Sunday, May 30, 2021

तुम कहां गए ? - 1

  

  उसका यूं मिलना, मिलकर यूं बिछड़ना, किसी रोमांटिक कहानी की शुरुआत नहीं हो सकती।  सितंबर माह की उमस-भरी गर्मी और तीखी धूप भरी दोपहर, और सरे-राह चलते उसका, मुझसे यूँ  मिलना। 

       सच, न हवा की नरमी थी, न बादल की रिमझिम, न कोई पुरवाई, न कोई ढलती सांझ का छितिज। न चंद्रमा की श्वेत धवल चंचल चांदनी भरी रात। कुछ भी तो ऐसा नहीं था,  जिसे मैं एक रोमांटिक कहानी की शुरुआत कह सकूं।  शायद इसलिए कि इस कहानी का अंत भी निचाट गर्मी भरे दिनों की दोपहर की तरह ही होना था। 

    प्रश्न भावुकता का नहीं यथार्थ का था।  संयोग भी एक यथार्थ था, और वियोग भी। लेकिन हां, इस मिलन और बिछोह के बीच भावुकता के कुछ पल, हृदय के स्पंदन, भावनाओं का वेग, आवेग, आंसू , दर्द, प्रतीक्षा के कुछ पल है।  


    समंदर से उठती लहरों का साहिल पर आकर यू बिखरना, फिर सिमट कर उसी तरफ लौट जाना, उसी में  विलीन हो जाना, सभी कुछ तो नियत के हाथ निश्चित था।   


       सागर कितना भी गहरा क्यों न हो, उसकी लहरें हमेशा किनारों को ही आकर चूमती हैं। सागर अपनी सारी महत्ता और गुरुता को त्याग कर कुछ पल के लिए ही सही खुद को अपनी लहरों में समेट कर अपने किनारे से आकर मिलता है।

और तुम ?

तुम कहां गए ?

मेरे मन को पढ़ लेने का दावा करने वाले, मुझको खुद से अधिक समझने की समझ रखने वाले, हां तुम, कहां गए ? 


      क्या तुम कभी मेरे अंतर्मन को पढ़ पाए ? उसे समझ सके ?  


       अपने उसी अंतर्मन में तुम्हारे लिए प्रेम के अनगिनत पुष्पों की माला पहनी थी मैने। क्या कभी देख पाए उसे ?


       तो लो आज उसी पुष्पमाला को तोड़ निरपेक्ष भाव से,  तटस्थ रहते हुए,  अपनी  समस्त भावनाओं के पुष्पों को, अपनी अंजुली में समेट, अब तुम पर ही  बिखेरती हूँ। तुम पर ही न्योछावर करती हूं।

साहिल पर खड़ी तू बेखबर,

लहरों से जूझता मेरा मुकद्दर,

क्या जरूरी था ? बेवजह था ?

मानाकि तुझे मेरे जाने का,

कोई अफ़सोस नहीं,

माना यह भी कि,

तूने आंसुओं के समंदर पार किए,

 खुद को गुनहगार ना समझ लूं मैं,

शायद यही सोचकर,

 चेहरा घुमा लिया होगा तूने,

 पर इसका क्या ?

 किसने किसको सजा दी ?

 कौन किसका गुनहगार ठहरा ?


 सदियों से चलते रहना मेरा,

 सदियों से जलते रहना तेरा,

 यूं भटकना, बेवजह तो ना था! . . .


      यही एक कविता लिखी थी तुमने मेरे लिए। और भी लिखी होंगे शायद।

         कुछ मैंने पढ़ी होंगी, और कुछ जो अध - लिखे पन्नों में सिमट के रह गई होगी शायद। कुछ हवा के झोंकों से उड़ गई होंगी,  कुछ तुम्हारे बिस्तर की सिलवटों में अब भी बिखरी होगी शायद !


        शायद ! इस अनिश्चयवाचक शब्द में, ना जाने कितने अनकहे निश्चयओं को समेटे होंगें शायद !

काश ! 

एक बार कुछ इस तरह मिले होते मुझसे, जैसा कि मैंने चाहा था कि तुम मिलो मुझसे।

 काश ! !

कभी तो कहां होता तुमने, जैसा कि मैंने चाहा था कि तुम कहो मुझसे । 

काश ! !

चाहने या ना चाहने के अंदाज़ से जुदा, कुछ अलग चाहा होता तुमने।

काश !!

      मेरी चाहतों के अनछुए पहलू से भी, कभी तो मिले होते मुझसे। काश ! कुछ इस तरह से मिले होते मुझसे।

काश ! !

मानाकि मुझे मेरे जाने का कोई अफसोस नहीं,

माना कि मैंने आंसुओं के समंदर पार किए,

खुद को गुनहगार ना समझ ले तू,

हां ! यही सोच कर चेहरा घुमा लिया था मैंने।

सदियों से चलते रहना,

 तेरा यूं भटकना,

बेवजह तो ना था ।

पर कहती हूं,  हां !

आज तू गुनहगार मेरा . . .

To be continued . . . Part 2

Shailendra S.


3 comments:

अजनबी - 2

अजनबी (पार्ट 2)       पांच साल बाद मेरी सत्य से ये दूसरी मुलाकात थी। पहले भी मैंने पीहू को उसके साथ देखा था और आज भी देख रहा हूं...