Sunday, May 9, 2021

द विश 1

 - द  विश

        वह शहर छूट सा गया।  जिंदगी के रास्तें में कही दूर, कही पीछे रह गया शायद। मौसम आते हैं, आ कर चले जाते हैं, लेकिन उसकी याद है कि दिल से जाती नहीं।  न  चाहते हुए भी अक्सर वह याद आ ही जाता है, अपने पूरे वजूद और शिद्दत के साथ. जब कभी भी मेरे किसी स्टूडेंट द्वारा मेरे कमेस्ट्री पढ़ाने के अंदाज की तारीफ की जाती है. या फिर आज के इस दौर में वैलेंटाइन डे के दिन जब टीनएजर्स की दीवानगी देखती हूं

उन दिनों पापा का ट्रांसफर अक्सर होता रहता था. एक शहर से दुसरे शहर हम भटकते रहते।  इसबार अगस्त समाप्त होने वाला था लिहाजा किसी अच्छे स्कूल में एडमिशन नहीं मिला।  एक छोटे से शहर का एक छोटा-सा स्कूल और उसमे एक छोटा सा क्लास रूम. कुल 16 स्टूडेंट।  8 लड़के और 8 ही लड़किया। 

    सभी लड़के सुन्दर और स्मार्ट, उसे छोड़ कर. लड़कियां औसतन मुझे छोड़ कर। 

    मैंने उसे अक्सर बेपरवाह देखा, कौन क्या पढ़ रहा है, क्या पढ़ाया जा  रहा है, कोई मतलब नहीं। आश्चर्य की बात कि कभी किसी टीचर ने उससे न तो पुछा और न ही कुछ कहा। बेबकूफ - यही सोच कर मैंने नज़रअंदाज़ किया था। 

        मैं चौकी तब जब मंथली टेस्ट के मार्क्स घोषित हुए। मैथ्स, साइंस सब्जेक्टस में 10 आउट ऑफ़ 10 सबसे कम हिंदी-इंग्लिश में। लगता हैं जनाब को लैंग्वेज में कोई इंट्रस्ट नहीं। जिन सब्जेक्टस में  मेंरे सबसे काम थे उन्ही सब्जेक्ट्स में उसके सर्वाधिक। पूरा का पूरा साइंटिस्ट। यह तो काम का लड़का है यार!! हा, उस वक्त मैंने यही सोचा था।

     मेरा एडमिशन लेट था। काफी सिलेबस निकल चुका था, और मुझे खासकर कि मैथ्स और साइंस के सब्जेक्ट में दिक्कत महसूस हो रही थी। खासकर मैथ्स में वह तो समझ कर ही पढ़ी जा सकती है।

      यही सोच कर मैं उससे नजदीकियां बढ़ाने में जुट गई। कहते हैं प्यार कोई व्यापार नहीं, कोई शर्त नहीं होती, लेकिन इस कहानी की शुरुआत तो यहीं से होनी थी। मैंने सोची- समझी नीति के तहत अपनी एक कविता मैथ्स-नोटबुक के पिछले पन्ने में लिख दी यह सोच कर कि कभी न कभी वह पढ़ेगा। 

   धीरे-धीरे दो-तीन दिन के अंदर ही      वह कविता क्लास में में पॉपुलर होने लगी और इतनी कि एकदिन रिसेस में मैंने उसे छुप कर पढ़ते हुए अपनी नोटबुक के साथ पकड़ लिया था। 

     एकपल के लिए वह भौचक्का रह गया। दूसरे ही पल अपने को संभालते हुए मुझसे बोला - 'बहुत ही अच्छी है ___ काश मेरी भी  हिंदी इतनी अच्छी होती ___

    मैं यही तो चाहती थी। मैंने झट से उसे ऑफर दिया - ' तुम मुझे साइंस दो, मैं तुम्हे लैंग्वेज दूँगी। 

     हमारे बीच अप्रत्यक्ष रूप से यही करार हुआ था। मैं किसी खाली पीरियड में उससे मैथ के सवाल पूछती और वह उसे बखूबी मुझे समझाता। वह मुझसे काम ही बोलता था। 

    लेकिन उसके समझाने का लहजा बिलकुल टीचरो वाला था। अब मैं फायनली इम्प्रेस हो गई। एक दिन मैंने आपना  हाथ बढतें हुए कहा - थैंक्स।

    सज्जनता से किन्तु  छुई - मुई से शर्माते हुए उसने मुझसे हाथ मिलाया - ' वेलकम'. 

