आइरिस के फूल 1
शैलेन्द्र एस. 'सतना'
गुजरते वक्त के साथ इंसान की चाहतें, उसके अधिमान बदलते हैं क्या? शायद हाँ !
कभी उसके काबिल खुद को बनाने के लिए अपनी ही कमजोरिओं से लड़ा था मैं। उसे मेरे साथ साधन-विहीन जीवन न गुजरना पड़ें, इसके लिए पिताजी से जिद करके एक छोटे कस्बे की स्कूल से इंटर पास करने के बाद ग्रेजुएशन करने के लिए बड़े शहर के कालेज में दाखिला लिया था। तब तक मेरे दिल-ओ -दिमाग में वह और उसकी चाहते थी.
मैं यह भी जनता था की वह भी सिर्फ और सिर्फ मुझे ही चाहती है। इज़हार -ए -मोहब्बत की कोई जरूरत ही न थी। इसलिए न तो मेरी तरफ से और न ही कभी उसकी तरफ से - 'आई लव यू ' जैसे शब्दों का प्रयोग हुआ।
मेरे मानल-पटल पर केवल और केवल वह थी। तब - ' लवी ' - कही न थी।
गावं की स्कूल में पढ़ना और पास हो जाना अलग बात थी लेकिन शहर के अंग्रेजी मीडियम कालेज में बिजनिस मैनेजमेंट से ग्रैजुएशन करना अलग बात थी। मेरी अंग्रेजी कमजोर थी और सभी लेक्चर अंग्रेजी में ही होते थे। दस दिनों में ही मुझे पता चल गया की यह मेरी औकात से बहार की चीज है।
तब वापस लौटने के पूरे इरादे के साथ मैं घर आया था. अनयास ही मेरे कदम उसके घर की तरफ चल पड़े। उसके घर के सामने खूबसूरत गार्डन, जिसमे हर प्रकार के फूलों के छोटे - बड़े पौधे। पीछे आम, अमरुद, बेर, कटहल इत्यादि के फलदार पेड़। इन्ही सब के बीच हम दोनों का बचपन खेलते - कूदते गुजरा।
उसे सदैव घर-गिरहसती के खेल रचाते देखा। गुड्डे - गुडिओं के खेल। उनकी शादी , बारात और बिदाई के खेल। वह मुझे अक्सर लड़की पक्ष से खेल में शामिल करती और खुद लड़के वालों की तरफ से होती और मुझपर खूब रोब झड़ती।
दरवाजे के सामने पहुंचा नहीं कि हमेशा की तरह उस दिन भी दरवाजा खुल गया और वह सामने थी। उफ़ बाला की खूबसूरत दिलकश मुस्कुराहटों की स्वामिनी। किसी हसीन स्वप्न की दृष्टा, निर्मेश पलके , अधखुली उन्मादी नशीली आखें। एक थके-हारे मुसाफिर के लिए किसी स्वप्न लोक से उतरी अप्सरा द्वार खोल खनकती हंसी के साथ बोली - ' वेलकम' .
मैं भी हंसा - ' कभी तो बेल बजाने का मौका दिया करो , जब देखो पहले ही दरवाजा खोल दिया करती हो '
इस बार वह खिल-खिला कर हंसी। उसकी इस हंसी में मेरी चाहतों की पूरी दुनिया सिमट कर रह गई।
- ' तो जनाब अब बजा ले, मना किसने किया है '
- ' चलो हटो किनारे ' - मैं उसे दरवाजे से परे धकेलते हुए घर के अंदर दाखिल हुआ - ' पक्का तुम्हारे घर में कोई चोर खिड़की हैं , देखना एक दिन तो मैं पता लगा के ही रहूँगा '
आज पंद्रह वर्षों बाद समझ पाया था कि कहाँ और किसके पास थी वह चोर खिड़की। उसके अंतर्मन में समाये किसी परिपूर्ण स्वप्न का एकलौता नायक मैं , उसके इस अंतर्मन को भला कहाँ देख पाता ।
उस दिन मैं उससे झूठ बोला था। अपनी पलायनवादी विचारों को उससे छुपाया था। उसके हर स्वप्न को पूरा करना अब मेरा स्वप्न बन गया था। किसी बड़े शहर में आलिशान घर और उसके सामने इससे भी बड़ा गार्डन, जिसमे उसकी पसंद के हर किस्म के फूल। प्रत्यक्षतः बताया कि मैं छुट्टी में आया हूँ '
शहर लौटते समय उसके घर गया था। विदा लेते वक्त वह मेरे साथ बहार गेट तक आई। हमेशा की तरह उसने वही फूल दिये थे - 'हमेशा एक ही तरह के फूल देती हो तुम, वैसे ये तो बताओ कि इन फूलों को कहते क्या हैं ?'
