Monday, July 18, 2022

आह ! तुम कहां गए !!


सितारों की  दुनियाँ 1 

आह ! तुम कहां गए ...?

यह कहानी नहीं, एक विजन है। विजन जो मैंने अपनी आंखों से देखा, जिसे हृदय से महसूस किया। यह मन  का दर्शन है। इसमें आप कोई भी कहानी फिट कर सकते हैं। वास्तव में यह कुछ पत्रों का संग्रह है, जो एक किरदार ने दूसरे किरदार के लिए लिखें, जब वह उसके जीवन से दूर, बहुत दूर जा चुका था।  

     और जिसके लिए उसने इन्ही पत्रों में ही किसी एक पत्र में लिखा है" तुम मेरी इस कहानी के एकमात्र और बेनाम किरदार हो "।

            हां, एक बात और; प्रथम पत्र के शुरुआती संबोधन और अंतिम पत्र के समापन से मैंने उनका क्रम निर्धारित किया। शेष पत्रों का क्रम मैंने अपनी स्वयं की बुद्धि और ज्ञान कौशल से निर्धारित किया है। यदि आपको इनका क्रम उचित ना लगे तो क्षमा कीजियेगा।

            उम्र के लिहाज से बड़ी, किंतु जिन्हें मैंने अपने मन से सदैव अपनी छोटी बहन की तरह ही माना, उन्हें सादर समर्पित - 

शिवकुमारी सिंह चौहान, 'बिन्दु', 

M.A. ( Hindi Lit.) , 

            हम सभी भाई बहनों में एक आप ही थी जिनका नाम पिताजी ने रखा ' बिन्दु ' , और हमारे पिताजी की ख्वाइश थी कि हम भाई बहनों में से कोई एक लिटरेचर पढ़ें खासकर हिंदी साहित्य से। उनका सपना आपने पूरा किया। मैं तो साइंस में ही उलझा रहा। मैंने आपसे कभी वादा किया था कि मैं अपने जीवन की सबसे अनुपम भेंट आपको ही दूंगा।

            आज मैं अपना किया वादा निभा रहा हूं, यह कहानी अभी पूरी नहीं हुई है। लेकिन इसका तीसरा भाग, जिसे शायद मैंने ईश्वर प्रदत्त शक्तियों के आधीन पहले ही लिख दिया है, मुझे विश्वास है कि शेष 2 भाग भी एक न एक दिन मैं अवश्य पूरा करूंगा। आज यह भले ही अधिक फेमस न हो, किंतु एक दिन आएगा, हम इस इस दुनिया में हो न हों, तब भी ये शब्द होंगे और ये पढ़े जाएंगे. आपको सादर समर्पित मेरी छोटी बहन, मेरी प्यारी दीदी, आपको ही।

अंत में आभार मेरे उस बेनाम किरदार के लिए जो इस दर्शन का आधार है।

Shailendra S.

Satna (MP) 9109471972

( दृश्य )

उसने धीरे-धीरे अपनी आंखें खोली। खुद को उसी माइलस्टोन पर टिक कर बैठे हुए पाया जिस पर कुछ देर पहले ही वह सुस्ताने के लिए बैठा था और फिर बेहोश होकर वही लुढ़क कर गिर गया था। उसके चारों तरफ भीड़ जमा थी। उसने अनुमान लगाया कि हो सकता है उसी भीड़ में से किसी व्यक्ति ने शायद उसे संभाल कर उसी माइलस्टोन पर टिका कर बैठा दिया होगा।

उसने नजरें घुमा कर अपने चारों तरफ देखा; मौसम सुहाना था। हवा धीरे धीरे चल रही थी, शायद शाम होने वाली थी। धरती से निकलता हुआ प्रकाश क्षीण हो रहा था।

उसने महसूस किया जैसे उसकी सांसे टूट रही हैं। उसने अधखुली आंखों से भीड़ की तरफ एक बार फिर देखा। लोग आपस में बातें कर रहे थे; लेकिन उसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। उसने अपने आप को सहेजने की भरपूर चेष्टा की लेकिन अगले ही पल उसने अनुभव किया कि जैसे उसका अपने शरीर पर कोई नियंत्रण नहीं है। वह केवल अपने सर को थोड़ा बहुत हिला डुला सकता है। नजरों को इधर-उधर कर देख सकता है, समझ सकता है। वह चेतना शून्य नहीं है, लेकिन अंगों से उसका दिमाग नियंत्रण खो चुका है।  

तभी उसने देखाभीड़ को पार करते हुए एक लड़का उसकी तरफ बढ़ रहा है। उसके कदम लड़खड़ा रहे हैं। शरीर पर जगह-जगह चोट के निशान थे। कपड़ों में खून के धब्बे स्पष्ट दिखाई दे रहे थे। कुछ ही पल में वह भीड़ के बीच से रास्ता बनाता हुआ उसके सामने आ खड़ा हुआ।

     उसने उसे ध्यान से देखा; वह लड़का भी उसे देखकर आश्चर्यचकित था। उसके माथे से खून बह रहा था। कपड़े जगह-जगह से फटे हुए थे। उसकी हालत बता रही थी कि वह अभी-अभी किसी भयानक हादसे से गुजरा है।

    उसे देख कर उसके होठों में फीकी सी मुस्कान दौड़ गई। उसने अधखुली आंखों से उसे भरपूर दृष्टि से देखा और उसे महसूस हुआ जैसे उसका ही प्रतिरूप उसके सामने खड़ा है। एक पल के लिए उसकी आंखों में चमक आ गई और उसके होठ हिले थे,  - "ओह !! ... तो  तुम आ गए !!!"

    उस लड़के के भी चेहरे में आश्चर्य के भाव थे। वह भी चकित-सा उसे देख रहा था। वह कुछ झुका और उसके हाथ उसके कंधे की तरफ बढ़े, उसके स्पर्श करते ही, उसकी आंखे बंद होने लगी। चेतना शून्य, चेहरा उसके ही कंधे पर एक तरफ लुढ़क गया . . .

_ * _

 


( आह ! तुम कहां गए ...?)

मेरे प्रिय

प्रियवर

मित्र .... या फिर 

मेरे इष्ट !

अब तुम जो भी समझो ....

     तुम्हारा यूं मिलना, मिलकर यूं बिछड़ना, किसी रोमांटिक कहानी की न तो शुरुआत हो सकती है, और न ही उसका अंत।  सितंबर माह की उमस-भरी गर्मी और तीखी धूप भरी दोपहर, और सरे-राह चलते तुम्हारा मुझसे यूँ  मिलना। 

सच, जहां न हवा की नरमी थी, न बादल की रिमझिम, न कोई पुरवाई, न कोई ढलती सांझ का छितिज। न चंद्रमा की श्वेत धवल चंचल चांदनी भरी रात। कुछ भी तो ऐसा नहीं था, जिसे मैं एक रोमांटिक कहानी की शुरुआत कह सकूं।  शायद इसलिए कि इस कहानी का अंत भी निचाट गर्मी भरे दिनों की दोपहर की तरह ही होना था। 

प्रश्न भावुकता का नहीं यथार्थ का था।  संयोग भी एक यथार्थ था, और वियोग भी। लेकिन हां, इस मिलन और बिछोह के बीच भावुकता के कुछ पल, हृदय के स्पंदन, भावनाओं का वेग, आवेगआंसू , दर्द, प्रतीक्षा के कुछ लम्हे हैं।

समंदर से उठती लहरों का साहिल पर आकर यू बिखरना, फिर सिमट कर उसी तरफ लौट जाना, उसी में  विलीन हो जाना, सभी कुछ तो नियत के हाथ निश्चित था, मेरे दोस्त !   

सागर कितना भी गहरा क्यों न हो, उसकी लहरें हमेशा किनारों को ही आकर चूमती हैं। सागर अपनी सारी महत्ता और गुरुता को त्याग कर कुछ पल के लिए ही सही खुद को अपनी लहरों में समेट कर अपने किनारे से आकर मिलता है।

और तुम ?

आह ! तुम कहां गए ?


क्या तुम कभी मेरे अंतर्मन को पढ़ पाए ? उसे समझ सके ?  

अपने उसी अंतर्मन में तुम्हारे लिए प्रेम की अनगिनत पुष्पों की माला पहनी थी मैने। क्या कभी देख पाए उसे ?

तो लो आज उसी पुष्पमाला को तोड़ निरपेक्ष भाव सेतटस्थ रहते हुएअपनी  समस्त भावनाओं के पुष्पों को, अपनी अंजुली में समेट, अब तुम पर ही बिखेरती हूँ, तुम पर ही न्योछावर करती हूं।

साहिल पर खड़ी तू बेखबर,

लहरों से जूझता मेरा मुकद्दर,

क्या जरूरी था ? बेवजह था ?

मानाकि मुझे मेरे जाने का,

कोई अफ़सोस नहीं,

माना यह भी कि,

मैने आंसुओं के समंदर पार किए,

खुद को गुनहगार ना समझ लूं मैं,

शायद यही सोचकर,

 चेहरा घुमा लिया होगा तूने,

 पर इसका क्या ?

 किसने किसको सजा दी ?

 कौन किसका गुनहगार ठहरा ?

 सदियों से चलते रहना मेरा,

 सदियों से जलते रहना तेरा,

 यूं भटकना, बेवजह तो ना था! . . .

    हां, यही एक कविता लिखी थी न तुमने मेरे लिए। और भी लिखी होंगी शायद।

कुछ मैंने पढ़ी होंगी, और कुछ जो अध-लिखे पन्नों में सिमट के रह गई होंगी शायद। कुछ हवा के झोंकों से उड़ गई होंगीकुछ तुम्हारे बिस्तर की सिलवटों में अब भी बिखरी होगी शायद !

शायद ! इस अनिश्चयवाचक शब्द में, ना जाने कितने अनकहे निश्चयओं को समेटा है आज मैने !!

काश ! एक बार कुछ इस तरह मिले होते मुझसे, जैसा कि मैंने चाहा था कि तुम मिलो मुझसे।

 काश ! कभी तो वैसे कहां होता तुमने, जैसा कि मैंने चाहा था कि तुम कहो मुझसे । 

काश ! चाहने या ना चाहने के अंदाज़ से जुदा, कुछ अलग चाहा होता तुमने।

काश ! मेरी चाहतों के अनछुए पहलू से भी, कभी तो मिले होते।

काश ! कुछ इस तरह से मिले होते मुझसे।

काश  . . . . .

मानाकि मुझे मेरे जाने का कोई अफसोस नहीं,

माना कि मैंने आंसुओं के समंदर पार किए,

खुद को गुनहगार ना समझ ले तू,

हां ! यही सोच कर शायद

चेहरा घुमा लिया होगा मैंने।

सदियों से जलते रहना मेरा,

सदियों से यूं भटकना तेरा,

बेवजह तो ना था ।

पर कहती हूंहां !

आज तू गुनहगार मेरा . . .

   ये जिंदगी भी अजब हैं मेरे दोस्त ! कभी रास्ते नहीं तो कभी मंजिले नही। जब तुम तक पहुंचने के रास्ते थे, तब तुम मेरी मंजिल न थे। और आज जब तुम्हें अपनी मंजिल मान ही लिया तो देखो तो, तुम तक पहुंचने के सभी रास्ते खो गए हैं, सिवाय इसके कि मैं तुम्हें हृदय से पुकारू, तुम्हें आवाज दूं, " आह !! तुम कहां गए ... " 

     शायद कभी ना कभी मेरी यह पुकार तुम तक पहुंचेगी और तब तुम मेरी इस पुकार से बंधे मुझ तक आ ही जाओगे। नहीं तो देखो, यदि ना आए तो मैं गुनहगार मानकर तुम पर आरोप लगाऊंगी, गुनहगार साबित करूंगी और फिर तुम्हारे लिए सजा भी निर्धारित करूंगी। और फिर उस निर्धारित सजा को स्वीकार करने के लिए तुम्हें आना ही पड़ेगा न ... ?

आज जब मैं समझ पाई कि इस दुनियां में कुछ भी बेवजह नही, तभी तो मेरे अंतर्मन में एक प्रश्न बाहर-बाहर उठ रहा है -

    " हां, तुम कहां गए " ?

🌺 1 🌺

सच वह नहीं होता जो हमें दिखता है मेरे दोस्त ! बल्कि सच तो वह होता है जिसे हम देखना चाहते और फिर वह हमें दिखता है।

तुम तो मेरे अपने थे। सच, अपना ही माना था तुम्हे । तुम जब भी मेरे सामने आए, मैं ठीक उसी तरह मिली, जैसा कि मैं थी। तुम्हारे सामने सज - संवर कर आने की दिल से कोई ख्वाइश न हुई। जैसी थी वैसे ही आई। 

खुद की अपनी वह तस्वीर, कभी इतनी प्यारी ना लगी, जब तक तुम न लिख गए,

'हां! यही एक तस्वीर है मेरे पास' . . .

कनखियों से छुप कर मुझे देखती आंखे,

कानों में लटकती छोटी-छोटी बालियां,

वजूद की सारी गर्मी समेटे हुए ये होठ,

किसी के आने की आहट पा चुप हो गए हैं।

गालों को छू लेने की, अधूरी लिए आस,

सलीके से सवारे गए ये रेशमी बाल।

नर्म, मुलायम, ये सिंदूरी गाल 

. . . . .

मैं आज भी जब कभी अपनी वह तस्वीर देखती हूं, तो तुम्हारी यही कविता याद आती है मुझे । यह तो सच है कि मैं तुम्हें कनखियों से ही देखा करती थी। 

शायद पढ़ने की कोशिश करती थी कितनी सच्चाई है तुम्हारे मन में, और तुम्हारी इन आंखों में कितनी चाहत है मेरे लिए ।

और न जाने क्यों मुझे हर बार यही महसूस होता कि तुम वह नहीं हो, जैसा कि तुम दिखना चाहते हो। 

मुझे तुम्हारी हर एक बात झूठी लगती। कुछ नहीं बस शब्दों के जादूगर थे तुम, जो मेरा मन मोह लेना चाहते थे।

पता नहीं क्यों, कभी विश्वास ही ना कर पाई तुम पर। जबकि तुम्हारे हर एक शब्द मुझे यकीन दिलाना चाहते थे कि बस यही एक सच्चाई है, मेरे लिए, तुम्हारे मन में -

जिंदगी के अधूरे कैनवास पर,

जिंदगी से उल्लासित एक चेहरा।

वीरान, तपते पत्थरों के बीच

मेरे वजूद का एहसास दिलाता एक चेहरा।

बरसते बादल, कड़कती बिजली,

के बीच दमकता एक चेहरा।

मेरी बेजान उदास रातों में,

मेरे साथ हंसता मुस्कुराता एक चेहरा।

मेरे मन में उसे छू लेने के लिए आस,

हां ! तुम्हारी यही एक तस्वीर है मेरे पास।

. . . . . . .

सच में ! क्या केवल यही एक तस्वीर थी तुम्हारे पास ? और कोई नहीं

जाओ, नहीं मानती मैं। और मान भी लूं तो कैसे ? क्या तुम कोई देवात्मा थे ? जो मानवीय कामनाओं व आकांक्षाओं से परे रहे।

तुम क्या समझते रहे कि शब्दों के जाल फेकते रहोगे और मैं उनमें उलझ कर फसी हुई तुम्हारे पास चली आऊंगी ? कितने नादान थे तुम !

क्या तुमने जिंदगी को इतना आसान समझ लिया था? यदि तुम मुझे जानते, मुझे समझते, तो तुम्हें यह भी पता होता कि जब मैंने अपनी सारी इच्छाओं को, सारी कामनाओं को समेट कर उनके दायरों में रहना सीख लिया था, तो फिर तुम कैसे मेरी जिंदगी में कोई तूफान ला सकते थे ?

खुद ही अपनी जिंदगी को मिटा कर अपनों के लिए जब जीना सीख लिया था मैंने, तो तुमने कैसे समझ लिया कि तुम्हारे लिए ही सही, मैं फिर से अपनी खत्म हुई उस जिंदगी को दोबारा शुरू कर सकती हूं

केवल सामाजिक मर्यादाए टूटती तो मैं जरूर तोड़ देती। लेकिन अपनों का साथ कैसे छोड़ देती, उनका विश्वास कैसे तोड़ देती ? जबकि खुद मैंने भी तो तुम्हें अपना ही मान लिया था

मैं अपनी उलझनों में उलझती रही, उसे समझने के लिए तुम मुझसे उलझते रहे।

तुम मेरे अस्तित्व में विशिष्टता की तलाश करते रहे। अपने जीवन या कथित पुनर्जीवन के रहस्यों को देखना चाहते थे, और जो शायद तुम्हें मेरे अंदर दिखे भी हो या फिर जिन्हे तुमने महसूस भी किया हो, कौन जाने लेकिन मैं तुम्हारे अंदर या तुम्हारे अस्तित्व में किसी भी विशिष्टता को नहीं देखना चाहती थी, और शायद इसलिए वे मुझे दिखाई न दिए।

यही तो वह सच था मेरे दोस्त ! जिसे ना तो तुम कभी स्वीकार कर पाए और ना ही मैं कभी तुमसे कह पाई . . .

और आज ? तुम्हारे चले जाने के बाद ? न जाने क्यों अपने जीवन के सभी रहस्यों को तुम्हारे अस्तित्व में खोजना चाहती हूं, और शायद इसीलिए मैं बार-बार तुम्हे पुकारती हूं

हां तुम कहां गए ...." ?

🌺 2 🌺

           


वे जीवन जो शर्तों के अधीन नहीं, वे संबंध जो रिश्तों के मोहताज नहीं, उच्चश्रृंखल और महत्वाकांक्षी होते हैं, मेरे दोस्त !

तुमने हमेशा कहा कि तुम रिश्ते नहीं बनाते, शायद किसी रिश्ते को निभाने में नाकाम रहे हो तुम। 

तभी तो कभी नहीं चाहा कि तुम मुझसे कोई रिश्ता बनाओ। बिल्कुल अजनबी की तरह मिलते रहे मुझसे। शायद बंधन भी तुम्हें स्वीकार नहीं थे।

कभी तुम, कभी आप, कभी तू, संबोधनो की तरह तुम्हारा व्यक्तित्व भी मेरे लिए उलझा ही रहा। न तुम कभी समझ पाए कि तुम मुझसे क्या चाहते हो और न ही मुझे समझा सके। 

लेकिन मै .... ?

मैं उस दौर में थी, जहां हर छोटे-बड़े रिश्ते मेरे सामने मौजूद थे। उन रिश्तो को कायम रखना मेरी सबसे बड़ी जिम्मेदारी थी। छोटे से छोटा रिश्ता भी मेरे लिए अहमियत रखता था।

 और

एक ऐसा रिश्ता भी था, जिसे लोग सात जन्मों का, तो कुछ लोग जन्म-जन्मांतर का भी कहते हैं। उस एक रिश्तों को निभाने के लिए ये जरूरी था कि मैं तुम्हे जन्म - जन्मांतर के लिए उपेक्षित ही रखू।

मै नहीं समझती कि तुम इतने नादान थे कि तुम्हे कुछ दिखाई न दिया होगा। कुछ भी तो नहीं छुपाया था मैंने, और मेरे लिए इसकी जरुरत भी क्या थी

कौन सा मै तुम्हे चाहती थी ? और तुम ? तुम जहां भी हो, आज यह प्रश्न अपने मन से नहीं अंतर्मन से पूछना। दोनों में फर्क होता है न ! इसलिए कह रही हूं। 

मैंने देखा था कि मन से तुम कितने ही चंचल कियूं न रहे हो, तुम्हारा अंतर्मन उतना ही शांत और निश्चल था। 

एक बार तुमने मुझे बताया था कि तुम्हें सितारों भरा यह आसमां सम्मोहित करता है। तुम उसे घंटो-घंटो तक देखा करते हो। प्राकृतिक के शांत क्षणों में, रात की अपनी तन्हाइयों में तुम उनसे बातें भी करते हो, वे भी तुमसे बातें करते हैं। 

शायद उन पलों में उन लम्हों में आसमान के उस खाली कैनवास में न जाने कितने सितारों को आपस में जोड़ कर तुम मेरी उजली तस्वीर बनाया करते रहे होगे। चंद्रमा की स्निग्धा ज्योत्सना से मेरे चेहरे को सजाया भी करते रहे होगे।  और फिर जब तुम्हे मेरी उपेक्षा याद आ जाती रही होगी तो निश्चित ही तुम्हारी आंखों में भी न जाने कितने सितारे चमक उठाते रहे होंगे। शायद उसी एक पल में मुझे याद करते हुए तुमने ये कविता लिखी रही होगी,  

दूर जाकर फिर मेरी खबर ना लेना,

फिर तेरा कभी यूं पलट कर ना देखना,

मेरी तनहाइयों में तेरा, यूं बार-बार आना,

हर रात छीन लेना मुझसे मेरे चांद सितारे,

वीरान आसमा काली स्याह रातों में,

हर रात तेरी उजली तस्वीर बनाना,

सच कहता हूं

बिल्कुल अच्छा नहीं लगता।

कितनी अजीब विडंबना है, जो जिया उसे तुमने लिखा और आज मुझे जीने के लिए छोड़ गए। एक यथार्थवादी और प्रैक्टिकल इंसान को भावनाओं के धरातल पर लाकर खड़ा करना और फिर उससे यूं दूर चले जाना, क्या सही है, मेरे दोस्त

वे संवेदनाएं जिनका मैं कब का परित्याग कर चुकी थी। उन्हें सवेग प्रवाहित कर बीच मझधार में छोड़ कर खुद किनारे पर आकर खड़े हो जाना, जहां कभी मैं थी ! बताओ क्या सही है ?

तुम ही कहते थे ना कि पत्थरों पर कभी कदमों के निशान नहीं होते, लेकिन कभी सोचा है कि जब हो जाते हैं तब ? वह निशां अमिट होते हैं, मेरे दोस्त। 

तुमने मुझे पत्थर और पत्थर दिल भी कहा, लेकिन सच, मैं ऐसी नहीं थी, और ना ही आज हूं। मैं खुद को जस्टिफाई नहीं कर रही हूं। बस मेरे कहने का अर्थ यह है कि यदि तुम ऐसा समझते थे, तो तुम सरासर गलत थे।

पत्थर के शहर होंगे,

 तो न कदमों के निशा होंगे।

कातिल जो ठहरी आज तेरी निगाहें,

तुझे कसम है उन्हीं निगाहों की।

पत्थर के इस शहर में,

तेरे अश्कों के निशा होंगे ।

मेरे दोस्त कहो तो जरा मुझसे ! यह कौन सी दुआ देकर गए हो मुझे ? बताओ तो जरा मुझे ?