   उसकी इस अदा पर मैं हस पड़ी, और कुछ उपहास भरे लहजे में बोली - ' आपके हाथ तो बड़े सु - कोमल हैं जी। "

   मेरे साथ पूरी क्लास हस पड़ी। प्रतियुत्तर में उसने जो किया, उसे सोच कर आज भी मैं अपने बदन में वही सिरहन महसूस करती हूँ, जो उस वक्त मेरे हाथों से होते हुए पूरे शरीर में दौड़ गई थी। दिल की धड़कने बढ़ गई थी। 

      आज इस उम्र में भी यही एहसास दिलाती हैं कि - ' प्रेम कि अनुभूति को पूरी शिद्दत के साथ किसी भी उम्र में महसूस किया जा सकता है। "

        जानते हैं उसने क्या किया था - मेरी चंचल आखों में देखते हुए उसने मेरे हाथ को कस कर दबाया था, जैसे पूछ रहा हो - अब ? उस मीठे से दर्द को मैं आज भी महसूस कर सकती हूँ।  

    उस रात मैं ठीक से सो न सकी। टेंथ क्लास में पढ़ने वाले एक लड़के ने अपनी ही एक क्लासमेट को अपने पुरुषत्व का पहला परिचय दिया था शायद। 

   हमारे बीच नजदीकियां बढ़ने लगी वह बराबर मुझे मैथ्स के सवाल समझा था। और एक दिन मैंने उससे कहा कि मैथ्स तो आप मुझे समझा देते हैं लेकिन साइंस में जो सिलेबस छूट गया है, उसका क्या करूं? 

   उसके ठीक तीसरे दिन उसके हाथ में एक नोटबुक थी, जिसमें फिजिक्स केमिस्ट्री और बायो तीनों सब्जेक्ट के वे यूनिट डिस्क्राइब थे जो पहले की क्लासेस में पढ़ाए जा चुके थे। 

   सचमुच इन तीन दिनों में उसने बहुत मेहनत की होगी। पूरी नोटबुक भरी हुई जो थी। मैंने घर आकर जब उसे पढ़ा तो मुझे महसूस हुआ की इंपॉर्टेंट डायग्राम के साथ सभी चीजें इतनी स्पष्ट लिखी हैं कि अब मुझे किसी बुक की जरूरत ही नहीं थी।

      नोटबुक में सभी सिलेक्टेड चीजें इतनी गहराई से डिस्क्राइब की गई थी कि वास्तव में मुझे अब साइंस की बुक पढ़ने की जरूरत ही नहीं थी। उस दिन पहली बार मेरे मुख से उसके लिए जो शब्द निकला वह यह था, " जीनियस "।

    जी हां, वह इसलिए कि एक टीचर के लिए इस तरह से लिखना कोई बड़ी बात नहीं थी, आसान था। लेकिन मेरी ही क्लास के ही एक स्टूडेंट के लिए इतनी गहराई से एक-एक चैप्टर को आसान  और कम से कम शब्दों में समझाना, यह काम तो एक जीनियस ही कर सकता है।

   जब वह मेरे लिए मैथ्स के सवाल हल कर रहा होता, तो मैं उसे गौर से देखती, और मुझे लगता, जैसे कोई म्यूजिशियन किसी म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट को बजा रहा हो। प्रत्येक स्टेप का डिस्क्रिप्शन किसी मधुर गीत का आभास कराता। मैं उसके पढ़ाने के इस अंदाज में कुछ खो-सी जाती। और कुछ एक बार तो ऐसा हुआ कि मुझे उससे कहना पड़ा " वंस मोर ? प्लीज ..."

तब वह मुस्कुराकर कहता , " व्हायनॉट "

   अब मुझे समझ में आ रहा था की टीचर उससे कभी क्यों कुछ नहीं पूछते थे। कभी उसे क्यों नहीं डांटते थे। वह अपनी क्लास का टॉपर जो था। और टीचर बखूबी जानते थे कि इसके पास उनके सारे सवालों के जवाब हैं तो फिर क्या पूछना।

   ऐसा नहीं है कि वह अपनी क्लास का सबसे सीरियस पर्सनालिटी रहा हो। नहीं, बिल्कुल नहीं।

      जब वह अपने दोस्तों के साथ होता तो सब कुछ भूल कर, खुलकर हंसता, मजाक करता लेकिन उसकी भाषा में कभी भी वे शब्द नहीं होते थे जो किसी का दिल दुखा दे।

  उसका घर मेरे घर के पास ही था। एक दिन मैंने उससे कहा की यह मत समझिएगा कि मैं आपका पीछा छोड़ दूंगी। मुझे मैथ्स और साइंस आपको ही पढ़ा नहीं होगी तब वह धीरे से मुस्कुरा दिया था।  

     कभी वह  मेरे घर आता तो कभी मैं उसके घर चली जाती. कौन किसके घर आएगा इस बात का फैसला स्कूल की छुट्टी के वक्त हो जाता था।

     हमारे फैमिली मेम्बर्स भी हमारे कारण काफी घुल-मिल गए थे। हम दोनों को लेकर दोनों के पैरंट्स ने भी, कभी भी एक दूसरे को कटघरे में नहीं खड़ा किया। 

     यह वह दौर था जहां गर्लफ्रेंड या बॉयफ्रेंड की कोई अवधारणा पापुलर नहीं थी। वहां थी तो केवल दोस्ती, फ्रेंडशिप और हमारे बीच टीचरों वाला रिश्ता। तभी तो वह मुझसे हिंदी कि कुछ प्रॉब्लम बेझिझक पूछ लिया करता था।

   लेकिन उससे पढ़ना अब मेरी मजबूरी हो गई थी, किसी और की लैंग्वेज यहां तक की क्लास के टीचरों की, अब मेरी समझ से बहार होती जा रही थी।  

