लगभग पंद्रह वर्ष बाद लवी का उसी तूफानी अंदाज में फिर से मेरे जीवन में आना वो भी उस कंपनी की ऑनर बन कर जिसमे मैं महज एक विभाग का हेड मैनेजर था।
' अभि ! ये देख लेना , ऐसे कर लेना ----- '
कंपनी का अब दूसरा ऑनर मैं था. वह जब भी अपनी पर्सनल जिंदगी जीना चाहती तो उसके साथ मैं ही होता था। एक ही कारण - ' मैं उसका मित्र था '. वह मेरे सामने निसंकोच बिंदास हंसती - ' शादी तो कर ही ली होगी अभि ' ?
मैंने अपना सर हिलाया - ' हाँ '. घुटी - घुटी सी आवाज निकली थी - ' कर ली न ' - मन में सोच रहा था - ' काश ! न की होती।
- और तुम ने ' ?
उसने इंकार में अपना सर हिलाया था - ' नहीं न की यार ' - और फिर वह उसी तरह हंसी , बिंदास हंसी।
एक दिन वह अचानक मेरे घर पहुंची , बिना बताये , मैं अचंभित था - ' अरे तुम ! '
- ' क्यों , नहीं आ सकती क्या ? और वैसे तुम से नहीं तुम्हारी बीबी से मिलने आई हूँ ' - उसने हँसते हुए कहा था।
मैं समझ गया कि आज मेरी पोल खुली - ' आओ , तो मिल लो'
परिचय हुआ। दस मिनट में वे एक- दूसरे से इतना घुल-मिल गई की कोई नहीं कह सकता की वे पहली बार मिल रही हैं । बच्चें भी कुछ देर में ही उसके से हो गए। मैं वहां हो कर भी अनुपस्थित ही महसूस कर रहा था। सोनू की सरलता थी या लवी का बड़प्पन था , समझ नहीं पा रहा था।
बहार का मौसम बहारों का मौसम लग रहा था। पानी की रिम-झिम सुबह से लगी थी। मेरे दिल की हलचल से बेखबर तीनों लवी, सोनू और ये मौसम। सब अपने में रमे हुए।
चाय का दौर चल रहा था कि अचानक ही लवी ने हम दोनों की शादी की बात छेड़ थी - ' अच्छा ये बताओ सोनू तुम दोनों की शादी कैसे हुई , आई मीन - - शादी से पहले भी तुम एक दुसरे को जानते थे क्या ?'
सामान्य से प्रश्न का बेहद ही खूबसूरती से उत्तर दिया था सोनू ने - ' जानते कम थे, पहचानते अधिक थे , यूँ कहिये कि बचपन 'साथ ही बीता, इंटर तक साथ एक ही स्कूल में पढ़े - लिखें भी ----
- ' ओह ! मतलब बचपन का प्यार है - - -
- ' जी, लेकिन बचपना नहीं था, लेकिन हां, अब हम दोनों कभी-कभी बचपना कर देते हैं '
' ऐसा क्या ! वैरी नॉटी !! '
बात हंसी में उड़ गई। वैसे भी उसके कहने के अंदाज से पता चल रहा था कि बात शिकायत के अंदाज में नहीं कही गई थी। उसके किसी भी बात से नहीं लगा की हमारे बीच कोई तनाव चल रहा है। वैसे भी टेंशन ु लेना सोनू की आदत नहीं थी।
डिनर करने के बाद सभा विषर्जित हुई।
चलते समय उसने सोनू से पूछा था - ' मैं कुछ देर के लये, अभि को साथ ले जाऊँ , अपने साथ ' ?
उसका यूँ पूछना मुझे कुछ अच्छा न लगा था। इसमें पूछने जैसा क्या ! सोनू की नजर में वह मेरी बॉस थी , कह देती - ' अभि , साथ चलो '
बस, काफी होता इतना। मैं सोनू का गुलाम थोड़े ही हूँ की उसकी इजाजत की जरूरत थी। मैं कुछ बोलता इससे पहले ही सोनू ने कहा - ' जी बिलकुल , यदि इन्हे कोई एतराज न हो ? '
निगाहे मेरी तरफ थी। मैं पढ़ना चाहा था उन्हें लेकिन कामयाब न हो सका। लवी के साथ उसकी कर में बैठते हुए सोनू की तरफ देखते हुए बेपरवाही से बोला - ' आता हूँ '
- ' जी ' - संछिप्त इजाजत की संछिप्त अनुमति। अप्रत्यक्षतः ही सही मैं ने तो सोनू से इजाजत ही ली थी।
कार चल पड़ी। कुछ दूर चलने के बाद उसने कहा - ' सो नाइस , ब्यूटीफुल लेडी, अरे तुम्हारी सोनू के बारे में बोल रही हूँ '.