तो लो ! जो तुमने चाहा था, वह हो गया। मान लिया यदि मैं पत्थर दिल हूं, या फिर पत्थर ही हूं, तो उसमें तुम्हारी यादों के निशान पड़ चुके हैं।

यदि न पड़े होते तो आज क्यों तुम्हे पुकारती ' आह !! तुम कहा गए '

अपनी भावनाओं को त्याग कर मैं बेजान पत्थर बनी तभी तो तुम शिल्पकार बने।  अब बताओ ? तुम शिल्पकार कैसे बन सकते थे, यदि मैंने खुद को पहले पत्थर ना बनाया होता ?

मेरी उपेक्षाओं से व्यथित तुम्हारा मन, बार-बार मेरे ही पास क्यों आता था ? तुम्हारा सवाल पे सवाल पूछना और मेरा यूं ही खामोश रहना, तुम्हें क्यूं ना समझ आया था मेरे दोस्त

तुम्हे तो उस वक्त ही समझ जाना चाहिए था कि जब कोई इंसान किसी से माफी मांगे और सामने वाला कोई जवाब ना दे, तो माफी मांगने वाले का गुनाह गुनाह नहीं बल्कि गुनाह - एं - अजीम होता है । उसे माफ नहीं किया जा सकता।

तब मैं तुमसे बात ही नहीं करना चाहती थी, या तुम्हारे किसी भी सवाल का मेरे पास कोई जवाब नहीं था, ऐसा नहीं था मेरे दोस्त! एक सवाल के जवाब में तुम्हारा यूं ही दूसरा सवाल पूछना मुझे तकलीफ देता था। मैं ऊब जाती थी।  तब भी तुम किस आशा में मुझसे प्रत्युत्तर की आशा रखते थे ?

मुझे याद है, अच्छे से याद है। तुम जहां अक्सर अपनी राते गुजारते हो, वहां सामने ही एक मंदिर है।  उस मंदिर को छाया सागौन के डाय सूखे पेड़ देते हैं। तुमने बताया था, और एक रोज उनकी एक तस्वीर भी भेजी थी।

मैं मानती थी कि तुम सेंसेटिव पर्सन हो, जो प्रकृति यानी नेचर की भाषा को समझते हो । तब तुम मेरा नेचर क्यों ना समझ पाए ?

शायद जहां तक मुझे याद है कि तुमने उन पेड़ों और उस मंदिर पर एक कविता भी लिखी थी - -

मैं एक ऐसे सुनसान वीरान इलाके में रहता हूं,

जहां तुम्हारे दिल की आवाज नहीं पहुंचती,

न मेरी आवाज तुम तक जाती है,

सूख गए हैं वे दरख़्त भी,

जिनकी सरपरस्ती में कभी देवता रहा करते थे।

गुजर रही है मेरी जिंदगी भी,

इन्हीं सूखे दो दरख़्तों की तरह,

हां  !  कभी मेरी सरपरस्ती में भी,

कुछ जिंदा इंसान रहा करते थे।।

. . . .

चाहत से भी बड़ी चाहत थी तुम्हारे मन में मेरे लिए। मैं समझती हूं। और ऐसा भी नहीं है कि मैं उन दिनों नहीं समझती थी। 

लेकिन हम दोनों ही उस चाहत को कोई नाम नहीं दे सके। जिस तरह तुम मजबूर थे, उस तरह मैं भी मजबूर थी। तुम्हें इतना तो समझना ही चाहिए था।

बात आकर वहीं ठहर गई . . .

किसने किसको सजा  दी,

कौन किसका गुनहगार ठहरा ...

🌺 3 🌺


स्वयं का प्रतिबिंब सदैव विरोधाभास प्रकट करता है। क्योंकि वहां हम स्वयं अपने ही विरुद्ध खड़े होते हैं, मेरे दोस्त !

मन के सभी आवेगो को समेटकर, यदि मैं आज तुमसे कहूं कि तुम मेरे लिए कितनी अहमियत रखते थे, जो कि शायद आज भी रखते हो। "हां ! अजनबी तुम बहुत प्यारे थे मेरे लिए", तो गलत नहीं होगा।

तुम्हारे मन के करीब आना और इसका एहसास होते ही खुद को समेट लेना ठीक उसी तरह था जैसा कि तुमने लिखा - 

साहिल पर खड़ी तू बेखबर,

लहरों से जूझता मेरा मुकद्दर,

क्या जरूरी था ? बेवजह था ?

तो जान लो मेरे प्रियवर ! जरूरी था। समाज की कोई मान्यता या मर्यादा न टूटे, इसके लिए न सही, लेकिन उन रिश्तो के लिए बेहद ही जरूरी था, जिन्हें मैं पूरी वफा और इमानदारी के साथ जी रही थी, निभा रही थी। 

एक उद्दाम और उच्चश्रृंखल लहर की तरह मैं तुम्हें चूम कर फिर अपनी ही दुनिया में लौट गई और किनारे पर मैं नहीं, तुम खड़े रह गए, बेखबर से। तुम मुझे समझ ही कहां पाए कि मैंने चुपके से ही सही तुम्हें अपनाया था। अंगीकार किया था, स्वीकार किया था! आश्चर्य हो रहा है  ? पर यही सच था, है , और सदैव रहेगा, मेरे दोस्त।

ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार  बच्चों की पोयम मैं जीवन के रहस्य को देखने वाले, तुम्हें तो यह समझना चाहिए था कि ' हाउ आई वंडर व्हाट यू आर '.

मेरी बेरुखी को याद करके,

कोई आंसू तो आया होगा

तुम्हारी पलकों में भी।

मुझ तक ना पहुंच

ठहर गया होगा कहीं शायद,

जब भी याद किया होगा तुमने मुझे ।।

 यूं ही बेवजह तो कोई ,

 रोता नहीं किसी के लिए ।

मैं जानती हूं कि तुम्हारी कल्पनाओं की दुनिया में मैं अभी भी सजीव हूं। मुझे यकीन है कि तुम अभी तक मुझे भूले नहीं होगे। 

इंसान इसी एक जिंदगी में कई जिंदगी जीता है। मैंने भी जिए हैं वे सारे पल, जो तुम्हारे साथ गुजरे थे, या तुम्हारे साथ होने का एहसास दिलाते थे।

जानते हो, मेरे पास भी कुछ ऐसी बातें हैं जो शायद तुम नहीं जानते हो, या शायद फिर जानते ही होगे, अंतर्यामी जो ठहरे।

यथार्थ के धरातल पर ही सही, मेरी भी कल्पनाओं की एक अलग दुनिया थी, जिसे मैं जीना चाहती थी। यह बात अलग है कि मेरी उस कल्पना की दुनिया में मेरे अपनों के साथ पूरा यह समाज भी था।

उनके उत्कर्ष, उनके बेहतर ढंग की जीवन शैली के लिए, उनके हक के लिए ही लड़ना मेरा मकसद था। मेरी कल्पना की दुनिया व्यक्तिपरक नहीं थी, जैसा कि तुम्हारी।

यदि मान सको तो मान लो ! इल्जाम ही लगा रही हूँ।  तुम्हारी दुनिया में, तुम्हारी कल्पना में, किसी एक व्यक्ति के लिए इतना महत्व तुम्हारे लिए ही घातक था मेरे दोस्त। चाहे वे सभी कल्पनाएं, सभी चाहते, मेरे लिए ही क्यों न रही हों !

मैं शायद कुछ अधिक ही प्रैक्टिकल हो रही हूं।  कहीं मन में यह डर तो नहीं कि आज मेरे अंतर्मन में तुम्हारे लिए भावनाओं के जो तूफान उठ रहे हैं, उन्हें में अपने इस प्रैक्टिकल अंदाज से दबा लेना चाहती हूँ ?

मैं तो तुम्हें आज भी सोचना ही नहीं चाहती। पर क्या करुँ ?

यदि मैं तुम्हें अपनी जिंदगी से, अपनी यादों से, अपनी सारी वफाओं से खारिज कर भी दूँ , तो इससे क्या होगा ? क्या मेरे खारिज करने मात्र से तुम, मुझसे विस्थापित हो जाओगे ?

जबकि मानती हूं कि मैंने तुम्हें अपने मन में कभी स्थापित ही नहीं किया, तो फिर यह डर कैसा

सच अब दर्पण के सामने खड़े होकर मैं यह बिल्कुल नहीं सोचना चाहती हूं कि हां मैं वैसी दिख रही हूं जैसा कि तुम मुझे देखना चाहते थे ?

खुद से ही, हद से भी ज्यादा मोहब्बत करने वाली मै, अब कहीं अपने चेहरे में तुम्हारा ही अक्स तो नहीं देखना चाहती ?

सोचा था उन दिनों कि तुम मेरी सारी उलझन सारी समस्याओं का समाधान होगे , लेकिन तुम ? तुम तो मेरी सबसे बड़ी उलझन बने, और चले भी गए। बताओ , तुम कहां गए ?

हां बताओ ! तुम कहां गए !!

मृगतृष्णा का आडंबर फैलाकर, उसमें मुझे भटकने के लिए तुम छोड़कर क्यों चले गए ? तुम्हारी कल्पनाओं को यथार्थ मानकर अब उसमें जीने की चाहत क्यों हो रही है

क्यों जी चाहता है कि तुम फिर आ जाओ, और मैं तुम्हें देख कर ही सही, जी भर कर रो तो लूं। तुमसे छुप कर ही सही तुम्हें जी भर के फिर से देख तो लूं। 

      कभी-कभी मौन, अभिव्यक्ति का सबसे सुंदर माध्यम होता है। लेकिन तब, जब दोनों सामने हो, और उन में से कोई एक, दूसरे को देख रहा हो; और दूसरा इस बात से बिलकुल बेखबर हो।

उस समय देखने वाला अपने मन में जो मूर्ति स्थापित करता है, चिरकाल के लिए मन में बस जाती है । हां ऐसे ही, बस ऐसे ही, मैं तुम्हें एक बार फिर देखना चाहती हूं।

पता नहीं तुम ने नोटिस किया हो या न किया हो ? पर मैं तुम्हें अक्सर ऐसे ही देखती थी, जब तुम कहीं और देख रहे होते थे। 

सच में ! जी भर के देखना चाहती थी। पर क्या करती, तुम अक्सर ही मुझे यूं देखते हुए देख ही लिया करते थे। तुम्हें यूं देखते हुए देख मैं फिर दूसरी तरफ देखने लगती थी। सच कहो ! क्या ऐसा नहीं होता था ?

आज मैं, तुमसे वे सारे पल साझा करना चाहती हूं, जो शायद तुम्हें पता ही नहीं होंगे या तुमने ध्यान नहीं दिए होंगे। यह उन्ही एक पलों में से एक था। जब मैं तुम्हे देख रही होती थी और तुम इस बात से बेखबर होते थे। 

जो की थी कभी मैने, बातें तेरी तस्वीर से,

वो बातें कह न पाया तुझसे कभी मेरे यार।

हो के जुदा अब ...तुझसे  चले हम,

लेकर वही दिल में तस्वीर मेरे यार।

अब किससे कहेंगे ... कैसे कहेंगे,

वो सारी बाते.... वो सारी यादें

बस रहेंगी दिल में ही मेरे यार।

. .....

यही एक कविता थीं जो तुमने जाते समय लिखी रही होगी, शायद मेरे लिए !! या फिर खुद अपने लिए !!!

बस उसी राह में ला छोड़ दिया है तुमने मुझे। तुम आहिस्ता-आहिस्ता मेरी जिंदगी से खुद को ख़ारिज करते जा रहे थे, और मैं नादाँ , समझ ही न पाई। तुम्हे कभी समझा न सकी कि तुम मेरे लिए क्या हो। क्या यह तुम्हे समझाना जरूरी था तो फिर तुम कियूं न समझ पाए

जब कभी तुम .... करोगी मुझे याद,

आऊंगा नजर मैं, यही कहीं आसपास।

फिर न जाने देनामुझे खुद से दूर।

इतने करीब ला हमें ......... 

न करना फिर हमें खुद से दूर।

भटकता रहूंगा मैं,

तुम्हारी ही यादों के आस - पास।

यदि तुम्हारी ये कविता मुझसे किया कोई वादा न थी , तो तुमसे कुछ न कहूँगी। लेकिन हां , यदि थी, तो बस इतना कहती हूं  - ' अपना किया वादा तो निभाओ '

तो लो ! कर रही हूँ न तुम्हे याद। तुम्हे अपना वादा निभाने के लिए मेरे पास तो आना ही होगा। नहीं तो?

लेती रहोगी हिचकियां करके याद,

रो भी ना सकोगी .... तुम मेरे यार। 

 .........  यही तो लिखा था तुमने। 

देखो तो जरा, आज जब मुझे अपने संपूर्ण जीवन का प्रतिबिंब तुम्हारे अंदर ही दिखाई देने लगा तो मैं अपने ही विरुद्ध खड़ी हो गई और तुम्हें भीत हृदय से पुकारने लगी  ,

 " आह !! तुम कहा गए ...?"

🌺4🌺


       अवचेतन मस्तिष्क में कैद घटनाएं और यादें, स्वप्नदर्शी होती हैं। 

      कभी सोचती हूं उन दिनों में तुम क्या थे, और मैं क्या थी ? यह प्रश्न तुमसे नहीं खुद अपने आप से पूछती हूँ आज  

       आज क्यों तुम्हें याद करके बरबस ही मेरी आंखें भर आती है। सच लिखा था तुमने, मुझे रोने भी न दिया !!  यदि आज कोई हिचकी भी आती है, तो यही सोचती हूं कि हो सकता है तुमने मुझे याद किया हो। 

क्यों मैं अक्सर अपने घर की उन जगहों को देखती रहती हूं, जहां पर तुम आ कर बैठा करते थे। उन सभी चीजों को छू कर देखती हूँ, जिन्हें तुम कभी छुआ करते थे, और तुम्हें महसूस किया करती हूं। बस एक तुम ही तो थे, जिसे मैं कभी छू भी न पाई। अपने अंतर्मन से भले ही तुम्हें छुआ हो, लेकिन उसी छुअन को मैं अपने शरीर पर भी महसूस करना चाहती थी।

सोचती थी, कि कभी तुम मेरे सपनों में आओ और मेरे पास बैठो, और मैं तुम्हें गले से लगा लूं।  तुम से लिपट कर अपने मन की सारी बात कह दूं। पर ऐसा कभी नहीं हुआ। तुम मेरे सपने में भी कभी नहीं आए। 

शायद तुम मेरे इतने करीब होते हुए भी मेरे अवचेतन मस्तिष्क की किसी भी याद में सम्मिलित नहीं हो पाए। तभी तो मैं तुम्हारा कोई स्वप्न तक न देख पाई। 

यदि यह जीवन कोई रहस्य है, तो शायद यह रहस्य इतने गूढ़ और उलझे हुए हैं कि तुम्हारा अस्तित्व मेरे जीवन में किसी रहस्य से कम नहीं था। सदैव मैं तुम्हारे होने, या ना होने के बीच की लहरों में तैरती रही, उन्हीं से उलझती रही, और किनारे पर खड़े होकर तमाशा तुम देख रहे थे।  और इल्जाम मुझ पर लगाया !! -

साहिल पर खड़ी तू बेखबर,

लहरों से जूझता मेरा मुकद्दर,

क्या जरूरी था ?

मेरे अपने ही होने की पहचान थे तुम। कभी तुमने मेरे लिए कहा था कि मैं जैसी दिखती हूं, वैसी नहीं हूं। सच कहा था तुमने। पत्थर सी कठोरता का आवरण पहना भी तो शायद यही सोच कर कि कहीं कोई मेरे अंतर्मन के भेद न जान ले । कोई यह न जान सके कि मैं कितनी भावुक और संवेदनशील हूं।

मेरे मन में भी छोटी-छोटी चाहतें जन्म लेती थी। अप्रत्याशित बातें और घटनाएं प्रभावित करती। मेरा भी मन तुम्हारे जैसे ही कभी-कभी छोटी सी बात पर उल्लसित होता। और कभी छोटी से छोटी बात भी सीधे दिल को आ लगती थी ।

लेकिन मैं ? मैं अपने सभी दर्द छुपा लेती। कभी किसी के सामने अपनी इन भावनाओं का प्रदर्शन नहीं किया या फिर यूं कह लो, मैं तुम्हारी उपेक्षा इसीलिए करती रही कि मैंने खुद को भी अपने आप से उपेक्षित ही रखा।

मैं जानती हूं कि मेरी उपेक्षाओं से तुम आहत हुए , और एक दिन मुझसे रूठचले भी गए।  तुमने जो सहा, उसे आंखों से निकाल दिया। वह तुम्हारी आंखों से आंसू बनकर बह निकले। लेकिन मेरा क्या ? मैं तो रो भी न पाई मेरे दोस्त ! 

आज मैं खुद को ही उपेक्षित करती हूं, यही सोच के कि शायद तुम्हारे उस दर्द को समझ सकूं। तुम्हें उपेक्षित रखा, तुम्हें खुद से दूर रखाआज उसका दर्द उसकी चुभन मैं अपने अंतर्मन में महसूस करती हूँ । मेरी उपेक्षाओं के तीर आज मेरे हृदय में ही किसी काटें की भाति चुभते हैं, उसे लहूलुहान करते हैं। आज मैं समझ सकती हूं कि तुमने क्या कुछ नहीं सहा होगा ! तो क्या ? मैं तुम्हारी दोषी बन गई ? जिसकी इतनी बड़ी सजा दी तुमने ! 

    यदि तुम मुझे मेरे आस-पास होने का आभास दिलाते हुए मुझे उपेक्षित करते तो तुम्हारे दिल को भी ठंडक मिलती शायद ? लेकिन अपनी अंतरात्मा से निष्कासित कर, मुझसे यूं दूर चले जाने पर तुम्हें भी क्या मिला होगा मेरे दोस्त ? कौन सी सुखद अनुभूति पा ली होगी तुमने ? मैं नहीं जानती कि तुम, अब आज इस दुनिया में हो भी या नहीं ? कौन जाने, गुजर गए हो, और मैं यहां बेखबर तुम्हारा इंतजार कर रही हूं !!

मैं यह भी जानती हूँ कि मेरे प्रति तुम्हारी चाहत, अब जिसे शायद मैं प्रेम या उससे अधिक कह सकती हूँ , तुम्हारी किसी भी भौतिक चाहत से परे थी। लेकिन तुमने जब भी तारीफ की तो मेरे इसी शरीर की , मेरे रंग - रूप की। तुम्हारी प्रत्येक तारीफ मेरे आईज , नोज़ , लिब्स , चीक के इर्द - गिर्द ही रही। यहाँ तक कि मेरे कान की छोटी - छोटी बालिया , मेरे पैंरो की पायल जैसी बेजान वस्तुए ही रही। कभी तुमने मेरे मन की तारीफ नहीं की , मुझे तो याद नहीं , शायद कभी की भी हो ? पर सच कहती हूं, कभी नही की।

अब तुम ही बताओ जब स्वयं तुम भी मेरे मन को मेरे शरीर से पृथक न देख पाए तो फिर जिस लौकिक संसार में हम हैं, तब और कौन देख पता ?

तुम्हारे छू लेने मात्र से मैं अपवित्र न हो जाती , बावजूद इसके कि मैं अक्सर सोचा करती थी कि तुम मेरे सपनों में आओ, मैं तुम्हे गले लगा तुमसे लिपट जाऊं, और तुम्हे जी भरकर प्यार करलूं ।तुम्हें चूँम लू।

कैसी अजीब दुनिया है ये ? कोई शरीर छू ले तो तुम दूषित-कलंकित, और यदि कोई अंतर्मन को ही छू ले तो . . ?

मैं आज भी उसी एक कैद में हूं, हां कैद ! और यह कैद मैंने स्वयं स्वीकार की और अपने लिए बनाई भी। यदि मैं उस कैद सेजब तुम मिले, उस वक्त खुद को आजाद करने की कोशिश भी करती, तो जानते हो क्या होता

मैं तुम्हें भी खो देती, आसमान जमीन पर गिर पड़ता। दुनिया तहस-नहस हो जाती। समाज के बनाए सभी नियम, कानून-कायदे और मर्यादा टूटती। आसान शब्दों में कहूं तो बवंडर मच जाता।

यदि तुम मेरे लिखे को कभी कहीं पढ़ो तो तुम जरूर हंस पड़ोगे। मैं भी हंस लेती हूं - वाह रे दुनिया ! और उसके बनाए नियम, कानून, कायदे !!  लेकिन छोड़ो इन सब को जाने दो, हमें क्या करना, क्या लेना, क्या देना। मैं तो बात कर रही थी कैद की।

कैद !! जिसे बनाया भी मैंने, और जिसे स्वीकार भी मैंने ही किया। मैं आज भी उसी कैद में हूं। लेकिन एक फर्क है, उस कैद में अब तुम मेरे सहभागी हो। 

अपने तसव्वुर में तुम्हारी वही सूरत  जो कि कभी मैंने अंतर्मन में बैठा ली थी, उसे लेकर चुपचाप उसी कैद में चली गई।  वह कैद अब जिसमें तुम भी मेरे सहभागी हो, वहां न तो किसी समाज के कानून के टूटने का डर है और ना ही किसी मर्यादा के भंग होने का प्रश्न। 

और अब तुम ही बताओ कि यह कैद, यदि मेरे लिए इस जन्म की ना होकर जन्म जन्मांतर के लिए हो और तुम मेरे सहभागीदार रहे तो ? तो क्या होगा

कभी-कभी इंसान अपने कमजोर पक्ष को सबल पक्ष में परिवर्तित कर जीने के प्रति अपने दृष्टिकोण बदल देता है। मैंने भी वही किया। अपने अंतर्मन में तुम्हें साथ लेकर मैं उसी कैद में चुपचाप चली गई।

कहते हैं अगर कोई ख्वाहिश इस जन्म में पूरी नहीं होती, तो इंसान उसके लिए दूसरा जन्म लेता है, उसे पूरी करने का प्रयास जरूर करता है । लेकिन मैंने तो अपने इसी एक जन्म में अपनी सारी ख्वाहिशें पूरी कर ली, तो अब पुनर्जन्म की आवश्यकता ही क्या ? इसलिए अब तुमसे यह भी नहीं कह सकती कि तुम मुझे दूसरे जन्म में मिलो। 

यही सजा मुकर्रर की है अपने आप की।

और तुम्हारी ? कैसे लिख दू अभी ! अभी तो तुम मेरे गुनहगार हो. तुम्हारा मुकदमा पूरा कहां हुआ है ! वह तो अभी जारी है  . . . 