एक पल के लिए उसकी शोख चंचल हंसी मुस्कराहट में तब्दील हो गई। नजरें झुकाते हुए कहा - 'आइरिस के '
उस दिन उसे छोड़ने का मन नहीं कर रहा था। फिर भी वापस लौटना था।
लौट भी आया। मेरे द्वारा उसको लेकर देखे गए हर एक स्वप्न को पूरा करने में मेरी मदत की थी लवी ने। क्लास की सबसे होशियार बोल्ड और आधुनिक लड़की 'लवी' .
उसने मेरा साथ दिया , मुझे मोटिवेट किया। धीरे-धीरे मेरी स्थित बेहतर होने लगी। उस समय तक लवी से कोई चाहत, लगाव व प्रेम न था.
समय अपनी ही गति से गुजर रहा था। अब शहर का रंग मुझ पर चढ़ने लगा। लवी की दिलकश अदा, उसकी बातें मुझे अच्छी लगने लगी। एक दिन वह भी आया जब स्वप्निल अर्थात सोनू का प्यार बचपना लगने लगा और मैं अब लवी के ही खयालो में गुम रहने लगा। अब मैं मौके की तलाश में था - ' लवी ! आई लव यू '
सोनू मुझे दोष भी नहीं दे सकती थी। धोखेबाज , बेवफा , हरजाई इन सब से साफ बच निकलता। हम दोनों ने कुछ इकरार ही नहीं किया तो इंकार का दोषी कैसे ठहरा दिया जाता? मैं खुद से झूठ और उसके लिए सच कहने जा रहा था - ' सोनू तुम मेरी दोस्त हो , मैंने कभी भी तुम्हे और किसी भी नजर से नहीं देखा '.
एम.बी.ए. का फाइनल ईयर था। मैंने मन बना लिया था कि फेयरवेल पार्टी में उसे प्रपोज़ करूंगा। एका-एक वह बिना किसी को बताये गायब हो गई. मैं ने काफी खोजबीन करने की कोशिश की लेकिन उसका कहीं पता न चला। उससे भी बड़े शहर में मुझे एक मल्टीनेशनल कंपनी में जॉब मिली। सोनू से ही मेरी शादी हुई। एक संभावित लव - मैरिज अरेंजड मैरिज बनी। कहतें हैं कि इंसान पहला प्यार कभी नहीं भूलता।
लेकिन मैं भूला था। सोनू अब मेरे लिए केवल मेरी पत्नी थी। उसकी खुशिओं को उसकी जरूरतों को पूरा करना मेरा फर्ज था। मैं लवी को अब तक भूल न पाया था। यदि मैं खुद से झूठ न बोलूं तो यह सच था की कभी सोनू ही मेरे लिए सब कुछ थी , मेरा प्यार, मेरी चाहत सभी कुछ। लेकिन सोनू ? उसके मन में क्या था ? उसने कभी मुझसे अपने प्यार का इजहार तो किया नहीं ? क्या सोनू ने भी मुझसे उसी तरह प्यार किया था जैसा कि मैंने ?
