Sunday, October 10, 2021

अर्धनारीश्वर

ऑफिस का माहौल उसके लिए बिल्कुल नया था। स्कूल, कॉलेज के जमाने में राह चलते कुछ मनचलों को सीटी मारते, कमैंट्स करते उसने देखा और सुना था। किंतु यहां सभ्य और सुसंस्कृत वातावरण में उसे ऐसा माहौल मिलेगा उसने कल्पना नहीं की थी।
    बात - बात पर निकम्मी और बेहूदी हंसी मजाक करने वाले, और गुडलक कह कर जबरन पीठ थपथपा देने वाले, बिना किसी अचीवमेंट के वेल्डन कहते हुए अपना हाथ बढ़ाकर इस आशा के साथ कि वह उन से हाथ मिला लेगी, और तब वे अपने पुरुषत्व का परिचय देंगे। और ना जाने कितनी ही ललचाई और स्वप्नदर्शी आंखे जिनमें शायद उस से गले मिलते, उसके साथ लिपटते, चूमते दृश्य को कैद करने की क्षमता लिए, येसे न जाने कितने लोगों को उसे रोज सामना करना पड़ता था। आश्चर्य तो उसे तब होता जब इस श्रेणी में उम्रदराज भी होते, शायद स्त्री देह से इनकी जिज्ञासाएं अभी भी समाप्त नहीं हुई थी।  

    उसका एक वर्ष का अनुभव उसे प्रतीत होता जैसे 10-20 साल उसे इन्हीं के बीच रहते गुजरा हो। हर रोज उसे मर कर फिर जीना पड़ता था।

       मोहित !! उसका सब कुछ, दोस्त, पति, हमदर्द। उसके यू लाचार होने से वह अचानक ही अपने आप को इन मुश्किलों में कैद पाती है। यदि मोहित का एक्सीडेंट न हुआ होता तो शायद वह अभी भी आराम से घर पर घरेलू कामकाज करके अपनी पसंद का टीवी सीरियल देख रही होती।

एक्सीडेंट इतना भयानक था की मोहित की सांसे तो बच गई लेकिन उसके दोनों पैर लगभग नाकाम हो गए। अब डॉक्टर की माने तो मुश्किल है कि पूरे जीवन वह दोनों पैरों पर सामान्य जिंदगी चल कर गुजार सके। हो सकता है की दो-तीन सालों बाद वह व्हीलचेयर में बैठने लायक भी हो सके, कौन जाने ?

     विपत्ति के समय अपनों की हमदर्दी बहुत बड़ा सहारा होती है। उनके द्वारा की जाने वाली मदद को हम ईश्वर की मदद मान स्वीकार कर लेते हैं।

    और यही हमदर्दी उसे मोहित के मित्र अशोक से मिली। एक दिन, जब वह घर आया तो उसने मोहित को बताया कि मैनेजमेंट तुम्हारे स्थान पर सृष्टि को सर्विस देने के लिए तैयार हैं। इतनी बड़ी कंपनी और बिना किसी एक्सपीरियंस के वह सिर्फ तुम्हारे लिए यह करने के लिए तैयार है। अब तुम्हें और सृष्टि को सोचना है कि उनके इस ऑफर को स्वीकार करते हो या नहीं।

सृष्टि स्वाभिमानी थी। उसने माता - पिता या भाई बहन की मदद लेने के स्थान पर इस ऑफर को स्वीकार करना अधिक उचित समझा। ऐसा नहीं है कि उसके पिता उसकी मदद नहीं करना चाहते। मोहित के ट्रीटमेंट के समय सभी साधन सुविधा, डॉक्टर इत्यादि की व्यवस्था उन्होंने स्वयं की थी, बावजूद इसके कि कभी सृष्टि ने उनके खिलाफ जाकर मोहित से लव मैरिज की थी।

     कुछ भी हो पिता ने अपना फर्ज निभाया और आगे के लिए भी यही कहा कि बेटी किसी भी प्रकार की दिक्कत हो परेशानी हो तो संकोच मत करना लेकिन स्वयं के स्वाभिमान की बात होती तो वह कहती भी लेकिन यहां तो मोहित के स्वाभिमान को भी ध्यान में रखना था।

