आकाश लौट कर आए तो चेहरे पर परेशानी चिंता की लकीरें थी। चेहरा देखकर ही मैं कई आशंकाओं से घिर गई। ---- ' क्या हुआ सब ठीक तो है ' ?
---- हूँ ----- मुंह लटकाए जवाब मिला था। स्वर में कुछ निराशा थी, मैं आश्चर्यचकित।
' तो फिर आप इतने परेशान क्यों हैं ? '
कुछ नहीं बस ऐसे ही। दूसरे दिन खबर मिली कि उन्हें फिर से दौरा पड़ा है, यह दूसरा अटैक था। हॉस्पिटल में एडमिट करना पड़ा। मैंने कहा - ' आपको जाना चाहिए ' ?
इस बार जब वे लौटकर आए तो चेहरा तनावमुक्त था। मैंने सोचा लगता है सब ठीक है। जब मैंने पूछा तो आशा के विपरीत उन्होंने कहा - 'बचना मुश्किल है, तुम्हें बुलाया है'
सुनकर मैं चौंक पड़ी। उनके चेहरे से, उनके भाव से ऐसा तो कुछ भी नहीं लग रहा है।
जब मैं हॉस्पिटल पहुंची तो वह लगभग अंतिम सांसे ले रही थीं . मासूम चेहरा जो 45 वर्ष की अवस्था में भी दिए की लौ की तरह चमकता था, सूखकर कांटा हो गया था. बड़ी दीन - हीन और लाचार लग रही थी वे।
उनकी हालत देखकर आंखें भर आई। मुझसे एकांत में बातें करने की इच्छा जाहिर की। सभी कमरे से बाहर चले गए, यह तक कि आकाश भी। केवल मैं थी. वे मुझसे कुछ कह रही थीं। आस्फुटित शब्द ही निकले थे।
' निकी ! --- इस जीवन का कहा-सुना माफ करना _____ और देख वह डायरी आकाश के हाथ न लगे। उसे जला देना____
नहीं __ नहीं __ मैं ___ आपको कुछ नही होगा ---- ' मैं रोने लगी।
--- ' अरे पगली रोते नहीं, --- पिताजी की सारी संपत्ति तेरे नाम लिख दी है, उसे स्वीकार करना ' - अब उनका हाथ मेरे सिर पर था।
उस दिन ! दुनिया वैलेंटाइन-डे के रंग में डूबी थी। लाल सुर्ख गुलाब प्रेमिकाओं के सुंदर केशों की शोभा बढ़ा रहे थे। प्रेम का पहला इजहार उनकी अंतरात्मा तक को महका रहा था ___ ठीक उसी दिन सरकारी अस्पताल के प्राइवेट वार्ड में दुनिया से दूर लेकिन अपने अधूरे अरमानों के साथ, उन्होंने अंतिम साँसे ली , मेरी ही बाहों में दम तोड़ा था। मृत्यु से कुछ पल पूर्व उनका चेहरा पुनः जगमगा उठा, जैसे दिए की लौ। अपनी मृत्यु से पूर्णतः संतुष्ट जैसे कोई गिला शिकवा नहीं।
काश उसदिन उन्होंने कहने का मौका तो दिया होता ---- काश मैं उनसे कह पाती जो कुछ मेरा है वह सब, ........ यहाँ तक कि आकाश भी . . . सब उनका है।
मैं बाहर आ गई। सबसे पहले आकाश ने ही आतुरता से पूछा - ' क्या हुआ ?'
