मेरे प्रिय दोस्तों!
मैं शैलेंद्र एस. सप्रेम नमस्ते! जैसा कि मैंने आप लोगों को पहले भी बताया कि,
"माइलस्टोन लिखना मेरे जीवन का सपना था, और इस सपने के साथ में जीना भी चाहता था। "
या यूं कहूं कि इसे लिखने से पहले मैं मरना भी पसंद नहीं करता।
हम इसी एक जीवन में कई जिंदगी जीते हैं। जिंदगी की राहों में चलते चलते कई मुकाम हासिल करते हैं, कई मंजिलें हासिल करते हैं।
बतौर राइटर, मैं ने अपने आपको आपके सामने स्थापित नहीं करना चाहा। खासकर माइलस्टोन के लिए तो बिल्कुल नहीं। उसकी एक वजह यही रही कि मैं माइलस्टोन के लिए प्रोफेशनल राइटर नहीं बनना चाहता था।
लगभग 2011 से मैंने लिखना छोड़ दिया था। मैंने physics, chemistry mathematics, economics accountancy, computer science पढ़ने और पढ़ाने वाला था। और शायद इसीलिए मैं खुद को लिटरेचर के काबिल नहीं समझ पाया। बावजूद इसके कि मेरी कई कहानियां नेशनल मैगजीन और रेडियो स्टेशन में प्रकाशित एवं प्रसारित हुई थी। किंतु मैं अपने आप से संतुष्ट नहीं था।
मेरे पास साहित्यिक शब्द नहीं थे कि मैं उनका प्रयोग करूं और अभिव्यक्ति को प्रस्तुत करने के लिए सही-सही व्याकरण और शब्दों का प्रयोग करते हुए लिखूं।
2011 से 2019 के बीच मैं दो बार मृत्यु से भी टकराया। मैंने मृत्यु को प्रत्यक्षत: देखा था।
इन 8 वर्षों में मैं बेहद ही अवसाद की जिंदगी जी रहा था। मुझे सब कुछ निरर्थक लगता था। कुछ कमियां मेरी थी जिनसे मैं कभी ऊपर आने के लिए सोचता ही नहीं था।
मैंने सबसे पहले अपने आप को स्थिर और शांत किया। मन के अवसाद को किनारे रख दिया।
तब मैंने दुनिया की इस व्यापकता में एक छोटे से बिंदु को देखा। एक ऐसा सितारा जो अपनी रोशनी बिखेरता आ रहा था। यह रोशनी अन्य सितारे से ली हुई नहीं थी, बल्कि उसकी खुद की थी। मुझे आभास हुआ जैसे यह रोशनी उसके अंदर से निकल रही है उस का उद्गम स्थान वह स्वयं है, लेकिन ऐसा नहीं था।
मेरे जीवन के आसपास ही रहा, मेरी हर खुशी में वह हंसता। मेरे दुख में वह दुखी भी होता। वह मेरे साथ-साथ चलता रहा, लेकिन मैंने कभी उस पर अधिक गौर नहीं किया। जी हां, मैं बात कर रहा हूं उसी एक सितारे की, जो शायद कहीं दूर सितारों की दुनिया से आया है, और जो आगे चलकर माइलस्टोन की कहानी का आधार बना। उसका एक शानदार किरदार बना।
जिसने बहुत ही कम उम्र में प्रेम का वह जीवन जिया, जिसे लोग जीने के लिए शायद तरसते है। मैं आपकी बात नहीं कर रहा हूं, जहां तक मैं ऐसा मानता हूं। आप कुछ और सोचने के लिए स्वतंत्र हैं।
महज 17 अट्ठारह वर्ष की टीन एज में मेरे किरदार को एक ऐसी मोहब्बत मिली जिसे वह आज भी अपने मन में स्थापित कर जी रहा है। जबकि किसी मोड़ पर उसे यह बताया गया कि उसकी महबूबा ने जो विवाह किया था, वह एक प्रेम विवाह था।
एक दिन महफिल के बीच जब मैने उसे उदास देखा तो मैंने उससे इसका कारण जानना चाहा। उसने मुझे कुछ लफ्ज़ों में बयां किया, " मेरे दोस्त मैंने सभी ख्वाब उसे लेकर देखें। आज जिंदगी में उन ख्वाबों को पूरा होते हुए देखता हूं, महसूस करता हूं। लेकिन मेरी जिंदगी में वह शख्स नहीं है जिसे शामिल कर सारे सपने देखे थे। "
दुनिया की रंगीनियां है, खुशियां हैं, महफिले हैं, यहां तक कि इन सब के बीच में भी हूं, लेकिन इन सब में वह कहीं नहीं दिखती।
