तुमने हमेशा कहा कि तुम रिश्ते नहीं बनाते, शायद किसी रिश्ते को निभाने में नाकाम रहे हो तुम।
तभी तो कभी नहीं चाहा कि तुम मुझसे कोई रिश्ता बनाओ। बिल्कुल अजनबी की तरह मिलते रहे मुझसे। शायद बंधन भी तुम्हें स्वीकार नहीं थे।
कभी तुम, कभी आप, कभी तू, संबोधनो की तरह तुम्हारा व्यक्तित्व भी मेरे लिए उलझा ही रहा। न तुम कभी समझ पाए कि तुम मुझसे क्या चाहते हो और न ही मुझे समझा सके।
लेकिन मै .... ?
मैं उस दौर में थी, जहां हर छोटे-बड़े रिश्ते मेरे सामने मौजूद थे। उन रिश्तो को कायम रखना मेरी सबसे बड़ी जिम्मेदारी थी। छोटे से छोटा रिश्ता भी मेरे लिए अहमियत रखता था।
और ?
एक ऐसा रिश्ता भी था, जिसे लोग सात जन्मों का, तो कुछ लोग जन्म-जन्मांतर का भी कहते हैं। उस एक रिश्तों को निभाने के लिए ये जरूरी था कि मैं तुम्हे जन्म - जन्मांतर के लिए उपेक्षित ही रखू।
मै नहीं समझती कि तुम इतने नादान थे कि तुम्हे कुछ दिखाई न दिया होगा। कुछ भी तो नहीं छुपाया था मैंने, और मेरे लिए इसकी जरुरत भी क्या थी?
कौन सा मै तुम्हे चाहती थी ? और तुम ? तुम जहां भी हो, आज ये सवाल अपने मन से नहीं अंतर्मन से पूछना ? दोनों में फर्क होता है न ! इसलिए कह रही हूं।
मैंने देखा था कि मन से तुम कितने ही चचल कियूं न रहे हो, तुम्हारा अंतर्मन उतना ही शांत और निश्चल था।
तुम्हारी कुछ कविताएं मुझे आज भी याद है -
दूर जाकर फिर मेरी खबर ना लेना,
फिर तेरा कभी यूं पलट कर ना देखना,
मेरी तनहाइयों में तेरा, यूं बार बार आना,
हर रात छीन लेना मुझसे, मेरे चांद सितारे,
वीरान आसमा, काली स्याह रातों में,
हर रात् तेरी उजली तस्वीर बनाना,
सच कहता हूं, बिल्कुल अच्छा नहीं लगता।।
कितनी अजीब विडंबना है, लिखा तुमने और जीने के लिए मुझे छोड़ गए। एक यथार्थवादी और प्रैक्टिकल इंसान को भावनाओं के धरातल पर लाकर खड़ा करना और फिर उससे यूं दूर चले जाना, क्या सही है, मेरे दोस्त ?
वे संवेदनाएं जिनका मैं कब का परित्याग कर चुकी थी। उन्हें सवेग प्रवाहित कर बीच मझधार में छोड़ कर खुद किनारे पर आकर खड़े हो जाना, जहां कभी मैं थी ! बताओ क्या सही है ?
तुम ही कहते थे ना कि पत्थरों पर कभी कदमों के निशान नहीं होते, लेकिन कभी सोचा है कि जब हो जाते हैं तब ? वह निशां अमिट होते हैं, मेरे दोस्त।
तुमने मुझे पत्थर और पत्थर दिल भी कहा, लेकिन सच, मैं ऐसी नहीं थी, और ना ही आज हूं। मैं खुद को जस्टिफाई नहीं कर रही हूं। बस मेरे कहने का अर्थ यह है कि यदि तुम ऐसा समझते थे, तो तुम सरासर गलत थे।
पत्थर के शहर होंगे,
तो न कदमों के निशान होंगे।
कातिल जो ठहरी आज तेरी निगाहें,
तुझे कसम है उन्हीं निगाहों की।
पत्थर के इसी शहर में,
तेरे अश्कों के निशा होंगे ।
मेरे दोस्त कहो तो जरा मुझसे ! यह कौन सी दुआ देकर गए हो मुझे ? बताओ तो जरा मुझे ?
तो लो ! जो तुमने चाहा था, वह हो गया। मान लिया यदि मैं पत्थर दिल हूं, या पत्थर ही हूं, तो उसमें तुम्हारी यादों के निशान पड़ चुके हैं।
यदि ना पड़े होते तो आज क्यों तुम्हे पुकारती ' तुम कहा गए ' ! अपनी भावनाओं को त्याग कर मैं बेजान पत्थर बनी तभी तो तुम शिल्पकार बने।
अब बताओ ? तुम शिल्पकार कैसे बन सकते थे, यदि मैंने खुद को पहले पत्थर ना बनाया होता ?
To be contacted . . . Part 4
Shailendra S.
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