🌺 5 🌺


            स्वीकार किए जाने वाले तथ्यों को हम सदैव ही अस्वीकार करते हैंमेरे दोस्त ! और शायद इसीलिए किसी के प्रति हृदय की गहराइयों में अथाह प्रेम होते हुए भी हम उसे कभी स्वीकार नहीं कर पाते। सामाजिक मान्यताएं, अवधारणाएं, परंपराएं, लोक-लज्जा तो कभी हमारे मन का अंतर्द्वंद हमारे बीच दीवार बन जाता है। हम अंतर्मन को देख ही कहां पाते हैं ?

   पिछले पत्र में मैंने तुम्हें सजा देने की बात लिखी है, पर अब सोचती हूं इससे क्या होगा ? क्या हो जाएगा यदि मैं तुम्हें दोषी मान लू और फिर तुम्हें हर दोषों से मुक्त भी कर दू ? तब भी क्या कुछ बदल जाएगा ? तुम्हें तो मैं सजा दे ही चुकी हूँ। अपने साथ सहभागी कैद की सजा। इस से बड़ी और कौन सी सजा दे सकूंगी  ?

क्या अपने आत्मिक सुख के लिए या दिल की तसल्ली के लिए या फिर जमाने के सामने यह सिद्ध करने के लिए कि हाँ, तुम मेरे दोषी हो, मेरे गुनहगार हो, यह मानकर मैं तुम पर आरोप लगाऊं  ? और यदि तुम सारे आरोपों से बरी हो गए तो ? तब क्या ? मैं खुद अपराधबोध से ग्रस्त न हो जाउंगी ?

मैं अच्छी तरह से जानती हूं कि मुझे यूं छोड़ कर तुम्हारा यूं चले जाना, तुम्हें भी तो अखरा होगा मेरे दोस्त। तुम्हें भी तो कुछ छोड़ना पड़ा होगा। चाहे वह तुम्हारे कदमों के निशान ही कियूं न रहे हो, तुम्हारी यादें ही कियूं न रही हो, या फिर वे पल, वे लम्हे जब तुम मेरे साथ थे।  

      उन्हें तो तुम कहीं नहीं ले गए ? काश उन्हें भी ले जाते, तब मैं तुम्हें दोषी मान लेती। और शायद तब मैं तुम पर बहुत सारे आरोप भी लगाती। हाँपर तुम भी गए तो यूं ही खाली हाथ। और क्या पता, मेरी यादों को भी ले गए या नहीं ? कौन जाने तुमने सब कुछ यहीं छोड़ दिया हो। हां, सब कुछ मेरे लिए।

क्या ले जाने का दोष लगाऊं मैं तुम्हें ? मेरी रातें, मेरी नींद या फिर मुझे मेरे मन के अंदर ही कैद कर देने की

हां, कैद हो जाने की तुम्हारी यादों के साथ।  तुम वहां पूरे वजूद के साथ होते हो।  पर मैंने तो ऐसा कभी नहीं चाहा था।  न मैंने कभी नहीं चाहा कि तुम मेरी यादों के साथ कैद होकर रह जाओ।  तुम तो आजाद पंछी थे न ? खुले आसमान में उड़ना चाहते थे। और क्या पता शायद तुम मेरा हाथ थाम मुझे भी इन फिजाओं में इन खुले आसमान में, बादलों के बीच ले जाना चाहते थे, जहां सितारों की दुनिया है।

कभी-कभी मुझे यह भी लगता है कि तुम कहीं नहीं गए, पर ऐसा नहीं है। तुम तो गए न ? अब तुम्हें पुकारने से क्या होगा ? क्या लौट आओगे ? यदि यह लिख दूँ कि जाने-अनजाने यदि कोई दुख पहुंचाया हो, तुम्हें कोई तकलीफ दी हो, तुम्हारे मन या आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाई हो तो मुझे माफ कर दो।  तो क्या तुम खुश हो जाओगे तुम्हें अच्छा लगेगा?

तुम अक्सर कहा करते थे कि इस दुनिया में समय नाम की कोई चीज नहीं होती। आज सोचती हो तुम ठीक ही कहा करते थे। हम दोनों के दरमियां कोई समय तो था ही नहीं। थे तो समय के छोटे-छोटे टुकड़े, पल, टाइम स्लाइस। 

वह गुजरते गए, हम जीते गए। और वे पल, वे लम्हे पता नहीं कब कहां और कैसे हाथों से फिसलते गए।  सुना है बंद मुट्ठी से रेत भी फिसल जाती है।  लेकिन उन पलों में, उन लम्हों में, उन क्षणों के साथ जिंदगी भी फिसल गई, मेरे दोस्त ! और हम कुछ भी न कर पाए। 

मैं जानती हूं कि अब तुम मुझसे मिलने की कोशिश नहीं करोगे, जैसा कि पहले तुम किया करते थे।  यदि कभी पहली मुलाकात की तरह ही पूर्व निर्धारित न हुआ, और राह चलते यदि मिल भी जाओ और अपरचित से मुस्कुरा भी दिए तो कोई ताज्जुब नहीं होगा।  

क्योंकि मैं जानती हूं कि तुम वह नहीं होगे। बस यही टीस उठती है कि अब तुम दुबारा उस तरह से नहीं मिलोगे जैसा कि मैंने चाहा था कि तुम मिलो।

जिंदगी कोई पजल होती या कोई कठिन सवाल होती, तो निश्चित ही मैं उसे सुलझाने की कोशिश करती।  लेकिन यहां तो जिंदगी आसान थी।  तुम्हारे साथ जीना आसान था, तुमसे बातें करना आसान था, तुमसे मिलना आसान था। तो फिर

मैं ऐसा कुछ भी नहीं कर पाई। क्योंकि शायद मैंने यह सब करना उचित नहीं समझा या यूं कह लो कि मैं तुम्हें कोई अहमियत ही नहीं देना चाहती थी। 

      हां सच ! यही सच है। तुम मेरे लिए उस वक्त कुछ भी नहीं थे और शायद आज भी नहीं हो।  नहीं तो क्या ऐसा नहीं हो सकता कि मैं तुम्हें खोजती हुई तुम तक ही पहुंच जाऊं ? किसी भी बहाने से?

    आरोपों के जिस कटघरे में मैं तुम्हें खड़ा करना चाहती हूं, उस कटघरे के ऑपोजिट में मैं भी तो खड़ी हूं, तुम पर आरोप लगाते हुए? मान लिया कि मैं मजबूर थी। यह भी मान लिया कि मुझे तुमसे कोई प्यार नहीं था। कोई चाहत नहीं थी। उस वक्त तुम मेरे लिए कुछ भी नहीं थे। क्या तब भी तुम्हें यूं नजरअंदाज करना चाहिए था ? तुम ही बताओ ?

    तुम्हारे मजाक को मैं सीरियस ले लिया करती थी, और जहां तुम सीरियस होते थे, तो उसे मजाक में। जिस दिन तुम्हारे प्रति मेरी संवेदनाएं निष्ठुर हो गई, शायद उसी पल मैंने तुम्हें मार दियातुम्हारा कत्ल कर दिया। उस वक्त तुम्हें नजरअंदाज करना तुम्हें मिटा देने के बराबर ही तो था, मेरे दोस्त।

       तुम मुझ में जिंदगी तलाश करते रहे और मैं तुम्हें नजरअंदाज करती रही। तुम मुझे में जीना चाहते थे, और मैं तुम्हें हर पल मारती रही।  हर पल तुम्हें विश्वास दिलाती गई कि तुम मेरे लिए कुछ भी नहीं हो। तुम्हें यूं हर लम्हें मार कर आज फिर क्यों पुकारती हूँ -  आह ! तुम कहां गए ?

    कल को कोई और दुनिया होगी, कोई और लोग होंगे, जो शायद मेरी इस कहानी को पढ़ेंगे और हमें जानेगे। और तब शायद वही लोग तय कर पाए कि मैं कितनी निर्दोष हूं, और तुम कितने दोषी ?

     तुम्हारे यूं चले जाने का मैंने मातम नहीं मनाया। गहरे शोक सागर में नहीं डूबी। सब कुछ उसी तरह रखने का प्रयास किया।  खुद को भी नहीं बदलना चाहा।  मैं उसी तरह बनी रहना चाहती थी।  क्योंकि मैं जानती हूं कि जब कभी तुम सामने आओगे, मुझे बदला हुआ देख शायद तुम्हें ही कोई खुशी न हो।  

लेकिन अब ऐसा नहीं रहा ? बदलने या ना बदलने की चाहत के बीच मैं ऐसी उलझी की अब मैं क्या हूं ? मैं खुद ही नहीं समझ पा रही हूं ! मुझे खुद आश्चर्य होता है कि जब मैं तुम्हें भीत हृदय से पुकारती हूं, आह ! तुम कहां गए !!!

कभी यूं ही अचानक तुम मिल गए,

हो सकता है अब,  

जब कभी तुम मिलो मुझसे,

मैं वह न रहूं,

जिससे तुम अक्सर मिला करते थे।

शायद मेरे पास वह कुछ भी न हो,

तुम्हें देने के लिए,

जिसकी चाहत तुम अक्सर

किया करते थे ।

हां इसलिए कहती हूं अब तुमसे,

उसी तरह लौट कर न आ जाना,

तुम फिर से।

जिस तरह अक्सर तुम

लौट आया करते थे।

अब चाहे जितना पुकारू -  

आह !! तुम कहां गए ! , , , ,

🌺 6 🌺


जीवन जीना न तो कोई कला है, न विज्ञान, न ही दर्शन। यह तो मन और अंतर्मन के बीच का संघर्ष है।

   और यह तो बताओ, जिंदगी जी लेने की चाहत किस में नहीं होती मेरे दोस्त यह बात और है कि मैंने पूरी तरह इसे अपने अंदाज से जीने की कोशिश की । किसी की दखलअंदाजी मुझे पसंद नहीं थी, शायद तुम्हारी भी नहीं। 

मैंने कभी नहीं चाहा कि कोई मुझे समझाएं की जिंदगी में क्या अच्छा है, क्या बुरा है। यदि जिंदगी को अपने ढंग से जी लेने की चाहत से मैं बेखबर होती, तो शायद मैं यह बर्दाश्त कर भी लेती।

जिंदगी, यदि जीने की कला है, तो वह तजुर्बा मैं खुद हासिल करना चाहती थी। यह मेरी जिंदगी थी, और किसी से उधार भी नहीं ली, तो फिर किसी को उसे लौटाने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था। और ना ही अब उठता है। तो फिर कैसे मैं इस बात पर यकीन कर लेती कि जो मेरा अपना है, जिसे मैं अपने ढंग से जी सकती हूं, और जिसे मैं जब चाहूं महसूस कर सकती हूं, हां वही जिंदगी अब तुम्हारी है ?

मैं तुम पर इल्जाम नहीं लगा रही हूं कि तुम मुझे बदल देना चाहते थे या मेरी जिंदगी को अपने तरीके से मुझे जीने के लिए मजबूर करना चाहते थे।  लेकिन हां, जब कभी भी तुम मुझे अपनी नजरों से देखते और मुझे ठीक वैसा न पाते, जैसा कि तुम देखना चाहते थे, तब तुम्हारी नजरें मुझसे शिकायत करती हुई नजर आती।

यह मुझे बदलने की तुम्हारे मन में लालसा ही तो थी ? तुम्हारी इच्छाएं, तुम्हारी लालसा के वस्त्र भला मैं क्यों ओढ़ लेती ? मैं जैसी थी, वैसी ही रहना चाहती थी। कभी तुम मुझे अपने नजरिए से देखते और मैं उस तरह न दिखती, तब तुम्हारे मन में क्षोभ पैदा होता, तुम दुखी होते, और कई बार तुम मुझसे रूठ भी जाया करते थे। 

तब क्या मैं तुम्हें किसी न किसी बहाने मनाया नहीं करती थी, बोलो

मैं जानती हूं कि तुम जब भी मुझसे रूठे तो उस लिमिट के पार कर कभी नहीं गए, जहां से मैं तुम्हें मना फिर वापस न ला सकू। तो क्या आज तुम उस लिमिट को पार कर गए ? क्या तुम्हारे जवाब की प्रतीक्षा मुझे ताउम्र करनी पड़ेगी ? चलो यह भी सही, मेरे दोस्त। 

अब सोचती हूं कि शायद मैं उस बंधन में बंध गई होती जिसमें कि तुम मुझे बांधना चाहते थे, तो हो सकता है इस जीवन में कोई नायाब, बेशकीमती चीज ही मिल जाती ? या फिर सर्वस्व गवा देती, सब कुछ लुटा ही देती

कौन जाने क्या होता ? पर कुछ तो होता। भरी महफिल, अपनों के बीच, क्या मैं इस तरह तन्हा होती ? कुछ तो होता मेरे साथ, जो मेरा अपना होता। 

अपने प्रश्नों के ठीक-ठीक जवाब ना पा, तुम अक्सर मुझ पर इल्जाम लगाते थे कि मैं तुम्हें गोल - गोल घुमाती हूं। और मैं ? मैं अक्सर लिखती  - " नहीं घूमा रही गोल - गोल। "

कहते हैं, समय के साथ-साथ स्मृतियां विस्मृत होने लगती हैं । एक उम्र के बाद या उम्र के किसी पड़ाव में आ कर यादें धुंधली हो जाती है ! तब शायद कभी मैं भी तुम्हें भुला पाऊं ! 

      लेकिन तुम ? तुम कैसे भुला पाओगे मुझे ?

क्योंकि, तुम मुझसे अक्सर ही कहा करते थे, कि तुम्हारी दुनिया में समय नाम की कोई चीज नहीं। तब भला मैं कैसे मान लूं की समय गुजरने के बाद भी तुम मुझे भुला पाओगे

कहानियां बनती हैं, चलती हैं, ठहरती हैं, उलझती हैं, और एक स्थान पर आ कर रुक सी जाती हैं, कुछ बिगड़ भी जाती हैं। लेकिन यह वह कहानी है जो न तो कभी रुकेगी न कभी कहीं ठहरेगी, न किसी से उलझेगी, और न ही कभी बिगड़ेगी। 

शायद इसलिए कि तुम्हारी जिंदगी में मैं, किसी कहानी की तरह या किसी कहानी का कोई पात्र नहीं हूं। काश कि तुम समय को मानते। तब शायद मैं तुम्हें कभी समझा पाती कि ठहरे हुए लम्हों में जिंदगी नहीं जी जा सकती, मेरे दोस्त। 

उसे तो गुजरते जाना है मेरी तरह, समय के साथ-साथ। शायद तुम कहीं किसी एक जगह जा ठहर गए हो, मेरे इंतजार में। 

अब शायद तुम्हें मेरा इंतजार होगा। प्रतीक्षा होगी उन पलों की, जब मैं चलते हुए तुम तक पहुंच जाऊं और फिर ठहर जाऊं, रुक जाऊं। 

और शायद उसी मोड़ पर मैं फिर तुम्हें दोबारा मिल पाऊं। यानी कि हम दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं। एक दूसरे के इंतजार में, फर्क सिर्फ इतना है कि तुम, मेरे पहुंच जाने का इंतजार कर रहे हो और मैं तुम्हारे लौट आने का। इंतजार तो दोनों को ही है न ?

मैं तुम्हें चलते हुए फिर से पाना चाहती हूं, यूं ही पहली मुलाकात की तरह और तुम एक जगह ठहर कर मेरे इंतजार में . . .

जानते हो, कुछ कांसेप्ट को मैं भी नहीं मानती क्योंकि मेरी समझ में ऐसे कांसेप्ट होते ही नहीं या फिर होने ही नहीं होने चाहिए। जैसे कि किस्मत, यानी कि मुकद्दर। 

     अब यह कहूं कि एक पल में लिए गए हमारे फैसले, हमारी किस्मत बन जाते है, तो क्या गलत होगा

     यदि दीपक ने स्वयं जलकर रोशनी करने का फैसला न लिया होता तो शायद उसकी किस्मत में ठीक उसके नीचे अंधेरा ना होता। अपनों की जिंदगी को वजह देने के लिए, मैंने फैसला न लिया होता तो मेरी खुद की जिंदगी बेवजह ना होती, मेरे दोस्त। 

यदि तुम मुझसे रूठे हो तो रूठे रहो, मेरी बला से। मैंने तुमसे ऐसा क्या पा लिया कि उसे संजो कर रखू ? और मैंने तुम्हें ऐसा क्या दे दिया कि तुम उसे भुला ना पाओगे ? दुनिया का ऐसा कौन सा दर्शनशास्त्र है, जो जिंदगी को जीने की कला सिखला दे और ऐसी कौन सी जिंदगी है, जो खुद अपने आप में एक दर्शनशास्त्र न हो ? बताओ क्या है कोई

दुनिया की ऐसी कौन सी घटना है जिसका न होना, या कि होना, बेवजह हो ? तो फिर मेरी जिंदगी में आने की तुम्हारी वजह क्या थी ? क्यों आए तुम मेरी जिंदगी में ? मैंने स्वयं तो तुम्हें नहीं बुलाया था, तो फिर क्यों चले आए ? क्या इसलिए, एक दिन जब मन पड़ेगा, अचानक ही मुझे यूं ही छोड़कर चले जाओगे ?

सदियों से तेरा यूं ही भटकते रहना,

यदि बेवजह न था ?

तो यूं मुझे अकेला छोड़ कर,

तेरा यूं चले जाना

फिर लौट कर न आना,

तो अब तुम ही बताओ,

इसकी वजह क्या है ...?

   तुम्हे याद है जब मैं तुमसे बात कर रही होती थी या फिर यूं कहूं कि जब तुम मुझसे कुछ पूछ रहे होते थे तब मैं बेहद संजीदा और चौकन्नी हो जाती थी। जब तुम्हारे प्रश्न मेरी जीवन शैली या फिर मेरी निजी जिंदगी से संबंध रखने लगते थे, तो मैं उन्हें इग्नोर करने लगती थी। बड़ी ही चालाकी और खामोशी के साथ चुप्पी साध लिया करती थी या फिर बातों ही बातों में विषयवस्तु बदल देती थी।

मैं जानती थी कि तुम्हारे मन में कोई खोट नहीं था। तुम सच्चे मन से अपने कुछ विचार मेरे सामने रखते, मुझसे कुछ जानना भी चाहते। जहां तक मुझे याद है एक बार तुमने मुझसे मेरे वैवाहिक जीवन और प्रेम से जुड़े हुए कुछ सवाल पूछे थे। और मैंने कहा था " मेरा जिससे विवाह हुआ, उसे मैं बेहद प्रेम करती हूं।"

    तब तुमने कहा था, " अच्छी बात है, जिसे तुमने प्यार किया उसे प्राप्त किया, तो तुम भाग्यशाली हो "

    यहां पर कोई प्रश्नवाचक चिन्ह नहीं था। लेकिन तुम्हारी आंखों में मैंने देखा था और जिसका जवाब मैंने देना उचित नहीं समझा था। क्यो ?

🌺 7 🌺

" क्या " एक जिज्ञासा है, और " क्यों " उसके समाधान की खोज।

तुमसे मिलना और फिर तुमसे यूं ही दूर हो जाना यदि हम दोनों की नियति थी, तो फिर आज क्यूं उच्च आकांक्षाओं के दीप मेरे अंतर्मन में तुम्हारे लिए प्रज्वलित हो रहे हैं

यदि तुम्हारा मिलन और फिर तुम्हारा बिछोह नियति थी, महज एक संयोग था। तो फिर आज मेरा मन क्यों उन्हीं पलों को जी लेना चाहता है ?

मुझे ऐसा क्यों महसूस होता है कि मेरे जीवन की यह अदम्य प्यास तुम्हारी उसी मृगतृष्णा के आडंबर से ही बुझेगी

कभी लगता था कि यदि पल भर के लिए मेरा मन विचलित हुआ तो संपूर्ण सृष्टि हिल जाएगी। ऐसा लगता था कि इस धरती में न जाने कितने भूकंप आ जाएंगे।

तो फिर आज क्यों जब मेरे अंतर्मन से यह पुकार उठती है - "आह ! तुम कहां गए ..."तो यह संपूर्ण सृष्टि उसी तरह शांत निर्विकार भाव से मुझे निर्मेष देख रही है ? मेरे मन में उठे तूफान से कोई धरती क्यों नहीं हिलती ? क्यों सभी कुछ अपनी जगह पर स्थिर और शांत हैं ?

मैं क्यों अपने उन्हीं तैतीस कोटि देवी देवताओं के साथ रहते हुए भी खुद को अकेला पाती हूं ? मेरे मन में उठने वाली लहरें तुम तक क्यों नहीं पहुंच पाती

क्यूं ? क्यूं ?? क्यूं ???

जिन्हें मैंने कभी यथार्थ माना तो फिर आज क्यों वे सभी अर्थात मुझे छद्म प्रतीत होते हैं

मेरे मन के सारे दर्शन, दुनिया की सारी फिलॉसफी, भावुकता बन मेरी आंखें क्यूं भिगोती है ?

यथार्थ की धरातल में मेरे जलते हुए पांव आज तुम्हारे ही साथ तुम्हारी उसी काल्पनिक दुनिया की छांव में, उसी की शीतलता में ही क्यूं चलना चाहते हैं

क्यूं आज मैं अपनी इस लेखनी से अपने जीवन की सर्वोत्तम कृति को तुम्हारी ही यादों में, तुम्हारे मन की सारी कल्पनाओं की स्याही में डुबो कर लिखना चाहती हूं ?     

तुम्हारे मन की सभी संवेदनाओं को अपनी विरह वेदना में सजो कर उसे एक नाम देना चाहती हूं - 

आह ! तुम कहां गए ???