    धीरे-धीरे वह मेरी जिंदगी में शुमार होने लगा।  कभी मैं सोचती कि उसके न होने पर मेरी पढ़ाई का क्या होगा ? तब मैं भगवान् से एक ही दुआ मांग सकती थी - ' हे भगवान पापा का ट्रांसफर न हो '.  और सच कहूँ मैं उन दिनों बस यही एक दुआ मांगती थी।"

    अक्सर मुझे उसमे एक विशिष्ट इंसान दिखाई देता।  शालीन सभ्य और अपने काम के प्रति प्रोफेशनल।

    हमने दशवी पास की, ग्यारहवीं पहुंचे। मैंने बायो लिया और उसने मैथ्स। स्कूल छोटी थी इसलिए  मैथ्स और बायो के लेक्चर अलग होते, बाकी सभी सब्जेक्ट की क्लास एकसाथ होती।

    मैंने महसूस किया कि सभी लड़के - लड़किओं की एक दूसरे के साथ जोड़ी बनने लगी थी। जैसे इस लड़के की उस लड़की के साथ, उसकी इसके साथ -------- एक्ससेट्रा - 

        अब मेरे सामने एक ही यक्ष प्रश्न था - ' उसकी किसके साथ ' ?

    विश्वसूत्रों से जब मालूम पड़ा तो मैं हैरान थी। एक क्लास जूनियर।  गोरी चिट्टी सुन्दर, लेकिन मुझसे अधिक नहीं। पढ़ने में एकदम फिसड्डी, जैसा कि मैं नहीं। 

    हे भगवान ! सोचा कुछ बात करू उससे। कहां वह और कहा यह लड़की ! मुझे उस लड़की से कोई द्वेष या जलन नहीं थी, मुझे तो उस पर तरस आ रहा था।

     लेकिन फिर भी मैं  चुप रह गई। उसकी जिंदगी, उसके अपने फैसलें , मेरा क्या ? लेकिन उसे लेकर हमारे संबंधो में कोई फर्क नहीं आया था। 

    वह अपने घर में इकलौता था और मेरे साथ मेरी एक बड़ी बहन। दीदी को मुझसे कोई खास मतलब नहीं रहता था। देखते ही देखते दो साल गुजर गए हम इलेवेंथ से टवेल्थ पहुंचे। 

     अब वह अकसर मेरे घर आता। हम साथ-साथ ही पढ़ते। एकदिन मैंने अपनी दीदी से उसकी जम कर तारीफें की। उसके शालीन, सभ्य और न जाने कितने विशिष्ट गुणों की तारीफों के पुल बांधें। दुसरे ही दिन दीदी मुझे छत पर ले जाकर बोलीं - ' देख तेरा विशिष्ट कितना सामान्य है '. 

    मैंने देखा कि मेरे घर के पीछे कुछ दूर जो एक मैदान था, वहां कुछ लड़के गोल घेरा बना कर बैठे सिगरेट फूक रहे थें, उनमे से एक वह भी था। पता नहीं क्यूँ उसका इस तरह सामान्य सा हो कर बेबाकी से सिगरेट पीना मुझे अच्छा लगा था। 

        उस दिन संडे था।  वह शाम के वक्त आया तो मैंने मजाक किया - ' टीचर जी! आज तो संडे है ? '

  ' जनता हूँ ' - उसने भी हस कर जवाब दिया - ' मैं तो चाय पीने आया हूं बस ... '।

     पापा - मम्मी बाजार जाने की तैयारी कर रहे थे। बैठक में दीदी आई। नमस्ते की औपचारिकता के बाद दीदी ने मुझसे पूछा - ' तू नहीं चलेगी ?' 

    मैंने इंकार में सर हिला दिया - ' नही '. 

' नहीं आप जाइये --- मैं फिर कभी ' - वह जाने के लिए उठते हुए बोला था। तब मैंने उसके कंधे को पुश करके वापस सोफे पर बैठा दिया था - ' आप कहीं नहीं जा रहें , चुप-चाप बैठे रहिये।' 

     वह असमंजस में था। लेकिन जिस तरह मैं ने उसे बलपूर्वक पूरे अधिकार के साथ सोफे पर बैठाया था, वह उठ न सका। 

    अपनत्व , आग्रह और अधिकार ! अपनत्व से परिपूर्ण आग्रह में वह शक्ति होती है जो हमें अधिकार देती है, और वह ... उसी अधिकार को नकार न सका, .... चुप-चाप बैठा रहा। 

        अलबत्ता जाते वक्त दीदी ने मुस्कुराकर दोनों की तरफ देखतें हुए कटाक्ष किया था - ' देखो कमेस्ट्री पढ़ना जरूर, लेकिन घर को लैब न बना देना!'  