        इसलिए उसने पिता से अधिक सहायता लेने के लिए कभी सोचा ही नहीं। आभाव ग्रस्त जीवन जीते हुए सभी से कहना कि सभी कुछ ठीक-ठाक चल रहा है, आसान नहीं होता है। लेकिन उसने इसे आसान बनाया।

   सभ्यता की चाशनी में लिपटे हुए दो अर्थीय अश्लील शब्द और अशोक का बिना वजह बार-बार उसे छू लेना अब उसे अखरने लगा था।
 उसकी निजी जिंदगी से संबंधित उसके प्रश्न उसे विचलित करने लगे।

     जैसे सृष्टि अब तुम्हारा क्या होगा ? अभी तो पूरी जिंदगी पड़ी है ? कैसे जी सकोगी ? मुझे मोहित के लिए पूरी हमदर्दी है लेकिन उसके साथ मैं अक्सर तुम्हारे बारे में भी सोचता हूं। तब मुझे बहुत दुख होता है। 

     अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है ? कैसे तुम पूरा जीवन उसके साथ गुजार सकोगी जबकि उसके चलने फिरने की अब कोई आशा ही नहीं?

     हद की परकष्ठा तो उस दिन हो गई जब उसने बच्चों के जन्म होने या न होने की संभावना पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दिया ?

    लेकिन खुद के अपमान से अधिक मोहित का अपमान होते देख उसे बहुत दुख हुआ था। वह सोचने लगी, कैसा दोस्त है यह ! जो दोस्त की विपत्ति में साथ तो दे रहा है लेकिन उसकी नजर बराबर उसकी पत्नी पर है। 

    वह खुले तौर पर न सही किंतु अप्रत्यक्ष रूप से क्या कहना चाहता है वह भली-भांति समझने लगी थी।

एक दिन उसने नोटिस किया की अशोक अक्सर उसे छू लेने और पास आने के इरादे से, उसके माथे की बिंदिया यह कहकर दुबारा चिपकाता है , "देखो न, तुमने आज भी तिरछी लगाई है. "

      और बॉस !  वह भी कम आशिक मिजाज न थे। बिना वजह के बस केबिन में उन्हें सृष्टि चाहिए। किसी ना किसी बहाने वह उसे दो-तीन बार तो बुला ही लेते थे। 

      उसे बॉस से मिलने का पहला दिन भी अच्छी तरह से याद है। जब अशोक ने बॉस के केबल मैं उसे लगभग ठेलते हुए ले गया था ,
    "सर ये सृष्टि हैं, वही मोहित की वाइफ। मैंने इन्ही के लिए आप से बात की थी "

        बॉस की नजरों से उसे ऊपर से नीचे तक देखा था। पूरे शरीर का एक्स-रे लेने के बाद वह कुछ मुस्कुराते हुए बोले " आह, सृष्टि ! वेरी नाइस नेम, नाइस लेडी। प्लीज सिट। एक्सपीरियंस नथिंग ? कोई बात नहीं। अशोक है, सब कुछ समझा देगा। वैसे मोहित हमारा बहुत ही काबिल एम्पलाई था। रियली ही डिजर्व इट, मैंने कोई एहसान नहीं किया है। टेक इट ईजी। 

" मोहित एक काबिल एम्प्लॉय था ! " ये " था " उसे चुभा था।

यहां भी बॉस की एक बात उसने नोटिस की। जब भी बॉस उसे बुलाते हैं, पता नहीं क्यों उसके मुख से पहले " ब " शब्द निकलता है। 

    जिस शाम लौटते वक्त अशोक ने उसे बच्चों के होने या ना होने की संभावना के बारे में छेड़ा तो उसका मन बहुत खराब हो गया। वह घर आ कर मोहित से लिपटकर सुबक सुबक के रोने लगी।

" मुझे नहीं करना यह नौकरी। मैं नहीं कर सकती। बहुत बुरे लोग हैं वहां। पता नहीं क्या-क्या बातें करते हैं। कभी मेरे बारे में कभी तुम्हारे बारे में। अब मैं नहीं सह सकती . . . मैं नहीं सह सकती मोहित! मैं किसी दूसरी जगह जॉब तलाश कर लूंगी। प्लीज अब वहां मुझे जाने के लिए मत कहना।"

