Friday, October 1, 2021

तुम कहां गए ? 29

   जहां तक मैं जानती हूं, तुम एक अति संवेदनशील इंसान थे। भावनाएं तुम्हारे लिए महत्वपूर्ण थी। और उनकी अभिव्यक्ति उससे भी अधिक महत्वपूर्ण थी। तुमने अपनी समस्त भावनाओं को मुझसे व्यक्त किया या करना चाहा। शायद यह सोच कर कि मैं उन्हें समझूंगी, या फिर समझने का प्रयत्न करूंगी।

    लेकिन मैंने कभी भी प्रत्यक्षत: तुम्हें यह ज्ञात नहीं होने दिया कि मैं किस हद तक और किस ऊंचाई तक तुम्हारी भावनाओं को देखती हूं। उनका सम्मान करती हूं ।

     कभी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की, और तुमने मुझे बेहद ही प्रैक्टिकल इंसान समझा। बस यहीं भूल कर गए तुम। तो फिर बताओ मुझे खुद से अधिक समझने का दावा करने वाले तुम, हां तुम ! मुझे समझ ही कहां पाए ?

     जैसा कि मैं हमेशा भ्रम में रही कि मैं अपनी जिंदगी जी रही हूं, ठीक वैसा ही भ्रम तुमने भी तो अपने मन में मेरे लिए सजों रखा था।

     संवेदनाएं आहत हुई, मुखर भावनाएं टूटी, तुम्हारी आंखें सजल हुई और भरी आंखों से तुमने मुझे देखा। और तुम्हें बस मेरी धुंधली सी तस्वीर नजर आई, इतनी कि तुम खुद भी भ्रम में पड़ गए। मुझे कभी साफ स्वच्छ नजरों से कहां देख पाए।

    तुम्हारी आंखों के आंसू खुद ही दीवार बनकर खड़े हो जाते थे। तुम्हारी सारी शिकायतें सभी उलाहने, मैं चुपचाप सुन लिया करती थी। यही सोच कर कि शायद कभी तो तुम मुझे समझ पाओगे।

      किन्तु ऐसा कभी हुआ ही नहीं, कैसे लिख दूं? मुझे तुम समझ पाए ही नहीं यह भी कैसे लिख दूं? मैं बेहद प्रैक्टिकल थी, जिसकी कोई भावनाएं, कोई संवेदना ही नहीं। यदि थीं भी, तो वह तुम्हारे लिए नहीं। तुम खुद एक भ्रम में फंसते रहे जैसा कि मैं एक भ्रम में थी, मैं अपनी जिंदगी जी रही हूं, मुझे सब कुछ मिल रहा है, यही तो मैंने चाहा था।

     अब मुझे किस बात की कमी है। मुझे और क्या चाहिए था?

    हम दोनों इस मायाजाल और भ्रम के कैदी रहे। कैद बढ़ती गई। कसती रही, हम दोनों को जकड़ती रही, इतनी कि उस कैद में हम छ्टपाटा तो सकते थे, किंतु आजाद नहीं हो सकती थे। और इस तरह से हम धीरे-धीरे एक दूसरे से दूर होते चले गए। इतने दूर, जहा किसी भावना का कोई मोल नहीं, किसी संवेदना का कोई स्थान ही नहीं। और वहां था तो केवल एक शून्य, एक निराकार, एक ईश्वर।

  और इस तरह एक दूसरे के इष्ट होते हुए भी हम एक अलग ही ईश्वर की तलाश करते रहे, इससे बड़ी विडंबना और नियत हम दोनों के लिए क्या हो सकती थी।

    शायद यही तो लिखा था। लेकिन तुम इसे भी कैसे मान सकते थे? और आज भी जहां भी होगे, कैसे मान लोगे? जबकि इस अवधारणा को तुम आज भी तथ्यहीन ही मानते होगे? 

क्यू ???

    तुमने मेरा सानिध्य पाया, निकटता पाई, शायद तुम्हारी दृढ़ इच्छाशक्ति ने तुम्हारी इच्छाओं की पूर्ति की।

    मैंने तो ऐसा कभी नहीं चाहा, कभी नही सोचा था शायद इसलिए वे मेरे लिए मिट्टी के मोल थे। जब तुम मेरे निकट आए, मेरे सानिध्य में जो जीवन जी रहे थे, मेरे मन में तुम्हारे लिए कोई विशेष भावनाएं या उल्लास जागृत नहीं हुआ।

    होता भी तो कैसे? जब इंसान की इच्छाएं पूर्ण होती हैं, तभी तो उसमें उत्साह होता है । वही तो वह पल होते हैं जिन्हें वह खूबसूरती के साथ जीना चाहता है। तुमने वह पल जिएं अपने ही अंदाज में, और मैंने उन्हें केवल गुजरता हुए देखा। बिल्कुल तटस्थ और निरपेक्ष भाव से । क्योंकि उन पलों का मेरे जीवन में आना महत्वपूर्ण नहीं था वह पल मैंने नहीं चाहे थे शायद इसलिए मैं उदासीन रही इसीलिए तो मैं उन्हें गुजरता हुए बस देखती रही।