मेरे अंतर्मन से उठी यह आवाज तुम तक जरूर पहुंचेगी और जिस दिन वास्तव ने तुम तक पहुंची, सच मानो उस दिन सारे बंधन तोड़, तुम मेरे पास ही चले आओगे। 

यदि संबंधों की प्रगाढ़ता दूरियां लाती हैं, तो जाओ मैं तुम से कोई संबंध नहीं रखती। 

यदि  प्रत्येक संभावना अनंत संभावनाओं को जन्म देती हैं, तो फिर जाओ मैं तुम में किसी भी संभावना की तलाश नहीं करती। 

यदि मेरा यह नश्वर शरीर तुम्हें पा लेने की राह में बाधा है, तो सच मानो मेरे अंतर्मन की आत्मा ! तुम एक बार मुझे भरोसा तो दिलाओ कि उसके बाद तुम मिल ही जाओगे तो मै इसका भी परित्याग करने के लिए सहर्ष तैयार बैठी हूं।

अब इससे अधिक क्या लिखूं और तुमसे क्या कहूं

यदि मैं तुम्हें अपने अंतर्मन, अपनी यादों से निष्कासित नहीं कर सकती, तो तुम्हे अपनी जीवनशैली से निष्कासित कर देने भर से क्या होगा

यदि तुम मेरी आंखों में अक्षय ऊर्जा की भांति आ बसे, तब तुम्हें यूं बूंद - बूंद करके बहा देने मात्र से भी क्या होगा

सागर की गहराई में उतर भी जाऊं और तुम जैसा मोती हाथ न लगे तो सागर में गोते लगाने से फायदा क्या ?

इसीलिए अब मैं किसी विरह वेदना के सागर में खुद को नहीं डुबोना चाहती। यदि किसी अध्यात्म दर्शन में भी सुख की अनुभूति न मिले तो ? तो फिर मेरा इस भौतिक धरातल पर ही, अपने सभी सुख - दुख की अनुभूति के साथ खड़े रहने में ही क्या बुराई है

उस दिन तुमने मेरी तरफ अपने बढ़े हुए हाथ न रोक लिए होते, और मुझे छू ही लिया होता, तो शायद मेरे सम्मुख मेरे जीवन के सारे रहस्य खुल जाते। नहीं जानती कि आज मुझे यह आभास क्यों हो रहा है कि मैं उसी दुनिया से थी जिस दुनिया से शायद तुम आए थे।

जब तुम्हारी दुनिया से अलग मेरी कोई दुनिया हो ही नहीं सकती तो फिर ? तुम मुझे वापस हमारी ही दुनिया में क्यों नहीं ले गए ? मुझे अकेला यू भटकने के लिए इसी दुनिया में क्यों छोड़ दिया

फिर आज क्यों मैं अपनी सभी जिज्ञासाओं की तलाश तुम्हारे ही अस्तित्व में कर रही हूं ?

मुझे ऐसा क्यों प्रतीत होता है कि मेरी सभी जिज्ञासाओं के समाधान और उनके उत्तर आज तुम्हारे और सिर्फ तुम्हारे पास ही हैं?

क्यूं ? क्यूं ?? क्यूं ??? मेरे दोस्त ! क्यूं ....

तुम से पूछने के लिए बहुत कुछ है मेरे दोस्त, तुमसे बहुत सारे प्रश्न करने है मुझे, जैसे कि कभी तुम किया करते थे। यदि मेरे प्रश्न ही तुम्हारे लिए आरोप-पत्र हैं, तो फिर हैं । समझ लो कि फिर तुम्हें मेरे सभी आरोपों के जवाब देने होंगे।

सभी प्रश्नों को मैं वापस ले भी लूं तो एक प्रश्न जो अब एक पुकार, मेरे अंतर्मन की वेदना बन चुकी है, मैं उसे वापस नहीं ले पाऊंगी। उसे मैं कभी विड्रॉ नहीं करूंगी - "आह ! तुम कहां गए ..."

🌺 8 🌺


अंतर्मन में स्थापित प्रेम उसके वास्तविक स्वरूप में किसी को भी प्रकट नहीं किया जा सकता। वह अपने उस स्वरूप में कभी भी बाहर आ ही नहीं पाता, जिस रूप में वह एकनिष्ठ भाव से विद्यमान होता है। उसमें विचलन आ ही जाता है। शायद इसलिए कि उसे चंचल मन, शांत हृदय और तर्कबुद्धि जैसी न जाने कितनी परतों से होकर गुजरना पड़ता है।

मेरे जीवन की सभी मान्यताएं, सभी अवधारणाएं जिस मजबूत सिद्धांत पर टिकी थी वह आधारशिला अब कहां गई ? हां तुम ही बताओ कहां गईं

जिन सिद्धांतों की आधारशिला में मैंने अपना जीवन टिकाया, उसे मजबूती दी, मुझे विश्वास था कि वे अडिग है। ये सिद्धांत सार्वभौमिक है, इन सिद्धांतों का कोई तोड़ नहींइनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। तो फिर आज क्यों ये सभी सार्वभौमिक सिद्धांत जिनका कि कोई अपवाद न था, मेरे लिए मिथ्या साबित हुए ? यह सब क्या है, मेरे दोस्त ?

यह मेरे मन की दुर्बलता है या कि उन लहरों की प्रबलता, जो मेरे अंतर्मन से उठती हैं, और जिन्हें मैं तुम्हारी ही तरफ मोड़ देती हूं। फिर वही लहरें तुमसे टकरा कर वापस कई गुनी शक्ति और वेग से, मुझसे ही आ टकराती हैं, और मेरे इन सिद्धांतों को तार-तार कर देती है ?

मेरी जीवन शैली देखकर, यदि तुम यह समझते थे कि, मेरा मन स्थिर है, शांत है और जिसमें तुम्हारे लिए कोई स्थान नहीं है, तो तुम सच समझते थे। तुम गलत नहीं थे, मेरे दोस्त !

सुनकर आश्चर्य हो रहा है न ! तो सुनो - पारदर्शी कांच के सम्मुख खड़े होकर देखने पर स्वयं की तस्वीर कभी नहीं दिखाई देती, और न ही दिखाई देता है वह कांच। दिखाई तो देती है आर - पार की पारदर्शी दुनिया ? वह दुनिया जो कई मिथक और बाहरी आडंबरों से भरी होती है। 

मैं वही पारदर्शी बेदाग सीसा थी मेरे दोस्त। जिसके पीछे कोई बाहरी लेप नहीं था। हां तो बताओ भला ! तुम उसमें अपना ही अक्स कैसे देख पाते ? तुमने तो देखा मेरे पीछे की दुनिया, जो बेहद रंगीन और खुशमिजाज होने का आभास दिलाती थी।

और तुम ?

तुमने उसी पारदर्शी कांच के सम्मुख खड़े होकर अपना अक्स देखना चाहा, जहा मै न दिखाई दी, और तुम्हें दिखाई दी कांच के पीछे की आभासी और विचलित दुनिया।

हां मेरे दोस्त ! कांच कितना ही महीन और पारदर्शी क्यों न हो, उसके पीछे की दुनिया अपने वास्तविक स्वरूप से विचलित ही दिखाई देती है, भले ही वह विचलन कण मात्र का ही क्यों न हो। 

काश ! तुम उस कण मात्र के विचलन को देख पाते तो समझते कि तुमसे परे मेरी दुनिया भी कुछ इसी तरह की दुनिया थी। 

तुम्हारी दृष्टि यदि कण मात्र के उस विचलन को जरा-सा भी महसूस करती, उसे देख पाती, तो तुम देखते कि वे सभी अवधारणाएं जो तुम्हे अपनी जगह पर टिकी दिखाई देती थीं, वे वास्तव में उस जगह पर तो कभी थीं ही नहीं ! आश्चर्यजनक किंतु यही सत्य था। 

मुझमें और मेरी उस विचलित दुनिया के अंतर को तुम कभी परख ही न पाए। तुम मेरी दुनिया मेरे पार देख रहे, लेकिन वहां मेरी खुद की अपनी दुनिया थी ही कहां ! तुम भी तो मेरी तरह एक भ्रम में ही जीते रहे।

तुम मेरी सूरत में अपना अक्स तलाश करते रहे, जो कि मेरे अंदर होते हुए भी तुम्हें दिखाई ना दिया, या फिर शायद दिखाई दे ही गया हो, कौन जाने। पर क्यूं आज मुझे आभास होता है कि तुमने मेरे चेहरे में अपना अक्स जरूर देखा होगा तभी तो तुम मुझसे सर्वाधिक प्रेम कर बैठे। कहते हैं न इंसान सर्वाधिक प्रेम स्वयं से ही करता है। यह भी सहज और स्वीकार सत्य है।

लेकिन सहज स्वीकार तथ्य, भ्रम ही होते हैं, मेरे दोस्त।

मूर्त और अमूर्त के बीच का अंतर जितना कम होगा, हम ईश्वर के उतना ही निकट होते है। मैंने इस सहज स्वीकार तथ्य को अपने जीवन की अवधारणा बनाई। इसीलिए मैंने हमेशा प्रयास किया कि मैं अपने मन - मंदिर में तुम्हारी कोई मूर्ति स्थापित न करूं। और इस तरह मैं भी एक भ्रम में जीती रही । 

लेकिन तुम तो मेरे अंतर्मन के चोर निकले ! मेरी सभी अवधारणाओं को, जीवन के सभी सिद्धांतों को बाहर निकाल स्वयं को धीरे-धीरे स्थापित करते चले गए !!

यदि कोई भ्रम अंतर्मन में स्थापित हो जाए तो उससे बड़ा सत्य कुछ भी प्रतीत नहीं होता है। तुम मेरे जीवन के सबसे बड़ा भ्रम थे, और मेरे जीवन का सबसे बड़ा सत्य भी। एक ऐसा सत्य जिसे बड़ी सहजता से स्वीकार किया जा सकता था। इस तरह तुम्हारा वजूद मेरे लिए भ्रम होते हुए भी सहज स्वीकार सत्य ही रहा।

किसी को चाहने के लिए उनके दरम्यान किसी रिश्ते का होना ज़रूरी नहीं, वहां तो भावनाओ का मूल्य होता है। शायद इसलिए भी तुमने मुझसे कोई रिश्ता नहीं बनाया, बस अपना हक जताते रहे। 

        प्रेम जो किसी भी ज्ञान से परे हो और किसी भी अनुभूति से बड़ा हो, यदि कोई उस पर विश्वास न करें, या न कर सके, तो

        उस प्रेम को धारण करने वाला अपराध बोध से ग्रस्त हो जाता है।

        तुम मुझे अपने प्रेम का या जो कुछ भी तुम मेरे लिए महसूस करते थे, विश्वास दिलाना चाहते थे और मैं करना नहीं चाहती थी। या यूं कह लो कर ही नहीं सकती थी। शायद इसलिए तुम भी अपने स्वयं के उसी अपराध बोध से ग्रस्त हो गए, जिसकी परिणति तुम्हारा यूं मुझे छोड़ कर चले जाने के रूप में हुआ। 

प्रेम की जिस पावन - शीला नदी में तुम शीतल प्रेम की तलाश करते रहे, वहां तुम्हें मिला क्या ? मेरी घृणा की भभकती ज्वाला न सही किंतु मेरी उपेक्षाओं के भीषण आघात मिले।  उन आघातों से पवन - शीला नदी के कगार टूटते गए। तुम मेरे इतने निकट आना चाहते थे जितना कि हो ही नहीं सकता था। कभी सोचा ही नहीं जा सकता था।

तब तुम्हारे भीतर अनगिनत आशंकाएं जन्म लेने लगी और उस पर मेरी उपेक्षाओं की कोड़ों-सी मार। तुम्हारा उद्विग्न हृदय या फिर प्रेम और भी तिलमिला उठा। 

तुम्हारे अंतर्मन में यह सब घटित होता रहा और मैं इन सब से अनजान रही। मेरा क्या यही मेरा दोष था ? जिसकी सजा तुमने खुद को दी, और उसके पीछे मुझे भी ?

मेरी इस कहानी के तुम एकमात्र और बेनाम किरदार हो, इसलिए मुझे यह भी लिखने की कोई जरूरत नहीं कि इस कहानी के सभी पात्र और घटनाएं काल्पनिक हैं। कोई भी समानता महज एक संयोग होगा।

      बिल्कुल नहीं लिखूगी । किस डर से और क्यों लिखूं, जबकि अब तुम हो ही नहीं, और जो घटित हुआ वह हमारे बीच ही रहा, सारे संवाद, सभी मिलन, रूठना  - मानना ! सभी कुछ। 

और फिर एक दिन बिना कुछ कहे, बिना बताए, बिना कोई शिकायत दर्ज किए, बस यूं ही चले जाना, शायद हमेशा के लिए। तो फिर यह सब क्यों लिखूं। तुम्ही बताओ ? क्या लिखना जरूरी है ? बावजूद इसके कि इस भौतिक धरातल में हमारा मिलन किसी भी भौतिक संबंधों और विचारधारा से परे था। 

चलो दोनों के मन का हुआ। कभी मैं तुमसे नहीं मिलना चाहती थी और आज तुम मुझसे, और जो कभी तुम मिल भी गए तो मैं जानती हूं कि तुम अपने उस स्वरूप में नहीं होंगे जिससे कि अब मैं मिलना चाहूंगी . . .

तुम्हारा प्रेम एक आर्ट भी हो सकता था, जो उद्विग्न नहीं संयमित होता, स्थिर होता। आनंद से परिपूर्ण होता। 

लेकिन नहीं, उसके स्थान पर तुमने वेदना को चुना, और उस वेदना की टीस तुम्हें भी ताउम्र सताती ही रहेगी . . . जीवनपर्यंत तुम भी मेरे लिए तरसते ही रहोगे ... कालिदास के मेघदूत के श्रापित यक्ष की तरह। तब भी . . . हां तब भी।

इसे मेरी पुकार समझो या कि प्रश्न, मैं तो बस इतना ही लिखूंगी, कहूंगी, पुकारूंगी . . .

- आह ! तुम कहां गए . . .

🌺 09 🌺

हम इसी एक जीवन में ना जाने कितने जिंदगी जीते चले जाते हैं। अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त करने के लिए न जाने कितने काल्पनिक किरदारों में ढलते जाते हैं।

कालिदास के मेघदूत के यक्ष की तरह श्रापित और अभिशप्त जीवन जीने का श्राप तो तुम मुझसे ले ही चुके, वह भी बिना किसी सवाल - जवाब के। यह मेरे अंतर्मन से निकली एक चित्कार है, जो तुम्हारे अंतर्मन तक अवश्य पहुंचेगी। 

ओह ! यह मुझसे क्या हो गया, मैं तो ऐसी ही न थी !! चलो जो कुछ हुआ अच्छा ही हुआ। अब यही मान लेती हूं, शायद यही तुम्हारी नियति थी, और आज भी है।

ऐसा नहीं है कि मैं बहुत दुखी हूं या तुमसे मैं बहुत ही क्रोधित हूं, जो मैने तुम्हें यह अभिशप्त जीवन जीने का श्राप दिया। कहीं कुछ ऐसा है, जो पहले घटित हुआ होगा, और जिसका परिणाम मेरी यह चित्कार है। 

भरी महफिल तुम्हे तन्हा देखा। कई बार खुद मेरे साथ होते हुए भी कहीं और खोया हुआ-सा पाया। तब मन होता कि पूछू , " तुम किस दुनिया में रहते हो ? और बताओ तो, कौन सी दुनिया से आए हो तुम ? "

जब मेरे पास आकर भी तुम्हारा मन स्थिर नहीं होता है, तो तुम मेरे पास आते ही क्यों हो ? हमेशा कहीं और जाने के लिए तैयार ! मैं खुद को जब भी तुम्हारी आंखों में देखती, सहम सी जाती। मुझे दिखाई देता की जैसे तुम कोई प्रेत-आत्मा हो। जो मुझे खींच कर अपने साथ अपनी ही दुनिया में ले जाने के लिए आए हो। तब मैं और सहम-सी जाती। शायद इसलिए मैं तुम्हें चुपके से ही देखा करती थी, जब तुम मुझे नहीं देख रहे होते थे। 

कहीं सुना था या पढ़ा था, जरूरी नहीं यह सत्य हो, किवदंती भी हो सकती है। राजा दक्ष के अपमान बोध से आहत हो सती ने अग्नि कुंड में प्रवेश कर अपने प्राण त्याग दिए। तब भगवान शिव प्रलयंकारी और विद्रोही हो चले। 

मृत्यु के देवता ने तांडव नृत्य किया और संपूर्ण सृष्टि भस्म होने लगी। सती के अधजले शरीर को लेकर तीनो लोक में विचरण करने वाले भगवान शिव भी देह मोह को न त्याग सके । तब सुदर्शन चक्रधारी ने सती के पार्थिव शरीर को छिन्न-भिन्न किया और स्वयं महादेव को देह मोह से मुक्त किया। 

सती का शरीर सुदर्शन चक्र से विछिन्न धरती लोक में जिन - जिन स्थान पर गिरा वहां शक्ति पीठ की स्थापना हुई। भगवान शिव समाधि लीन हो गए। दुनिया यही जानती थी की सती के देह मोह से ग्रसित भगवान शिव ने वैराग्य धारण कर लिया।

लेकिन नहीं , बात कुछ और थी।

समाधस्थ भगवान शिव ने कालचक्र में प्रवेश कर सती को पुनः अपने काबिल बनाने के लिए, उन्हें कई बार जन्म दिलाते रहे और स्वत: ही उनका संघार करते रहे। कई जन्मों के बाद जब सती पुनः शिव के दुनिया में आने के योग्य हो गई, तब उनका जन्म राजा हिमाचल के यहां पार्वती के रूप में हुआ। 

लेकिन दुनिया यही समझती रही कि शिव समाधि लीन है। अंततः उनकी समाधि भंग करने के लिए स्वयं कामदेव को उन पर काम का प्रयोग करना पड़ा। परिणाम रति से कामदेव का वियोग।

मैं ईश्वर को मानती हूं और उसके बनाए या समझाएं गए नियमों को भी शायद। इसलिए मैंने इस किवदंती पर भरोसा कर लिया था।

तुम्हें देखकर मेरा यू मर जाना, फिर तुम्हारे जाते ही मेरा पुनः जी जाना, मुझे अक्सर इस किवदंती की याद दिलाता। मानो तुम भी समय चक्र में प्रवेश कर मुझे अपने काबिल बनाने के लिए हर पल मारते हो और हर पल जिंदा भी करते हो।

और जिस दिन मैं तुम्हारे काबिल हो गई तो तुम मुझे अपनी दुनिया में ले कर चले जाओगे। लेकिन तुम्हें क्या पता मेरी दुनिया तो यही है, और मैं किसी भी प्रलोभन में आकर अपनी दुनिया नहीं छोड़ सकती। इसके लिए चाहे मुझे हजारों हजार बार मरना पड़े, जीना पड़े । मैं इसके लिए भी तैयार हूं  . . .

लिखा न, मैं ईश्वर को मानती हूं और उस पर विश्वास भी करती हूं । जो जन्म लेता है, वह मरता है। और जो मरता है वह पुनः जन्म भी लेगा, यही शाश्वत नियम है। 

इस जीने और मरने के बीच हम जिंदगी जीते हैं, और वह जिंदगी मुझे जीनी थी। इसका फैसला करने वाले तुम कौन होते होते थे ? और मेरी ही दुनिया से मुझसे दूर ले जाने की कोशिश करने वाले जरा यह तो बताओ , तुम कौन थे और अब कहां गए ?

हां बताओ


आह ! तुम कहां गए ... 

तुम मेरे सारे प्रश्नों के जवाब दे भी दो तो भी मुझे यकीन है कि मेरे इस प्रश्न का तुम्हारे पास कोई जवाब नहीं है और ना ही कभी होगा .  .  .

यह मेरी अपनी दुनिया है, और सच मानो मेरी इस दुनिया में तुम कहीं नहीं थे, और न ही कभी होगे . . . न  हि मुझे आना है उस दुनिया में तुम्हारे साथ, जहां पर मोक्ष के पश्चात सब कुछ थम जाता है।

ना कोई मृत्यु, ना कोई जीवन और न ही कोई जिंदगी ! नहीं चलना था तुम्हारे साथ उन रास्तों में, जहां समय चक्र रुक जाता है। जब कोई दृष्टि न होगी तो कोई दृश्य कैसे होगा। मुझे दृष्टि चाहिए, दृष्टिकोण चाहिए, चाहे वह दृष्टि मुझे तुम्हारी वेदना से ही क्यों न मिले . . .

तभी तो अचानक ही मेरे अंतर्मन से निकल गया - ' . .  . जीवनपर्यंत तुम भी मेरे लिए तरसते ही रहोगे। कालिदास के मेघदूत के श्रापित यक्ष की तरह . . . '

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मैं तुम्हारी जीवन की एक ऐसी वर्जना थी, जो सदैव तुम्हें लुभाती रही। वर्जनाएं सम्मोहित करती हैं मेरे दोस्त। उनमें बहुत आकर्षण होता हैं।

अपनी सभी समस्याओं, सारी मजबूरियों को दरानिकार कर तुम्हारे प्रति यदि कोई जवाबदेही तय भी करती, तो तुम ही बताओ वह क्या होती

     मान्यताएं टूटती हैं, अवधारणाएं बदलती हैं, किंतु किसके लिए ? किसी को जवाबदेही तो तय करनी होती है, उठानी भी पड़ेगी है।  यदि वह व्यक्ति ही न हो तो यह सब किसके लिए और क्यों ? तब सब कुछ व्यर्थ नहीं लगता ? माया - मोह का निरर्थक प्रपंच

तुम जहां भी हो, निष्कर्ष तो तुम्हे ही निकालने होंगे। जब तुम मेरी जिंदगी में कभी शामिल हो ही नहीं सकते थे, तो मैं तुमसे क्योंकर कोई संबंध रखती

यदि हमारे कर्मों के द्वारा पाप - पुण्य का निर्धारण होना होता तो बात कुछ और होती, लेकिन यहां तो विपरीत था। पाप-पुण्य की परिभाषा से ही हमारे कर्म निर्धारित होने थे । जब मान्यताएं और अवधारणाएं दोनों के मापदंड पहले से ही तय हो चुके हो तो उसके बाद ? क्या शेष राह जाता है उनके अधीन रहकर हम क्या पा लेते ? यहां तो सिर्फ खोना ही होता। 

माना कि कुछ पा लेने और कुछ खो जाने के डर से जीवन नहीं रुकता; फिर भी आसान सुलभ रास्तों का परित्याग कर सिर्फ तुम्हारे लिए कठिन रास्तों पर चलना मेरे लिए कहां तक सही और मुमकिन होता ? मेरे लिए तुमसे आसान, बेहतर और सुखदाई विकल्प पहले से ही तैयार किए जा चुके थे, तो फिर भला मैं उनका परित्याग क्यों और कैसे कर देती; जबकि कि मेरे लिए निर्धारित किए गए रास्तों, मंजिलों को मेरी पूर्ण सहमति प्राप्त थी ?