इन्हीं महफिलों में, इन्हीं खुशियों में, इन्ही रंगीनियों में, मैं उसे तलाश करता हूं। तसव्वुर में बसी उसी एक सूरत को मैं देखता हूं। और सच मानो जब वह सूरत मेरी आंखों के सामने आती है न, तो मैं भरी महफिल में अपने आप को तन्हा महसूस करता हूं।
तब मेरे सामने यह रंगीनियां, यह महफिल, यह खुशियां कहीं नहीं होती। मेरे दोस्त ! मेरी आंखें पता नहीं क्यों भरने लगती हैं, और फिर दूसरे ही पल उसकी तस्वीर धुंधली होने लगती है। मैं फिर अपने आप को बहुत ही तन्हा महसूस करता हूं।
उसकी बातों से तो मुझे लगा कि वह किसी दर्द को अपने दिल में छुपाए जिंदगी जी रहा है। उस दर्द तक मैं पहुंचन चाहता था। मेरे अंदर के छुपे हुआ राइटर ने एक कहानी की तलाश की। शायद मुझे मेरा किरदार मिल चुका था।
मैंने उसे बहुत कुरेद-कुरेद कर पूछा। कुछ असहजता के बाद उसने मुझे अपनी जो कहानी बताई तो मैं सच कहूं, मुझे उसकी यह कहानी थोड़ा सा अवास्तविक लगी, कोरी भावुकता लगी और यथार्थ की दुनिया से दूर। मैं विश्वास नहीं कर पा रहा था। लेकिन उसने मुझसे कहा यदि तुम चाहो तो इसे लिख सकते हो।
तब मैंने उससे कहा कि यदि यह सच है कि उसने तुम्हें भुला कर प्रेम विवाह किया था तब वह तो बेवफा हुई तुम्हें भूल गई। अब तुम उसे क्यों याद करते हो ? और क्यों यह चाहते हो कि मैं तुम्हारी यह कहानी लिखूं ?
तब उसने कहा कि तुम लिखो या न लिखो तुम्हारी मर्जी। मैं नहीं जानता कि वह बेवफा है या नहीं। लेकिन मेरा दिल कहता है कि नहीं है। मैं तुमसे एक बात कहता हूं, तुम्हारे इस प्रश्न का जवाब अभी आज मेरे पास नहीं है, हो सकता है मुझे बाद में मिले तब मैं तुम्हें अवश्य बताऊंगा।
लेकिन लिखते समय यह जरूर ध्यान रखना कि किसी भी स्थान पर कोई भी ऐसा शब्द मत लिखना, या कोई ऐसी अनुभूति ना लिखना जिससे यह इल्जाम लगे कि वह बेवफा है।
तब मैंने अपनी कलम उसकी अनुभूतियों के हवाले कर दी। उसकी अनुभूतियां जो कहती गई मैं उसे लिखता गया। वास्तव में लिखने वाला वह किरदार ही है। मैंने तो उसे कागज पर उतारता रहा। जो मेरे पास शब्द थे, उन्हें ही उसकी भावनाओं के अनुरूप सजाता रहा। और इसलिए माइलस्टोन मैंने फर्स्ट पर्सन में लिखी। उस किरदार को अपने अंदर जिया। उसकी यादों को लिखते समय मैं भी कई बार रोया। उन अनभूतियों से गुजरा तो मुझे महसूस हुआ कि मेरे इस किरदार दोस्त ने कितना बड़ा दर्द सहा है, और क्यों वह भरी महफिल में अचानक ही उदास हो जाता था।
सच मानिए मेरे दोस्त, एक दिन जब मैं माइलस्टोन की कहानी के उस मुकाम पर पहुंचा तो मुझे महसूस हुआ कि सचमुच इस सितारे की रोशनी उसकी खुद की अपनी ना थी। उससे दूर ही सही किंतु एक ऐसा सितारा है जिसकी रोशनी से वह खुद रोशन होता रहा। लेकिन वह दूसरा सितारा किसी को दिखाई न दिया। उसे तो बस मेरा किरदार ही देख सकता था।
अब प्रश्न यह उठता है की कहानी के इस मोड़ पर मैं यह बातें आपसे पुनः क्यों शेयर कर रहा हूं जबकि मैंने यही बातें कहानी के बीच में कुछ वीडियो क्लिप्स में पहले ही शेयर कर चुका हूं।
तो इसका जवाब देने से पहले मैं आपको यह बता देना जरूरी समझता हूं कि उनके मिलने और बिछड़ने के बीच वास्तव में क्या घटित हुआ था। मेरे किरदार ने उसे बखूबी बयां किया है, उसे आपके सामने रखा है। लेकिन मैं यहां सामान्य शब्दों में आप से कहता हूं। यह बात आपसे शेयर करता हूं।
