दिल से लिए गए फैसले सही होते हैं लेकिन यह जरूरी नहीं कि वह फैसले आपके लिए हितकारी ही हों।
एक छोटी सी कहानी कहता हूं :
एक शहर में एक प्राचीन मंदिर था। वहां का पुजारी वंश परंपरा के अनुसार ही होता था। यानी पुजारी का लड़का ही पुजारी बनता था। यही परंपरा थी। मंदिर में जो चढ़ावा आता भेंट स्वरूप जो श्रद्धालु भेंट चढ़ाते उनकी चोरी कर-कर के वह परिवार धीरे-धीरे शहर का एक धनाढ्य परिवार बन गया।
उसी शहर में एक चोर था। जो बेहद ही चालाक और शातिर था। यह भी उसके कुल खानदान की परंपरा थी। यह हुनर पीढ़ियों से उसके घर - परिवार में चल रहा था। मानवता और इश्वर पर अटूट विश्वास था। प्रत्येक सुबह मंदिर जरूर जाता। चोरी किए गए धन का कुछ भाग वह मंदिर में चढ़ावे के रूप में चढ़ाता और कुछ गरीबों में बांट देता। शेष भाग से वह अपने घर परिवार का भरण-पोषण करता।
एक दिन वह चोर जब पुजारी के घर से चोरी करके जैसे ही बाहर निकल रहा था, उसी समय रात में आवारागर्दी करने वाले कुछ लोगों ने उसे देख लिया और उसे मारने के लिए पीछे दौड़ पड़े। चोर भागते - भागते उसी मंदिर जो कि रास्ते पर था, उसमे घुस गया और दरवाजा अंदर से बंद कर लिया। उसने सोचा कि ठंड के दिनों की रात है, भयानक ठंड पड़ रही है। लोग कुछ देर तक उसका इंतजार करेंगे। उस जैसे निकृष्ट चोर को मारने के लिए मंदिर तो तोड़ेंगे नहीं, फिर ठंड की वजह से स्वयं ही चले जाएंगे। तब वह प्रातः काल मंदिर का दरवाजा खोलकर यहां से चुपचाप निकल जाएगा।
यह बात जब पुजारी तक पहुंची तब सर्वप्रथम उसने अपने घर में चोरी हुए सामान का अंदाजा लगाया। कोई विशेष बड़ी चोरी नहीं थी। उस परिवार की अकूत संपत्ति का मात्र एक अंश भाग ही वह चोर ले गया था। वह कुछ निश्चिंत हुआ और उसी मंदिर के पास पहुंचा जहां पर चोर ने अपने आपको नजरबंद कर लिया था।
उसने चोर को कई प्रलोभन दिए जैसे कि तुम बाहर आ जाओ और चुपचाप चले जाओ। तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा। अच्छा चलो, सामान वापस कर देना और फिर चले जाना। लेकिन चोर को उसकी बात पर यकीन नहीं हो रहा था। वह जानता था पुजारी की कथनी और करनी में फर्क है, और चलो मान लो उसने छोड़ दिया लेकिन यह भीड़ उसे कैसे छोड़ देगी। अपना हाथ तो साफ करेगी ही। इसलिए वह बाहर आने से डर रहा था। जब काफी देर तक वह बाहर नहीं आए तो पुजारी ने एक तरकीब सोची।
उसने मंदिर के चौकीदार को पीटना शुरू किया और भीड़ से कहा, " यही है, जो चोरी करवाता है ! नहीं तो यह मंदिर का चौकीदार था तो इसकी जानकारी के बगैर यह चोर मंदिर में कैसे घुस सकता था।"
तर्क सही था। भीड़ ने आव देखा ना ताव, वह भी उसी चौकीदार को पीटने लगी। चौकीदार मार खाते-खाते जब अधमरा सा हो गया तो तो उसने ईश्वर को पुकारा,
" हे भगवान तुम तो जानते हो मेरी गलती तो सिर्फ इतनी है कि मैं कुछ देर के लिए सो गया था। तभी चोर मंदिर में घुस गया। इसमें मेरी कोई गलती नहीं है, ना ही मैं इसके साथ हूं। हे प्रभु मेरी रक्षा करो। "