     बातें जिस अंदाज में जिस मासूमियत से उसने सुनी मुझे नहीं लगता कि वह उनके इस कटाक्ष को या मजाक को समझ पा रहा था। आखिर कर उसने पूछ ही लिया - ' दीदी क्या कह गईं ? ' 

       " बुद्धू कही के" 

हां मैंने मन ही मन यही सोचा था, लेकिन प्रत्यक्षतः बोली - ' कुछ नहीं  ,  आप बैठिये, मैं चाय बनती हूं ' 

     मैं किचन में चाय बना रही थी।  वह बैठक में एक मैगजीन पढ़ रहा था जिसे मैंने कुछ दिनों पहले ही पढ़ा था। जब मैं चाय की ट्रे लेकर पहुंची तो उसे हसते हुए पाया। बड़ी बेतुकी और बेढंगी हंसी थी उसकी। 

    मैंने उससे पूछा,  "बड़ी हसी आ रही है आज, क्या बात है ? "

     उसने मैगजीन मेरी तरफ बढ़ा दी। आर्टिकल का टाइटल था - ' सूरत या सीरत ' 

     "तो, इसमें हसने की क्या बात है ? जाहिर है - सीरत, राइटर का भी तो यही कहना है ! "

     उसकी हसी दोगुनी हो गई। फिर कुछ देर बाद खुद ही चुप हो गया।  - ' सारी , क्या करू, मुझे हसी आ ही जाती है, जब कोई अव्यावहारिक बात करता है।' - 

     उस दिन मन में आया कि पूछ लूं - ' और आप ! आप भी तो गोरी चमड़ी पे मरते हो, नहीं तो उस लड़की में ... ' - लेकिन प्रत्यक्षतः कुछ नहीं पूछा।  बस उसे अजीब सी नज़रों से देखती रही।

        हम दोनों ने चाय पी।  वह जाने के लिए उठा था। 

-- ' नहीं, आप नहीं जा सकते ! मैं घर में अकेली हूँ।"

    तब उसने जीवन में पहली बार मुझसे मजाक किया था, " तो क्या हुआ कौन सा आप को शेर उठा ले जाएगा ?"

     उसके इस मजाक का मुझे कोई जवाब नहीं सूझा था, और मैंने झट से कह दिया था कि मुझे केमिस्ट्री पढ़नी है, अब तो रुकेंगे ना ?

   और इस तरह से अब हम दोनों के बीच कमेस्ट्री की बुक थी। मैं उसके बगल में बैठी थी या यूं कहिए हम दोनों एक दूसरे के बगल में बैठे थे एक ही सोफे में।

      सितम्बर की उमस भरी गर्मियों के दिन थे। फैन फुल स्पीड में चल रहा था। उन दिनों मैं घर में मैं अक्सर टू - पीस पहनती थी, उस दिन भी वही पहन रखा था। पता नहीं कब मेरी स्कर्ट उड़ कर घुटने से कुछ ऊपर सरक गई, और मैं ध्यान नहीं दे पाई थी। 

      उसने देखा होगा शायद, तभी तो वह मुझसे नजरें चुराने लगा था। मुझे पढ़ा भी रहा होता तो मेरी तरफ कम ही देखता। जब मैंने उसकी नजर का पीछा किया तो बात समझ  में आई। उसकी नजर बार-बार वहीं जा रही थी। वह असहज असामान्य होने लगा। 

      मुझे मन ही मन हसी आ रही थी। उसके इस तरह असहज और असमान्य होने की अवस्था उसके सामान्य इंसान होने की गवाही दे रहे थे। 

      न तो उसने मुझे टोका और न ही मैं ने उसे अहसाह होने दिया की मैं सब जान गई हूँ। वह अपनी उसी अवस्था से जूझ  रहा था और मैं उसे देख कर मजे ले रही थी। 

     आज सोचती हूं क्या मैं उस समय उसके अंदर कोई उत्तेजना लाना चाहती थी, या फिर मैं उसे परख रही थी। न, ऐसी कोई बात नहीं थी। मैं तो सिर्फ उसके असमान्य और असहज होने का लुफ्त ले रही थी।

      एक पल को यह भी मन में ख्याल आया कहीं वह मुझे गलत एड्रेस ना करें। लेकिन पता नहीं क्यों मुझे उस पर पूरा विश्वास था कि वह नहीं करेगा। वह इस बात को समझेगा कि मैं बस उसे परेशान कर रही हूं, या फिर मैं इस बात से अनजान हूं, इसके सिवा कुछ नहीं।

    कुछ देर बाद वह किसी काम का बहाना कर चुप - चाप जाने के लिए उठा। इस बार मैं उसे रोक भी न पाई। जाते समय मैं उसे गेट पर छोड़ने आई लेकिन वह कुछ नहीं बोला, एक शब्द भी नहीं।  साहस ही नहीं हुआ कि मैं उससे कुछ कहूं। और कहती भी तो क्या कहती।

      जब वह चला गया तो मुझे एहसास हुआ - ' हे भगवन ! मुझसे ये क्या हो गया ?'

    मेरे चेहरे की सारी रौनक पल भर में चली गई। शर्द - सफेद चेहरा लिए अपराधबोध से ग्रस्त मैं उसी तरह बैठी रह गई। सभी मार्किट से लौट आये तब भी मैं उसी तरह बैठी रही। मम्मी ने पुछा - ' कब गया ?' 

मैंने बेजान सा उत्तर दिया -   ' चला  गया '

कभी-कभी हमारे मुख से वे शब्द अनयास ही अनजाने में निकल जाते हैं , जो हमारी डेस्टनी हो जाते हैं। 

   मम्मी ने पुछा था - कब गया ?

   मैंने जवाब दिया - ' चला गया ' . 

   सवाल का मेरे जवाब से कोई तुक नहीं. 

क्या यही होने जा रहा था। पता नहीं !