- ' हूं -
- ' तुम खुश तो हो न ?'
- 'हाँ , हाँ बिलकुल , बहुत खुश हूँ , वैरी नाइस वाइफ '
उस पल अप्रत्याशित सवाल का अप्रत्याशित जवाब निकला था। यकीनन पूरी डिटेल के साथ। कह नहीं सकता कि कैसे और क्यूँ ? लवी हंसी थी।
- ' अरे वो यहाँ नहीं है , खुल के कह सकते हो , मैं नहीं कहने वाली उसे ' - लवी हंस रही थी और मैं चाह कर भी सोनू की कोई बुराई नहीं कर पाया था।
"तुम्हारी मैरिज लाइफ देख कर लगता है मैं भी शादी कर लू '
- ' तो अभी तक क्यूँ न की ?'
- ' कहा न, तुम्हारी मैरिज लाइफ देख कर लगा '
- ' ओह हाँ - मैं मुस्कुराया था ' -
एक कहानी सुनोगे ' - उसने मेरी तरफ देखते हुए ग़मगीन स्वर में पूछा था।
- ' कहानी ! कौन - सी कहानी ?
वह संजिदा थी - ' एक बेहद आमिर लड़के की कहानी , दौलत जिसे विरासत में मिली थी ' -
रात थी और रास्तें सूने हो चले थे - ' अभि ! ' - उसके स्वर में वही सूनापन झलक रहा था।
- ' उस लड़के की मुलाकात एक कस्बाई लड़की से हुई। कम पढ़ी- लिखी लेकिन एक निश्छल प्रेम के साथ। उस आमिर लड़के को वह लड़की पसंद आ गई। दोनों में पहले जान-पहचान बढ़ी, दोस्ती हुई , प्यार हुआ , और देखो तो उस लड़के ने अपने परिवार की मर्जी के बगैर उस लड़की से शादी भी की। कुछ वर्ष तो अच्छे से गुजरे लेकिन फिर ----- धीरे-धीरे उस आमिर लड़के को एहसास होने लगा की उसकी पत्नी उस स्तर की नहीं है जिस स्तर की उसे व उसकी सोसाइटी को जरूरत थी।
- ' हूं .... फिर ?
इसी बात को लेकर दोनों के बीच विवाद होने लगे , दोनों के बीच का प्यार ख़त्म होने लगा। उस अमीर लड़के के लिए उसकी पत्नी बोझ लगने लगी। कानूनी दाव-पेंच के चलते उसने तलाक तो नहीं लिया, लेकिन हाँ उसने उसकी परवाह करनी छोड़ दी।
एक आलीशान , सुख सुविधाओं से सुसज्जित बंगले में उस औरत ने अपनी बेटी के साथ पूरे बीस वर्ष बिताये या यूँ कहो काटे। अपने पति से उपेक्षित उस औरत ने आखिरकार तंग आकर एकदिन सुसाइड कर लिया। सुसाइड नोट में उसने अपनी बेटी को लिखा था की वह अपने पिता को इस बात के लिए माफ कर दे। '
- ' जानते हो अभि ? जब हम साथ में पढ़ रहे थे तो यह घटना मेरे साथ घट रही थी। लेकिन मैंने दिल से पापा को कभी माफ़ नहीं किया था।
तुम से मिली , तुम सच्चे लगे, अच्छे लगे , इतने की तुमसे प्यार कर बैठी। एक दिन मैंने बहुत सोचा , जिस कहानी का अंजाम पहले से देख चुकी थी उसी कहानी की शुरुआत मैं कैसे कर दूँ ?