जैसा कि मेरे किरदार ने मुझसे कहा कि जब वह उस लड़की से अपने गांव में पहली बार मिला तो दो-चार दिन उसे मालूम ही नहीं पड़ा कि उसकी आईडेंटिफिकेशन क्या है, हां उसका परिचय क्या है।
दोनों ने एक दूसरे को जब पहली बार देखा तो एक अजीब-सा खिंचाव महसूस किया। अजीब-सा आकर्षण, जिसे हम आज कह सकते हैं कि पहली निगाह का प्यार। दो-तीन दिनों में उन्होंने महसूस किया कि वे एक दूसरे को चाहने लगे हैं, प्यार करने लगे है। यह एक सामान्य सी बात थी। ऐसा अक्सर होता है।
उसने उसके साथ जो पहला रिश्ता बनाया वह था उसके हृदय का और उसने अपने दिल में उसे अपनी प्रेमिका अपनी महबूबा अपनी लवर आप जो भी शब्द देना चाहे, उस रूप में स्थापित किया। फिर जब दोनों ने आपस में प्यार कर लिया, एक दूसरे को चाहने लगे, बातें दोनों के घर तक जब पहुंची तो उन्हें समझाया गया कि ऐसा संभव नहीं है।
और वजह बनाया गया है एक रिश्ते को। जी हां, मेरे किरदार से कहा गया कि क्योंकि गांव घर के रिश्ते-नातों में उसकी मां तुम्हारी बुआ है, और इस तरह से वह तुम्हारी बुआ की बेटी हुई, तुम्हारी बहन हुई, तो तुम उस से प्रेम कैसे कर सकते हो ? यह गलत है।
लेकिन मेरा किरदार यह कभी स्वीकार नहीं कर पाया। उसकी सिर्फ एक ही वजह थी कि जो रिश्ता हमने दिल से बना लिया, उन दो-चार दिनों में बन गया, जब एक दूसरे के मन में स्थापित हो चुके तो अब अपनी उन भावनाओं को कैसे परिवर्तित कर ले ? और फिर उसने अपनी इस बुआ को इससे पहले तो कभी देखा ही नहीं था, इस लड़की से कभी मिला ही नहीं था।
हां, यदि वह पहले मिला होता उसे पता होता कि यह उसके बुआ की लड़की है तो शायद वह प्रेम की अनुभूति दोनों के मन में आती ही नहीं, वह जज्बात उठते ही नहीं।
लेकिन रिश्ता दूर का था, वह गांव के रिश्ते में उसकी बुआ लगती थीं। यदि इन दूर के रिश्ते को स्वीकार किया जाए, उन्हे आधार बना दिया जाए, तो वैवाहिक संबंध संभव ही नहीं। यह मेरे किरदार का सबसे बड़ा दर्द था। एक रिश्ता जिसे ढाल बनाया गया।
जबकि वास्तविकता तो कुछ और थी। पहली यह कि वह लड़की कुल और गोत्र में उससे ऊंची थी। और दूसरा? एक अभिमान था ? कि जिस गांव घर की लड़की हमने ली अर्थात उसकी मां, अब उसी गांव घर में अपनी लड़की को कैसे ब्याह देंगे। उनकी लड़की इसे घर परिवार में इसी समाज में दुल्हन बनकर कैसे आ सकती है, बिल्कुल नहीं आएगी। परंपरा टूटेगी, अवधारणा बदलेगी।
और तब उस लड़की से कहा गया, उसे समझाया गया कि यदि तुमने इस रिश्तो को यहीं खत्म नहीं किया तो अंजाम बुरा होगा। मेरे किरदार को भी डायरेक्टली तो नहीं लेकिन उसके घर में संदेशा पहुंचाया गया कि समझाओ उसे।
क्योंकि मेरे किरदार की परवरिश शहर में हुई थी। वह इन मान्यताओं को इन अवधारणाओं को नहीं समझता था। लेकिन वह लड़की समझती थी। वह समझदार थी और इसलिए जब मेरे किरदार ने उससे मोहब्बत मांगी तो उस लड़की ने उससे एकवचन भी लिया था।
तब उस लड़की ने मेरे किरदार से 3 प्रश्न पूछे और जिन का अर्थ बखूबी यही था कि उनका शारीरिक मिलन संभव नहीं। मन से स्थापित यह रिश्ता उसके अपने लोगों को मंजूर नहीं होगा। और यह रिश्ता समाज में वैवाहिक संबंधों द्वारा स्थापित नहीं हो सकता। नहीं तो उसने मेरे किरदार से दूसरे प्रश्न के रूप में यह कभी नहीं पूछा होता कि जब मेरी शादी होगी और मैं तुम्हें बुलाऊंगी, तो क्या तुम आ सकोगे ?
