Friday, May 21, 2021

My Inception -4

    कुछ लिखने से पहले, कुछ शेयर करने से पहले मैं यह बता देना आवश्यक समझता हूं कि माई-इनसेप्शन टाइटल से इस ब्लॉग में लिखे गए मेरे खुद के विचार और अनुभव हैं और जरूरी नहीं कि उन विचारों से आप सहमत हो।


       मेरे द्वारा यह भी प्रयास किया जाता है कि उन अनुभवों में शामिल व्यक्ति का नाम और पता या उनकी किसी भी प्रकार की जानकारी लिखते समय उजागर ना हो. शेष अन्य टाइटल से लिखी कहानी या कविताएं लिरिक्स आर्टिकल्स यह सब जरूरी नहीं कि मेरे व्यक्तिगत जीवन या मेरे संपर्क में रहे किसी अन्य व्यक्ति के जीवन से संबंधित हो. वे पूर्णत काल्पनिक भी हो सकते हैं।

        तो आइए अब मैं अपने समक्ष घटित एक घटनाक्रम का वर्णन या यूं कहिए कि प्रस्तुतीकरण आपके करने जा रहा हूँ जो वास्तविक एवं सत्य है. 


    बात मेरे सर्विस पीरियड के शुरुआती दिनों की है। जब मैं अपने ऑफिस में ही अटैच था. कार्य की अधिकता जिम्मेदारी एवं अपने वरिष्ठ अधिकारिओं के प्रति उत्तरदायित्व पूर्ण व्यवहार रखते हुए कार्यों को उचित एवं अनुचित का ध्यान रखते हुए करना एक कठिन कार्य होता था. लोगों का कहना था कि कार्यालय में किसी ऊंचे अधिकारी से मिलने के लिए इतनी मशक्कत नहीं करनी पड़ती है जितनी की शैलेन्द्र सिंह से उनसे मिलने के लिए तो अपॉइंटमेंट लेना पड़ता है। यानि की मैं कार्यालय की वस्ततम और महत्वपूर्ण इकाई था। 


    एक दिन शाम को कार्य से फुर्सत होकर कार्यालय के सामने ही खुली चाय की  एक दुकान पर बैठे चाय पी रहा था. गर्मियों के दिन थे, मौसम भी कुछ ठंडा हो चला था मैंने ध्यान दिया कि मेरे पास ही लगभग 75 साल से ऊपर का ही एक बूढ़ा व्यक्ति फटे-पुराने मैले-कुचैले कपड़ों में उकडू-मुकड़ू बैठा कुछ अपनी ही बातों में खोया गुमसुम सा बैठा हूं। 


    पूछने पर पता चला कि वह एक पेशी के सिलसिले में कार्यालय आया हुआ है। पिता के जीवित रहते पुत्र के नाम हिस्से बंटवारे की पेशी है. उसके दो लड़के हैं। दोनों के बीच हिस्सा विभाजन होना और उसकी सहमति आवश्यक है इसलिए उसे श्रीमान तहसीलदार महोदय के समक्ष प्रस्तुत होकर शपथ पत्र देना है. उसकी हालत कुछ अच्छी नहीं लग रही थी उसकी आवाज उसके शरीर का कंपन उसके बीमार होने की ओर इशारा कर रहे थे.


     मैंने पूछा दादा इतनी उम्र में तुम्हारी तबीयत भी ठीक नहीं है लगरही है तो पेशी आगे बढ़वा लेते। कुछ  दिन आराम करके आते. उसके बाद उसने मुझे जो कहानी सुनाई वास्तव में सुनकर मेरी आंखें भर आई जीवन के महानतम सत्य भी निरर्थक लगने लगे. कहते हैं मृत्यु ही जीवन का अंतिम सत्य है किंतु उस अंतिम - सत्य तक पहुंचने के लिए इंसान को ना जाने कितनी बार मरना पड़ता है और अपनी इच्छाओं को दबाकर जीना पड़ता है.

