैं।

      वहीं दूसरी तरफ गुरु से आप अपने निजी जीवन, यहां तक कि आपने पारिवारिक जीवन में उत्पन्न शंकाओं का निवारण कर सकते हैं। और इसीलिए गुरु का पद पारिवारिक सदस्य के रूप में आज भी सहज स्वीकार किया जाता है। 

      आपके जीवन में शिक्षक तो कई हो सकते हैं, लेकिन गुरु एक ही होता है। और एक ही रखना भी चाहिए, और जिसे आप गुरु का पद देने जा रहे हैं, उसका चुनाव भी अच्छी तरह से आपको स्वयं की करना चाहिए।

        अब जरा सोचिए यदि कोई ऐसा व्यक्ति जो मानसिक रूप से छली है, प्रपंची है, लोभग्रस्त है, कलुषित मानसिकता वाला है, और उसे आप गुरु जैसा महत्वपूर्ण पद दे देते हैं, तब क्या होगा ?

      और जब, यहां तक कि आप अपनी पारिवारिक समस्याओं का निवारण भी उसी से करना चाहते हैं, तब वह आपके जीवन में कितने संकट उत्पन्न कर देगा,  इसका अंदाजा भी आप नहीं लगा सकते।

     हां, यदि आप गुरु का पद सिर्फ गुरु पूर्णिमा की पूजा के लिए ही देना चाहते हैं, तो यह आप किसी को भी दे सकते इससे आपको कोई नुकसान नहीं होगा। 

      राजवंश हो या परिवार, जब संकट का समय आता है, यहां तक कि वंश समाप्ति का भी संकट आता है, तब गुरु की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। और शायद यही कारण रहा कि राजा की मृत्यु के पश्चात युवराज या तो राजा के पद पर आसीन होता था या उसका संचालन गुरु के हाथ में होता था।

        और उस राज्य व्यवस्था में अगला राजा कौन होगा इसका निर्णय गुरु अपने स्वविवेक और राजनैतिक दृष्टिकोण के आधीन, विचार विमर्श करने के पश्चात करता था। यही कारण था कि राम के वन जाने के पश्चात जब राजा दशरथ की मृत्यु हुई और वहां भरत भी उपस्थित नहीं थे तो राज्य व्यवस्था की संपूर्ण डोर गुरु वशिष्ट जी के हाथों में थी। और वे चाहते तो अयोध्या के अगले राजा स्वयं हो सकते थे। 

     अब यह आर्टिकल उस बिंदु पर पहुंच चुका है जहां पर आपको मानसिक रूप से खुले विचारों को आत्मसात कर आगे बढ़ना होगा। एक ऋषि का राजवंश से सदैव पारिवारिक संबंध रहा और यह संबंध द्वापर ही नहीं अपितु त्रेता युग में भी देखने को मिलता है।

        जब तीन रानियों के बावजूद राजा दशरथ को कोई संतान प्राप्ति नहीं हुई तो उन्होंने पुत्र प्राप्ति हेतु यज्ञ का आयोजन किया और जिससे उन्हें राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के रूप में चार पुत्र प्राप्त हुए। इस यज्ञ को आप दो दृष्टिकोण से देख सकते हैं।

       प्रथम दृष्टिकोण यह कहता है कि यह स्पर्म डोनेट था, और दूसरा दृष्टिकोण यह कहता है कि राजा दशरथ का इलाज किया गया। यज्ञ से उत्पन्न खीर प्रथम और द्वातीय दोनों ही दृष्टिकोण को प्रमाणित करता है। 

     उसी तरह व्यास से और उनकी अनुज वधू से उत्पन्न संतान पांडु और धृतराष्ट्र जो बाद में हस्तिनापुर के राजा बने, वास्तव में उनके फिजिकल फादर व्यस थे। और तीसरा पुत्र दासी के गर्भ से उत्पन्न हुआ और जो बाद में महामंत्री विदुर बना।

   महाराज विचित्रवीर्य की पहली पत्नी अंबिका के पुत्र थे धृतराष्ट्र। उनमें और उनकी पत्नी गांधारी में माता-पिता बनने की पूरी क्षमता थी, लेकिन गांधारी में गर्भधारण करने की क्षमता नहीं थी। और इसलिए टेस्ट ट्यूब बेबी के रूप में उन्हें एक सौ एक संतानों की प्राप्ति हुई।