यहीं से मेरे किरदार को बखूबी अंदाजा हो जाए कि अब उनका शारीरिक मिलन नहीं हो सकता है। उसने जता दिया कि तुम किसी भूले में मत रहना मैं तुम्हें सशरीर नहीं मिल सकती।
इस तरह से उस लड़की ने अप्रत्यक्षतः ही सही मेरे किरदार का परित्याग किया। जिसे मेरे किरदार ने बखूबी स्वीकार किया। कोई इल्जाम नहीं लगाया उस पर। क्योंकि कहीं ना कहीं उसे मालूम था कि वह जो एक वचन लिया गया था शायद इसी दिन के लिए लिया गया था और वह अपनी दिए गए वचनों में भी बंधा था। इसलिए उसने उस लड़की से कुछ नहीं पूछा कि तुमने ऐसा क्यों किया ?
उसकी वजह समझ कर भी उसने उससे कुछ नहीं पूछा। और मेरे किरदार की शायद सबसे बड़ी गलती यही थी। उसे पूछना चाहिए था, जी हां उसे पूछना चाहिए था। उस वक्त यह बेहद जरूरी था। लेकिन उसने कोई सवाल नहीं किया।
मैंने अपने किरदार से पूछा कि यदि मैं तुम्हारी इस कहानी को आधार बनाता हूं, तो दोस्त ! समझने वाले तो समझ जाएंगे कि यह कहानी किसकी है। तब क्या वह बदनाम ना होगी ?
तब उसने कहा कि तुम कोई नाम मत देना। तुम भले ही उसका नाम जानते हो लेकिन कहानी में कहीं उसका जिक्र मत करना। वैसे भी अब इतने साल बीत चुके हैं ! इन 30 सालों में किसे क्या याद होगा ? और जो समझते हैं, समझने देना।
तब मैंने उससे कहा था कि वह तो वचनों में, वादों में, कसमो में बंध चुकी है। वह आज भी वही निभाएगी। और तुम भी तुम भी तो बंध चुके हो ?
तब उसने मुझसे एक बात कही कि मैंने उसके बाद इस जीवन में किसी से भी यदि कोई वादा किया है, कोई कसम ली है, तो वह मेरे हर वादों में है, मेरी हर कसमो में है। मैं उसे शामिल करके हमेशा चलता रहा हूं। मैंने कहीं भी किसी भी मोड़ पर अपने हृदय में स्थापित इस पावन प्रांजल मूर्ति को किसी से नहीं छुपाया। चाहे वह मेरी धर्मपत्नी ही क्यों ना हो। हां मैं आज भी नहीं चाहूंगा कि वह रुसवा हो। इसलिए कहता हूं कि उसके नाम का कहीं जिक्र मत करना।
और इस तरह से उसकी अनुभूतियों को मेरी कलम ने आत्मसात किया उस किरदार को मैंने अपने अंदर जिया। जी हां मैंने अपने किरदार से कहा कि तुम अपनी यादों में जियो। पहले अपनी उस मोहब्बत को महसूस करो, उसकी जुदाई को महसूस करो और तब तुम इस शरीर के मोह से मुक्त हो सकोगे।
किरदार अपनी यादों को जीता रहा और मैं उस किरदार को अपने अंदर महसूस करता रहा। और यही वजह है कि माइलस्टोन के जो भी लफ्ज़ निकले हैं, मैं यह मानता हूं कि वह मेरी कलम से ईश्वर ने खुद लिखे हैं। एक सच्ची मोहब्बत ने लिखवाए हैं।
जब माइलस्टोन को एक मुकाम पर मैंने रोक दिया और किरदार से कहा कि मुझे नहीं लगता की यह कहानी वास्तविक है। मुझे क्या कोई भी पढ़ेगा तो उसे भी नहीं लगेगा।
तुम भी काल्पनिक ही लगोगे। और ठीक है, मान लिया कि तुमने ऐसी मोहब्बत की लेकिन हो सकता है उसने ना की हो ? उसने बस तुम्हारे साथ टाइम पास किया हो। जब तक मैं उससे नहीं मिल लेता, उसके अंदर वही जज्बात नहीं देख लेता जो तुम्हारे अंदर मुझे दिखे तो मैं इस अवास्तविक सी कहानी को दुनिया के सामने लेकर नहीं लाऊंगा। जब मैं खुद ही विश्वास नहीं कर पा रहा हूं तो लोग क्या करेंगे ? एक काल्पनिक कहानी के तुम एक काल्पनिक किरदार लगोगे।
