बिना किसी संवेदना के, बिना किसी भाव के। प्रतिक्रिया देना तो दूर की बात है मैं तो उसे कुछ पल से अधिक याद भी नहीं रख पाती थी। यदि किसी भी अभिव्यक्ति के लिए मैं पत्थर दिल थी, तो फिर बताओ, ऐसे में मैं भला तुम्हें इबादत करने से कैसे रोक सकती थी . . .
कैसे कहें अब तुमसे,
हम तुम्हारी इबादत के काबिल नहीं,
जब खुद को पत्थर बना लिया हमने।
. . .
रुक रुक कर चलती है,
कुछ इस तरह से जिंदगी मेरी।
वफाओं की तो अब बात नहीं,
खामोश लबों से भी भला,
कोई दुआ निकलती है कभी।
तेरी निगाहों ने भी देखा होगा वो मंजर,
कि सजदे में आकर भी,
कोई मुराद पूरी होती नहीं ।।
. . .
कोई और ही शख्स था तेरे अंदर,
जो जीता रहा अपनी जिंदगी,
सहेज खुद मेरी यादों को,
हर रोज मिटाता रहा यादें तेरी।।
मैने लिखा न कि तुम रूहानी, रोमांटिक और काल्पनिक दुनिया के काल्पनिक पात्र थे, जो वास्तविक दुनिया से परे थे। और मैं भी अब उसी काल्पनिक दुनिया में तुम्हारे साथ रहने आ गई हूं। और शायद इसीलिए मैंने तुम्हें सजा के तौर पर अपने अंतर्मन की कैद दी। इतना तो हक बनता है मेरा? वह तुम मुझसे नहीं छीन सकते।
सांसारिक दुनिया छद्म होते हुए भी वास्तविक प्रतीत होती है, और तुम्हारी काल्पनिक दुनिया वास्तविक होते हुए भी छद्म प्रतीत होती है। यही तो वह विरोधाभास है जिसके बीच तुम और मैं या यूं कहूं, हम दोनों ही जीते रहेंगे, ताउम्र के लिए अपनी उसी कैद में रहकर।
यदि मैं बात करूं इस वास्तविक संसार की जहां पर आकर तुम मुझ से टकरा गए, और फिर तुम्हें मिला क्या? आज मैं तुम्हारे लिए कुछ लिखती हूं . . .
ताउम्र भटकते रहे तुम जिनकी तलाश में,
उन्हें भी रोते हुए देखा किसी की याद में,
ऐ मुसाफिर !
तुझे मंजिल मिली भी तो क्या ?
तुझसे भी बदतर हाल में . . . !!!
जिसे जिंदगी का यथार्थ माना, वास्तविक माना, वही छल कर गया। मुझ में जब किसी भी यथार्थ और वास्तविकता से रूबरू होने की हिम्मत नहीं बची तो ऐसे में मैं क्या करती ? मेरे पास तुम्हें एक काल्पनिक दुनिया देने के सिवा और कुछ भी न था !
भविष्य में हो सकता है यह काल्पनिक संसार भी न हो। यादों से बने इस विहंगम काल्पनिक संसार में हम और तुम सदैव के लिए न रह सके, तो भी क्या ? तो क्या इसी लिए इसे कम सुंदर होना चाहिए ? नहीं न ?
हम अपनी यादों से अपने इस काल्पनिक संसार को और भी सुंदर बनाएंगे। और भी मन लगाकर सजाएंगे। हमारी यादों का यही संसार अब हमारे लिए वास्तविक और इस जीवन का सत्य और रहस्य भी होगा।
जीवन में सफलता पाने के लिए यदि तुम इस काल्पनिक संसार को छोड़ कर आगे बढ़ना चाहो तो भी मैं न रोकूंगी। यदि तुम बढ़ सकते हो तो बढ़ जाना, यदि इस संसार से पार हो सकते हो तो निकल जाना।
कोई बंधन नहीं है। और न ही अपने मन में इस बात का कोई दुख पालना कि तुम मुझे अकेला छोड़ कर चले गए।
लेकिन हाँ, इतना कहे देती हूं , तब भी मैं तुम्हें अपने अंतर्मन की कैद से मुक्त नहीं करूंगी।
एक दिन तुमने बातों ही बातों में अपनी दो ख्वाहशे जाहिर की, पहली तुम एक हसीन और जवान मौत मरना चाहते हो, और दूसरी मरने से पहले अपने संपूर्ण जीवन की याददाश्त खो देना चाहते हो।
उस दिन तुम्हारे कहने के अर्थ को मैं भली-भांति नहीं समझ पाई थी। लेकिन आज उन बातों के अर्थ मुझे समझ में आते हैं।
तुम पुनर्जन्म नहीं चाहते। इसलिए मरते समय अपनी पूरी याददाश्त खो देना चाहते हो, ताकि तुम्हारी कोई अधूरी ख्वाहिश मन में न रह जाए। चलो यह भी सही। मरते समय तुम मुझे भी याद न करो, तो कोई बात नहीं। इससे फर्क भी क्या पड़ता है?