     उस समय टेस्ट ट्यूब बेबी को एक प्रयोगात्मक विधा के रूप में उपयोग में लाया गया, और इसीलिए 101 टेस्ट ट्यूब बेबी तैयार किए गए।  वह इसलिए कि उनमें से कोई ना कोई एक प्रयोग तो सफल होगा ही।  हुआ यह कि 101 के 101 प्रयोग सफल रहे, और गांधारी को एक साथ एक सौ एक संतानों की प्राप्ति हो गई।  100 पुत्र एवं एक पुत्री दुशाला का जन्म हुआ था। पहले पुत्र का नाम सुयोधन था जो बाद में दुर्योधन के नाम से चर्चित और विख्यात हुआ। दुर्योधन का शाब्दिक अर्थ यह है कि जिस से युद्ध करना विकट अर्थात दुःसह हो।

   महाराज पांडु की दो पत्नियां थी पहली कुंती और दूसरी माद्री। कुंती काशी के राजा शूरसेन की पुत्री थी। जो कृष्ण के पितामह थे। इस नाते कुंती कृष्ण की बुआ थीं।  

      कुंती को कुंआरेपन में महर्षि दुर्वासा ने वरदान/विधा/मोहानी शक्ति प्राप्त हुई थी जिसके चलते वह किसी भी देवता का आह्‍वान करके उनसे संतान प्राप्त कर सकती थी, और जिसका सफल प्रयोग भी कुंवारे पन में ही वे कर चुकी थी। और उससे उत्पन्न संतान कर्ण थी। लोक लज्जा के डर से जिसका उन्होंने त्याग भी कर दिया था।

     विवाह पश्चात जब महाराज पांडु को शारीरिक संबंध बनाते ही मृत्यु का श्राप मिला तो कुंती ने उसी मंत्र शक्ति से देवताओं का आवाहन कर तीन पुत्र युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन को प्राप्त किया।  माधुरी/माद्री ने भी मंत्र शक्ति से ही नकुल एवं सहदेव को प्राप्त किया। 

     अब इतिहास के थोड़ा सा और पीछे  या प्राचीन भारत की तरफ चलते हैं, जहां पर महर्षि बाल्मिक और अप्सरा मेनका के योग से उत्पन्न कन्या शकुंतला एवं राजा दुष्यंत लिव इन रिलेशनशिप में थे, जिसे उस समय गधर्व विवाह के नाम से जाना जाता था। ब्रेकअप के बाद दुष्यंत अपने राज परिवार में वापस आ गए और चक्रवर्ती सम्राट बने।

      वहीं दूसरी तरफ शकुंतला जो कि प्रेग्नेंट हो चुकी थी और राजा दुष्यंत इस बात से बेखबर थे, उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया जो कालांतर में स्वयं एक चक्रवर्ती सम्राट बना और जिसके नाम से ही इस भरतखंड का नाम भारतवर्ष पड़ा।

    कहने का अर्थ यह है कि प्राचीन काल से ही राजवंश और ऋषि का संबंध रहा है। और इस संबंध को स्थापित करने में गुरु की निर्णायक भूमिका रही है। प्रत्येक दुविधा की स्थिति में गुरु मार्गदर्शक होता था और वह अपने ज्ञान कौशल और सामाजिक समझ से परिवार ही नहीं अपितु राजवंश को भी विकट से विकट परिस्थितियों से उबार लेता था। यही उसका धर्म था, यही उसका चरित्र था।

अब हम इस आलेख के माध्यम से कुछ निष्कर्षों पर पहुंच सकते हैं,

01. मनुष्य के जन्म के लिए स्पर्म और ओवम का होना आवश्यक है। कहना यह चाहिए कि उनके मिलन का योग होना आवश्यक है। अब मिलन की विधि नैसर्गिक, वैज्ञानिक या चाहे जैसी भी हो।

02. वैज्ञानिक और रिसर्चर जैसा कि आज हैं, कल भी थे। जो विधियां संतान उत्पन्न के लिए आज प्रयोग में लाई जा रही हैं वह प्राचीन है। बस हम उन्हें नए सिरे से स्थापित कर रहे हैं। उनकी खोज नहीं कर रह रहे है। जैसे कि हवाई जहाज से पहले पुष्पक विमान था।