उसकी पुकार को अनसुना कर भीड़ उसे पीटती जा रही थी। किसी का ह्रदय नहीं पसीजा। लेकिन उसकी यह करुण पुकार सुनकर चोर का कलेजा थर्रा गया। उसका ह्रदय करुणा से भर गया कि उसकी वजह से एक निरापराध व्यक्ति सजा भोग रहा है। वह निरीह भाव से इधर-उधर देखने लगा। तभी उसे मंदिर के पीछे की एक छोटी सी खिड़की की जाली टूटी नजर आई। एकबारगी चोर के ह्रदय में आया कि पीछे की खिड़की खुली है, मैं चुपचाप यहां से भाग जाता हूं। वैसे भी मैंने चेहरे में नकाब तो डाल रखा है, मुझे कोई पहचान तो पाया नहीं। कौन जानेगा कौन चोर था, किसने चोरी की ? लेकिन बाहर से आ रही लगातार पुकार, " हे प्रभु मेरी रक्षा करो ... हे प्रभु मेरी रक्षा करो ....", उसकी अंतरात्मा को हिला रही थी। बुद्धि कहती थी कि भाग जाओ यहां से तुम्हें क्या लेना देना तुम तो अपना काम करके निकल जाओ। लेकिन उसका हृदय कहता, " रुको एक निरपराध व्यक्ति को तुम्हारे कर्मों की सजा नहीं भुगतनी चाहिए। यदि तुम यहां से भाग गए तो हो सकता है कि उन्मादी भीड़ अपने उन्माद में पीट-पीट कर इस चौकीदार को मार ही ना डालें। आखिर चौकीदार की गलती क्या है ? उसका अपराध क्या है ? यही न कि वह थोड़ी देर के लिए सो गया था। उसकी इस छोटी सी गलती के लिए उसे तथा उसके परिवार को इतनी बड़ी सजा नहीं मिलनी चाहिए।"
उसने फैसला हृदय से लिया अपने अंतरात्मा की आवाज सुनी और वह दरवाजा खोलकर बाहर आ गया और वह जोर से चिल्लाया,
" इस चौकीदार को छोड़ दो। यह मेरे जुर्म में शामिल नहीं है। यह तो बेचारा सो रहा था, मैं चुपके से बिना इसकी जानकारी के मंदिर में घुस आया था। इसमें इसका कोई दोष नहीं।"
उसके बाहर आते ही भीड़ उसकी तरफ झपट पड़ी। कुछ ही देर में उस उन्मादी भीड़ ने उसे पीट-पीटकर मार डाला। मंदिर के प्रांगण में हत्या हुई, जिसे सुबह पुजारी ने गंगाजल छिड़क कर शुद्ध कर लिया।
उसके घर परिवार को शहर छोड़ देने का हुक्म जारी किया गया। इस सभ्य समाज में तुम जैसे चोर के परिवार का कोई स्थान नहीं।
अब हम कहानी के निष्कर्ष पर आते हैं। जैसा कि मैंने ऊपर लिखा है की अक्सर हृदय से लिए गए फैसले सही तो होते हैं किंतु आपके लिए हितकारी हों, यह आवश्यक नहीं, क्या गलत था ?
नेकी कर दरिया में डाल, अच्छाई का अंत अच्छा और बुराई का अंत बुरा होता है, इत्यादि सूत्र वाक्यों को सही मान लिया जाए, तो यह एक दर्शन हो सकता है वास्तविकता नहीं। क्योंकि जब इस सृष्टि का ही कोई प्रारंभ या अंत नहीं है तो हम कैसे कह सकते हैं कि अंत अच्छा हुआ ? हो सकता है, अंत ही एक नई शुरुआत हो।
हो सकता है चोर के परिवार को इसका अच्छा परिणाम मिले जैसे कि उस चौकीदार को मिला जो मरने से बच गया। हो सकता है उसके परिवार में कोई गंभीर समस्या आए तो कोई उनकी मदद करने के लिए सामने आए, जैसे कि उस चौकीदार के लिए चोर सामने आया था। बिल्कुल हो सकता है। किंतु क्या इस प्रत्याशा से इनकार किया जा सकता है कि चोर की तरह उसकी भी हत्या नहीं होगी ?