        उस दिन लगा मैं अचानक बहुत बड़ी हो गई हूँ ! बिलकुल मेचोर्ड , परिपक़्व। मन की सारी  चंचलता गायब हो गई।  अपने इस व्यवहार से मैं खुद आहात हुई थी. रोने का मन किया तो अपने स्टडी रूम में जा कर जीभर सुबक-सुबक कर रोई। 

     उस रात कुछ करने का मन न किया। डिनर भी नहीं, अपने बैडरूम में आ चुप-चाप बिस्तर में लेट गई। सूनी-सूनी नजरों से चलते सीलिंग फैन को देखती रही। उसका चेहरा मेरी नजरों के सामने बार बार आता। क्लासमेट होने के बावजूद वह हमेशा "आप " ही संबोधित करता। और इसी कारण से मैं चाह कर भी उसे तुम नहीं कह पाती थी एक दिन मैंने उसे टोका था।

    "आप मुझे "आप" क्यों कहते हैं, मैं तो आपकी क्लासमेट हूं न, तो "तुम" कहां कीजिए"।

     तब वह धीरे से मुस्कुरा कर मेरी तरफ देखते हुए बोला था, "मैं आपकी बहुत इज्जत करता हूं।"

तो क्या आज मैंने उसकी नजरों में अपनी इज्जत खो दी। हे भगवान इससे अच्छा तो यह होता कि वह मुझे टोक ही देता, या अपने हाथ आगे बढ़ाकर मेरी अध-खुली टांगों को ढक देता। 

     कहते हैं नारी का स्वभाव होता है कि वह अपना तिरस्कार सहन नहीं कर सकती। लेकिन नहीं, यहां यह बात बिल्कुल नहीं थी। मैंने उसकी नजरों में अपनी स्थापित छवि को धूमिल किया था, बात यह भी नहीं थी। बात सिर्फ इतनी थी कि मैंने उसे दुख दिया था, उसे दुखी किया था। 

     और यकीनन मैं पूरी रात सिर्फ इसी बात पर रोती रही। कई बार मन किया कि उठकर केमिस्ट्री की इस किताब को चिथड़े चिथड़े कर फाड़ कर फेंक दूं,  जिसे मैंने उसे रोकने का बहाना बनाया था। मेरा शरीर मेरा दिमाग जब थक सा गया तो मैं सो गई।

कब तक सोई , पता  नहीं !

    जब उठी तो तेज बुखार था। बेड से उतरने की कोशिश की तो पैर कांप गए ,  सर में तेज दर्द हो रहा था , पूरा शरीर टूट रहा था। मैं बीमार घोषित कर दी गई। दो दिन गुजर गए। इन दो दिनों वह बराबर आया था। मेरा हाल - चाल  मम्मी से पूछ  कर चला जाता। वह तीसरा दिन था जब उसने मुझसे मिलने की बाकायदा मेरी मम्मी से इजाजत ली - ' आंटीजी ! मैं मिल सकता हूँ ? '

        दरवाजे पर आहट हुई कि मैंने अपना चेहरा दूसरी तरफ फेर लिया। कैसे नजर मिलाऊँगी उससे, यही सोच कर आखें भी मूँद लीं। वह धीरे से मेरे पास मेरे बेड में ही बैठ गया। - ' अब कैसी हैं आप ? ' 

     जवाब की प्रतीक्षा किये बिना ही उसने अपना हाथ मेरे माथे पर धीरे से रख दिया, जैसे वह मेरा डॉक्टर हो और मैं उसकी पेसेंट।  मैंने धीरे से अपना  चेहरा उसकी तरफ किया। अपनी आखें खोली, अब वह मेरी नजर के सामने था।  

     उसका चेहरा ठीक मेरे चेहरे के सामने और उसकी पीठ मेरे पांव की तरफ। उस दिन मैंने उसे जी भरकर देखा।  मेरी नज़रों में क्या था ? हाँ , आप ही से पूछती हूँ क्या रहा होगा ? मैंने उस दिन उसे किन नजरों से देखा होगा ? 

    एक दोस्त , एक रहबर जिसे मेरी परवाह थी ? मेरी आखें भर आने को थी , मैंने फिर से आखें बंद कर ली। आँसू लुढ़क आये।  भरे गले से कहा - ' सॉरी '

    मेरे माथे पर रखे उसके हाथ काँप गए। उसके हाथों  के कम्पन को महसूस किया था मैंने। 

    अनजान बनते हुए उसने पुछा था - ' सॉरी ! लेकिन किस बात के लिए ?'

        मैं  मौन रही. और मेरा चुप रहना, उससे चीख - चीख कर कह रहा था - ' सब समझ कर अनजान बनते हो ___ जैसे  कि उस दिन मैं अनजान बनी रही !'

   उसने पूछा था, " दवाई ली ?"

 और मैंने कहा था, " हां पिछले तीन दिनों से वही तो खा रही हूं। और यह बताइए मैं तीन दिनों से बीमार पड़ी हूं, और मुझे देखने का आज मन किया।"

  "नहीं ऐसी बात नहीं है, मैं आता तो था"

    "हां जानती हूं, आते और बाहर से ही पूछ कर चले भी जाते थे "

तब वह धीरे से मुस्कुराया था और बोला,

  "मुझे आपकी केमेस्ट्री पर पूरा भरोसा था। मुझे लगा दवाई खायेगी और बस ठीक हो जाएंगी। क्या मालूम था कि इतने दिनों तक बीमार ही रहेंगी ?"