    मोहित ने उसे दिलासा दिया। उसके बाल को सहलाते हुए कुछ देर उसे चुप करता रहा। फिर हंसते हुए बोला " कहां जाओगी सृष्टि ? किस दुनिया में जाओगी ? जहां भी जाओगी कुछ इसी तरह के लोग मिलेंगे जो किसी न किसी बहाने तुम से हमदर्दी जताएंगे और फिर तुम्हारा इस्तेमाल करना चाहेंगे। ऐसा नहीं है कि इस दुनिया में अच्छे लोग नहीं हैं ? होते हैं, बस हम उन्हें पहचान नहीं पाते।

      हम अंतर नहीं कर पाते वास्तविक और झूठी हमदर्दी के बीच। यह गलती तो हमारी स्वयं की है, फिर दोषी क्यों किसी और को ठहरा सकते हैं। अब यह मान कर चलो कि यह समस्या, अब तुम्हारी है। अब तुम्ही को इसे फेस करना है। यदि मैं किसी से कुछ कहूं भी तो क्या कहूंगा ? यही कि मेरी बीवी को लाइन मारना बंद कर दो ?

      तुम अपने विश्वास को कायम रखो। उसी पर चलो। और मुझे ? कहने दो डॉक्टर जो कहता है !  मुझे पूरा विश्वास है कि मैं एक दिन अपने इन्हीं पैरों पर चलने लायक बन जाऊंगा। तब हम दोनों इस दुनिया को एक साथ फेस करेंगे। तब तक यह दुनिया अब तुम्हारी दुनिया है। इससे जैसे भी लड़ना चाहो लड़ो। जैसे भी उलझना चाहो उलझो, मैं नहीं रोकूंगा। और हां जहां तक विश्वास की बात है, विश्वास मैं तुम पर पहले भी करता था, और आज भी करता हूं !

      मैं तुम्हें स्वतंत्र करता हूं, और वादा करता हूं कि जब और जहां मेरी जरूरत होगी मैं तुम्हारे साथ रहूंगा। फिजिकल ना सही लेकिन एक सोच बन कर।

मोहित के शब्दों ने जादू किया। वह कुछ निश्चय कर उस रात गहरी नींद सोई। अगले दिन हैप्पी न्यू ईयर का दिन था। उसने अपनी मनपसंद की ड्रेस पहनी और माथे की बिंदिया को जानबूझकर थोड़ा तिरछा ही लगाया।

    वह ऑफिस पहुंची और सीधे बॉस के कमरे का बेबाकी से दरवाजा खोलते हुए एंट्री ली ,  " हेलो सर ! हैप्पी न्यू ईयर "

     बॉस उसे अचानक सामने देख चौक गए, और हमेशा की तरह वही शब्द उसके मुख से पहले निकला " अरे श्रृष्टि आओ आओ ब . . ."

      वे शब्दों में कुछ सुधार करते, उससे पहले ही सृष्टि ने तपाक से कहा,  " कोई बात नहीं सर, बेटी ही कहिए न! वैसे भी मेरे बराबर की तो आपकी बेटी होगी, निकल जाता है मुंह से, कोई बात नहीं। "

     बॉस झेप गए, बस इतना ही कह पाए, " हां .. हां क्यूं नहीं " 

      वह वापस अपने केबिन पर आई प्रवेश करते ही उसने देखा कि अशोक वहां पहले से ही मौजूद है। और ठीक वही हुआ जैसा कि उसने सोचा था।

" अरे सृष्टि! तुम तो हद करती हो !! अब देखो, यह बिंदिया तुमने आज फिर तिरछी लगाई है। अच्छा नहीं लगता न। कोई बात नही चलो मैं ही ठीक कर देता हूं . . .

      अशोक के बढ़े हुए हाथ को सृष्टि ने कठोरता से पकड़ लिया और मुस्कुराते हुए कहा,

        " कोई बात नहीं अशोक, मैं ठीक कर लूंगी। वैसे भी यह शिव की तीसरी आंख है, हाथ लगाओगे तो जल कर भस्म हो जाओगे।  बच के रहना, कोई कामदेव इसे छू नहीं सकता"

सृष्टि के इस अंदाज से अशोक भौचक्का रह गया। कुछ लज्जित और तिलमिलाते हुए बोला, 
" सृष्टि ! शायद तुम भूल रही हो, तुम शिव नहीं शिवा हो . . . 