आइए अब विचार करते हैं, " जैसी करनी वैसी भरनी", इस वाक्य पर। अपना कर्म भूलकर कुछ देर सोने की सजा चौकीदार को मिली और चोर को चोरी करने की सजा। लेकिन यहां भी एक प्रश्न उठता है कि क्या सजा की मात्रा सही थी। एक छोटी सी चोरी के लिए चोर को मृत्युदंड, और चौकीदार को थोड़ी देर सोने की सजा के रूप में उसे पीट-पीटकर अधमरा कर देना, क्या न्याय व्यवस्था के अनुकूल था?
अब हम कुछ देर के लिए संचित कर्म फल की अवधारणा पर विचार करते हैं। प्रत्येक जीव को उसके संचित कर्मों का फल उसके जीवन काल के अंत तक मिल जाता है। और यदि नहीं मिल पाता तो पुनर्जन्म की अवधारणा तो है ही। शेष कर्मफल का भोग उसके पुनर्जन्म का आधार बनेगा। संचित कर्म फल और पुनर्जन्म की अवधारणा को यदि सही मान लेते हैं तो फिर कोई समस्या है ही नहीं। लेकिन यहां पर एक सिद्धांत खतरे में पड़ जाता है। और वह है,
जब-जब होई धरम की हानि,
बढहि असुर महा अभिमानी।
तब-तब प्रभु धरि मनुज शरीरा,
हरहि सदा सज्जन भव पीड़ा।।
(रामचरित मानस)
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
(श्री भागवत गीता, अध्याय 4)
उपरोक्त दोनों का अर्थ लगभग एक समान है। जब-जब धर्म की हानि होती है, अभिमानी और असुर प्रवृत्तियां जागृत होती हैं। तब-तब धर्म और सज्जन व्यक्तियों की रक्षा हेतु मेरा ( यानी कि ईश्वर) का अवतार होता है।
संचित कर्म फल के सिद्धांत को यदि आधार मान लिया जाता है तो उसके मुताबिक सभी को एक न एक दिन अपने कर्मों का फल भोगना पड़ेगा। तो फिर ईश्वर को अवतार लेने की आवश्यकता ही कहां रह जाती है। नियति स्वयं ही अच्छाई- बुराई, पाप-पुण्य, धर्म और अधर्म के बीच संतुलन स्थापित कर लेगी। किसी ईश्वर की आवश्यकता नहीं। यह नियति अर्थात प्रकृति का सार्वभौमिक और अटल सिद्धांत है। हां यह हो सकता है कि संतुलन स्थापित करने के लिए प्रकृति अर्थात नियति स्वयं ही किसी अवतार का सृजन करें। जैसे कि हम देख ही चुके हैं। राम और कृष्ण दो धुरंधर अवतारी थे, लेकिन इनके बीच भी कुछ छोटे-बड़े अवतार होते रहे हैं। अर्थात अवतार ईश्वर का नहीं होता, बल्कि यह प्रकृति की एक स्वचालित प्रक्रिया है। इसलिए इसे किसी व्यक्ति विशेष या रूपक से बांध देना उचित नहीं। यह एक एनर्जी है जो ऑटोमेटिक ट्रांसफर होती हैं और इसका ट्रांसफार्मर होता है नेचर यानी कि नियति। आकर्षण और प्रतिकर्षण बल के साम्य बिंदु पर यह संसार टिका है। दशमलव के हजारवें हिस्से में भी यदि ग्रेविटी में परिवर्तन होता है तो संपूर्ण पृथ्वी हिल जाएगी। सभी ग्रह नक्षत्र अपने स्थान से डावा-डोल हो जाएंगे। यह एक छोटा सा उदाहरण है। आकर्षण और प्रतिकर्षण का साम्य बिंदु संपूर्ण ब्रह्मांड के सिद्धांत को निष्पादित करता है या उसे संतुलित करता है। जरा सोचिए यदि उसमें कहीं परिवर्तन होता है तब क्या होगा?