तब मैं भी थोड़ा सा मुस्कुरा ही थी, 

"हां मेरी केमेस्ट्री, जैसे आपकी तो कुछ हो ही न ?"

तभी मेरी मम्मी कमरे में दाखिल हुई और उन्होंने उससे कहा था, 

    " बेटा यह दवाई टाइम से नहीं खाती। उसे समझाओ, कैसे ठीक होगी। अब देखो एक घंटे पहले खा लेनी चाहिए लेकिन अभी तक नहीं खाई है इसने"

वह मेरी तरफ देख कर मुस्कुराया था जैसे पूछ रहा हो, "अब बताइए ?" 

    फिर मुझसे कोई बात किए बिना उसने डॉक्टर की पर्ची उठाई और उसी के मुताबिक मुझे टेबलेट निकाल कर देने लगा। उस वक्त मुझे लगा कि जैसे मेरे लिए सारे रिश्ते उसी में सिमट के रह गए हो। 

    वह अपनी बातों से मुझे बहलाता रहा, मुझे चुटकुले सुनाता रहा। मुझे हंसाने की भरपूर कोशिश करता रहा। हां सच, उस शाम हमारे बीच केमिस्ट्री की कोई किताब नहीं थी, लेकिन हमारे बीच जबरदस्त केमिस्ट्री थी जिसे हम जी रहे थे।

     जाते वक्त दरवाजे से पलट कर वह मुस्कुराते हुए बोला था - ' हटा दीजिये सब कुछ मन से ! अपनी कमेस्ट्री में भरोसा रखिये, जल्द ही अच्छी हो जाएँगी  '

        आज सोचती हूँ - ' हम बुद्धजीवी जिसे आज टीनेजर का प्यार कह उसका उपहास उड़ातें हैं , शरीर के प्रति आकर्षण, सेक्स के प्रति जिज्ञासा, अट्रैक्शन और भी न जाने किन-किन शब्दों से तुलना करते हैं ! उन चार दिनों में जो कुछ भी गुजर गया, वह क्या था ? आपको नहीं लगता इसके सामने हमारी सारी दलीलें हमारी सारी समझदारिया, हां सब कुछ व्यर्थ है। 

    मुझे कुछ दिन लगे ठीक होने में।  हम और बड़े हो रहे थे। कालेज पहुंचे। एक वही कॉमन सब्जेक्ट हम दोनों के बीच अभी भी था - कमेस्ट्री। 

    शायद इसीलिए टीचर - स्टूडेंट के बीच का वह रिश्ता भी कायम रहा था। अब हम फाइनल ईयर में थे। दीदी की शादी के बाद मेरी शादी की बातें होने लगी थी। सभ्य , सुशील , समझदार, ऊँचे कमाऊ पूत की तलाश होने लगी। 

     मेरी मम्मी उसकी माँ से सबकुछ बड़ी बारीकी से बताती। जाहिर सी बात है उसकी माँ उससे भी कहती होगी।

     मैं इंतजार करती कि कभी तो वह कुछ पूछे। मुझसे कुछ कहे। लेकिन नहीं, उसने मुझसे कुछ नहीं पुछा। एकदिन जब उसकी माँ मेरे घर आईं तब मैं भागकर उसके घर पहुंची। वह स्टडी रूम में पढता हुआ मिला। मैंने खुश होने का अभिनय करते हुए कहा - 'मेरी शादी होने वाली है '

   वह मुस्कुराया था - ' तभी तो आप इतनी खुश हैं '

- ' क्या आप नहीं है ? '

- ' ये लिसन, शादी आपकी हो रही है , मेरी नहीं ? '

- ' मतलब ये कि आप खुश नहीं हैं ? '

वह हड़बड़ा गया - ' नहीं ... मेरा मतलब है ... कि मैं भी खुश हूँ, लेकिन उतना नहीं... जितना की आप। आपकी तो शादी होने वाली है न !! तो आपको मुझसे अधिक खुश होना चाहिए, है न ? '

    मैं जानती थी कि वह मेरा गुरू हैं बातों में मैं उससे जीत नहीं सकती। उस दिन मैं उससे बहुत कुछ पूछना चाहती थी बहुत कुछ कहना चाहती थी लेकिन वह मेरी हर बात को मजाक में ले रहा था या यूं कहूं मुझे कुछ पूछने का या कुछ कहने का मौका ही नहीं दे रहा था। मैं खीझ गई, और अंत में कुछ देर इधर-उधर की बातें कर मैं वापस आ गई। 

        ग्रेजुएशन का अंतिम पेपर - ' कमेस्ट्री सेकंड ' . २ से ५ का अंतिम शो।  गर्मिओं  की शाम ढलने को थी। हमारी परछाईया हमारे ही कद से  लम्बी हो चली थीं। एन्सर शीट जमा कर हम कालेज के गार्डन में मिले। वही से बहार निकलने का शॉर्टकट रास्ता था. उसने पुछा - ' पेपर कैसा गया ? '

- ' अच्छा गया , चलो मुक्ति मिली '

- ' हां वो है , कमेस्ट्री से भी और ___ और  मुझसे भी ' - उसने मुस्कुराते हुए कहा। 

- ' अब आप क्या करेंगे , मैथ्स से पी. जी.? 