मैं डर गई , इतना कि मैंने तुमसे दूर जाना ही बेहतर समझा। मुझे डर लगने लगा की यदि मैंने तुम्हारे साथ वही सलूक किया जो मेरे पिता ने मेरी मां के साथ किया तो ? अंजाम क्या होगा , यदि तुमने भी माँ की तरह ...…... ओह नो ! गलत होता न अभि !! मैं तुम्हारी हत्या कैसे कर सकती थी। कैसे ???
तब मैंने एक कॉन्सेप्ट बनाया - ' शादी , फुली कांट्रैक्ट बिटवीन टू पर्सन। इसके आलावा कुछ नहीं। कांट्रैक्ट मीन्स ! एक़्वालिटी।
परफेक्ट मैच एक़्वालिटी में ही हो सकता है। हम सोसल स्टेटस, पर्सनालिटी, ब्यूटीनेस किसी को भी इग्नोर नहीं कर सकते।
प्यार में हम जी तो सकते हैं, वह हमारी जिंदगी हो सकता है लेकिन शादी ?
नहीं दोस्त !! उसे निभाना पड़ता है. और केवल यह तभी संभव है जब दोनों में एक़्वालिटी हो।
प्यार एक दर्शन हो सकता है लेकिन विवाह जिंदगी का यथार्थ है। यदि ऐसा न होता तो शायद कृष्ण को भी राधा को गोकुल की गलिओं में ही न छोड़ना पड़ता।
लेकिन तुम दोनों ने तो मेरे सारे कॉन्सेप्ट बदल दिए। तुम दोनों ने प्यार भी किया, शादी भी की और उसे अच्छी तरह से निभा भी रहे हो, उसी प्यार के साथ जिसे साथ लेकर चले थे। '
उसकी बात ख़त्म हुई और कार रुकी ठीक मेरे बंगले के सामने।
'अब चलो उतरो तुम्हारा घर आ गया है , और देखो तो सोनू तुम्हारा इंतजार कर रही है। ' - वह हसी थी - ' उसने सोचा होगा की मैं तुम्हे लेकर कही भाग न ---- ' -
' अरे नहीं उसकी तो आदत है , मेरा इंतजार करने की ' - मैं भी हँसा था।
- ' चलो अच्छा हैं, उसे तुम्हारी परवाह है ! उसने कर आगे बढ़ाते हुए कहा था - ' मैं चलती हूँ, तुम्हे थैंक्स '
- ' किस बात के लिए - ? ' - मैंने जोर से से पूछा था ?
हमारे बीच की दूरी अधिक होने के कारण वह लगभग चिल्लाई थी - ' तुम मेरे पापा जैसे नहीं हो , इसलिए ----
मैं स्तब्ध: था। वह चली गई।
हमेशा की तरह मुझे कॉल बेल बजने की जरूरत नहीं पड़ी थी , दरवाजा खुल गया।
मैं अपने बेडरूम में आ गया. बच्चे वहीँ सो रहे थे। कुछ देर बाद वह भी आई। उसने कुछ भी नहीं पूछा। कहा गए थे , क्यूँ गए थे कुछ भी नहीं। उसने पूछा तो यह कि मुझे ब्रेकफ़ास्ट में कल क्या खाना हैं , कौनसे वाले कपड़ें पहनने हैं, इत्यादि।
कुछ देर बाद वह हमेशा की तरह मेरी तरफ अपना चेहरा करके सो गई। कुछ देर में वही हुआ जो हमेशा से होता आया है। उसने अपनी तकिया हटाई और मेरे बाह को तकिया बना लिया। मैं समझ गया की अब वह फाइनली सो गई.
कई बार मैं उससे कह चूका हूँ की - ' मेरी बाह दर्द करने लगती है ' . उसका जवाब हमेशा यही होता है - ' क्या करूं , मुझे तब तक नींद ही नहीं आती है जब तक आप की बाह को अपनी तकिया न बनालूं। मेरे सो जाने पर आप अपनी बाह हटा लिया कीजिये न ' . अब मैं कैसे कहूँ की तुम उसके बाद भी तो - - -
आधी रात गुजर चुकी है। वह अपने नन्हे सिपाहिओं के साथ गहरी नींद सो रही है। निश्चिन्त ... बेखबर ... लेकिन मैं जग रहा हूँ।
मुझे नींद कहाँ ? लवी मुझे आइना दिखा के गई थी। उसकी एक ही बात बार-बार मेरे दिलोदिमाग में गूँज रही है - ' थैंक्स अभि ! तुम मेरे पापा जैसे नहीं हो' ?