    भला सृष्टि कहां चुप रहने वालों में से थी। आखिर उसने भी लिटरेचर से पी. एच. डी. की है।  वह उसी अंदाज में मुस्कुराते हुए बोली,

" नहीं मिस्टर अशोक! शायद तुम भूल रहे हो शिव और शिवा एक दूसरे से अलग नहीं। शायद इसीलिए वही एकमात्र देवता हैं जिन्हें हम अर्धनारीश्वर के रूप में भी पूजते हैं, क्यूं ? "

      अपने आप को अपमानित महसूस करता हुआ अशोक बिना कोई जवाब दिए केबिन से बाहर निकल गया।

       उसने एक नजर पूरे कमरे में दौड़ाई। कम उम्र का वह लड़का जो घंटी बजाते ही उसकी सेवा में हाजिर हो जाता है, उसने बखूबी इस कमरे को सजा कर रखा है। वह थोड़ा सा मुस्कुराते हुए उस जगह पर आकर खड़ी हो गई जहां से सातवीं मंजिल से नीचे का नजारा साफ देखा जा सकता था। रोड पर चलने वाले इंसान गुड्डे गुड़ियों जैसे दिख रहे थे। मोटर कार खिलौनो जैसी। अचानक ही उसे महसूस हुआ कि आज वह उस वास्तविक ऊंचाई पर खड़ी है, जिसके लिए वह डिजर्व करती है।

       उसने खिड़की के पूरे परदे खोल दिए ठंडी हवा का झोंका अंदर आया उसने गहरी सांस ली और टेबल पर रखी घंटी बजा दी। लड़का शालीनता के साथ सामने हाजिर हो गया , " जी मैम !"

   वह उसके पास पहुंची और उसकी तरफ हाथ बढ़ाते हुए बोली, " हैप्पी न्यू ईयर "

     लड़का सकुचा गया। पद की गरिमा का ख्याल रख उसने कहा, " नहीं मैडम, मैं आपसे हाथ कैसे मिला सकता हूं !! "

तब उसने उस लड़के का हाथ पकड़ कर उससे हाथ मिलाया, और कहा , "क्यों नहीं मिला सकते ? तुम जरूर मिला सकते हो "

वह लड़का बहुत खुश हुआ, " थैंक्स मैम ! "

वह थोड़ा सा मुस्कुरा दी , " अच्छा तुम जाओ, और जब आफिस में फंक्शन शुरू हो तो मुझे बता देना। मैं भी चलूंगी । "

      वह लड़का जिस शालीनता से आया था उसी शालीनता से दरवाजा बंद करके बाहर निकल गया।

       वह अपनी रिवाल्विंग चेयर पर आराम से बैठ गई। मोहित के शब्द उसे याद आ रहे थे -
" इस दुनिया में अच्छे और बुरे दोनों तरह के लोग मिलेंगे। यह हमारे ऊपर है कि हम उन्हें सही ढंग से पहचाने। यदि हम उन्हें पहचानने में गलती कर जाते हैं तो यह गलती हमारी है उनकी नहीं . . . अब ये दुनिया तुम्हारी है  . . जिस तरह से भी चाहो इसे फेस करो  . . . मैं तुम्हारे साथ हूँ। 

Shailendra S.


2 comments:

  1. मैने यह कहानी पूरी पढ़ी, वास्तव में इस कहानी में सृष्टि के पात्र में मैं ने खुद को महसूस किया। Yah kahani me realty Hai Ki मैं कभी सोचती हूं कि क्या वास्तव में ऐसे लोग भी होते हैं। खुद को पत्थर बनाने से अच्छा है की रेत बन जाओ और किसी की पकड़ में न आओ। कहानी का अंत मुझे बहुत अच्छा लगा जब सृष्टि ने ऑफिस में काम करने वाले एक छोटे पद के उस लड़के से हाथ मिलाया जिसके लिए उसकी भावनाएं निश्चल थी। हम यही तो गलती कर जाते हैं जिन पर विश्वास करना चाहिए नहीं करते और जिन से सावधान रहना चाहिए उन पर आसानी से विश्वास कर जाते हैं। आप हमेशा यूं ही अच्छा लिखते रहें मेरी शुभकामनाएं हैं।

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