     उस दिन तुम हमारे साथ एक ऐसा ही पल गुजर रहे थे जिसकी की तुमने कल्पना की होगी? या फिर तुम्हारी दृढ़ इच्छाशक्ति ने मुझसे मांगा होगा, और तुम ? दुनिया के दिखावे के लिए हमसे मांग रहे थे!! या यूं कहूं कि लक्ष्य मैं थी और कह रहे थे मेरे अपनों से।

   हां! तो उस दिन क्या कह रहे थे? यही न, तुम याचक हो या फिर लुटेरे !!! सचमुच?

    इस शर्त के साथ की कुछ वापस ना करूंगा सब कुछ मांगने आए थे।  सुख-दुख दर्द खुशियां धन वैभव सब कुछ जो हम दे सकते थे, तुमने मांगा और हमने तुम्हें तटस्थ भाव से सुना।

 मैंने तो कुछ भी नहीं दिया, न अपनी खुशियां न दर्द, न  वैभव। बस तुम्हें सुना।
 इससे बड़ी उदासीनता तुम्हारे प्रति मेरे मन में और क्या होगी भला? उस दिन तुमने समझा क्यों नहीं। या यूं कहूं उसी दिन तुम्हें समझ जाना चाहिए था। किस बात का इंतजार कर रहे थे ? क्या घटित होने का इंतजार कर रहे थे?

   हां, तो मैं लिख रही थी कि तुम जैसे आए थे वैसे ही चले गए। तुमने जो चाहा, वह तुमको मिल चुका था। मेरी निकटता तुम्हें हासिल हो चुकी थी। मेरे साथ कुछ पल जिंदगी जी लेने की लालसा पूर्ण हो चुकी थी। तुम एक जिंदगी जी कर चले गए और मैं तुम्हें उदासीन भाव से बस देखते रह गई।

    मेरे दोस्त मैं तुम्हें इस जीवन का एक और रहस्य बताती हूं शायद यह रहस्य एक स्त्री होने के नाते मैं ही जानती हूं, तुम नहीं जान सकते क्योंकि तुम उन लम्हों में सहचर होते हुए भी, कभी उस अनुभूति को महसूस नहीं कर सकते।

     अब मैं तुम्हें जो लिखने वाली हूं या बताने वाली हूं, उससे तुम समझ यह भी सकते हो कि मैं निर्लज्ज हो रही हूं। तो समझ लेना, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता है।

     क्योंकि यदि मैं इन पलों को मैं तुमसे यदि साझा कर रही हूं तो, समझ लो मेरे दोस्त कि यहां पर इसकी जरूरत है। नहीं तो मैं ऐसा कदापि नहीं करती। 

    मैं बात कर रही हूं, आत्म संतुष्टि की। एक इंसान आत्म संतुष्टि का अनुभव कैसे करता है ? जहां तक मैं समझती हूं कि आत्म संतुष्टि का अर्थ है खुद की संतुष्टि ना कि सामने वाले की चाहे वह आपको कितना ही अधिक क्यों ना प्रिय हो। 

       अब तुम कल्पना करो कि जब एक पुरुष एक स्त्री से अंतरंग संबंध बनाना चाहता है तो किसके लिए ? खुद की संतुष्टि के लिए या उसकी संतुष्ट के लिए ?

     जवाब दो, नहीं समझे ? तो चलो अपनी कल्पना का विस्तार और करो। वह उसे छेड़ता है, उसे चूमता है उसे छूता है, इस कदर छेड़ता है कि वह काम आतुर हो जाती है। 

    तब वह सब कुछ भूल जाती है। सारी मान मर्यादा, लाज शर्म सभी कुछ। खुद को उसकी बाहों में समर्पित कर देती और उसका सहचर जब खुद संतुष्ट हो जाता है चरमोत्कर्ष के बिंदु पर पहुंचकर नीचे उतर आता है और उसे उसी अधूरी कामाग्नि में जलता छोड़, निढाल सा अपने आप को समेटकर किनारे बिस्तर पर लेट जाता है। सो जाता।  

    अब वह स्त्री चाह कर भी अपनी किसी भी इच्छा को संतुष्ट नहीं कर सकती। क्योंकि प्रकृति ने ऐसा ही बनाया है। पहल करने और पुरुषत्व से स्त्री को संतुष्ट करने की क्षमता केवल पुरुष को दी, स्त्री को नहीं। उन परिस्थितियों में वह क्या कर सकती है, सिवाय इसके कि वह अपने सहचर को या तो लज्जित करें, कहे कि तुम मुझे संतुष्ट नहीं कर पाए, या फिर अपने मन की सारी इच्छाओं को समेट कर उनका दमन कर ले। 

     कहने का अर्थ यह है कि ठंडी हो जाए। पहल किसने की ? उत्तेजना उसके शरीर में किस ने भारी ? प्रश्न यह उठता है। तो फिर दोषी कौन ? क्या वही स्त्री है या फिर उसका वैसा सहचर पुरुष ?