लेकिन क्या सच ?
जिसे प्यार किया, मन मंदिर में बसाया, साथ-साथ चलने के वादे किये। और फिर कुछ दूर चलने के बाद , जिंदगी के रास्तें में, किसी मोड़ पर, उसे छोड़ आगे बढ़ जाना।
--- उसे एहसास दिलाना .. हां तुम हमारे काबिल न थे --- हमें मुआफ़ करो, इस बात से बेखबर की उसका क्या होगा, क्या गुजरेगी उस पर !
हम यह भूल गए कि उसके लिए तो हम ही सब कुछ थे। जिसकी दुनिया उजड़ी -- जिसका दिल टूटा उसका क्या होगा ? हे ईश्वर ! ये मैं क्या करने जा रहा था ?
टूटना कब और किसके लिए हितकर हुआ हैं। चाहे किसी रिश्ते, किसी के विश्वास का या फिर दिल का। और फिर उसकी आह !
आह !! ,
जी हाँ , तब फरिश्तें रोते हैं ? क़यामत आती है।
टूटने का दर्द क्या होता है , लवी जानती है। लवी का क्यूँ अब दृष्टान्त अपना ही लेता हूँ। मैं भी तो सोनू के साथ वही सब करने जा रहा था। ठीक है मैंने उससे कभी वादा नहीं किया , अपने प्यार का इज़हार नहीं किया, लेकिन प्यार तो था न, उसके खामोश इकरार का कभी इंकार भी तो न किया।
मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। अपराध बोध से ग्रस्त मैं एक पत्रिका के पन्ने यूं ही पलटने लगा था। एक जगह नजर ठहर गई - ' हर फूल कुछ कहते हैं ' - मन में एक ही जिज्ञासा थी - ' क्या कहते हैं , आइरिस के फूल ' ?
मैं जल्दी - जल्दी पढ़ने लगा - 'कमल' - शांति और सदभावना का प्रतीक। 'गुलाब' - 'प्रेम और वैभव का प्रतीक। 'चेरी ' - आशा का प्रतीक। लिली - सकारात्मकता का प्रतीक। ट्यूलिप - सुंदरता का प्रतीक। 'आइरिस ' - 'मित्रता , सजगता और अपनों के प्रति परवाह का प्रतीक ' - - -
ओह ! तो क्या मेरे बाह में अपना सर टिका खुद से बेखबर सोती हुई ये स्वप्निल हमेशा मुझसे यही कहना चाहती थी - 'तुम्हारी मित्रता बहुत मायने रखती है मेरे लिए , हां मुझे तुम्हारी परवाह है , मैं तुम्हारे लिए, तुम्हारी हर एक खुशी को पूरा करने के लिए हमेशा सजग रहती हूँ ' .
और पहली बार मैं उसके सो के उठने से पहले उठा था। उसके ही लगाए गार्डन से ढेर सारे 'आइरिस के फूल' तोड़े और वापस बैडरूम आया। वह अभी भी निश्चिंत सो रही थी। ताजे सुकोमल फूलों को उसके गलो में बिखेर दिया। उन्हें चूमते हुए मन ही मन कहा - ' हाँ मुझे भी तुम्हारी परवाह है ?'
वह धीरे से कसमसाई , थोड़ा सा जागी फिर वापस अपनी आँखे मूदं लीं - सुबह सुबह नहीं न , सोने दीजिये '.
मैं अपनी हंसी न रोक पाया था - ' पगली कही की ! पता नहीं क्या समझ रही है ?'
अब आप ही बताइये न ?
Dedicated to my wife SANDHYA SINGH who loves and care ME
Shailendra S. सतना
Very nice sir ji
ReplyDeleteइस ब्लॉग में सबसे पहला कमेंट आपका है,
ReplyDeleteअब आप को धन्यवाद देने से काम नहीं चलेगा,
मिलने पर आपकी ट्रीट बनती है।
पर अभी आप केवल धन्यवाद से काम चलाएंगे,
Thank you very very mutch...
Is blog main aapka hamesha swagat hai