चोर ने चौकीदार की रक्षा कर पुण्य कार्य किया, और भीड़ ने चोर को दंड देकर पुण्य का काम किया। पाप यानी अधर्म तो कहीं हुआ ही नहीं। हां मात्रा का निर्धारण अवश्य ही गलत हुआ और जिसकी पूर्ति कर्मफल का संचित सिद्धांत पूरा कर देगा।
अच्छाई-बुराई, पाप-पुण्य, धर्म और अधर्म की परिभाषा सार्वभौमिक नहीं हो सकती। यह व्यक्तिगत और निजी स्वार्थों से प्रेरित होती है।
लेकिन हां, जो नियति यानी प्रकृति के विरुद्ध होगा, निश्चित ही उसका विनाश होगा। जैसा कि आज मानव सभ्यता प्रकृति के खिलाफ है। इसलिए एक दिन इसका भी विनाश निश्चित है। और इसके लिए जो - जो व्यक्ति उत्तरदाई होगा वही प्राचीन व्यवस्था के नामकरण के आधार पर राक्षस है, दानव है, असुर है। अर्थात यह प्रवृत्तियों के नाम है, किसी जाति विशेष के नहीं, तो फिर ईश्वर व्यक्ति विशेष कैसे हो सकता है ? वह भी तो एक प्रवृत्ति का नाम है।
तर्क में पड़ जाएंगे तो बहुत दूर तक पहुंचेंगे। और फिर जरूरी नहीं कि उसके निष्कर्ष आप को आत्मिक शांति दे। उसके निष्कर्ष बड़े बेचैनी भरे भी हो सकते हैं। इसलिए हाथ जोड़कर किसी मूर्ति के सामने बैठ जाइए, या फिर कोई सत्संग सभा ज्वाइन कर लीजिए, यही सबसे अच्छा उपाय है। अपने बुद्धि को कुछ व्यक्ति विशेष के हाथों में सौंप दीजिए वह जो कहे, जो सिद्धांत बनाए, जो अवधारणा प्रस्तुत करें, उसे मान लीजिए कोई रोक-टोक नहीं है।
इस तरह आप बहुत सारे बौद्धिक परिश्रम से बच जाएंगे। तब एक कृष्ण पूरे कुरुक्षेत्र की बागडोर अपने हाथ में ले लेगा और आप अर्जुन की तरह उस कुरुक्षेत्र में भटकते रहेंगे। संघार और मानव जाति को लज्जित करेंगे। और इसी में परम सुख की अनुभूति करेंगे कि आपने धर्म की स्थापना की या उसमे सहायक रहे। फिर एक दिन संचित कर्म फल के सिद्धांत के अनुसार कृष्ण को किसी गांधारी का श्राप भी भोगना पड़ेगा और पांचों पाण्डवों को द्रोपदी सहित हिमालय की यात्रा करनी पड़ेगी।
अब मैं पूछता हूं, यदि सदियों पहले धर्म की स्थापना हो चुकी थी तो आज यह धार्मिक वैमनस्य क्यों ? आज यह अराजकता क्यों ? आज फिर हमें किसी कृष्ण या राम की आवश्यकता क्यूं ? क्या इसलिए कि प्रकृति का बदलाव एक सतत प्रक्रिया है, जो अनवरत चलती रहेगी ?
मंदिर के चौकीदार ने ईश्वर को पुकारा। उसकी करुण पुकार सुनकर करुणानिधान ने उसकी सहायता के लिए चोर में अवतार लिया। वह मंदिर से बाहर आया, उसने उस चौकीदार की रक्षा की और अपने संचित कर्मों का फल गांधारी के श्राप की तरह भोगकर चला गया। अब यही मान लेते हैं । क्या गलत है ? प्रश्नचिन्ह कई हैं जवाब आपके पास ही है ? क्योंकि आपके निर्णय आप को तथा पूरी मानव जाति को प्रभावित करेंगे। और जब आप के निर्णय प्रकृति को प्रभावित करने लगेंगे तब प्रकृति स्वयं ही विचार कर लेगी।
शैलेन्द् एस.
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