     जब यह कोई मायने ना रह जाए कि आपकी इच्छा क्या है आप किस स्तर का जीवन व्यतीत करना चाहते हैं आप अपने परिवार के साथ खुश हैं या नहीं तो आपकी मृत्यु तो उसी पल हो जाती हैं. आप मानसिक रूप से मृत घोषित हो जाते हैं यह बात अलग है कि शारीरिक तौर पर आप चलते हैं फिरते हैं हंसते हैं मुस्कुराते हैं दुनियादारी भी निभाते हैं। उस व्यक्ति को उस वक्त मैंने मारा हुआ ही देखा। 


११  बीघे जमीन का बंटवारा था उसकी जानकारी के अनुसार ५-५  बीघे जमीन लड़कों के नाम की जानी थी और केवल १  बीघा वह भी पथरीली जमीन जहां पर फसल उगाने के लिए भागीरथी प्रयास ही करना पड़ेगा वही जमीन उसके हिस्से में थी.


     लड़के कागजी कार्य में व्यस्त थे। वह वृद्ध आदमी मेरे पास अकेला बैठा था इसलिए उसने निसंकोच बताना शुरू किया। दोनों लड़कों की शादी हो चुकी है घर परिवार वाले हैं और वे अपना हिस्सा चाहते हैं। मैंने कहा - तो हिस्सा बराबर बांटते अपने लिए उबड़ - खाबड़ बंजर सी एक बीघा जमीन रख रहे हो, कल को क्या होगा।


    वह आदमी कुछ देर तक मेरी तरफ देखता रहा फिर अचानक भभक कर रो पड़ा।  उसने बताया की इसी बात को लेकर आए दिन उसके लड़के उसके साथ मार-पीट करते हैं , उनका इरादा तो एक बीघा जमीन देने के लिए भी नहीं था लेकिन शासन के नियमानुसार पिता को उसके जीवन काल में खाते से नील नहीं किया जा सकता। अतः एक बीघा जमीन देना भी उनकी मजबूरी है।


    हिस्से में केवल १ बीघा बंजर जमीन रखने के लिए वह तैयार नहीं हो रहा था।  इसलिए पिछले 2 दिनों से उसे भूखा रखा गया और कहा गया कि यदि सहमत नहीं दोगे तो तुम्हें भूखे मार डालेंगे तुम्हारे मरने के बाद तो जमीन हमारी हो ही जाएगी।  इसी डर से वह है गवाही देने के लिए आया है।


    मैं अपलक उसकी तरफ देख रहा था।  उस दीन- हीन व्यक्ति की दशा साफ बयां कर रही थी कि वह कितना मजबूर होकर अपने ही पैर में कुल्हाड़ी मारने के लिए तैयार खड़ा है।  अब इस बात का क्या भरोसा कि हिस्सा बटवारा के बाद उसके बच्चे उसके भरण पोषण का दायित्व निभाएंगे कितना जरूरी है कि वे उसे भरपेट खाना भी देंगे या नहीं।  


    सवाल यह नहीं उठता है कि उस वृद्ध का क्या होगा। सवाल तो मानवीय मूल्यों का है जहां अपनी ही संतान अपने उस वृद्ध पिता की वृद्धावस्था में कुछ भी करने के लिए तैयार नहीं है जबकि वह उसकी पूरी संपत्ति को कानूनन हड़प लेना चाहते हैं।


    अब यदि उसके शपथ पत्र उसकी गवाही या उसकी सहमति को ध्यान में रखकर वरिष्ठ अधिकारी इस बंटवारे को कानूनी मान्यता दे देते हैं, तो इस वृद्ध का क्या होगा ? क्या वास्तव में यह उसके प्रति न्याय होगा ?  मैंने  कभी-कभी सिविल कोर्ट के सामने लिखे रामचरितमानस की एक चौपाई को अक्सर देखा है उस चौपाई में इस तरह के दीन - हीन व्यक्ति के ही जस्टिस की बात लिखी गई होगी शायद - 

दीन सबन को लखत है, दीनहीं लखे न कोय ।

जो रहीम दीनहीं लखै, दीनबंधु सम होय ।।

    अर्थात एक गरीब व्यक्ति के लिए समाज की सारी मान-मर्यादा एवं मानवीय मूल्यों का पालन करना अनिवार्य हैं वह सब का ध्यान रखता है, उसे रखना भी चाहिए, किंतु उसके विषय में उसका ध्यान रखने के लिए कोई तैयार नहीं है। और जो व्यक्ति समाज के इन दीं-दुखिओं  के विषय में सोचता है उनका ध्यान रखता है वह दीनबंधु अर्थात ईश्वर के समान है।  उनके जस्टिस के लिए सामने आता है वह उसके लिए साक्षात परम ब्रम्ह है।