   मैं कहना यह चाहती हूं कि दूसरों की संतुष्ट में यदि आप अपनी संतुष्टि खोजते हैं तो आप एक निरर्थक कार्य कर रही हैं और इस कार्य का आपको कोई पारितोषिक या पाराश्रमिक नहीं मिलने वाला। यही जीवन का सत्य है ऐसे बहुत सारे सत्य हैं जिन से रूबरू हम रोज होते हैं लेकिन समझ नहीं पाते।

     तो मैं कैसे भरोसा कर लेती मेरे दोस्त जो प्रेम की आग तुम मेरे अंतःकरण में प्रज्वलित करना चाहते थे, उसकी संतुष्ट बनकर तुम खुद मेरे सामने भी आते। क्या ऐसा नहीं हो सकता था कि तुम भी खुद को संतुष्ट कर मुझसे दूर हो जाते, बताओ?

     मैं संभावनाएं व्यक्त कर रही हूं निष्कर्ष नहीं दे रही हूं। हां अपने आप को कदाचित इस बात के लिए दोषी ठहरा लेती हूं कि जिंदगी के इन पलों में मैं थोड़ा सा खुलकर तुमसे बात करती। तुम से पूछती कि तुम मुझसे आखिर चाहते क्या हो। तुम में किसी भी संभावना की तलाश ना करती, लेकिन तुम मुझ में किन संभावनाओं की तलाश कर रहे हो, यह तो पूछ ही सकती थी। 

     किंतु कहते हैं ना, सहजता से प्राप्त कोई व्यक्ति या वस्तु हमें आकर्षित नहीं करता। हमारे लिए मूल्यवान नहीं होता। यह मानव का स्वभाव है। और शायद इसी लिए मनुष्य के जीवन में पानी जीवन में नितांत आवश्यक है, किंतु उसकी कीमत सदैव हीरे से कम होती है। क्योंकि हीरा दुर्लभ है, सहजता से प्राप्त नहीं होता। 

     मैं तुम्हे अपने इस जीवन में जल की उसी बूंद की भांति जरूरी समझती थी, जिससे मैं अपनी प्यास तो बुझा सकती थी, यहां तक कि हो सकता था कि कुछ हद तक तृप्त भी हो जाती। किंतु मैं तुम्हे अपने जीवन में किसी आभूषण की तरह धारण नहीं कर सकती थी क्योंकि तुम्हें धारण करने पर मुझे किसी गौरव की अनुभूति नहीं होती। 

       तुम जो एक सामान्य व्यक्ति ठहरे, मुझे तो बेशकीमती हीरे की तलाश थी। और वह हीरा मुझे उपलब्ध कराया भी जा चुका था। इस तरह से तुम मेरे जीवन के आधार होते हुए भी मेरे लिए कीमती नहीं थी। तो फिर मैं क्यों कर कोई आकर्षण तुमसे बांध सकती थी ? 

     किंतु आज जब सोचती हूं, मैं उन पलों के बारे में, तो पता नहीं क्यूं, मन में एक हूक सी उठती है? काश ! कि वे पल, वे लम्हे फिर से मेरी जिंदगी में लौट आएं, और तब मैं भी अपनी जिंदगी जी लूं, जैसे कि उस दिन तुम जी कर चले गए थे।

    अपनी आंखें बंद कर महसूस करू कि जैसे मैंने तुम्हारा हाथ थाम रखा है, और तुम मुझे मेरी अपनी ही दुनिया में, उन्हीं सितारों की दुनिया में लेकर चले गए जहां से शायद तुम आए थे।

       हां ! सितारों की दुनिया !!
 एक ऐसी दुनिया, जहां इंसान का कोई वजूद नहीं कोई फिजिकल अस्तित्व नहीं मन में संचित कभी ना नष्ट होने वाली ऊर्जा और उसका वह वास्तविक स्वरूप, जो चिरकाल तक स्थाई, अनंत काल तक अविनाशी।

   और हां, जहां न कोई संवेदना, न कोई भावना, और न ही उनके टूटने का कोई दर्द। सब से परे, इन सब से मुक्त, जहां जीवन ही नहीं वहां जीवन के सारे झंझट भी नहीं।

   इस दुनिया के समानांतर शून्य आयाम की अपनी अलग ही दुनिया, जो किसी अनंत बिंदु पर जाकर भी एक दूसरे से न मिलती हो।

    जो इस सांसारिक दुनिया से बिल्कुल अलग हो। हां, वही सितारों की एक दुनिया।

    ना जाने किस रहस्य की तलाश में तुम भटक रहे थे मेरे इर्द-गिर्द। और न जाने तुम्हें वे रहस्य मिले भी या नहीं, कौन जाने ?