मैं पुनः रो पड़ी। देखा आकाश के चेहरे पर वही शांति, वही स्थिरता है।
उनके परिवार में कोई शेष नहीं था। जो कुछ भी थे ___ हम लोग ही थे। अंतिम संस्कार कौन करें ? तब मैंने कहा - ' आकाश ! आपको ही करना चाहिए, आखिर वह आपकी दोस्त थीं।
आकाश से जब मेरी शादी हुई तो उन्हें आकाश के आसपास ही पाया था। वह आकाश कि हम उम्र थी लोगों से सुना भी था कि वह उनकी सबसे अच्छी दोस्त है। बड़े बाप की एकलौती बेटी !! मेरी ससुराल से कुछ ही दुरी पर उनकी शानदार कोठी थी। कोठी के सामने ही बड़ा लान , नौकर - चाकर, गाड़ी - मोटर , सभी सुख सुविधाओं से संपन्न। बाद में पता चला दोनों कॉलेज में एक साथ ही पड़े थे। ग्रेजुएशन के बाद आकाश ने सर्विस कर ली और वे पढ़ने के लिए शहर से बाहर चली गई।
जैसा कि होता है कोई पत्नी अपने पति के साथ किसी और लड़की का नाम सहन नहीं कर सकती , फिर चाहे वे कितने ही अच्छे दोस्त ही क्यों ना हो। मैं भी कई शंकाओं से गिरती चली गई। क्या चक्कर है इनके बीच ? केवल दोस्त या कुछ और भी ?
मेरी शादी को 5 वर्ष गुजर गए एक बेटा और उसके पीछे एक बेटी का जन्म हुआ उसी की सालगिरह पर जब वे मेरे घर आई तो मैंने पूछा - ' आपके दोस्त ने तो शादी कर ली, दो - दो बच्चों के पिता भी बन गए, आपका क्या इरादा है ?'
वह थोड़ा सा मुस्कुराई फिर बड़ी सहजता से बोली - ' शादी-ब्याह संजोग की बात होती है '
मेरी समस्त शंकाओं के आधार पुख्ता हुए, जरूर कोई न कोई बात है . एक वर्ष बाद जब उनके पिता का देहांत हुआ तो उनके विवाह की प्रत्येक संभावना खत्म होती नजर आई। आकाश अभी भी कोठी आते-जाते रहते थे। एक ऐसी ही शाम थी जब आकाश काफी देर बाद भी ना लौटे तो मैंने स्वयं कोठी जाने का फैसला लिया था।
दरवाजा उन्होंने ही खोला था - 'अरे तुम !! यहां कैसे !!! अंदर आओ न '
मैंने कुछ तल्ख लहजे में ही पूछा - 'आकाश यहां आए थे ? अभी तक घर नहीं लौटे ---
क्या ? ' - वे भी चौक पड़ी थी - ' यहां से तो काफी देर पहले ही चला गया ------ कहां गया होगा ---- ?
मैंने आकाश का बचाव करना चाहा - ' हो सकता है कहीं और चले गए हो, अच्छा मैं चलती हूं __
- " अरे ! ऐसे कैसे ? पहली बार हमारे यहां आई हो " - उन्होंने मेरा हाथ पकड़ कर अंदर खींच लिया। उन्ही से पता चला कि उनकी एक छोटी बहन भी थी. १०-११ साल की अवस्था में एक हादसे में उसका देहांत हो गया था। नाम था -- निक्की। उस दिन मेरे न चाहने पर भी उन्होंने मुझे अपनी छोटी बहन मान लिया। निक्की नाम दे दिया।
फिर उस कोठी में मेरा आना जाना लगा रहा. मन में एक ही लालच था, कभी ना कभी कोई ना कोई मौका तो मिलेगा वैसे भी झूठ की उम्र लंबी नहीं होती।
लेकिन 25 वर्ष गुजर गए मुझे कोई मौका न मिला। मेरे शंकाएं आधारहीन साबित हुई थी। तहे दिल से मैंने भी उन्हें अपनी बड़ी बहन मान लिया। मुझे लड़की का ब्याह करना था। सब कुछ तय हो गया लेकिन पर्याप्त धन नहीं था। अच्छा लड़का अच्छा खानदान हाथ से फिसलता नजर आ रहा था। ऐसे मुश्किल के वक्त वह सामने आई थी। आकाश ने बतौर कर्ज उनसे कुछ रुपये लिए। सोचा था धीरे - धीरे लौटा देंगे।
दो साल गुजर गए. बेटे की नौकरी भी लग गई, लेकिन उनका क़र्ज़ अभी भी बाकी था।
एक शाम मैं घर में बिल्कुल अकेली थी मन नहीं लग रहा था सोचा, चलो उन्हीं के यहां चलते हैं।
इतनी बार आना - जाना हो चुका था कि अब कोई औपचारिकता नहीं थी। नौकर ने बताया मालकिन अपने बेडरूम में है. मैं वहीं , सीधी उनके कमरे में पहुंची थी। देखा वे पलंग पर बैठी कुछ पढ़ रही हैं।
मुझे सामने देख कुछ असमान्य सी हो गई। डायरी तकिये के नीचे रखने लगी। मैंने डायरी उनके हाथ से छीनते हुए कहा - "मैं भी तो देखूं , मेरी दीदी क्या पढ़ रही है !!