मेरा यह सोचना कि वह भी मुझसे उतना ही प्यार करती है जितना कि मैं , गलत भी तो हो सकता है। धीरे - धीरे यह बात मेरे मन में बैठती जा रही थी - ' हो न हो सोनू ने मुझे कभी प्यार किया ही नहीं , एक वेल क़्वालिफाइड और मल्टीनेशनल कंपनी में जॉब करने वाले से कौन देहाती लड़की शादी न करना चाहेगी।
उसके माँ-बाप को घर बैठे एक अच्छा रिश्ता मिल गया था। तभी तो शादी की पहल उसकी माँ की तरफ से हुई। यदि सोनू को मुझसे प्यार होता तो काम से काम एक बार भी मुझे जताया तो होता। लेकिन नहीं ऐसा कुछ भी तो नहीं हुआ था।
मेरी दुनिया से अलग उसकी अपनी दुनिया थीं, उसने चुन-चुन कर अपनी सभी ख्वाइशें पूरी की। अपने मन मुताबिक घर बनवाया , उसे सजाया , गार्डन भी बना और उसके मन मुताबिक़ फूल भी खिले। मेरी कोई पसंद नहीं पूछी गई।
धीरे-धीरे मुझे अहसास होने लगा की वह मेरी सोसाइटी , रहन-सहन के स्तर से मैच नहीं करती। मेरी बड़ी-बड़ी पार्टिया होती , कभी मुझे दी जाती , तो कभी मुझे देनी पड़ती। ' या-या ', 'आई - नो ' , ' वि - नो ' और आधुनिकता के स्तर पर वह खुद भी अपने - आप को अनकंफ़र्टेबल महसूस करती। अब मैं अक्सर उसकी तुलना लवी से करने लगा - ' लवी होती तो -------' ?
तुलना तो मैंने पहले भी की थी। कभी अपने तस्सवर में बसी सोनू की तुलना लवी के साथ। और अक्सर मैंने लवी को बीस ही पाया, यह बात अलग है की मैं कभी उसे उन्नीस मार्क्स भी न दे पाया।
मैं छोटी-छोटी बातों पर उससे खीझने लगा। उसे फटकारने लगा। उसकी कमियां निकलने लगा। एक दिन घर के पास ही दो सितारा होटल में पार्टी चल रही थी. सभी सह-कर्मी , बॉस आये हुए थे कि अचानक पता चला कि वह पार्टी छोड़ कर बच्चो के साथ घर वापस चली गई।
जब मैं घर पंहुचा तो रात के एक बज रहे थे ----- मेरे पास अपनी खीझ निकलने का भरपूर अवसर था। यह भी ध्यान न दिया कि उसके साथ हमारे दोनों बच्चें भी सोये हुए हैं। मैंने उसे उठाया , उस पर जोर -जोर से चीखने लगा - ' अनपढ़ , गवाँर , देहाती और न जाने कौन-कौन से अलंकारों से अलंकृत किया।
कोई गैर सितम करे तो सहन किया जा सकता है , लेकिन जब अपने करें तो ? और वह भी ऐसा इंसान जिससे आपने प्यार की उम्मीद की हो, तब ?
तब, आखों से आसूं , दर्द हिचकिया बन बहार निकलते है। और उस दिल से निकली एक आह आपके वजूद को मिटा सकती है, पल भर में धराशाही कर सकती है। मुझे तो अब उसका भी डर न रहा जिसे हम 'ज़मीर' कहते हैं। जहा आपका खुदा बसता है।
' जी हाँ , पहली बार उन स्वप्निल-सी आंखो में आसूं देखे जिसे कभी प्यार किया था। जिसके हर एक स्वप्न को पूरा करने के लिए खुद की कमजोरिओ से लड़ा था। मैंने देखा कि उसके दोनों नन्हे सिपाही उसके आगे खड़े मुझे घूर रहें थें। उनके पीछे खड़ी वह रोते हुए किन्तु विश्वास भरे शब्दों में कह रही थी - ' देखियेगा , एक दिन मैं इनको आप से जयादा काबिल बनाउंगी , इतना काबिल की ये आप से अच्छी इंग्लिश बोलेगे . . .
वह कहे जा रही थी और मैं अब किसी अपराधी की भाति केवल सुन रहा था। उसके दोनों नन्हे सिपाही अब भी मुझे बराबर उसी तरह घूरे जा रहे थे ......... to be continuing Part 2
Shailendra S.
Dilchasp 👍🏻👍🏻 beautiful story 👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻🙏🏻🙏🏻
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