- ' हा , और आप ? 

- ' मैं ? शादी में पी-एच. डी ' - 

    वह हँसा था। तो क्या शादी करने का इरादा कर ही लिया, मेरा मतलब कि .....

मैंने उसे बीच में ही टोंका, " और नही तो क्या , मैंने तो रिश्ते को हां भी कह दिया ....

कब ... ?

" अरे, क्या आपको आपकी मां ने नहीं बताया ? जिस दिन मैं आपके घर से वापस लौटी थी शायद उसी के दूसरे दिन। मैंने सोचा आप की मां ने आपको जरूर बताया होगा ...!!

  "नहीं ...." वह खोए खोए से स्वर में बोल रहा था, 

   "मां ने बताया जरूर था की शादी की बात चल रही है, लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि कंफर्म हो गई है। आपने रिश्ते के लिए हां कह दिया है ऐसा तो कुछ नहीं बताया था उन्होंने।"

"अच्छा ! मैं समझी  ....

" अब छोड़िए, हटाइएं, जाने दीजिए, मेरी तरफ से शुभकामनाएं .... 

   मैं चुप रही, कुछ देर बाद मैंने उससे  पुछा - ' आप ने पांच सालों तक मुझे पढ़ाया , मेरे टीचर रहें। बदले में मैंने आपको कुछ  दिया नहीं। और न आपने कुछ माँगा ही ! कितना अजीब है ___ है न ?

    वह कुछ अनमने भाव से बोला - 'दिया न ___ हिन्दी पढ़ाई तो !

    फिर वह ठहर सा गया। दो कदम आगें चलने के बाद मैं भी रुक गई। उसकी तरफ पलटी, उसे देखते हुए पूछ ही लिया - ' क्या हुआ , आप  रुक क्यूँ गए ?'

   वह अपलक मेरी तरफ बस देखे जा रहा था। मैं डर-सी गई - ' क्या हुआ ... कुछ तो बोलिये ?'

   मेरी आखो में देखते हुए उसने कहा - ' मुझसे प्यार कर लो '

- ' क्या !!! मैं चौक गई। अनयास अप्रत्याशित घटित हुआ।  मेरी कल्पना  से परे। 

    वह विश्वास भरे दो कदम आगे बढ़ा , ठीक मेरे सामने - ' हाँ , मुझसे प्यार कर लो '

    इसबार मैंने उसकी आखों की नमी , आवाज का कम्पन पूरी शिद्दत से महसूस किया। 

     मैं हैरान-परेशान उससे इतना ही पूछ पाई - ' तो स्कूल वाली लड़की का क्या ....

    और उसने मुझे जो कुछ भी बतया उसे सुन मैं दंग थी।  

        उसका नाम उस लड़की के साथ उसके दोस्तों ने यूँ ही जोड़ा था। सारी विशिष्टता होने के बावज़ूद वह किसी लड़की की पसंद नहीं बन पाया था। स्कूल-डेज में सभी की किसी न किसी के साथ जोड़ी बानी थी, तो उसके  दोस्तों ने मजाक ही मजाक में उसका भी नाम उस लड़की के साथ जोड़ दिया था। कोई और होता तो मैं विश्वास न करती, लेकिन यहाँ तो वह था।  कैसे न करती ?

    और मुझ से ? जो आज कह रहा है वह पहले भी तो बोल सकता था। कह सकता था मुझे। किसी भी बहाने जता सकता था। क्यों नहीं किया उसने। उसकी मैथ्स मजबूत थी शायद इसलिए।

    सारे गुणा - भाग, प्लस - माइनस करने के बाद मेरे लिए खुद को कमतर महसूस किया होगा। शायद इसीलिए उसके मन में मेरे लिए लाख फीलिंग्स रही हो, बावज़ूद उसने मुझसे कभी कुछ नहीं कहा। मैगजीन के उस आर्टिकल पर उस दिन उसका यूँ बेबाक हसना मुझे आज समझ आ रहा था।  

तो फिर आज क्यूं ? 

    मैं मेन गेट को पर कर सड़क पर आ गई।  वह मेरे पास ही  खड़ा था।  धीरे से पुछा - ' घर जाओगी ' ?

मैंने हाँ में सर हिलाया था। उसने एक रिक्से को रोका - बैठो।

मैं रिक्से में बैठ गई। मैंने एक तरफ खिसकते हुए उससे कहा - ' तुम भी आओ , साथ  चलतें हैं। '

मुस्कुराने की कोशिश करते हुए उसने कहा - ' नहीं, तुम चलो --- मुझे कुछ काम है , मैं बाद में आ जाऊँगा '

        रिक्शा चल पड़ा। समय के प्रत्येक अंतराल  के साथ - साथ हम दोनों  के बीच की दूरियां बढ़ती जा रही थीं। मेरे कानों में उसके वही शब्द गूँज रहें थें - मुझसे प्यार कर लो ' 