नहीं उन्होंने रोकना चाहा तो मैंने उलाहना दिया - " छोटी बहन भी कहती हैं , और उस से पर्दा भी रखती हैं ? '
मैंने डायरी देखनी शुरू की ___ बहुत खूबसूरत कविताएं थी. एक-एक शब्द पूरे भाव के साथ कविता में उतरे थे. वाह !! दीदी बहुत खूब , क्या कविताएं हैं . . .
फिर मैंने वह पन्ना पलटा दिया जो शायद नहीं देखना चाहिए था - - डायरी का प्रथम पृष्ठ।
सुंदर अक्षरों में लिखा था - " मेरे प्रिय आकाश तुम्हारे लिए "
मेरे तन-बदन में आग सी लग गई। भीषण ज्वाला में अपने आप को जलता महसूस किया। इतना बड़ा धोखा ! इतना बड़ा फरेब !! एक पल भी रुकना मुश्किल हो रहा था। मैं डायरी फेंक चलने को हुई , उन्होंने मेरा हाथ पकड़ लिया --- "निक्की सुनो तो !"
-- " मुझे कुछ नहीं सुनना और सुन लीजिए मैं आपके निक्की - विक्की नहीं हूं , प्लीज मुझे इस नाम से मत पुकारिये अब ___
यदि क्रोध की अभिव्यक्ति ना हो पाए तो ? तब वह आंखों में आंसू बन उभरते हैं।
मैं उनकी कर्जदार थी, उनसे छोटी थी, उन पर क्रोध जाहिर न कर सकी, आंखों में बेबसी के आंसू आ गए.
मुझे अपने बिस्तर पर बिठाते हुए उन्होंने कहा - ' निकी तू एक पल के लिए भी अपने आकाश का बंटवारा सहन नहीं कर सकी . . . मैंने तो तेरे साथ उसे इतने ___
-- " बस ! " मैं गुस्से से चीख पड़ी थी. यदि आकाश से इतना ही प्रेम है या था, तो उनसे शादी क्यों नहीं की ___
जवाब मिला था। बड़े ही करुण शब्द थे वे। - " कर लेती , लेकिन क्या करूं सब भाग्य का खेल है ! हम दोनों कालेज में साथ पढ़े। मुझे उससे प्यार हुआ , यह डायरी उसी जमाने में लिखनी शुरू की थी. लेकिन कभी आकाश से कह नहीं पाई। आगे पढ़ने के लिए शहर से दूर चली गई। फिर बाद में पता चला कि उसकी शादी होने वाली है __ तुझसे। मैं पागल सी हो गई मन में आया कि सब कुछ आकाश से कह दूं। कह दूं कि उससे मैं कितना प्यार करती हूं.
लेकिन एक ही डर मन में बार-बार आता। जरूरी नहीं कि आकाश को भी मुझसे प्यार हो और फिर उस लड़की का क्या दोष जिसने अब तक अपने पति के सपने भी देखने शुरू कर दिए होंगे।
मैं खामोश, चुपचाप उसे तुम्हारा बनते हुए देखती रही। तुम्हारी सूरत में कहीं ना कहीं मुझे अपनी निक्की दिखाई देती। दिल में पत्थर रख लिया, यह सोच कर कि मैं न सही मेरी छोटी बहन तो खुश है।
अंतिम शब्द कहते कहते वे रो पड़ी। मैं अवाक् थी -- क्या कोई किसी से इतना प्रेम कर सकता है कि अपना संपूर्ण जीवन ही ------ ' मैंने उन्हें सहारा दिया और दीदी कहने से भी अपने आप को न रोक सकी - ' तो दीदी ! क्या अब तक आकाश को नहीं ____ !!!