03. मनुष्य एक प्रजाति है और प्रत्येक प्रजाति में गुणसूत्रों की संख्या निर्धारित होती है। यही गुणसूत्र अनुवांशिकी लक्षणों को धारण करते हैं। 22 जोड़े गुणसूत्र समजातीय अर्थात पुरुष और स्त्री में एक समान होते हैं। सिर्फ एक जोड़ा अर्थात 23वा विजातीय होता है। जो संतान के स्त्री या पुरुष (मेल या फीमेल) होने का निर्धारण करता है। 

04. अब बात करते हैं रक्त की शुद्धता की, जिसकी दुहाई आज के वर्तमान समय में अधिकांशतः लोगों द्वारा दी जाती हैं। मनुष्य, मनुष्य होता है। संतान उत्पत्ति के लिए जाति, धर्म, वर्ग कोई महत्व नहीं रखता। इसलिए मनुष्य की उत्पत्ति के लिए मनुष्य प्रजाति के नर और मादा की आवश्यकता होती है,  उत्पत्ति के लिए 46 गुणसूत्र आवश्यक हैं न कि जाति, वर्ग, धर्म विशेष। 

05.माता-पिता एवं अन्य पूर्वजों के गुण सन्तानों में कुछ अंश तक आते है। शायद इसलिए वैवाहिक संबंधों में कुल, गोत्र इत्यादि को स्थान एवं महत्व दिया जाता है। लेकिन उपरोक्त उदाहरणों से कोई भी कुल - गोत्र कहां तक सुरक्षित रह पाया यह प्रश्न तो उठता ही है? 

    अपनी तीन पीढ़ियों के पीछे के हम नाम नहीं जानते, उनके उद्गम स्थान, और उनकी विशिष्टता को लेकर वाद-विवाद करते हैं, और स्वयं को निर्धारित करते हैं कि हम कितने श्रेष्ठ है। है ना आश्चर्यजनक बात !!

     एक क्षत्राणी के गर्भ से जन्म लेने वाला सूर्यपुत्र, सूत-पुत्र कहलाया। भारद्वाज जन्म से ब्राह्मण थे, किन्तु भरत का दत्तक पुत्र बन जाने के कारण क्षत्रिय कहलाए। राजा भरत एक ऐसे चक्रवर्ती सम्राट थे जिन्होंने राजा का पद जन्म के आधार पर नहीं अपितु योग्यता के आधार पर रखा। और इसलिए उन्होंने ऋषि कुमार भारद्वाज को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। क्योंकि वे राज्य चलाने में उनके पुत्रों से अधिक योग्य थे। 

     वहीं दूसरी तरफ विश्वामित्र एक राजा थे लेकिन अपने कर्म से वे राजार्षी बने और बाद में महर्षि भी।

     छठवां और अंतिम निष्कर्ष वही है जो पहले था। गुरु का पद जाति, धर्म, वर्ग विशेष द्वारा निर्धारित नहीं होता है, अपितु उसके कर्मों के द्वारा निर्धारित होता है।

      अब हम एक सार्वभौमिक सिद्धांत को अपना सकते हैं। व्यक्ति का महत्त्व उसके कर्मों द्वारा निर्धारित होता है न कि उसके कुल, गोत्र या वर्ग से। 

     यही बात सामान्यत: यदि किसी से कही जाए, या समझाई जाए तो वह कहता है कि हम तो साहब समझते हैं, लेकिन अगला नहीं समझता है !
    इसलिए जब तक अगला नहीं समझ जाता तब तक हमे, इसे यहीं विराम देना होगा।
      यदि यह आर्टिकल पढ़ते-पढ़ते आप यहां तक पहुंचे हैं तो अपने विचार कमेंट सेक्शन में अवश्य लिखिए। मुझे और बेहतर लिखने की प्रेरणा दीजिए।
Shailendra S. 

1 comment:

अजनबी - 2

अजनबी (पार्ट 2)       पांच साल बाद मेरी सत्य से ये दूसरी मुलाकात थी। पहले भी मैंने पीहू को उसके साथ देखा था और आज भी देख रहा हूं...