    मेरे स्थिर और संपन्न जीवन में तुम किस स्थिरता की तलाश कर रहे थे ? या फिर अपने जीवन की कुछ कमियों को मेरे साथ रहकर दूर कर लेना चाहते थे या फिर तुम्हें अपनी संवेदनाएं और भावनाओं को मुझे प्रकट करना ही था, या फिर मुझ से प्रकट करने के लिए किसी अवसर की तलाश में भटक रहे थे?

 कौन जाने क्या सच था क्या झूठ ?
मेरी तयशुदा जिंदगी में, निर्धारित जीवन शैली में तुम्हारा यू हस्तक्षेप करना मुझे मंजूर ना था। इसलिए मैं तुम्हें बार-बार खामोश रहकर आगाह करती रही कि शायद कभी तो समझ जाओ। लेकिन नहीं तुम तो अपनी ही धुन में मस्त निरंतर प्रयास करते रहे।

 मुझे कठोर बनने पर तुमने इस हद तक मजबूर कर दिया कि मैं तुम्हें उपेक्षित रखूं या कर दूं! तुमसे तटस्थ रहूं, दूर होती जाऊ।  और तुम्हारी किसी भी संवेदना या भावनाओं के प्रति उदासीन होकर तुम्हें अपनी जिंदगी से बाहर का रास्ता दिखा दूं।

 और मैंने वही किया, कहते हैं ना शब्द से अधिक खामोशियां चुभती हैं। और मेरे पास तुम्हारे लिए इससे बड़ा कोई विकल्प न था। तुम बोलते गए मैं खामोश सुनती गई और एक दिन मेरी खामोशियों का अर्थ तुम समझ गए।

 काश ! तुम इतने समझदार न होते !!!
जब मैंने लेखनी उठाई तो यह सिद्धांत मन में बना लिया था कि या तो तुम्हे आना होगा या फिर मैं खुद तुम्हें तुम्हारे सभी गुनाहों की सजा दूंगी। 

  तुम पर एक एक करके सारे इल्जाम लगाऊंगी और उन्हें साबित भी करूंगी और अंततः उसकी सजा भी खुद ही निर्धारित करूंगी।

इल्जाम साबित होते, तुम्हारे गुनाह साबित होते, तुम गुनहगार ठहराए जाते। और तब, जानते हो क्या होता ?

 मैं अपना बड़ा दिल दिखाते हुए तुम्हें क्षमा कर देती!!  हां, मैं ही तुम्हे क्षमादान देती । और इस तरह मैं तुमसे एक पायदान ऊपर उठकर एक पल में ही तुमसे बड़ा दिल रखने वाली बन जाती।

    लेकिन बस यहीं पर आकर मेरी लेखनी बंद हो जाती है। मेरे विचारों की श्रंखला टूटने लगती है। और मैं सोचती हूं . . . 

    आह! मैं ये क्या करने जा रही हूं? और क्यूं कर रही हूं ? ठीक वैसा ही बर्ताव, ठीक वैसा ही व्यवहार मैं तुम्हारे प्रति कर रही हूं, जैसा कि कभी मेरे अपनों ने मेरे लिए किया था।

   मुझे गुनहगार ठहराया और बेगुनाही का सर्टिफिकेट भी थमाया। सच इस समाज ने मुझे जो कुछ भी दिया प्रतिरूप में मैं तुम्हें देने जा रही हूं!! 

    तब सोचती हूं, हे ईश्वर ! मुझे क्षमा करना। मैं यह क्या करने जा रही थी।

हां, मैंने कभी, कहीं इसी में लिखा था कि हम एक काल्पनिक दुनिया में वास्तविक जीवन जीते रहे। अपनी कल्पना शक्ति से हमने जो संसार बनाया था, पूर्व निर्धारित और पूर्वाग्रहों से ग्रसित हम अपनी उसी काल्पनिक दुनिया के काल्पनिक पात्र बन कर उसी में रह गए।

    हां, काल्पनिक पात्र ! जो वास्तविक दुनिया में कभी आ ही ना पाए और सदा के लिए उसी की कैद में रह गए।
मृग मरीचिका सी जिंदगी, कस्तूरी मन में लिए !! उसकी तलाश में जीवन पथ पर भटकते रहे। और मैं !! तुम्हें तलाश करती रही,  तुम्हे पुकारती रही ।

आह ! तुम कहां गए  . . .

 to be continued . . .
Shailendra S.

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