जिससे मैंने प्रेम किया और जिसने मुझे प्रेम करना सिखाया, वह मेरा हमसफ़र तब से मेरे साथ है। समय के उन टुकड़ों में तुम तो कहीं न थे मेरे दोस्त ! और न ही था तुम्हारा कोई विजन।  तो फिर मैं भला कैसे अपनी वफाओं से मुख मोड़ लेती ? क्या मैं उस अपने के लिए बेवफा न हो जाती ? बोलो

संपूर्ण ब्रह्मांड के इस अनंत विस्तार में, यदि हम कहीं एकाकार रहे हैं, तो फिर हमें एक दूसरे से अलग होना ही नहीं चाहिए था। अब जब कि हम अलग हो ही गए है, तो फिर एक दूसरे के प्रति यह मोह कैसा ? चुंबकीय गुणों के आधीन समान धुवो का प्रतिकर्षण ही सही ?

  आज जहां कहीं भी भटक रहे हो, तो कहती हूं तुमसे, मत भटको। लौट जाओ उन्हीं रास्तों से अपनी उसी दुनिया में, जहां से मुझे खोजते हुए, भटकते हुए मुझसे आ मिले थे। यह दुनिया तुम्हारी कभी न होगी मेरे दोस्त। तुम इसके लायक कभी ना बन पाओगे। 

   अब यदि भटकना ही तुम्हारी पूर्व निर्धारित नियति है, तो भटकते हुए एक बार तो तुम मुझ तक आओ। देखो तो, मैं अभी भी तुम्हे रोक न रही !!

 जब न चाहा तो आ मिले, बिना वजह ही ! और जब आज मन से पुकारती हूं तो ... ?

   - हा बताओ ! कहां गए तुम ? बिना वजह ही।

   क्या यकीन कर लूं कि तुम अब इस दुनिया में नहीं रहे . . .

  लेकिन यह भी मानू तो कैसे मान लू ? यदि इस दुनिया में तुम न होते तो मेरे मन में खामोशी होनी चाहिए, स्थिरता होनी चाहिए, शांति होनी चाहिए ? पर ऐसा क्यों नहीं है

यदि हो, तो तुम इतने संवेदनहीन कैसे हो गए ? क्या पुरुष होने का अभिमान तुम्हारे रास्ते की बाधा बन रहा है ? नहीं .. नहीं... नहीं... मैं बिल्कुल नहीं मानती।

हमने कुछ भ्रम अपने अंतर्मन में पाल रखे हैं और उसी के आधीन हम नियम निर्धारित करते हैं। वास्तव में स्त्री और पुरुष के बीच कोई भेद होता ही नहीं ? मैं शारीरिक और सेक्स ऑर्गन की बात नहीं लिख रही। मैं तो लिख रही हूं अंतर्मन और हृदय के भेद को लेकर।

पुरुष कठोर होता है, अहंकारी होता है, निर्लज्ज होता है, वहशी और जानवर होता है। और स्त्री कोमल होती है, उसमें शील और लज्जा के गुण होते हैं।  ये सभी गुण दोष तो प्रत्येक इंसान में होते हैं मेरे दोस्त। उसकी सभी नस्लों में होते हैं। यह केवल स्त्री या पुरुष के विशेष गुण धर्म नहीं है। 

ये कुछ न कुछ मात्रा में सभी के अंदर होते हैं। मात्रा का निर्धारण लिंग भेद से नहीं किया जा सकता। यह तो निर्धारित होता है व्यक्तिगत स्वभाव से, व्यक्ति की जीवन शैली से, और उसके आसपास के माहौल से, उसकी परवरिश से। 

और यदि इस भेद को मान भी लूं तो भी स्त्री का स्वरूप व्यापक होता है और उसका अंश सभी के अंदर विद्यमान होता हैं, फिर चाहे वह पुरुष ही क्यों ना हो। यदि ऐसा ना होता तो एक किन्नर जो न तो स्त्री है और न ही पुरुष, तो फिर वह क्यूं स्त्री के वस्त्र धारण करता है ? उसी की तरह दिखना चाहता है

क्योंकि मैं मानती हूं कि अंतर्मन का निर्धारण लिंग भेद से नहीं किया जा सकता। इसलिए तुम्हें निर्मोही भी नहीं कह सकती, पत्थर दिल भी नहीं कह सकती, अभिमानी भी नहीं लिख सकती। मैंने तो तुम्हें देखा है, तुम्हारी जीवनशली को भी देखा है। तो फिर मैं कैसे मान लूं कि तुम इतने कठोर हो जाओगे कि मेरी अंतर्मन से निकली इस पुकार को, इस आह को भी अनदेखा कर दोगे ? कैसे ? इसीलिए तो तुम्हें पुकारती हूं

" आह ! तुम कहां गए .... "

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मैं जानती हूं, दो बिंदुओं को मिलाने वाली रेखा, अनंत बिंदुओं से होकर गुजरती है. चाहे वे बिंदु कितने ही पास-पास ही क्यों न हो।

अनंत अर्थात अनकाउंटेबल। वे तथ्य जो अपरिभाषित हैं। जिसकी, कोई परिभाषा ही न हो। उस अपरिभाषित तक पहुंचने के लिए तुमने भी न जाने कितने अनंत बिंदुओं को पार किया होगा ! मुझसे उपेक्षित होना यदि तुम्हारी नियति थी, तो मेरा यूं खामोश रहना मेरी नियति थी, मेरे दोस्त।

तुम्हारे नि:स्वार्थ सच्चे मन में उपजे प्रेम की परख कर के भी, मेरा यूं खामोश रहना, बेवजह तो न था नि:संदेह मैंने तुम्हें भी और-सा ही समझा था। जिनके लिए प्रेम एक मनोरंजन, एकतरफा विश्वास होता है। जबकि तुम्हारे सभी विश्वासों की आधारशिला तो तुम्हारा मुझ पर अटूट विश्वास ही रहा था।  तुम तो मेरे विश्वास के साथ चलते रहे और मैंने खामोशी से तुम्हारे उसी विश्वास को तोड़ा था। 

मेरा यूं खामोश रह जाना, आज अब जिसकी कोई वजह न रही, उसका दोषी मानकर तुम्हें सजा देना, मुझे नहीं लगता कि अब इसकी कोई वजह है। 

सब कुछ उस समय इतनी तीव्रता से घटित हुआ की उन घटनाओं का कोई क्रम न था। घटनाएं घटती जा रही थी, सब कुछ स्वचालित-सा होता जा रहा था। जिसे हम नियंत्रित न कर पाए।  

प्रत्येक व्यक्ति का एक आत्मसम्मान होता है। चाहे वह छोटे से छोटा या बड़े से बड़ा व्यक्ति ही क्यों न हो। मेरी खामोशियों ने शायद तुम्हारे उसी आत्मसम्मान को भी ठेस पहुंचाई थी। मेरी सभी उपेक्षाओं की परणिति तुम्हें खुद को अपनी ही नजरों पर गिरकर उठाना पड़ा।

   मैं चाहती तो तुम्हें सीधे मना कर सकती थी।  लेकिन नहीं, मैं तो खामोश रही। नहीं पता था उस समय कि मेरी इस खामोशी की गूंज इतनी प्रबल और तीव्र होगी कि तुम्हारा कलेजा चीर देगी। 

और एक दिन फिर अपने भग्न हृदय के सारे अवशेष समेटकर तुम्हें मुझसे दूर चले जाना होगा, सच पता नहीं था। तुम तो स्वभाव से विद्रोही थे। फिर पता नहीं क्यों तुम धीरे-धीरे इतने शांत से क्यों होते जा रहे थे। और मैं ? मेरा ऐसा क्या था तुम्हारे पास जिसे देखकर तुम अपने मन को शांत कर लेते थे ? तुम्हारा विद्रोही स्वभाव भी मन में स्थिरता पैदा कर देता था। 

हां बस एक तस्वीर ही थी न ! जिसे शायद तुम अपने इस उज्जवल मन में सदैव स्थापित करके रखते आए थे। क्या उसे देखकर तुम इतने शांत सरल और स्वयं के मान अपमान से भी परे हो जाते थे

जानती हूं कि एक सच्चे प्रेम से मन में शांति और स्थिरता का जन्म होता है ? उसकी गहन वेदना का प्रभाव उथले मन  पर भी पड़ता है, और फिर उस मन में धीरे - धीरे सागर की सी गहराईयोँ का जन्म होता है, गहराई के गर्भ से निकले आभूषण बेशकीमती होते हैं न !!

और तुम, उन्हें धारण कर अपने व्यक्तित्व को भी विशिष्ट बनाते गए ? तब भी मैं तुमसे दूर खड़ी तुम्हें अर्थहीन भाव से बस ताकती रही। कभी तुम पर इल्जाम लगाया था कि तुम्हारी दुनिया व्यक्ति-परक थी। कभी तुम मुझ तक ही सीमित थे।  लेकिन जब तुम अपने व्यक्तित्व का विस्तार कर रहे थे, और सच मानो मेरे स्वार्थी मन को यह बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था कि तुम मेरे सिवा किसी और के बारे में सोचो। यहां तक की चाहे यह समाज ही क्यों न हो, कोई धर्म ही क्यों न हो

उस वक्त तुम्हारा मुझसे, इस तरह दूरी बनाना अखर रहा था, मेरे दोस्त। जिसका परिणाम मेरी सारी खामोशी और उपेक्षाओ के रूप में तुम्हें ही मिला। 

ईश्वर को तो मैंने तुम से अधिक ही माना, उस पर आस्था रखी, विश्वास रखा। अपने सभी कर्मों को उसी के नजरिए से देखती रही।  उसी के बनाए नियमों का पालन करती रही। कम से कम उस समय तो मुझे यही प्रतीत होता था । 

तब पता नहीं था मेरे दोस्त, कि यह नियम ईश्वर ने नहीं अपितु इस ढोंगी समाज ने बनाएं है। देवी, देवताओं - सा जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्तियों के, यदि घरों की दीवारें बोलती, तो इस समाज में होने वाले न जाने कितने ही अनैतिक और अमर्यादित कृत्यों का पर्दाफाश होता, और न जाने कितने ही पर्दानशी बेपर्दा होती। नैतिकता और मर्यादा की परिभाषा को रचने वाले न जाने कितने लोग स्वयं उन्हें तोड़ते हुए खुद-ब-खुद दिखाई देते। 

चलो छोड़ो यह सब बातें, मैं तो अपनी बात करती हूं । जैसा कि मैंने पहले ही लिखा कि हमारे लिए समाज पहले से ही पाप-पुण्य की परिभाषा गढ़ देता है, और तब कहता है कि इस सीमा के अंदर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करो। 

मुझे इस बात का कोई अफसोस नहीं कि तुम्हारी उपेक्षा करके मैंने उन नियमों का पालन किया। आज तो दुख इस बात का होता है कि जिन्हें मैं अपना मानती थी, वे भी कहा मुझे समझ पाए ? और तुम ??

तुम भी तो मुझे कहां समझ पाए ? तुमने भी तो मुझे औरों - सा ही समझा ? बताओ क्या यह सच नहीं है ?

   रतिक्रिया में रत क्रौंच पक्षी के जोड़े का वध होने का दृश्य, एक लुटेरे को महाकाव्य का रचयिता बना गया। उस वेदना से उत्पन्न पहले श्लोक में वह दृष्टि समाहित थी जिसने रामायण जैसे महाकाव्य की रचना की।

तो फिर यदि आज मैं वर्षों पहले तुम्हारे मन में उठी मेरे प्रति आसक्ति और फिर उस आसक्ति से जिस वेदना का जन्म हुआ, उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप यदि मैं आज कुछ लिख रही हूं, तो वह तुम्हारी ही दृष्टि है, तुम्हारा ही दृष्टिकोण है !!

यदि एक पक्षी का वह कृत्य प्राकृतिक और नैसर्गिक था, तो उस समय तुम्हारा हाथ भले न थमती पर तुम्हारे साथ, तुम्हारे लिए खड़ी तो हो सकती थी, जब तुम अपनों के बीच ही अपमानित हो रहे थे। तब मेरा यूं मूकदर्शक बनकर खड़े रहना, देखते रहना कितना उचित था ? तुम्ही बताओ ?

मेरा यूं खामोश खड़े रहना क्या प्रकृति के खिलाफ न था ? तुम्हारा पक्षधर बन कर न सही, लेकीन न्याय हित में तो कुछ कर ही सकती थी। वहां किस मर्यादा के टूटने का भ्रम था या डर था ? तुम निर्दोष थे और दुनिया तुम पर इल्जाम लगा रही थी। मेरी तरफ आशान्वित नजरों से तुम्हारा यूं देखते रहना कि शायद मैं अब कुछ बोलूगी, कौन सी अनुचित आशा थी तुम्हारी

मेरा मूक दर्शक बने रहना क्या अनुचित न था। यदि था, तब तुमने मुझसे कुछ कहा क्यों नहीं ? कोई सवाल जवाब क्यों नहीं किया ? वैसे तो अपने सारे हक का प्रयोग करके आए थे, तो उस समय अपने उस हक को ही क्यों त्याग दिया ? तब मुझसे तुम कुछ भी कह सकते थे , पूछ सकते थे ! मेरी खामोशी का कारण जानने की कोशिश कर सकते थे

मेरा यूं मूक दर्शक बन खड़े रह जाना क्या तुम्हें अखरा न होगा, मेरे दोस्त ? मुझे विश्वास है, उस दिन भी था और आज भी है, यदि मेरे स्थान पर तुम होते, तो तुम अपना प्रतिरोध अवश्य व्यक्त करते । चाहे इसके लिए जो भी कीमत चुकानी पड़ती, तुम चुकाते। 

शायद इसलिए कि  - 

तुम्हारे पास एक तस्वीर है

जो इस जहां में है सबसे जुदा।

कनखियों से छुप कर तुम्हे देखती आंखे,

कानों में लटकती छोटी-छोटी बालियां,

वजूद की सारी गर्मी समेटे हुए ये होठ,

जो किसी के आने की आहट पा, चुप हो गए हैं।

गालों को छू लेने की अधूरी लिए आस,

सलीके से सांवरे गए ये रेशमी बाल,

नर्म, मुलायम ये सिंदूरी गाल।

जिंदगी के अधूरे कैनवास पर,

जिंदगी से उल्लासित एक चेहरा,

वीरान तपते पत्थरों के बीच,

तुम्हारे वजूद का एहसास दिलाता एक चेहरा,

बरसते बादल, कड़कती बिजली,

के बीच दमकता एक चेहरा,

तुम्हारी बेजान उदास रातों में,

तुम्हारे साथ हंसता मुस्कुराता एक चेहरा,

उसे छू लेने की, लिये एक आस,

आज स्वीकार करती हूं ...

हां, मेरी यही एक तस्वीर,

रही होगी, तुम्हारे पास।

लेकिन लेकर वह तस्वीर मेरी

अपने साथ  . . ....... हां, तुम कहां गए ?

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            अविश्वास, अटूट विश्वास की प्रथम सीढ़ी होती है। किसी पर भी किया गया अविश्वास जब विश्वास में परिवर्तित होता है तो वह अटूट हो जाता है।

या हम कह सकते हैं कि एक अटूट विश्वास का जन्म एक अविश्वास से ही होता है। चाहे वह अविश्वास क्षण मात्र के लिए ही क्यों न हो। 

मानवीय संवेदना से परे यदि कोई दुनिया होती है, तो वह दुनिया देवताओं की दुनिया है। उद्गम और उच्छृंखल लहरों का आवेग मन में उठे तूफान का प्रतिरूप ही होता है।

तो क्या राम का सीता के वियोग में यूं भटकना, उनकी खोज करते हुए पुष्प लताओं, वाटिकाओं, वृक्ष कुंजों, पर्वत श्रृंखलाओं से बार - बार ये पूछना, - तुम देखी सीता मृगनयनी !, मानवीय संवेदना से परे था ?

एक दूसरे की विरह वेदना में राधा और कृष्ण का संपूर्ण जीवन व्यतीत हो जाना, सामाजिक स्वीकार्यता के बावजूद एक दूसरे से दूर रहना, निरर्थक था

    अपने जिस विराट स्वरूप को प्राप्त करने के लिए कृष्ण कर्म योगी बने, उससे भी अधिक विराट स्वरूप राधा ने सिर्फ कृष्ण से प्रेम करके प्राप्त किया, और कृष्ण से एक पायदान ऊपर ही रहीं। राधे-कृष्ण कहलाई। 

कुरुक्षेत्र में दी गई गीता की आध्यात्मिक और वैज्ञानिक परिभाषा का खंडन वर्षों पहले गोपियों के द्वारा उद्धव को मिल चुका था। शायद इसलिए कृष्ण ने भी कभी उद्धव को गीता का ज्ञान देना उचित नहीं समझा। क्योंकि उधव जान चुके थे-  " मन न भए दस बीस " 

      प्रेम की अनुभूति से ईश्वर का जो विराट स्वरूप दर्शित होता है, वह कुरुक्षेत्र में खड़े कृष्ण के विराट स्वरूप से भी कहीं ... कहीं अधिक प्रभावशाली और स्वीकार्य है। 

यदि ये सभी देवता थे, तो मानवीय संवेदनाओं से कैसे ग्रसित हो गए? बताओ ? क्यों राम, सीता को वन-वन भटकते ढूंढते रहे, और क्यों कृष्ण राधा के लिए ताउम्र तरसते रहे ?

क्यों हमें राम का वही प्रतिरूप भाता है, जो सीता को खोजता हुआ वन-वन भटक रहा है ? हम उसी कृष्ण को अपने अंतःकरण में देखना चाहते हैं जो राधा के लिए, उसे रिझाने के लिए, उसे मनाने के लिए, तरह-तरह के स्वांग करता है। अपने प्रिय के बरसाने की गलियों में भटकता है, और उसकी पुकार  राधे ! राधे !! राधे !!! के रूप में आज भी हमारे अंतःकरण से निकलती है, हमारे मन के बरसाने की गलियों में आज भी गूंजती है,

राधे ! ... राधे !!.... राधे !!!.....

जिन मानवीय संवेदनाओं को पा लेने के बाद देवता भी देवता न रहे बल्कि उससे कहीं अधिक ऊंचे पायदान में पहुंच गए, जहां अनुभूतियों के मध्य विभाजित संग्राम एक नए कुरुक्षेत्र को जन्म दे गया, जहां गीता के रहस्य आज भी बिखरे पड़े हैं और मनुष्य तथाकथित उन्हीं राहों में अपने व्यक्तित्व को खोजता हुआ भटकता है।  

तब क्या यह सही नहीं होगा, कि हम अपने अंतःकरण में स्थापित किसी देवता को या उसके किसी ज्ञान को महसूस कर उसे प्रत्यक्ष देख लेने की अनन्य संभावना की चाहत में डूब कर, प्रेम की उत्कृष्ट सृष्टि का निर्माण कर दें, जहां पर देवता भी आने के लिए तरस जाएं ?

तुम्हारी दुनिया में क्या है, मैं नहीं जानती। लेकिन आज मेरी दुनिया में देवत्व एक अभिशाप है। क्योंकि उसे धारण करने वाला चिर वियोग में सुलगता है। यदि भूले से भी कहीं उसने अपनी संवेदनाओं को व्यक्त कर दिया तो वह अपने देवत्व के पद से विमुख हो जाएगा।

      यही एक डर उसे सदैव सताता रहता है। मेरी दुनिया तो वह दुनिया है जहां पर तुम और और तुम्हारी निकटता एक सहजता है। जहां संवेदनाओं का मूल्य देवत्व से कहीं .. कहीं अधिक है। मन में उपजे उद्दवेग और प्रेम अनुभूति को बांधना भी चाहूं तो किस खूंटे से बाधूं ? उसे बांधने के लिए भी तो तुम ही चाहिए। बात सरल है किंतु उतनी सहज नहीं।

    मैं जानती हूं, तुम्हें पुकारू भी तो अब किसके लिए, और तुम आओगे भी तो किसके लिए ? शायद न तो तुम्हारे पास कुछ शेष बचा है, और न ही उसे सहेज लेने के लिए मेरे पास कोई समर्थ है।

     तुम अपना सब कुछ कुरुक्षेत्र के मैदान में लुटा चुके, और मैंने अपना सब कुछ तुम्हारे इंतजार में। अब शेष बचा भी तो क्या ? बस एक आस कि कहीं न कहीं तुम फिर मुझ से टकरा जाओगे। कभी न कभी शायद तुम लौट ही आओगे ?

   कई अविश्वासों की गलियों में भटकते हुए मैं, हां मैं, यदि आज इस विश्वास के नजदीक पहुंची हूं कि कहीं न कहीं से तुम भूले-भटके ही सही, मेरे पास लौट आओगे, तब तुम ही बताओ, मेरे इस अटूट विश्वास को तुम कैसे तोड़ सकोगे ?

 इसलिए पूछ रही हूं, बार-बार पूछती हूं, हां बताओ, तुम कहां गए  ...?

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काल्पनिक अर्थात आभासी दुनिया, वास्तविक अर्थात भौतिक दुनिया का आध्यात्मिक और परिष्कृत  स्वरूप होती है।

अच्छा ही हुआ कि तुम चले गए।

जब कोई इंसान अपनी जिंदगी के महत्वपूर्ण, अर्थपूर्ण, वैभवयुक्त क्षणों को जी रहा हो तो उसके इस नितांत एकांत के क्षणों में प्रतिरोध नहीं उत्पन्न करना चाहिए। लिखूं तो उसे डिस्टर्ब नहीं करना चाहिए। ऐसा करने पर दोष लगता है, और स्वयं में भी एक अपराध बोध का एहसास भी होता है। 

जिन पलों में तुमने मुझे छोड़ा तो मैं अपने जीवन के सार्थक, समर्पित, अर्थपूर्ण और वैभव युक्त जीवन को ही तो जी रही थी ! तब तुमने स्वयं को मुझसे दूर ही रखना उचित समझा और शायद यही दूसरी वजह रही होगी तुम्हारे चले जाने की, इसलिए तुम चले भी गए।

जानती हूं, तुम ऐसे नहीं थे कि स्वयं अपने आप को दोषी सिद्ध करते या किसी अपराध बोध से ग्रसित हो मुझसे नजरें झुका लेते। जिंदगी को आनंदपूर्वक गुजार लेने की चाह किसमें नहीं होती ? कौन है जो जिंदगी के कष्टों को भोगना चाहता है ? कौन है जो अपने मन मंदिर में एक तस्वीर लिए वेदना को ही अपना जीवन साथी बना लेता है ?