___ " न --- नहीं " --- वह विचलित हो गईं । न ... उसे ना बताना। न जाने वह क्या सोचे ? कहीं वह अपने आप को दोषी न मानले !! जबकि जिंदगी के सारे फैसले खुद मेरे थे। गुनहगार तो मैं हूँ , वह भी तेरी ---- जो सजा देना चाहे --- दे ले ---
मैं उन्हें रोता तड़पता छोड़ वहां से चली आई. तीन-चार दिनों तक मन उचाट रहा , फिर सबकुछ सामान्य हो गया। एक दिन आकाश को चिंतित देखा। पूछा , तो मालूम पड़ा कि वह अपने पिताजी के नाम से एक भव्य सुख सुविधाओं से युक्त धर्मशाला बनवाना चाहती हैं।
' तो इसमें चिंता की क्या बात ? ' मैंने पूछा था।
" तुम नहीं जानती ___ इस वक्त उनकी हालत खराब है फैक्ट्री तो बंद होने की कगार पर है. कहीं उसने अपने पैसे मांग लिए तो .. ?
आकाश की चिंता आधारहीन नहीं थी। और यह भी सच था कि इस वक्त हम उनके पैसे लौटा नहीं सकते थे। बेटी की शादी में सभी जमा पूंजी लगभग खत्म हो चुकी थी और बेटे की हाल फिलहाल की नौकरी थी।
लेकिन उसके दुसरे दिन ही उन्हें हार्ट-अटैक आया. घर पर ही इलाज हुआ। उसके दूसरे दिन ही दूसरा अटैक आया था. उन्हें हॉस्पिटल में एडमिट करवाना पड़ा इन सब में आकाश उनके साथ ही रहे।
जिस बहन को गुजरे कई वर्ष हो चुके थे वही उनकी संपत्ति की एकमात्र वारिस बनी।
अब ----- धर्मशाला बने या ना बने ----- उनका कर्ज चुकाऊं या ना चुकाऊं --- सब मुझ पर था. और यदि उनका कार्य चुका हूं भी तो अब किसे और कैसे ?
आकाश ने नौकरी छोड़ दी। फैक्ट्री को नए सिरे से खड़ा किया। धर्मशाला की नींव रखी गई। आकाश दिनभर उसी में व्यस्त रहते हैं। उनके कहे अनुसार उनकी डायरी जला न सकी , उसे अपने पास रखने का मोह त्याग न सकी।
एक दिन वही डायरी आकाश के हाथ लग गई। उन्होंने पढ़ा होगा तभी तो मेरे पास शिकायत लेकर आए थे - ' भाई वाह , मेरी बीवी कवित्री भी हैं ! और आज तक मुझे खबर नहीं हुई !! मुझसे इतना प्रेम कि मेरे लिए कविताओं की एक किताब भी लिख दी। आज इस खुशी में मिठाई तो होनी ही चाहिए , मैं कुछ कहती उससे पहले ही वे फ्रिज से मिठाई का डिब्बा निकाल कर ले आये ---- ' मुंह खोलो
आकाश सुनिए तो ---- मैंने रोकना चाहा।
' कुछ नहीं , आज मैं बहुत खुश हूं , जल्दी से मुंह खोलो। ..
' . . . यह डायरी मेरी नहीं है . . . ' मेरे मुख से स्वतः ही निकल गया, यह भी ना सोचा कि उनसे वादा किया था.
आकाश चौक पड़े ---- ' नहीं है ! तुम्हारी नहीं तो फिर - - तो फिर किसकी ? "
वे पन्नों को पुनः उलटने - पलटने लगे। मैंने उन्हें बीच में ही रोका था - - जिसकी है उसका कहीं नाम नहीं लिखा है, खैर आप क्या हैंडराइटिंग में नहीं पहचानते .. !!
