तुम तो मेरे अपने थे। सच, अपना ही माना था तुम्हे । तुम जब भी मेरे सामने आए, मैं ठीक उसी तरह मिली, जैसा कि मैं थी। तुम्हारे सामने सज - संवर कर आने की दिल से कोई ख्वाइश न हुई। जैसी थी वैसे ही आई।
खुद की अपनी वह तस्वीर, कभी इतनी प्यारी ना लगी, जब तक तुम न लिख गए,
'हां! यही एक तस्वीर है मेरे पास' . . .
कनखियों से छुप कर मुझे देखती आंखे,
कानों में लटकती छोटी-छोटी बालियां,
वजूद की सारी गर्मी समेटे हुए ये होठ,
किसी के आने की आहट पा चुप हो गए हैं।
गालों को छू लेने की, अधूरी लिए आस,
सलीके से सवारे गए ये रेशमी बाल।
नर्म मुलायम ये सिंदूरी गाल ।
. . . . .
मैं आज भी जब कभी अपनी वह तस्वीर देखती हूं, तो तुम्हारी यही कविता याद आती है मुझे । यह तो सच है कि मैं तुम्हें कनखियों से ही देखा करती थी।
शायद पढ़ने की कोशिश करती थी कितनी सच्चाई है तुम में, और तुम्हारी इन आंखों में। कितनी चाहत है मेरे लिए ।
और न जाने क्यों मुझे हर बार यही महसूस होता कि तुम वह नहीं हो, जैसा कि तुम दिखना चाहते हो।
तुम्हारी हर एक बात झूठी लगती थी मुझे। कुछ नहीं बस शब्दों के जादूगर थे तुम, जो मेरा मन मोह लेना चाहते थे।
पता नहीं क्यों, कभी विश्वास ही ना कर पाई तुम पर। जबकि तुम्हारे हर एक शब्द मुझे यकीन दिलाना चाहते थे कि बस यही एक सच्चाई है, मेरे लिए, तुम्हारे मन में -
जिंदगी के अधूरे कैनवास पर,
जिंदगी से उल्लासित एक चेहरा।
वीरान तपते पत्थरों के बीच,
मेरे वजूद का एहसास दिलाता एक चेहरा।
बरसते बादल, कड़कती बिजली,
के बीच दमकता एक चेहरा।
मेरी बेजान उदास रातों में,
मेरे साथ हंसता मुस्कुराता एक चेहरा।
मेरे मन में उसे छू लेने के लिए आस,
हां ! तुम्हारी यही एक तस्वीर है मेरे पास।
. . . . . . .
सच में ! क्या केवल यही एक तस्वीर थी तुम्हारे पास ? और कोई नहीं ?
जाओ, नहीं मानती मैं। और मान भी लूं तो कैसे ? क्या तुम कोई देवात्मा थे ? जो मानवीय कामनाओं व आकांक्षाओं से परे रहे।
तुम क्या समझते रहे कि शब्दों के जाल फेकते रहोगे और मैं उनमें उलझ कर फसी हुई तुम्हारे पास चली आऊंगी ? कितने नादान थे तुम !
क्या तुमने जिंदगी को इतना आसान समझ लिया था? यदि तुम मुझे जानते, मुझे समझते, तो तुम्हें यह भी पता होता कि जब मैंने अपनी सारी इच्छाओं को, सारी कामनाओं को समेट कर उनके दायरों में रहना सीख लिया था, तो फिर तुम कैसे मेरी जिंदगी में कोई तूफान ला सकते थे ?
खुद ही अपनी जिंदगी को मिटा कर अपनों के लिए जब जीना सीख लिया था मैंने, तो तुमने कैसे समझ लिया कि तुम्हारे लिए ही सही, मैं फिर से अपनी खत्म हुई उस जिंदगी को दोबारा शुरू कर सकती हूं?
केवल सामाजिक मर्यादाए टूटती तो मैं जरूर तोड़ देती। लेकिन अपनों का साथ कैसे छोड़ देती। उनका विश्वास कैसे तोड़ देती ? जबकि खुद मैंने भी तो, तुम्हें अपना ही मान लिया था ?
मैं अपनी उलझनों में उलझती रही, उसे समझने के लिए तुम मुझसे उलझते रहे।
यही तो वह सच था मेरे दोस्त ! जिसे ना तो तुम स्वीकार कर पाए और ना मैं कभी तुमसे कह पाई . . .
To be continued . . . Part 3
Shailendra S.
Writing style "Wondering"
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