साहिल पे खड़ी तू बेखबर,
लहरों से जूझता मेरा मुकद्दर,
क्या जरूरी था ?
बेवजह था ?
और शायद तब मेरे लिए कही अपनी इन्हीं पंक्तियों को भी भूल जाओ ? है न ?
उपहास नही उड़ा रही, पर ऐसा हो सकता है क्या ??
इसका होना या न होना भी अब तुम पर ही छोड़ती हूं।
मैं तुम्हें अपना आदर्श भी नहीं बना सकती क्योंकि आदर्श के प्रति निष्ठावान होना नितांत आवश्यक है।
और मैं तुम्हारे प्रति किसी भी निष्ठा को स्वीकार नहीं करती।
तो क्या इस प्रशांति गहन अंधकार में सिमटते हुए इस पुंज-प्रकाश में क्या कोई चित्कार है ?
जो मुझे तो सुनाई देता है, जो मुझ तक पहुंचता भी है, किंतु तुम तक नहीं पहुंच पाता। आज भी स्तब्ध प्राण, देह त्याग के लिए भी, क्यों तैयार नहीं ?
शायद यह मानव की प्रवृत्ति है उसका स्वभाव है कि जो उसके पास है, वह उसके लिए तुच्छ होता है। उसमें कोई आकर्षण प्रतीत नहीं होता। सुदूर स्थापित चाहे वे कोई तथ्य हो, या कोई स्वप्न, आकर्षक और लुभावने होते है। हमे प्रभावित करते है, अपनी तरफ खींचते है।
जब तक तुम मेरे पास थे, तब मुझ में, तुम में कोई रस या कोई आकर्षण नहीं दिखाई दिया, मेरे दोस्त। अब जबकि दूर हो, तो तुम्हारी निकटता के लिए मैं तरस रही हूं, तुम्हारी तरफ खिंच रही हूं।
तभी तो मैंने लिखा कि यदि संबंधों की प्रगाढ़ता दूरियां लाती है, तो जाओ मैं तुम से कोई संबंध नहीं रखती।
यदि एक संभावना अनंत संभावनाओं को जन्म देती हैं, तो जाओ मैं तुम में किसी भी संभावना की तलाश नहीं करती।
वही बात मैं यहां फिर से कहती हूं, मेरे दोस्त। यदि मेरी एक पुकार, जो अब मेरे अंतर्मन की वेदना बन चुकी है, "आह ! तुम कहां गए", तुम्हारे लौट आने की संभावना की तलाश है, तो जाओ आज इसी क्षण मैं इसका भी त्याग करती हूं।
यदि तुम्हारी निकटता, संबंधों की प्रगाढ़ता, तुम्हारे महत्व को कम करती है; तो यह दूरियां ही सही। तो जाओ मैं उस निकटता की की अब चाहत नहीं रखती।
मैं तुम्हें मुक्त करती हूं, अपनी इस पुकार से भी, "हां, तुम कहां गए"।
अब सब कुछ सिमट कर रह गया। कोई कर्म नहीं बचा जिसे जोड़ घटा कर आगे की कहानी मैं तुमसे कह सकूं। अब इसे यही विराम देना होगा।
तो लो, मैं सजा निर्धारित करती हूं स्वयं के लिए भी और तुम्हारे लिए भी, जो मैं बार-बार लिखती आ रही थी, हां वही फैसला देती हूं, तो सुनो ,
"बिना कुछ कहे, मुझे बिना कुछ बताए, बिना कोई शिकायत दर्ज किये, तुम मुझे यूं छोड़ कर जाने के लिए, मेरे दोषी पाए जाते हो. मेरे दोस्त। और तुम्हारी सजा यही है कि तुम मेरे अंतर्मन की कैद में हमेशा रहो। तुम्हें कभी मुक्ति ना मिले। ताउम्र या यूं कहो जन्म जन्मांतर की उसी कैद में रहो। सदैव छटपटाते रहो, लेकिन तुम्हें मुक्ति ना मिले।
यदि कोई मोक्ष की तलाश भी है, तो वह भी तुमसे सदैव दूर रहे। मेरे बगैर तुम्हें कोई मोक्ष भी ना मिले। और देखो ! इस कैद को तोड़कर बाहर निकलने की जुर्रत कभी मत करना "
तो लो हो चुका फैसला और मैंने अपनी कलम तोड़ दी . . .
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जिसने कहानी की शुरुआत की , अंततः उसने सजा दे अपनी कलम तोड़ दी। और वह जिसे सजा मिली उसकी मानसिक स्थिति, उसकी याददाश्त उस स्थिति में नहीं है कि वह कलम थाम ले।
इसलिए अब आगे की कहानी मुझे ही लिखनी है।
वास्तव में यहीं से शुरू होगी मेरी कहानी --
" सितारों की दुनिया "
to be continued
Shailendra S.
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