हां तुम ही बताओ ? ऐसा कौन सा व्यक्ति है जो सरलता का परित्याग कर दुर्गम रास्तों का चयन करता है ? शायद तुम्ही थे ? कौन जाने ?

इंसान की सोच विचारों को जन्म देती है और तथ्य पूर्ण विचार एक परिकल्पना को। तब काल्पनिक दुनिया के पात्र सच होने लगते हैं। परिकल्पना यथार्थ का रूप धारण करने लगती है। और तब, एक पूरी तरह से काल्पनिक कहानी, जीवन मूल्यों के इतने निकट होती जाती है कि कल्पना और वास्तविकता में कोई भेद नहीं रह जाता। सारे भेद इस तरह से उलझ जाते हैं कि वह काल्पनिक दुनिया, यथार्थ की दुनिया से भी अधिक प्रभावशाली हो जाती है।

अपना हंसता मुस्कुराता चेहरा लिए तुम मेरी काल्पनिक दुनिया में अब भी उतने ही यथार्थ हो जितना कि तुम से अंतिम बार मिलने पर मैंने तुम्हें देखा था। 

तुम्हारा शांत चित्त होकर बस मुझे मुस्कुराते हुए देखते रहना और मेरा हमेशा की तरह तुम्हें बस यूं ही देखते रहना। जब भी तुम्हारे बारे में सोचती हूं तो अक्सर अतीत की वही दो परछाइयां उभर कर सामने आती है और कहती हैं, देख लो हमें अच्छी तरह से, हम आज भी वहीं स्थिर हैं। 

जब विचारों की शक्ति का प्रवाह प्रेमोन्मुखी होता है, तब जिस काल्पनिक दुनिया का सृजन होता हैं, उसके पात्र अमर होते हैं, कालचक्र से भी परे होते हैं।

हमारे साथ भी यही तो हुआ मेरे दोस्त। हमने भी तो इसी तरह की एक काल्पनिक दुनिया बनाई और जिसमे हम दोनों आज भी वहीं मौजूद हैं। तुम्हारे बारे में तो कुछ नहीं कह सकती, लेकिन अपने बारे में इतना जरूर लिखती हूं कि वही काल्पनिक दुनिया आज मेरी वास्तविक दुनिया से कहीं ... कहीं अधिक प्रभावशाली है।

तुम मेरी उसी काल्पनिक दुनिया के अजर-अमर पात्र हो, तुम कभी मर नहीं सकते। ठीक उसी एक पल में, मैंने तुमसे प्रेम किया, और खुद को मार भी लिया। ताकि मेरी कल्पना की दुनिया में तुम यथार्थ बनकर हमेशा जीवित रहो।

मैं नहीं जानती कि तुम कहां और किस हालात में हो ? जीवित भी हो या नहीं ?  नहीं जानती ! 

लेकिन हां, इतना जरूर लिखती हूं कि तुम मर भी जाओ तो भी मेरी काल्पनिक दुनिया में, ठीक उसी तरह जीवित रहोगे, जैसे कि एक आत्मा, जो अजर है, अमर है मिट नहीं सकती। 

लेकिन जरा ठहरो ! मैं ऐसा कहूं भी तो क्यों कहूं ? जबकि मेरी दुनिया में तो, तुम इस से भी बढ़कर हो। एक आत्मा, जो अजर है, अमर है, मिट नहीं सकती है, और जो सशरीर मेरे सामने है। 

मैं तुम्हें ना तो वृद्ध होते हुए देखूंगी ना किसी बीमारी से ग्रस्त तिल-तिल मरते हुए, और ना ही तुम्हारे चेहरे की झुर्रियों को देख पाऊंगी जो समय के साथ अवश्य आती। तुम अपने पूरे वैभवशाली व्यक्तित्व के साथ मेरी उस काल्पनिक दुनिया में रहोगे। हमेशा ... हमेशा के लिए। 

इसीलिए लिखा था - अच्छा ही हुआ, जो तुम चले ही गए।

शायद तुमने भी यही सोचा हो ? तुम्हारा फिर कभी लौट कर न आना इस बात को प्रमाणित करता है कि तुम्हारी कल्पना की दुनिया में, मैं भी तुम्हें एकटक, अपलक देखती हुई, अभी भी सजीव, अपनी उसी आकर्षक मोहनी सूरत के साथ तुम्हारी आंखों में बसी हूं। 

ठीक उसी एक पल में तुमने भी खुद को मार लिया होगा। एकदूजे ने खुद को मार कर अमृत्व का जो वरदान प्राप्त किया, अब उसे कैसे अभिशाप लिख दूं? काश कि यह सब मैं तुमसे कभी कह पाती। इसलिए पुकारती हूं - आह ! तुम कहां गए . . . 

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शब्दों का सर्वोत्तम क्रम वाक्य नहीं विजन होता है, मेरे दोस्त!

एक प्रश्न, जब एक पुकार बन जाए, तो वह पुकार मन की सारी व्यथा कह देता है। अंतर्मन की सारी अभिव्यक्ति, जिज्ञासा, देख लेने की चाहत, कुछ प्राप्त करने की अभिलाषा, झुंझलाहट, खीझ, सभी कुछ तो समाहित होता है उस पुकार में। 

जैसे कोई प्रिय वस्तु खो जाए, और हम उसे ढूंढते रहे, तो उस तलाश में मन के सभी भावों की अभिव्यक्ति दृश्य होती है ।

मेरे अंतर्मन में एक प्रश्न जागा - तुम कहां गए ? इस एक प्रश्न में तुम्हें पुनः देख लेने की चाहत, जिज्ञासा और कुछ पा लेने की अभिलाषा जागृत होने लगी।

और जब प्रत्युत्तर में तुम सामने न आए तो मन की सारी झुंझलाहट, समाहित होकर एक उलाहना बन गई - कहां गए तुम ? शब्द वही रहे किंतु उनका क्रम बदल गया।

जब इस प्रश्न से मन की सारी झुंझलाहट समाप्त हो गई तब यही प्रश्न एक पुकार बन गया, " हां, तुम कहा गए ...

इस पुकार में जो व्यग्रता थी, मन में जो हलचल थी, जब सब कुछ शांत हो गया, मन की सारी व्यग्रता दूर हो गई, तब इस स्थिर मन में शांत सरोवर के जल जैसे शांति छा गई, तो वह पुकार एक दर्द भरी आह बनकर निकली - "आह ! तुम कहां गए !!"

इसीलिए मैंने कहा न, मेरे दोस्त। शब्दों का सर्वोत्तम क्रम वाक्य नहीं विजन होता है। इन चार शब्दों का यह क्रम मेरे लिए एक विजन बन गया, एक दृश्य, और उसी दृश्य में मैं तुम्हें अक्सर देखा करती हूं।

तुम्हारी ऐसी कौन सी दुनिया है, जिसे लांघ कर अब तुम नहीं आ सकते। मर्यादा की ऐसी कौन सी गांठ है, जिसने तुम्हें बांध रखा है, और जिसे खोलकर तुम मेरे पास नहीं आ सकते। 

ऐसा कौन सा रिश्ता है, जो तुम्हें मुझ तक न आने के लिए अभी तक रोक कर रखे हुए है। जबकि तुमने तो कभी भी किसी रिश्ते को स्वीकार ही नहीं किया।

यदि तुमने मुझसे प्रेम किया होता और मुझे धोखा देकर भाग गए होते तो तुम्हारे इस गुनाह के लिए मैं तुम्हें शायद माफ भी कर देती। लेकिन नहीं, तुमने तो उससे भी बड़ा अपराध किया। 

तुमने मुझसे एक ऐसे इंसान को छीन लिया जो सदैव मेरे साथ होता था। जो मुझे जानता था, पहचानता था, समझता था। यहां तक कि मेरी अनकही बातों को भी महसूस कर लेता था। तुमने मेरे ऐसे ही एक मित्र को मुझसे दूर कर दिया। उसकी हत्या की। इसलिए तुम्हारा गुनाह, गुनाह नहीं, गुनाह-ए-अजीम है। जिसकी अब कोई  मुआफी नहीं। 

कुरू राजवंश की द्रुतक्रीड़ा भवन में महापुरुषों के बीच बेइज्जत होती कृष्णा ने अपने मित्र को ही पुकारा था। वह जानती थी, सभी रिश्ते नाते किसी न किसी मर्यादा, वचन, लालच और प्रतिज्ञा में बंधे है।

कोई मजबूर है, तो कोई प्रतिज्ञाबद्ध। केवल उसका मित्र हैं जो इन सब से परे हैं, और वह उसकी मदद के लिए जरूर आएगा। प्रत्यक्षत: वह भले ही वहां पर प्रकट न हुआ हो, लेकिन उसने मित्रता के उसी धर्म को निभाया। 

कुरुक्षेत्र का मैदान भले ही इस संसार में धर्म की प्रतिष्ठा और न्याय की स्थापना के लिए लड़ा गया हो, किंतु कृष्ण के लिए वह युद्ध मित्र के उसी बेइज्जती का बदला लेने के लिए व्यक्तिगत लड़ा गया युद्ध था।

हम भले ही सुभद्रा के रिश्ते से द्रौपदी को कृष्ण की बहन के रूप में स्वीकार कर ले, जो कि अधिकांशत: देखने में भी आता है, लेकिन वे सदैव कृष्ण की प्रिय सखी ही रही हैं, जिन्हें हम आजकल गर्लफ्रेंड कहते हैं।

हर रिश्ते नाते से परे और दूर। शायद इसलिए द्रौपदी ने भी सुभद्रा को अर्जुन की दूसरी पत्नी के रूप में कम और कृष्ण की बहन के रूप में अधिक स्वीकार किया। मित्रता कोई रिश्ता नहीं धर्म होता है, मेरे दोस्त। एक व्यक्तिगत धर्म। और अपने उसी धर्म की स्थापना के लिए कुरुक्षेत्र का युद्ध भी कृष्ण के लिए व्यक्तिगत धर्म युद्ध ही रहा। 

    कितनी अजीब सी लगने वाली बात है न, इस दुनिया में रिश्ते निभाए जाते हैं, लेकिन धर्म ? उसकी तो स्थापना की जानी चाहिए।

तब क्या बुरा किया कि यदि मैंने हर रिश्ता पूरी इमानदारी और वफा के साथ निभाए और तुम्हें एक धर्म की तरह अपने मन मंदिर में स्थापित किया। 

और शायद मन में यही एक आस है जो तुम्हें मुझ तक जरूर खींच लाएगी। तुम भी अपना धर्म जानते हो। उसकी पूर्ति के लिए, उसकी स्थापना के लिए एक न एक दिन लौट कर आओगे तभी तो पुकारती हूं ...आह !! तुम कहां गए . . .

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आत्मा का सर्वोत्तम और विशुद्ध स्वरूप परमात्मा होता है मेरे दोस्त ! आत्मा का परमात्मा हो जाना ही मोक्ष है। जब हम स्वयं की स्मृतियां खोने लगते हैं और दूसरों की स्मृतियों से भी दूर होने लगते हैं, तो इस सफर की शुरुआत होती है।

इसलिए लिखती हूं, शून्य आयाम से लेकर अनंत आयाम तक की दुनिया ही हमारी दुनिया होती है। जिसमें किसी के होने का या न होने का एहसास होता है।

शून्य अर्थात कुछ भी नहीं और अनंत अर्थात अनकाउंटेबल अनडिफाइंड। कुछ नहीं और सब कुछ के बीच ही तो कुछ होता है। 

इसलिए लिखती हूं कि सब कुछ सदैव के लिए नहीं रहता, और न ही सदैव के लिए होता ही है। एक न एक दिन चाहे वह अनंत ही क्यों न हो, अपरिभाषित ही क्यों न हो, सब कुछ नष्ट होना ही है। एक दिन सारे ब्रह्मांड, सारी सृष्टियां नष्ट होगी और केवल बचेगा शून्य, अर्थात कुछ नहीं।

स्मृतियां भी सदैव के लिए साथ नहीं रहती। ब्रेन डेड एवरी थिंग्स डेड। इसलिए मैं तुमसे कोई वादा नहीं करती, और न ही कर सकती हूं। सदैव तुम्हें याद रखूंगी ऐसा कोई वादा हो ही नहीं सकता। लेकिन हां, जब तक यह ब्रेन डेड नहीं होता और मेरी स्मृतियां रहेंगी, तब तक तुम मेरी स्मृतियों में जिंदा रहोगे, भले ही चाहे तुम भौतिक रूप से कहीं भी किसी भी स्थान पर मर ही क्यों न जाओ। 

तुम्हारी दुनिया में आत्मा होगी सब कुछ। लेकिन मेरी दुनिया में तो मेरा मन, मेरा अंतर्मन, मेरी स्मृति ही सब कुछ है। जबतक तुम मेरे स्मृतियों में हो, मेरे अंतर्मन की कैद में हो, तब तक तुम्हें मर कर भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी। 

तुम्हारी जीवात्मा मेरे आस-पास ही भटकती रहेगी। यदि तुम अपने सभी अच्छे कर्मों द्वारा ईश्वर में विलीन होना भी चाहो, तो भी। बताओ जब तक तुम्हारी आत्मा मेरे अंतर्मन की कैद में है, तब तक यह कैसे संभव है? ईश्वर में समाहित होने के लिए तुम्हारी जीवात्मा को भी तुम्हारी आत्मा की आवश्यकता होगी। 

जब तक जीवात्मा की आत्मा ईश्वर में विलीन नहीं हो जाती तब तक उसे मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। इसीलिए लिखा था कि तुम मेरे बगैर मोक्ष को भी प्राप्त नहीं कर सकते। जब तक मैं हूं और मेरी स्मृतियों में तुम हो, मेरे अंतर्मन की कैद में हो, तब तक तुम्हें मोक्ष भी नही मिल सकता।

ऐसा नहीं है कि मैं तुम्हें लेकर अध्यात्म की कोई माला जपती हूं। ईश्वर पर और उसके होने पर पूर्ण विश्वास करती हूं। जिस स्थान पर उनके होने का गुमान है, या कथित प्रमाण हैं, वह सारे तीर्थ स्थान भी घूमती रही हूं। उनके भले ही दर्शन न हो लेकिन एक आत्मिक और आध्यात्मिक शांति की अनुभूति होती रही है। इसलिए मेरी आस्था मेरा विश्वास भी उन पर कायम रहा, और अभी भी है।

   प्रश्न जीवन के पूर्व या जीवन के पश्चात का नहीं। यहां तो प्रश्न है इस जीवन का, इस जीवन की शुरुआत से इस जीवन के अंत का। यदि इस बीच कहीं कोई ईश्वर है तो उसी को साक्षी मानकर एक बात लिखती हूं, -

' यह संसार मिथ्या है, एक भ्रम, एक मायाजाल जहां हम भटकते रहते हैं। कभी सुख की चाह में, तो कभी मन की शांति के लिए। कभी परमात्मा की चाह में, तो कभी आत्ममोक्ष के लिए। हमारा कोई भी कार्य नि:स्वार्थ तो हो सकता है, किंतु किसी चाहत से परे नहीं।'

      कोई न कोई चाहत मन में होती है, जिसके लिए हम सारे प्रयास करते हैं, कर्म करते हैं, फल की इच्छा स्वयं के लिए न सही पर कहीं न कहीं किसी रूप में उसके प्राप्ति की अभिलाषा जरूर होती है। फिर वह फल चाहे स्वयं के लिए हो या फिर परमार्थ के लिए। 

  अब तुम ही बताओ कि मैं वह कौन सा कर्म करूं कि जिसके फलस्वरुप तुम बंधे हुए, अर्थात जिस कर्म फल की पूर्ति के लिए तुम मेरे पास आ सको। जैसे कि मैंने पहले लिखा था कि दो बिंदुओं को मिलाने वाली रेखा अनंत बिंदुओं से होकर गुजरती है। 

   तुम ही बताओ यदि वे दो बिंदु हम दोनों हैं, और हम दोनों को मिलाने वाली रेखा अनंत कर्म बिंदुओं से होकर गुजरती है तो वे सारे अपरिभाषित और अनंत कर्म मैं करने के लिए तैयार बैठी हूं। 

   कैसे हार मान लूं कि इस जीवन में मैं फिर तुम्हें दुबारा न देख पाऊंगी। कैसे हार मान लूं कि मेरी पुकार में वह शक्ति नहीं जो तुम्हें वापस न ला सके, यदि मैं तुम्हें ही न ला सकी तो फिर ईश्वर को कैसे प्राप्त कर सकूंगी ? आखिरकार मुझे भी तो मोक्ष चाहिए। 

  हम दोनों के मोक्ष की सार्थकता तभी है जब हम कम से कम एक बार प्रत्यक्षत: एक दूसरे को न देख ले। इसी अभिलाषा के साथ मैं फिर तुम्हें पुकारती हूं. - आह ! तुम कहां गए ...

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अपनी समस्त विशिष्टताओं का परित्याग कर सहज और सरल होना आसान नहीं होता है, मेरे दोस्त ! यही तो वह कार्य है जो सर्वाधिक कठिन होता है। 

मेरे अस्तित्व में तुमने जिन विशिष्टताओं को देखा होगा, उन सभी का परित्याग कर, आज मैं यह स्वीकार करती हूं कि तुम मेरी आह से निकले वो आंसू हो, जिन्हें मैंने कभी पलकों में भी न आने दिया। 

डर था, पलकों में आए तो कहीं यादें धुंधली न हो जाए। पलकों से लुढ़के तो कहीं मेरे जीवन से जुड़ा तुम्हारा अस्तित्व ही न बह जाएं। बेशकीमती अश्क कही जाया न हो जाए, उनमें तुम जो ठहरे हुए से हो।

   प्रेम के विस्तार में ब्रह्मांड की अविनाशी, अनंत शक्तियां अंतर्निहित है। और शायद इसीलिए प्रेम की सीमाओं का विस्तार भी अनंत से कहीं अधिक है। 

    हम प्रेम पर अविश्वास तो जाता सकते है, लेकिन उसके वजूद को झुठला नहीं सकते। जिस तरह की हम शरीर के अस्तित्व को नश्वर मान सकते हैं, किंतु आत्मा रूपी उर्जा को नहीं। जो रिश्तो में सिमट जाए, जो बंधनों में बंध जाए, जो स्थूल से सूक्ष्म होने पर अपने अस्तित्व को गवां दे, वह प्रेम कैसा? यह तो उसके होने का भ्रम मात्र है।

     प्रेम को मैं दो जवां दिलों के बीच की धरोहर या बपौती नहीं मानती मेरे दोस्त। प्रेम तो वह भावना है जो एक सबल द्वारा एक निर्बल को सहारा देकर, छोटे से बच्चे को दुलार देकर, बड़े बुजुर्गों को सम्मान देकर, रोते को हंसा कर, अपने प्रिय मित्र को गले लगा कर, शोक संतप्त ह्रदय को सांत्वना देकर और अपने प्रिय को सर्वस्व समर्पित कर व्यक्त की जाती है।

मैं यह सब जानती हूं और स्वीकार भी करती हूं। इसीलिए अब मानती हूं मेरे दोस्त, प्रेम की अभिव्यक्ति आवश्यक है। हृदय में संजोए हुए प्रेम की यदि अभिव्यक्ति नहीं होती है तो वह सर्वस्व होते हुए भी उस व्यक्ति के लिए निरर्थक होता है, जिसके लिए आपने यह प्रेम धारण किया है। 

ठीक उसी तरह कि एक रोते हुए बच्चे को यदि गोद में उठाकर उसे संताबना न दी जाए और दूर से खड़े होकर सिर्फ उसकी पीड़ा को उसकी करुणा को केवल महसूस किया जाए।

लेकिन इन सबके बावजूद मेरा जो तुम्हारे प्रति प्रेम है, उसी को सर्वोपरि स्थान पर रखती हूं। इसे मेरा स्वार्थी मन कह सकते हो या फिर अज्ञानता, नासमझी जो मन में आए कह सकते हो ! मैं तुम्हें रोकूंगी नहीं।

लेकिन मैं क्या करूं? तुमसे एक क्षण मात्र में किए गए प्रेम से मुझ में वे एहसास जागे जिनको समेटकर मैं जब खुद से रूबरू हुई, तो देखा, प्रकृति का हर एक कण प्रफुल्लित है, आनंद से झूम रहा है। सभी फूल चाहे वे खिले हुए हो, अधखिले हुए हो या फिर लगभग मुरझाए हुए हो, सभी हंस रहे है, मुस्कुरा रहें हैं।

उदास कर देने वाले क्षण भी जैसे मन को उल्लासित कर रहे हों। सब कुछ अचानक बदल गया। सभी बहुत प्यारा, बहुत अपना लगने लगा। मेरे अंदर उपजे सभी प्रकार के प्रेम के मूलाधार तुम ही हो गए, तुम्हारा ही प्रेम हों गया। 

प्रेम की सारी जटिलता सरलता में तब्दील हो गई। खुश रहना, प्रसन्न चित्त रहना, सदा मुस्कुराते रहना। कुछ भी न खो कर, सब कुछ पा लेने का अभिमान रखना। कितना सहज स्वीकार सत्य था। उस वक्त एहसास नहीं हुआ कि प्रेम में कोई जटिलता भी होती है। महसूस हुआ जैसे यही तो सबसे आसान और सरल है। 

किसी से घृणा करने के लिए हजार कारण चाहिए लेकिन किसी से प्रेम करने के लिए सिर्फ एक कारण पर्याप्त है। बताओ तो दोस्त वह कारण कौन सा है ?