        मैंने पलट कर देखा।  वह वहीँ खड़ा था, गुमसुम मुझे जाते हुए बस देख रहा था।  तभी मेरे दिमाक में एक धमाका सा हुआ। शिष्ट, सभ्य और आदर परिचायक शब्द 'आप' अचानक ही  ' तुम' में बदल गया था। जो इतने वर्षों में कभी न हुआ, वह एक पल में गुजर गया। 

        जिसे अपना आदर्श माना, एक विशिष्ट माना, वही दयनीय भाव से एक याचक की भाति मुझसे प्रेम की याचना कर रहा था।  कह रहा था - मुझसे प्यार कर  लो'. उसे तो यह कहना चाहिये था - ' मैं तुमसे प्यार करता हूँ' . लेकिन उसने नहीं कहा। 

घर पहुंची तो मां ने बताया कि सगाई की रस्म पूरी करने के लिए कल आयेंगे। दूसरी सुबह जब मैं उसके घर पहुंची तो उसकी मां ने मुझे बताया कि वह कुछ दिनों के लिए इस शहर से दूर अपने दोस्त के यहां चला गया है। उसकी मां ने यह भी बताया कि जब वह कल वापस लौटा था तो उन्होंने उसे बताया कि मेरी सगाई वाले कल आ रहे हैं, फिर भी वह नहीं रुका।

मेरी सगाई की रस्म पूरी हुई, मैं इंगेज्ड हो गई।

   आज कटघरे में खुद को ही खड़ा पाती हूँ।  शायद उसे हिंदी सही ढंग से पढ़ा न पाई। शब्दों को देखा उसकी भावना को न समझा। क्या हुआ यदि उसने कहा कि मैं उससे प्यार कर लू। मतलब तो यही था न कि वह मुझसे प्यार करता है।  

        और शायद, उसने मुझसे भी यही उम्मीद की रही हो। उस दिन कोई उत्तर न देकर मैंने उसके उसी उम्मीद को तोडा था। उसकी सजल आखों में प्रेम के लिए अद्वितीय और अदम्य प्यास क्यूँ न दिखाई दी. 

     कुछ दिनों बाद वह वापस आ गया था, लेकिन मुझसे मिलने वह मेरे घर नहीं आया।

   जैसा कि मैंने पहले लिखा था - पापा का ट्रांसफर अक्सर होता रहता था। इस बार पूरे पांच साल बाद अचानक  ही सही, लेकिन हुआ।  मेरी सगाई तो हो ही चुकी थी। दो दिन में ही दूसरे शहर शिफ्ट होना था। घर का सामान पहले से जा चुका था। हम लोगों की पूरी पैकिंग हो चुकी थी.

   आज की शाम , आज की रात इस शहर की आखरी होगी. उसकी माँ तो स्वयं आकर हम लोगों को विदाई दे चुकी थीं।  वह नहीं आया था।  उसकी माँ ने बताया कि उसकी तबियत ठीक नहीं है।

    सच कहती हूं मैं उसके घर नहीं जाना चाहती थी, और नहीं जाती। यदि यह मालूम न पड़ा होता कि उसकी तबीयत ठीक नहीं है, तो कभी नहीं जाती।  मुझे वह एक-एक लम्हे याद आ रहे थे जब मैं बीमार थी और वह बराबर मेरे घर आकर मेरी मां से मेरे हालचाल लेता रहा था। हां मुझे एक एक लम्हे याद आ रहे थे कि किस तरह उसने मेरे माथे पर अपना हाथ रख कर मेरा टेंपरेचर देखा था, किस तरह से उसने मुझे दवाइयां खिलाई थी किस तरह से उसने मुझको चुटकुले सुनाए थे, किस तरह से वह मुझे हंसाने की कोशिश करता रहा। अपने व्यक्तित्व से विपरीत वे पल वह मेरे लिए जीता रहा।

     उस वक्त वह मेरे साथ था, जब मैं एक अपराध बोध से ग्रस्त थी। खुद को गिल्ट महसूस कर रही थी। तो फिर मैं उसे आज क्यों अकेला छोड़ रही हूं ?

    मैं जब उसके घर पहुंची तो रात के आठ बज चुके थे।  उसकी माँ ने बताया कि वह अपने  स्टडी रूम  में है. मैंने देखा कि वह  स्टडीरूम में सर टेबल पे रखे कुर्सी में बैठा था। यही था उसका स्टडी प्लस बैडरूम। मैं उसके पास गई। उसके बेहद करीब __ सटकर पास खड़ी हो गई। सर पे हाथ रखा - ' अरे !!__ तुम्हे तो बुखार है ! दवाई ली ? 

- नहीं 

- क्यूँ , क्या  तुम्हे मेरी कमेस्ट्री पर भरोसा नहीं रहा ?

    उसने सर उठाया, मेरी तरफ मासूमियत से देखते हुए पुछा - ' ऐसे क्यूँ कह रही हो,  क्या उस दिन का बदला ले रही हो ?'

- ' नहीं , बस ऐसे ही पूछ लिया था।  पापा का ट्रान्सफर हो गया है ___ हम लोग कल जा __

- ' जनता हूँ ____' -  उसने कहा था। 

......to be continuing Part 2

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अजनबी - 2

अजनबी (पार्ट 2)       पांच साल बाद मेरी सत्य से ये दूसरी मुलाकात थी। पहले भी मैंने पीहू को उसके साथ देखा था और आज भी देख रहा हूं...