सवाल मुझसे होंगे, मुझसे पूछे जाएंगे। ठीक है, तुम्हारी भावनाओं में वह शक्ति थी कि सुंदर शब्द लिखे मैंने। लेकिन फिर उनका कोई मोल नहीं रह जाएगा। तब मेरे उस किरदार ने कहा कि ठीक है मैं तुम्हें अपनी मोहब्बत से मिला दूंगा।
और इस तरह से उसने 30 साल बाद अपनी उस मोहब्बत को खोज निकाला। हां खोजना ही तो कहेंगे इसे। इससे पहले उसने कभी भी उसकी कोई सुध नहीं ली थी और वह जब उस पते पर मुझे लेकर पहुंचा तो मैंने देखा, महसूस किया कि मेरे किरदार ने जिस तरह उसे अपने मन में स्थापित करके जीवन जिया है उस तरह उसकी महबूबा ने भी उसकी मासूम सी सूरत लिए अपनी जिंदगी जी रही है।
और उसे इस बात का कहीं ना कहीं बेहद दुख है कि उसने मेरे किरदार को किसी मोड़ पर एहसास कराया था कि हमारा मिलन नहीं हो सकता। वह रोता हुआ चला आया, वह पुकारती रही, लेकिन मेरा किरदार पलट कर नहीं देखा।
दर्द दोनों को था। एक को इस बात का दर्द था कि उसने दर्द दिया और एक को इस बात का दर्द था कि इस तरह से वह मुझे दर्द देकर जो आहत हुई है जो उसने दुख उठाए हैं, शायद वह उसी कारण से उसकी जिंदगी में आए हों।
मैंने तो दिल से चाहा था कि मेरा किरदार अपनी महबूबा के पास रुके, उससे बातें करें। लेकिन मेरे किरदार ने साफ मना कर दिया। उसने मुझसे कहा कि आज मैं उसके किसी कसम मैं नहीं हूं, किसी वादे में नहीं हूं, किन्ही रस्मों में नहीं हूं।
यह हृदय में स्थापित रिश्तों को इस समाज, अपने ही लोगों से छुपाती फिरेगी। और यदि वह सबके सामने लाती है, तो जहा उसके अपने लोग हैं, उनका ह्रदय टूटेगा। उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचेगी। वह सच कह नहीं पाएगी और मेरा किरदार झूठ सहन नहीं कर पाएगा।
इसलिए उसने कहा कि मेरे राइटर मुझे तुम्हारे साथ ही चलना है। अब, अब तुम लिख सकते हो तो लिख दो, मुझे कोई एतराज नहीं कि यह कहानी अवास्तविक है। इसके किरदार अवास्तविक हैं। स्थान, घटनाएं यह अवास्तविक है। अब इसे मेरी तरफ से अलविदा कह दो, दूसरी बार।
जी हां माइलस्टोन का यह दूसरा भाग है, अलविदा। अब मुझे अपने किरदार को फिर अपने अंदर जीना पड़ेगा वह फिलिंग्स लाने के लिए वह शब्द पाने के लिए मुझे खुद ही एक कैरेक्टर बनना होगा।
उसे रिसेंटली अलविदा कहने के लिए मुझे शब्द खोजने होंगे, और इसलिए मैं अपने ब्लॉग में, माय इनसेप्शन टाइटल में, जहां पर या तो मैं अपने थॉट्स रखता हूं या फिर जहां पर कुछ वास्तविक घटनाएं हैं, इस बात को वहीं लिख रहा हूं।
ताकि आप लोग यह समझ ले की माइलस्टोन का जो दूसरा पार्ट है अलविदा, वह क्यों लिखा गया उसे लिखने की जरूरत क्यों महसूस की गई।
तो फिर लीजिए एक बार पुनः मैं अपनी कलम को मैं अपने किरदार की अनुभूतियों के हवाले करता हूं।
Thanks
Shailendra S.
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