    उसके द्वारा प्राप्त जानकारी को मैंने अपने अधिकारी से शेयर किया वस्तु स्थिति से उन्हें अवगत कराया और उन्होंने उस व्यक्ति की स्थिति को देखते हुए एक अभूतपूर्व निर्णय लिया।


         उन्होंने उसके शपथ पत्र को यह मानकर खारिज कर दिया कि वृद्ध की मानसिक स्थिति ठीक प्रतीत नहीं होती है और ना ही वह इस अवस्था में अपने हित के लिए कोई निर्णय लेने में सक्षम है। अतः स्वविवेक का प्रयोग करते हुए उन्होंने 10 बीघे जमीन का बंटवारा तीन बराबर हिस्सों में किया और जानकारी के मुताबिक उस वृद्ध को वह हिस्सा भी दिया जो उपजाऊ हो। 


    मैं यह भी जानता हूं कि उसकी सहमति के बाद इस तरह का निर्णय देना खतरनाक था. वह वरिष्ठ न्यायालय में एक अपील पर भी खारिज हो सकता है, और शायद ऐसा हुआ भी हो, मुझे नहीं पता. किंतु इस तरह उनका आगे बढ़कर आना और उस व्यक्ति को न्याय देना वह भी न्यायिक प्रक्रिया के कुछ नियमों को शिथिल करते हुए उनके द्वारा समाज में अनैतिक एवं मानवीय मूल्यों के पतन को रोकने का पहला कदम था और मैं दिल से उनके इस कदम को सलाम करता हूं।


    कभी-कभी न्यायिक प्रक्रिया में इंसान न्यायिक उप बंधुओं के अधीन रहकर वह फैसले भी करता है या यूं कहिए करने पर मजबूर होता है, जो वास्तव में समय व् परिस्थित के मद्देनजर न्याय नहीं है। जब वह व्यक्ति अपनी भूख से नहीं लड़ सका तो अपने जीवन से समझौता करने के लिए तैयार हो गया और वह गवाही देने भी आया उसने शपथ पत्र भी दिया। किंतु उसकी स्थिति उस समय जो थी ,  उसके उसी स्थित को देखते हुए मेरे माननीय अधिकारी ने अपना फैसला तत्कालीन न्यायिक व्यवस्था को शिथिल करते हुए उसके हित में रखा बावज़ूद कि वह वरिष्ठ न्यायालय में अपास्त हो सकता हैं. उन्होंने उस व्यक्ति के हितों की रक्षा की , उसे न्याय दिया। 

        तो अब आप कह सकते हैं कि न्यायालय में लिखे उस दोहे का उन्होंने पालन किया या उसकी लाज रख ली.

     मैं उन्हें व् उनके इस फैसले को दिल से सलाम करता हूं।

शैलेन्द्र एस. 'सतना'

9 comments:

  1. श्रीमान लेखक महोदय जी को मेरा सादर नमस्कार 🙏🏻

    उक्त वृत्तांत को मैंने पूरे धैर्य के साथ पढ़ा। निश्चित ही यह कोई नई घटना नहीं है, ऐसी घटनाएँ आस-पास देखने को मिल जाया करती हैं। गौरतलब है कि वृत्तांत के अंत में दिया गया निर्णय सराहनीय रहा, जो वास्तव में मानवता की रक्षा का एक उत्तम उदाहरण है।
    साथ ही आपका प्रस्तुतीकरण भी निःसंदेह उत्कृष्ट और सराहनीय है। भाषा शैली उत्तम है और क्षेत्रीय शब्दों, जैसे- उकड़ू-मुकड़ू आदि, का चयन प्रशंसनीय रहा।

    मेरी शुभकामनाएं 🙏🏻🙏🏻🌹

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  2. कृष्ण युवराज सिंह को मेरा बहुत-बहुत धन्यवाद कि उन्होंने धैर्य के साथ इस आर्टिकल को पढा। आपके द्वारा लिखे गए यह कुछ शब्द ब्लॉग में कुछ सार्थक लिखने के लिए मुझे सदैव प्रेरित करते रहेंगे। 🙏

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  3. Bahot khoob chacha ji yah hakikat hai.. koi nahi hai apna is duniya me jab tak hai dam tab tak hai ham . Budhape me bacha hai sirf sirf gam

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    1. हम जो देखते हैं, अनुभव करते हैं, वही साहित्य हैं इसीलिए कहते हैं साहित्य समाज का दर्पण होता है

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