लेकिन जरा ठहरो पहले मुझे कह लेने दो, तो पहले मैं ही बताती हूं।

" कि आप उसे अपना समझते है, आप उसकी परवाह करते हैं और वह आपको अच्छा लगता है। "

अरे! ये तो एक नहीं तीन कारण हो गए !! चलो बता ही देते है, सिर्फ एक कारण ही पर्याप्त है। और वह यह है कि जिसे देखकर मन में उठी तरंगे आपके शरीर को हिला कर रख दे। 

छोटी सी बात है लेकिन इससे बड़ा कोई सत्य ही नहीं है। शायद इसलिए कि दर्शनशास्त्र की प्रत्येक अवधारणा भौतिकता की आधारशिला पर ही टिकी होती है, मेरे दोस्त।

मेरे मन के दर्शनशास्त्र भी तुम और मेरे तन के भौतिकशास्त्र भी तुम।

मन से, वचन से, कर्म से, मैं यदि राम की, सीता के यह कहने पर यदि धरती फट गई थी, तो क्या तुम मेरे अंतर्मन के फटने का इंतजार कर रहे हो तब तुम्हे भी क्या मिलेगा, क्या शेष रह जायेगा, मेरे दोस्त।

     इसीलिए तो कहती हूं तुमसे, तुम मेरे अंतर्मन की इस पुकार को सुनो। इस वेदना को समझो। मेरी इस आह से बंधे  चले आओ तुम

  " आह ! तुम कहां गए ...

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स्वयं पर मोहित होना अज्ञानता की पराकाष्ठा है। 

पंच तत्वों से बने स्थूल शरीर की उपेक्षा नहीं की जा सकती। आश्चर्यजनक किंतु सत्य है कि मानव के सूक्ष्म शरीर के निर्माण में सम्मिलित 18 तत्त्वों में सभी प्रकार की इंद्रियां, काम, क्रोध, मद, लोभ इत्यादि जैसे तत्व भी सम्मिलित हैं। 

स्थूल और सूक्ष्म शरीर की उत्पत्ति का एकमात्र कारण जीव और उसकी आत्मा में पारस्परिक संतुलन है, जो प्राकृतिक है।

इसलिए इसे सभी शरीरों का कारण भी कहते हैं।  शरीर की परिभाषा इतनी सरल कहां कि हम उसे सही-सही समझ सके, मेरे दोस्त। 

24 तत्व से बने स्थूल, सूक्ष्म और कारणशरीर यानी प्राकृतिक शरीर। अब जरा मेरी लिखी बात पर ध्यान पूर्वक विचार करो -

"जिसे देखकर मन में उठी तरंगे, आपके शरीर को हिला कर रख दे " - 

क्या अब भी कहोगे कि मैं भौतिकता से परे नहीं सोचती हूं ? मैं विश्वास करती हूं, कि प्रत्येक वैराग में राग स्वत: ही समाहित है। इसके बगैर वैराग्य की कल्पना ही नहीं की जा सकती। 

प्रेम इतना सरल नहीं है, मेरे दोस्त। उस तक पहुंचने के लिए शरीर के इन सभी 24 आयामों से गुजरना होता है। संपूर्ण शरीर को वीणा के तार की तरह झंकतृत करना होता है। 

यह सब इतना सरल कहां होता है मेरे दोस्त। किन्ही शब्दों में उसकी परिभाषा नहीं दी जा सकती। उसे शब्दों में नहीं कैद किया जा सकता है। यह तो एक अनुभूति है। एक एहसास है तो फिर इसकी अभिव्यक्ति कैसे हो ?

प्रेम की अभिव्यक्ति के पूर्व इंसान को कई-कई बार सोचना चाहिए। आई लव यू और मैं तुमसे प्रेम करता हूं या करती हूं, इत्यादि कहना जितना आसान और सरल लगता है, उसे समझना उतना ही कठिन होता है।

शायद इसलिए मैंने भी कभी तुमसे नहीं कहा या तुम्हें कभी जताने की कोशिश नहीं की कि मेरे मन में तुम्हारे लिए क्या है? कैसे बता सकती थी, किन लफ्जों से बयां कर सकती थी। 

     यदि उस अनुभूति को मैं महसूस कर सकती थी और शायद जिसे तुम भी महसूस करते रहे होगे। तो उसकी अभिव्यक्ति का मात्र एक जरिया था कि हम स-शरीर भी मिले होते हैं। 

    और शायद इसीलिए मैंने पूर्व में लिखा है कि कभी-कभी मैं चाहती थी, मेरे मन में आता था कि मैं तुम्हें गले से लगा लूं ! तुमसे लिपट जाऊं !! बस तुम्हारी ही होकर रह जाऊं।

    तो आज ये कहना कि मेरे मन के दर्शनशास्त्र भी तुम और मेरे इस तन के भौतिक शास्त्र भी तुम, पर्याप्त नहीं है? क्या यह बात तुम्हे समझ न आती है, जो इतना रूठे हुए हो मुझसे।

    संवेदनाओ को परिभाषित करना आसान नहीं, एक छोर पकड़ो तो दूसरा अस्पष्ट और अपरिभाषित सा दिखाई देने लगता है। 

शार्ट में लिखूं तो सो कन्फ्यूजन।

टूटने के बाद बिखरना नियति है। बिखर कर फिर एकत्र होना, क्रिया के फलस्वरुप होने वाली प्रतिक्रिया है। 

कभी तुम्हारे टूटने की वजह मैं बनी, तो यदि आज कहीं तुम संभल रहे होगे, अपने आप को समेट रहे होगे, पुनःस्थापित कर रहे होगे, तो इनकी वजह भी मैं ही हूंं, मेरे दोस्त। 

प्रश्न यह नहीं है कि मैं कितनी सही हूं या तुम कितने गलत। प्रश्न तो यह है कि यदि इस वक्त मैं सही हूं तो उस वक्त मैं गलत कैसे हो सकती हूं ? जबकि तुम मानो या ना मानो, मैं जो आज हूं वही कल भी थी, सच बिल्कुल नहीं बदली हूं।

यदि काम क्रोध मद और लोभ मानवी विकार है तो इन से परे जाने के लिए इनके दायरे में आना भी आवश्यक है। श्रृंगार रस का स्थाई भाव रति अर्थात काम होता है। जब हम किसी को अपलक अर्थात एकटक देख रहे होते हैं तो मन में ये स्थाई भाव भी जागृत होते हैं और प्रकृत के अनुपम श्रृंगार की रचना करते हैं। 

अंतर्मन में स्थाई शोक की भावना से ही करुण रस की उत्पत्ति होती है। हमारे शोक संतृप्त हृदय को जो संभाल सके उसका निदान कर सके वह करूणानिधान अर्थात ईश्वर होता है। 

    क्रोध की संपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए शिव का रुद्र अवतार भी आवश्यक है। यदि यह मानवीय विकार हैं तो इनके बिना हम ईश्वर की प्राप्ति कैसे कर सकते हैं ? अर्थात उसे पाने के लिए इन विकारों का होना भी आवश्यक है।

क्या मैं ऐसा मानती हूं ?

नहीं, बिल्कुल नहीं। इनके बगैर भी हम ईश्वर तक पहुंच सकते हैं। और वह एकमात्र पथ प्रेम है, स्वयं जिसके अधीन ईश्वर भी है।

यदि इस पथ पर चलने पर ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है तो फिर तुम्हें क्यों नहीं, मेरे दोस्त ? तुम्हे क्यूं नही ??

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जिंदगी को जी लेना और गुजार लेना, दोनों में फर्क होता है, मेरे दोस्त ! 

सशर्त जिंदगी गुजारी तो जा सकती हैं, लेकिन जी नहीं जा सकती। जिंदगी जी लेने के लिए यह आवश्यक है कि वह सभी बंधनों और शर्तों से मुक्त हो। 

किसी के होने या न होने को समय से नहीं मापा जा सकता। समय तो वह यूनिट है जिससे घटनाओं की अवधि या जिसे हम समयावधि कह सकते हैं, को व्यक्त करना है। शायद इसीलिए ही तुम भी कहते थे कि इस दुनिया में समय नाम की कोई चीज नहीं होती। अब देखो तो मैं तुम्हारी ही भाषा बोलने लगी हूं ! 

आश्चर्य किंतु निर्धारित सत्य जिससे होकर गुजरना ही था। जिस समयावधि के लिए तुम मेरी जिंदगी में निर्धारित थे, वह गुजर चुका है। अब इसलिए मेरे लिए यह समय भी किसी काम का नहीं। 

यदि हम जिंदगी अपने तरीके से नहीं जी सके, उसे शर्तों के बंधनों में बांधकर रखा तो अब पछताना कैसा ? यह तो हमारे ही द्वारा स्वीकार किया गया पूर्व निर्धारित सत्य था। 

काश, हम यह कर पाते, काश कि हम यह कह पाते, कि काश ऐसा हुआ होता, कि काश ऐसा न हुआ होता, कि काश शायद तुम मिल ही गए होते। अब इन सब के बारे में सोचना बेमानी होगा, मेरे दोस्त।

यदि यह जिंदगी हमारी थी, तो इसे हमें अपनी शर्तों के अनुसार जीना चाहिए था। न कि अपनों या कि दूसरों द्वारा निर्धारित और तयशुदा शर्तों के अधीन। मैंने लिखा न, समय है लेकिन अब वह समयावधि नहीं, इसलिए मेरे लिए अब किसी समय के होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। 

मानलो कि मेरे लिए समय अब कुछ भी नहीं। उसका कोई अस्तित्व नहीं।

पता नहीं क्यों आज मुझे महसूस होता है, कि तुम सितारों की दुनिया से आए थे। शायद वहीं से भटक कर मेरी जिंदगी में यूं ही आ गए थे, बेवजह ही। 

मैं न जानती थी कि एक साधारण से दिखने वाले तुम इतने सेंसेटिव भी हो सकते हो कि एक दिन बिना कुछ कहे बिना कोई शिकायत दर्ज किए मेरी जिंदगी से यूं ही चले जाओगे, इतने सेंसिटिव की भूलकर भी मेरी सुध न लोगे  कि मैं जीती हूं या मर गई ? अब क्या इस की भी तुम्हें  परवाह ना होगी !!

यदि तुम किसी समय में होते, तो मैं तुम्हें अवश्य पकड़ लेती। लेकिन क्या करूं तुम समयावधि जो ठहरे। अब उस टाइम स्लाइस को मैं कहां से लाऊं ? बताओ ??

इसलिए इस मन में बार-बर यही आता है कि काश तुम वह कह पाते जो तुम्हें कहना चाहिए था और मैं वह सब सुनती जो मुझे सुन लेना चाहिए था। या यूं कहूं कि जिसे सुन लेना मेरी नियत होती है। 

कहते हैं कि एक अच्छे तैराक की मृत्यु सदैव पानी में होती है, क्योंकि वह डूबने के प्रति लापरवाह होता है! वह कभी नहीं सोच पाता की वह डूब भी सकता है!!

मैंने भी यही सोचा था और देखो तो आज तुम्हें एकबार देख भर लेने की चाहत इस कदर बड़ी की अब हर जगह तुम ही तुम नजर आते हो। 

तुम जिन नयनों के अभिराम थे उन नयनों की प्रतीक्षा तुम्हें क्यों ना दिखाई देती है ? क्यों कर, और किस बात पर तुम मुझसे इतना रूठ गए हो ? मेरी पुकार तुम तक पहुंच कर भी तुम्हारे मन को क्यों उद्वेलित नहीं करती ? तुम्हारे ह्रदय में मुझसे मिलने की एक हुक सी क्यूं नही उठाती?

    तो क्या यह मान लूं कि जितना कि आज तुम मेरे लिए हो, मैं तुम्हारे लिए कभी उतना भी नही थी ? उस दिन तुम किसी भ्रम में थे या फिर आज मैं किसी भ्रम में हूं ? या फिर कि आज मैं जिंदगी जी रही हूं, और तुम उस वक्त जिंदगी गुजार गए। 

या फिर . . .

     कि हम दोनो काल्पनिक दुनिया के ऐसे पात्र थे, जो यथार्थ की दुनिया में कभी आ ही न पाए। पूर्वाग्रह पूर्व परिभाषित शर्तों के अधीन अपनी काल्पनिक दुनिया में ही रह गए. . .

  पत्थरों के शहर होंगे, तो न कदमों के निशा होंगे . . . . ?

    लेकिन मैं इस तथ्य को भी कैसे स्वीकार कर लूं कि तुम मेरे लिए काल्पनिक दुनिया के महज एक काल्पनिक पात्र थे। क्योंकि काल्पनिक दुनिया के पात्र अपना अधिकार नहीं जताते, रूठते नहीं, क्रोधित नहीं होते। उन क्षणों को मैंने महसूस किया है, जब तुम मुझसे रूठे, कुछ क्रोधित भी हुए। सच कहूं, तुम्हारे रूठने के वे पल मेरे लिए भी भारी रहे थे मेरे दोस्त। 

और अधिकार ! उसकी तो पूछो ही मत ? कितना अधिकार रखते थे मुझ पर !! और समय आने पर मुझे जताते भी थे। उस वक्त तुम्हारा लहजा आदेशात्मक हो जाता था। तुम अपनी कुछ इच्छाओं की पूर्ति इसी तरह मुझसे करवा लिया करते थे। 

और मैं क्या मैं डर जाती थी ? नहीं, कदापि नहीं। तुम यह भी बखूबी जानते थे कि रूठ कर, डरा धमकाकर या फिर  क्रोधित होकर तुम मुझसे अपनी कोई भी बात नहीं मनवा सकते। अपनी किसी भी इच्छा की पूर्ति नहीं कर सकते थे। और तुम्हारी इच्छाएं होती भी क्या थी !! बहुत छोटी छोटी सी इच्छाएं !! मेरे साथ चाय पीने की, मेरे हाथ का बना भोजन करने की या फिर कुछ पल के लिए मेरे साथ समय व्यतीत करने की !!!

अपनत्व से भरे तुम्हारे इन अधिकारों को मैंने सहर्ष ना सही लेकिन मजबूर होकर भी कभी स्वीकार नहीं किया। लेकिन स्वीकार तो किया ! क्यों

शायद इसलिए कि हमारे और तुम्हारे बीच का संबंध नि:स्वार्थ था। किसी भी भौतिक आकांक्षाओं से परे, इस लाग लपेट की दुनिया से कहीं अधिक दूर, स्वच्छ, निर्मल।

यदि तुम अंतर्मन की इस संबंध को समझ पाते तो कदाचित मुझे छोड़कर कभी ना जाते। मुझसे यूं ही दूरियां ना बना लेते। 

जब तुमने मन ही मन में मुझे अलविदा कह दिया, जिसका शायद मुझे पूर्वाभास भी हो चुका था, और तब भी जब मैं अक्सर अपने घर के सामने होती थी तो कहीं ना कहीं से तुम्हारे आने की राह देखती थी कि हां, शायद कहीं से भूले-भटके ही सही तुम इन राहों से फिर से गुजरोगे।

जब मैं अपने घर के अंदर होती थी, और किसी के आने की आहट महसूस होती थी, कोई आवाज आती थी, या फिर दीवारों में कोई कंपन होता था तो मैं सजगता से उस आहट में तुम्हारे आने की आहट को पहचानने की कोशिश करती थी। नहीं कहती कि मैं भागकर दरवाजे तक आती थी। लेकिन यह सच है कि तुम्हारी आहट न पा मैं कुछ उदास भी हो जाती।

और यह सब कुछ दिनों की बात नहीं है मेरे दोस्त ! यह क्रम तो आज भी अनवरत उसी तरह चलता आ रहा है। तुम्हारी कोई आहट ना पाकर आज भी मेरे हृदय में एक हूक सी उठती है, एक आह निकलती है,

    "आह ! तुम कहां गए ..."

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मानो तो सत्य कुछ भी नहीं और यदि मान लो तो सत्य बहरूपिये होते हैं मेरे दोस्त। न जाने कितने रुप धारण कर हमारे जीवन में आते हैं और हमें छलते हैं।

कभी सोचती हूं, तुम्हें सजा-ए-मौत लिखकर अपनी कलम तोड़ दूं। मैं भी तुम्हें खारिज कर दूं अपनी जिंदगी से। लेकिन अगले ही पल सोचती हूं, यदि ऐसा कर दिया, तो ये सारे उलाहने, अपने दिल के सारे दर्द फिर किससे कहूंगी? किसे लिखूंगी

मैं यह भी जानती हूं कि तुम मेरे द्वारा निर्धारित कोई भी सजा सहर्ष स्वीकार कर लोगे। तुम कहीं भी रहो मेरी बात तुम तक अवश्य पहुंचेगी, और तुम ? बड़े ही खामोशी के साथ बिना कोई सफाई दिए, वह सजा सहजता से स्वीकार कर लोगे।

दुर्लभ वस्तुएं आकर्षित करती हैं। सहजता और सरलता से प्राप्त कोई भी वस्तु या व्यक्ति कभी आकर्षक नहीं होता। वह दर्शनीय तो हो सकता है, किंतु आकर्षक नहीं।

यदि तुम चीखों, चिल्लाओ उत्पात मचाओ, अपनी सफाई पेश करो, तो मैं अवश्य ही तुम्हें सजा-ए-मौत तक दे सकती हूं। लेकिन तुम्हारे लिए सहजता से स्वीकार कोई भी सजा मुझे स्वविकार्य नहीं। 

तुम जहां भी रहो सुखी रहो, खुश रहो, ऐसी दुआएं मैं कभी भी नहीं मांग सकती। मैंने तुम्हारे लिए जो सजा निर्धारित की है वही सही है। तुम सदैव मेरे अंतर्मन की कैद में रहो और ठीक उसी तरह छटपटाते रहो जैसा कि मैं तुम्हे कैद कर प्रत्येक लम्हे छटपटाती हूं, तुम्हें जीती हूं।

चलो मैं तुम्हें एक छोटी सी कहानी सुनाती हूं - 

एक ऋषि ने चक्रवर्ती सम्राट को अक्षय यौवन और चिर आयु बरकरार रखने के लिए एक फल दिया। सम्राट ने वह फल अपनी प्रिय रानी को दिया ताकि उसका यौवन सदैव के लिए बरकरार रहे।

रानी ने उस फल को अपने प्रेमी राज्य के प्रधान सेनापति को दिया जिससे वह प्रेम करती थी। और प्रधान सेनापति ने यह फल राज दरबार की नृत्यांगना को दिया जिससे वह प्रेम करता था।

उस नृत्यांगना ने विचार किया कि यदि यह फल उसके राजा को मिल जाए तो वह सदैव सुंदर दिखेगा, उसका यौवन बरकरार रहेगा, वह चिर आयु होगा। और इस तरह इस राज्य को चिरकाल के लिए सहृदय, दयालु और प्रशासनिक व्यवस्थाओं को बेहतर ढंग से संभालने और लागू करने वाला राजा मिल जाएगा। और फिर उसने निर्णय लिया कि वह इस फल को राजा को देगी।

इस तरह वह फल पुनः राजा तक पहुंच गया। उस चक्रवर्ती सम्राट को तब यह बात समझ आई कि यदि हम किसी व्यक्ति को अपने जीवन में जितना महत्वपूर्ण समझते हैं, या स्थान देते हैं, जरूरी नहीं कि उस व्यक्ति के जीवन में हम भी उतने ही महत्वपूर्ण हों। 

यहां प्रश्न प्रेम के होने या न होने का नहीं था। प्रश्न इस बात का था कि उसका प्रवाह किस दिशा में और कितना प्रबल है।

स्वाभाविक था कि रानी अपने पति राजा से प्रेम करती थी। प्रेम सदिश था लेकिन उस प्रेम के प्रवाह की प्रबलता इतनी तीव्र नहीं थी जितने की अपने प्रेमी के प्रति।

यदि ऐसा न होता तो वह फल वह स्वयं अपने हाथों से राजा को ही खिलाती। उस चक्रवर्ती सम्राट का इस संसार के प्रति मोह भंग हुआ, उसने वह फल उसी ऋषि को वापस कर, राजपाट छोड़ वैराग्य धारण कर लिया। 

प्रेम किसी के प्रति भी हो सकता है लेकिन उसकी तीव्रता यानी कि इंटेंसिटी एक सी नहीं होती। जिसके प्रति प्रेम की तीव्रता सर्वाधिक होती है वह प्रीतम होता है या फिर ईश्वर होता है। 

यदि यह सत्य है तो अब तुम मेरे प्रियवर भी और मेरे इष्ट भी।

ईश्वर तो मनुष्य की अंतरात्मा में होता है। अंतर्मन में एकनिष्ठ भाव में समाहित अद्वितीय प्रीतम। तो फिर बताओ भला कि मैं तुम्हें अपने अंतर्मन से कैसे निकाल दूं? कैसे मुक्त कर दूं

यदि एक ईश्वर जो निराकार है, अदृश्य है, अपने निर्धारित कर्म को करने के लिए अवतार ले सकता है। तो फिर भला तुम मेरी पुकार सुनकर मेरे अंतर्मन से बाहर निकलकर प्रकट क्यों नहीं हो सकते

कोई कसम या वादा निभाने के लिए न सही किंतु एक बार, सिर्फ एक बार सशरीर मुझे गले से लगा कर मुझे सांत्वना देने के लिए ही सही, आ तो सकते हो न?

काश ! उस दिन समय अवधि के उस क्षण को मैं रोक लेती। अस्ताचलगामी को वही ठहरा देती, और कहती कि ये रुको, तुम अब डूब नहीं सकते। यह पल यह क्षण इसी समय मैं रोकती हूं। यदि तुम्हें रोक दिया तो वह क्षण भी रुक जायेगा। तब मेरे मन का यह प्रीतम कुछ और पल के लिए मेरी नजरों के सामने रहेगा। यही रुका हुआ मेरे सामने खड़ा रहेगा।

   काश कि तब मैं तुम्हें जी भर कर एक बार फिर देखती, या न भी देखती, तो भी तुम वहीं खड़े रहते, ठीक मेरे सामने। और मैं तुम्हें आज आर्द्र हृदय न पुकार रही होती

"आह ! तुम कहां गए ..."

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जिनकी दुनिया खुद तक सीमित हो और वह उन्हीं दायरों में रहना भी सीख लेते हो, तो हम उन्हे अंतर्मुखी स्वभाव का कह सकते हैं, मेरे दोस्त।

तुम पर कोई आरोप लगाने से पहले खुद मुझे अपने प्रश्नों के जवाब तलाशने होंगे।

आखिर वह वजह क्या थी कि तुम मुझे यूं छोड़ कर चले गए। फिर कभी लौट कर न आने की तुम्हारी कसम या मजबूरी क्या हैदिल के कौन से रास्ते, ऐसी कौन सी मंजिल है जिन पर मैं न चल सकी

क्या मेरी अज्ञानता, मेरा अहम या फिर मेरा अंतर्मुखी स्वभाव इन सब के रास्ते में स्वत: ही बढ़ा बन गया था ?