' किसकी !!! ' उन्होंने धड़कते दिल से जैसे पूछा था. - ' ओह नो . . . यह राइटिग तो ! क्या उसने . . ' वे बात पूरी न कह सके , आंखें भर आई।
वे कुछ देर तक वहीं बैठे रहे हैं फिर डायरी को किनारे रख चुपचाप पलंग पर लेट गए।
मैं उनके पास पहुंची। उन्हें समझने के इरादे से कहा - ' उन्होंने मना किया था। डर था कि कहीं आप खुद को दोषी नहीं ठहरा ले , जबकि सारे फैसले खुद उनके थे। यह डायरी कालेज के जमाने की है उसी समय से वे आपको _ _
---- " प्लीज़ चुप रहो _ _ " - वे एक छोटे से बच्चे की तरह बिलख बिलख कर रोने लगे - " प्लीज अब कुछ भी ना कहो _ _ तुम नहीं जानती ! मैं ____ नहीं ... नहीं मुझ जैसा इंसान दुनिया में कहीं और न होगा। जिसने मुझसे इतना प्रेम किया, यादों को अपने हृदय से लगाए एक तन्हा जीवन गुजार दिया ---- हाँ --- हाँ ---- कभी उसके लिए मेरे मन में ख्याल आया था , पल भर के लिए ही सही लेकिन आया था कि ---- यदि वह मर जाती है तो .... तो मुझे उसका कर्ज . . .
' उफ़ !!! - मैं अचंभित थी , कैसा है यह मानवीय व्यवहार, नहीं यह तो अपराध है.
मुझे चेहरे के उन भावों के अर्थ आज समझ में आ रहे थे. ईश्वर से यही मांगा - " हे ईश्वर ! इन्हे माफ़ करना "
हर जन्म में पति के रूप में आकाश ही मिले कभी ऐसा सोचा था ---- लेकिन आज ---- आज सोचती हूं यदि इनका पुनर्जन्म हो तो केवल उनके लिए हो। तब हो सकता है वे उनके इस निश्चल प्रेम के कर्ज को चुका सके.. . .अपने इस अपराध का प्रायश्चित कर सकें।
मैंने देखा आकाश की सूनी आंखें अभी भी मुझे एकटक देख रही हैं।
" Never stop showing someone, how much they mean to you "
दिस स्टोरी इज डेडीकेटेड टू बेस्ट फ्रेंड ऑफ माई फादर " मृगनयनी "।
जी हां, जिन्होंने मेरे पिता से प्रेम किया और मेरे पिता इस बात से अनजान रहे। लगभग 1960 में जब मेरे पिताजी मुंबई से गुजराती लिटरेचर से पोस्ट ग्रेजुएशन कर रहे थे, तब वे मेरे पिता की क्लासमेट थी। एक धनाढ्य गुजराती फैमिली से बिलॉन्ग करती थी। उस वक्त मेरे पिताजी की शादी हो चुकी थी, और शायद यही सोचकर वे खामोश रही। उन्होंने अपने प्रेम का कभी इजहार पिताजी से नहीं किया। वर्षों बाद उनकी मृत्यु के बाद पिताजी को उन्हीं की डायरी से यह सब बातें मालूम पड़ी थी।
वे आजीवन कुमारी रही और हार्टअटैक से ही उनकी डेथ हुई थी। जी हां, यह बिल्कुल सत्य घटना है। मैंने इसके साथ अपने पिताजी को जीते हुए देखा है, उन्हें महसूस किया है। मेरी यह कहानी 2006 में मुंबई के एक बेहद ही पापुलर मैगजीन में प्रकाशित हो चुकी थी, लेकिन मैंने इस कहानी का जिक्र पिताजी से कभी नहीं किया। आज जब वे दोनो ही हमारे बीच नहीं है, तब इतनी हिम्मत जुटा पाया हूं कि इस दुनिया के सामने यह कह सकूं,
" मेरे दोस्त, हम तो उनसे दोस्ती निभाते रहे और उन्हें हमसे मोहब्बत हो गई। अंजान ही रह गए, क्या कहते, क्या करते?
और इस तरह से अब आप कह सकते हैं कि मोहब्बत और लिटरेचर मुझे विरासत में मिली है।
Shailendra S. 'Satna'
Radhe radhe
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Same to you
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