जहां तक मैं अपने बारे में जानती हूं, थोड़ा जिद्दी हूं, लेकिन घमंडी नहीं। उस वक्त नासमझ नहीं थी। इसलिए यह भी नहीं कह सकती कि मैं अज्ञानी थी, कुछ नहीं समझती थी, या तुम्हारी आंखों की बेचैनियों को मैं पढ़ नहीं पाती थी।

हां, उन्हें नजरअंदाज जरूर करती थी। अब परवाह नहीं कि तुम कैसे हो ? अभी भी मैं तुम्हारे बारे में उतना ही सोचती हूं जितना कि कभी-कभी एकांत में उस समय तुम्हारे लिए सोचा करती थी, या फिर उससे अधिक ही।

अनावश्यक वाचाल न होने के कारण तुम मुझे अंतर्मुखी स्वभाव का मान सकते थे।

पता नहीं क्यों और कैसे इतना कुछ लिख गई। यदि सामने तुम होते, तो शायद इतना कभी न कह पाती। 

     लेकिन जब मेरी दुनिया में तुम मेरे साथ हो और फिर मैं तुमसे भी कभी कुछ न कह पाई तो ? तुम्हें कुछ ना समझा सकी तो ? तो इसे क्या कहेंगे ?

सहचर होते हुए भी कुछ अनकहा शेष रह जाए तो फिर ऐसा कौन सा शब्द है जो इसे परिभाषित कर सके। तुम मेरे लिए वही एक अनकहा, अपरिभाषित शब्द हो। . . हां मेरे दोस्त ... तुम आज भी वही ... एक अनकहा, अपरिभाषित शब्द हो मेरे लिए ...

अश्कों से भरी इन आंखों में,

तेरी तस्वीर छुपा रखी है

मिट ना जाए तू कहीं मेरी यादों से,

अश्कों की दीवार बना रखी है।

तुम्हें पा लेने की चाहत

और खो देने का डर

अपने जीवन में  यही एक

इबारत लिखा रखी है।

अब किसे रखूं मैं अपनी यादों में !!

सारी यादें तेरे नाम लिखा रखी हैं।

मेरी चाहत की अब ये इंतहा है,

अब भी जो तू रूठा रहा तो,

तेरी कब्र भी इस दिल में बना रखी है।

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मैं जानती हूं, भावुकता और जज्बातों के अधीन रहते हुए जिंदगी में लिए गए निर्णय उतने सही नहीं होते हैं, जितने कि हम चाहते हैं कि हों। 

यदि आज कहूं कि मैं तुम्हें बेहद प्रेम करती हूं, तो इस में यह बात भी अंतर्निहित है कि कभी मैं तुम्हें बेहद प्यार नहीं करती थी। 

यदि कहूं कि आज मैं सच कह रही हूं तो इसका एक अर्थ यह भी है कि मैंने कभी तुमसे झूठ भी कहा था। अर्थात प्रत्येक स्वीकार तथ्य का एक विरोधाभासी अस्वीकार तथ्य पहले से मौजूद होता है।

कुछ होने या न होने के बीच का अंतर व्यापक होता है। यदि यह कहूं कि मैंने सदैव ही तुम्हें प्रेम किया है, तब भी एक विरोधाभास तो रह ही जाता है।

वह है प्रकृति का विरोधाभास। जब  सदैव के लिए अर्थात हमेशा के लिए कुछ हो ही नहीं हो सकता है तो ? तब यहां भी मैं झूठी ही साबित होती हूं न।  

यदि अंतर व्यापक है और इतना व्यापक है कि हम उसे अनंत यानी कि अपरिभाषित, अनकाउंटेबल कह सकते हैं, तो इस व्यापकता में विस्तारित प्रेम ही नहीं अपितु हर चीज रहस्यमई है। 

एक ऐसा रहस्य जो अनंत होते हुए भी अपरिभाषित ही रह जाता है। यदि एक और एक को आपस में जोड़ा जाए तो उसका परिणाम दो होता है, अब यदि हम एक अनंत को दूसरे अनंत से जोड़ते हैं तब क्या दो अनंत होंगे? नहीं तब भी एक ही अनंत होगा ! है ना चकित कर देने वाला तथ्य

यदि हम दोनों का प्रेम अलग-अलग दो अनंत, दो अपरिभाषित हैं, तब भी उन्हें एकाकार होना ही होग। दो समानांतर प्रेम किसी न किसी एक अनंत बिंदु में अवश्य मिलेंगे जोकि अभी अदृश्य है, अपरिभाषित है। यानी कि हमारा किसी एक बिंदु पर मिलना तो नियति है, चाहे आज वह बिंदु अदृश्य, अनंत और अपरिभाषित ही क्यों न हो। 

जब हम इस तथ्य को स्वीकार कर रहे हैं तो फिर आज यह स्वीकार करना पड़ेगा कि अभी हमारा मिलन नहीं हो सकता। यही तो जिंदगी है, यही तो इसका विरोधाभास है, मेरे दोस्त।

सागर की गहराई में मोती खोजते हुए किसी व्यक्ति से पूछो तो वह बताएगा कि आखिरकार उस मोती को लेकर वह सागर की गहराई से ऊपर ही तो आएगा। तभी वह उस मोती के साथ जीवन व्यतीत कर सकता है। अर्थात वह उसे अपने साथ रख सकता है। 

     यदि वह मोती को ले कर उसी सागर में, उसकी गहराइयों में ही रह जाता है, तो ? तो फिर कितने क्षण, और कितने पल के लिए उन दोनों का साथ होगा यदि तुमसे मिलने के लिए या तुम्हें पा लेने के लिए मुझे मृत्यु की सागर की गहराइयों में भी उतरना हो  तब भी तुम्हारे साथ जीने के लिए पुनर्जन्म तो लेना ही पड़ेगा . . .

      संबंधों की इतनी घनिष्ठता के बाद रिश्तो का इतना प्लेटोनिक हो जाना गले नहीं उतरा था, बेवजह की बकबक करते हुए तुम्हारा एकदम से यूं खामोश हो जना मुझे अखरने लगा था, मेरे दोस्त।

   तभी तो तुम्हे सताने के लिए, तुम्हे ये एहसास दिनाने के लिए कि हां तुम मेरे लिए कोई मायने नहीं रखते, कोई महत्व नहीं रखते, मैंने भी तुम्हे दुगने भाव से उपेक्षित किया। जबकि वास्तविकता यही थी कि तुम सदैव ही मेरे अंदर ही रहे। 

तुम्हारी पावन प्रांजल देवमूर्ति को मैं खुद से कभी अलग और विस्थापित नहीं कर पाई।

तुम मेरे जीवन के वह सूर्य हो जिससे निकली रश्मि किरणें जलकण से विछिन्न होकर सप्तरंगी और अद्भुत आकृत का निर्माण करती हैं, और वह इंद्रधनुष धरती के एक छोर को दूसरे छोर से मिलाता हुआ प्रतीत होता है। तुम मुझसे जब भी टकराते थे, तो यही होता था मेरे दोस्त। मैं अपने अस्तित्व के एक छोर से दूसरे छोर पर आ मिलती थी। 

तुम्हारी दृष्टि ही नहीं बल्कि तुम्हारे दृष्टिकोण में भी अपनी विशिष्टता देख, मैं खुद को गौरवान्वित महसूस करती। यदि तुम पर अपना अविश्वास जाहिर कर मैंने कोई भूल की तो मेरे इस भूल को मुझे विश्वास दिलाना तुम्हारी सबसे बड़ी भूल थी।  इसीलिए लिखा की संबंधों की इतनी घनिष्ठता के बाद रिश्तो का इतना  प्लेटोनिक हो जाना कदाचित उचित नहीं था, मेरे दोस्त !

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व्यक्ति जो अपने ही मन की संवेदना को न समझ सके, तो उसे संवेदनहीन न कहें तो और क्या कहें

इसलिए नि:संदेह तुम निहायत ही स्वार्थी, अपरिपक्व और संवेदनहीन इंसान थे। संबंधों को केवल अपनी भावनाओं के दायरे में सीमित रखना अपरिपक्वता नहीं तो और क्या है ? इस जीवन में या यूं कहें इस जिंदगी में सामाजिक बंधन, मान, मर्यादा और उनकी रक्षा करना भी तो जरूरी है। जो संवेदनहीन और अपरिपक्व हो वह स्वार्थी तो होगा ही। उसमे सामाजिक समझ कहां!

हो सकता है एक दिन ऐसा भी आए कि मैं तुम्हें भूल जाऊं, तुम्हें कभी याद ही न करू, तुम्हें अपने अंतर्मन की कैद देकर खुद को मुक्त कर लूं , तो फिर क्या होगा, जानते हो ? . . .

हमारा मिलना बेवजह था,

हमारा यूं बिछड़ना बेवजह था,

मेरा हंसना बेवजह था,

तुम्हारा यूं उदास होना बेवजह था,

मेरा इंतजार करना बेवजह था,

तुम्हारा यूं चले जना बेवजह था,

मेरी खामोशी भी बेवजह थी,

मुझे देख तुम्हारा मुस्कुराना बेवजह था,

इंतजार, आंखों के आंसू बेवजह थे

फिर सब कुछ बेवजह था।

. . .

मेरी उम्मीद बेवजह थी,

तुम्हारा इंतजार बेवजह था।

तुम्हारी आंखों का सूनापन,

मेरे होठों का थरथराना,

हां, सब कुछ बेवजह था।

. . .

साहिल पर मेरा यूं खामोश खड़े रहना,

और लहरों से जूझता तेरा मुकद्दर

आंसुओं का समंदर पार करना,

खुद को गुनहगार ना समझ ले तू,

सोच कर मेरा चेहरा घुमा लेना,

सदियों से यू जलते रहना मेरा,

सदियों से भटकते रहना तेरा,

हां, सब कुछ बेवजह था !!

और फिर अब ?

ये सारे मौसम बेवजह,

दिन का होना

रातों का गुजरना बेवजह,

सूरज का तपना बेवजह,

तारों का चमकना बेवजह,

बारिश का बरसना बेवजह,

तुम्हारा न होना बेवजह,

सांसों का चलना बेवजह

हवाओं का बहना बेवजह,

फूलों का खिलना बेवजह,

शाखों से पत्तों का गिरना बेवजह,

पपीहे का प्यासा रहना बेवजह,

स्वाति नक्षत्र का आना भी बेवजह,

हो कर मेरा न होना बेवजह

हां, फिर सब कुछ बेवजह ...

🌺 23 🌺


सामान्य आंखों से ना दिखाई देने वाला अणु, नजरों में ना समा पाने वाले ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व करता है। उसके गुणधर्म वही होते हैं, जोकि बृहद, विस्तारित, अनंत ब्रह्मांड के । क्यों

कोटि आकाशगंगाओ, कोटि सितारों, कोटि नक्षत्रों, कोटि ग्रहों और उपग्रहों को धारण करने वाले इस ब्रह्मांड के विस्तार से भी कही अधिक विस्तार मनुष्य के मन और उसमे उत्पन्न इच्छाओं का होता है। क्यो ?

अनंत ब्रह्मांड के विस्तार में यदि पृथ्वी एक कण मात्र है, तो हमारा अस्तित्व? जरा सोचो तो क्या होगा, मेरे दोस्त ? हमारा मन और उसमें उत्पन्न इच्छाएं, कितनी सार्थक और महत्वपूर्ण हो सकती हैं, तब उनका विस्तार क्या होगा

एक छोर से दूसरे छोर तक पहुंचने के लिए कितने आयाम पार करने होंगे? मन के इस विस्तार की जटिलता में सरलता क्या है? क्या कभी सोचा है तुमने

मैंने जब भी सोचा, तो मन की सारी आतुरता, व्याकुलता और जटिलता को एक शांत सरोवर की तरह स्थिर पाया। ब्रह्मांड के अनंत विस्तार को एक अदृश्य कण में परिवर्तित होते हुए देखा। 

जब मैं दिन भर के काम से फुर्सत होती हूं और तब भी जब अपने आप को थका हुआ महसूस नहीं करती , तब मैं अक्सर इन सब के बारे में सोचती हूं, और चाहती हूं कि मैं सोचते-सोचते इतना थक जाऊं कि जब सब कुछ एक बिंदु में समाहित हो जाए तब मैं उसे अपने अंदर महसूस करू। एक छोटा सा बिंदु जिसमें संपूर्ण ब्रह्मांड का यह अनंत विस्तार समाहित है।

हम अपनी कल्पना में एक संभावना की तलाश करते हैं। संभावना !!! हां, किसी भी कार्य के होने या ना होने की। तब मैं अक्सर सोचती हूं कि तुमसे फिर मुलाकात होगी या ना होगी ? मैं कितना भी थक जाऊं लेकिन अपनी इस कल्पना में इस संभावना की तलाश जरूर करती हूं, मेरे दोस्त। शायद इसीलिए तुम से जुड़ी हुई हर एक बात याद करती हूं। 

कभी-कभी हम जिंदगी से जुड़ी हर एक छोटी सी छोटी बातों को याद करते हैं और कोई बड़ी घटना भूल जाते हैं। मैं आज तक ना समझ पाई की मेरे जीवन की ऐसी कौन सी बड़ी घटना थी कि तुम मुझे छोड़ कर यूं ही चले गए। जबकि छोटी-छोटी ऐसी ना जानी कितने अनगिनत घटनाएं हैं, जो चीख चीख कर कहती हैं कि हां तुम्हें मेरे आस-पास ही होना चाहिए था। 

न भी हो पास तो भी क्या? मेरे अंतर्मन की आवाज तुम तक तो पहुंचती ही होगी? इस आवाज को सुनकर भी तुम यदि अनसुना करते हो या दिखावा करते हो, तो फिर मैं तुम्हें क्या कहूं, क्या लिखूं? यदि तुम भी अपनी कल्पना में अनंत संभावनाओं की तलाश करते हो तो कर लो, मैं तुम्हें रोकूंगी नहीं।

लेकिन जरा इतना तो बताओ कि अनंत संभावनाओं में तुम्हारी कल्पना के सभी बिंदु एकाकार हो मुझ में ही समाहित हो गए तो फिर क्या करोगे ? मैं विशाल सागर नहीं एक शांत दरिया हूं। इतना शांत कि यदि उसमें एक छोटा सा पत्थर भी गिरेगा तो उठने वाली जल तरंगे कगार से जरूर टकराएंगी। दरिया में हलचल हुई तो किनारे भी अवश्य प्रभावित होंगे। यह जितनी बार होगा किनारे टूटेंगे। दरिया का विस्तार होगा तब किनारे पर खड़े तुम कहां जाओगे

   एक ना एक दिन तुम्हें डूबना ही होगा। और तब मैं तुमसे पूछूंगी बचा सकते हो तो बचा लो अपने आप को। कर सको तो कर लो खुद को मुझसे जुदा। तब तुम्हारे पैरों तले जमीन न होगी और तुम पूर्णतः मुझ पर आश्रित होगे। मुझ में डूब जाने के लिए कितने विवश। और तब मैं तुम पर हंसूगी -.     हा ...हा .....हा ...

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कश्तियों को लहरों में डुबाने वाले,

बाद उसके अंजाम तो सोच लेते !

गैरों की हंसी उड़ाने वाले,

जरा उसके आंसुओं को भी देख लेते !

तुम तो कोई गैर नहीं अपने हो !! इसलिए तो कहती हूं, शायद उस दिन मैं तुम से अधिक खुद का ही उपहास कर रही होऊंगी। जब तुम ही ना रहोगे, तो फिर मेरी हंसी के क्या मायने रह जायेंगे ? मैं तो तुम्हारी हंसी उड़ा कर तुम्हें विवश देखना चाहती हूं। हां सच कहूं तो मैं तुम्हें अपना जैसा बनते देखना चाहती हूं।

मैं एक आस लेकर एकटक तुम्हें देखते रहना चाहती हूं। और यह भी चाहती हूं कि तुम मुझे उसी तरह उपेक्षित करते रहो जैसा की मैंने कभी तुम्हें किया था, इतना ही विवश ! हां मेरे दोस्त।

तुम चाहकर भी मेरे किसी आस का उत्तर न दे सको, आगे बढ़ कर उसे स्वीकार न कर सको, न ही मुझे तुम गले से लगा सको। तो फिर जरा सोचो मेरे दोस्त, उस वक्त तुम्हारे दिल में क्या गुजरेगी ?

   बस मैं तुम्हें भी इतना ही विवश देखना  चाहती हूं, एकदम मजबूर। तब शायद उस दिन तुम्हें इस बात का एहसास होगा कि उस वक्त मेरी विवशता क्या रही होगी जब तुम किसी आस से मेरी तरफ देखते थे, और मैं तुम्हें उपेक्षित करने के लिए इतना ही मजबूर थी, जितना की उस वक्त तुम होगे? अब देखो न ! अतीत, वर्तमान और भविष्य किस तरह एकाकार हो गए हैं !

हां मेरे दोस्त, यदि तुम विवश ना हुए तो जानते हो क्या होगा? नए सिद्धांत, अवधारणाएं, मर्यादायें बनेंगी

और फिर सब कुछ तार-तार भी हो जायेंगे। स्थापित सिद्धांत टूट जायेंगे, अवधारणाएं विखंडित होंगी, और मर्यादाए बिखर जाएंगी । इस जिंदगी का फिर यही एक हासिल होगा, मेरे दोस्त।

अब देखो तो, अतीत, वर्तमान और भविष्य किस तरह से आपस में एक-दूसरे से ही उलझ गए। क्या बीत गया, क्या हो रहा है, और क्या होगा इनके बीच का फर्क अब एक जैसा ही है या यूं कहें कि अब कोई फर्क ही न रहा।

आज मैं तुम्हें इस जिंदगी का एक भ्रम बतलाती हूं। शायद जिसे तुम कभी समझ ही न पाए और आज यदि मेरी आवाज तुम तक पहुंच रही है, तो फिर सुनो मेरे दोस्त,

"हमारा जन्म हमारी  स्वेच्छा से नहीं होता, हम लाए जाते हैं। मृत्यु का वरण भी हम स्वयं नहीं करते। हां, आत्महत्या एक अपवाद हो सकता है। हमें यह जिंदगी एक ही बार मिलती है। और इस अनमोल जिंदगी को भी हम अपनी तरह से नहीं जी पाते हैं। जैसा चाहते हैं, न तो कर सकते हैं, और न कह सकते हैं। तो मैं कहती हूं, फिर लानत है ऐसे जिंदगी पर। जिंदगी के मापदंड तय हुए, नियम बनाए गए और उस पर चलने के लिए हम विवश किए गए।  

जिंदगी भर यही सोचते रहे कि हमारी वजह से किसी को ठेस न लगे। हमारी वजह से कोई दुखी न हो। हमें कोई बेवफा न कहे, बेवफा कहलाए जाने के डर से हमने इतनी सारी वफाएं निभाई कि खुद की जिंदगी से ही बेवफा हो गए।

और हमने इस जमाने से कहा कि लो अब तुम हो मालिक इसके, करो हमारी जिंदगी के फैसले। हमें अपने ही लूटते रहे और हम खुद को लुटाते रहे। कभी अपने, तो कभी पराये, तो कभी वे जो हमे अच्छी तरह से जानते भी न थे, वे ही हमारी जिंदगी के फैसले लेते गए, और हम ? स्वीकार करते गए !! 

यही मानकर न कि हमारे लिए सब कुछ अच्छा है, कभी गैरों के तो कभी अपनों के लिए गए फैसलों में ही अपनी खुशियों की तलाश करते रहे।

खुद से लड़ते रहे अंतर्द्वंद को पालते रहे। भटकते रहे, जिंदगी जिए नहीं बस गुजारते रहे, इस आशा में कि एक दिन सही वक्त अवश्य आएगा और हमारे लिए, लिए गए निर्णय हितकर होंगे और वे ही हमे खुशियां देंगे।

यथार्थ के धरातल पर हम एक काल्पनिक जिंदगी जीते रहे, जो कि वास्तव में एक छद्म (वर्चुअल) थी। और हम इसी में भूले रहे। थाली में चांद देखकर चांद के धरती पर होने का भरम लिए बैठे रह गए, मेरे दोस्त। जबकि वास्तविकता यह थी की चांद अभी भी आसमान पर था, और हम इसी ज़मीन पर थे। 

    इस तरह से हम बनी बनाई एक आर्टिफिशियल जिंदगी। उसे ही जीते रहे, जिसने जो थोप दिया उसे सुखाते रहे। केवल इसी डर से न, कि कहीं यदि हमारे लिए, खुद के द्वारा लिए गए निर्णय गलत साबित हुए तो क्या करेंगे? कहीं दुख मिले तो फिर क्या करेंगे ? तब हम किसे दोषी ठहरायेंगे ?

वास्तविकता यह थी कि हम फैसले लेने से डरते रहे। अपनी कमजोरी को दूसरों का निर्णय मान कर उसे अपने अंतर्मन में पालते रहे। हमारे लिए दूसरों ने जो निर्णय लिए थेजब वे गलत साबित हुए, हमें तकलीफ दे गए, तो

तो फिर हमने इल्जाम लगाया कि मेरे अपनों ने हमें तबाह किया, बर्बाद किया। कभी गैरों पर तो कभी अपनों पर इल्जाम लगाते रहे और खुद को साफ बरी कर लिया। जबकि होना यह चाहिए था हम खुद को कटघरे में खड़ा करते और खुद ही पर इल्जाम लगाते,  " जब ये जिंदगी हमारी थी, तो फिर इसके फैसले हमने खुद क्यों ना लिए? " खुद को ही दोषी मानकर सजा देते ?

     अब जब खुद को भी मैंने दोषी मान लिया है तो फिर जानते हो मेरे लिए सजा क्या होगी ? मेरी सजा यही है कि मैं एक आस लिए तुम्हारी तरफ एकटक देखती रहूं और तुम मुझे सापेक्ष भाव से उसी तरह उपेक्षित करते रहो, जैसा कि कभी मैंने तुम्हे किया था।

     मैं जिंदगी जीने के लिए तरसती रहूं और तुम मेरी जिंदगी बनकर मुझसे दूर ही रहो। इससे बड़ी सजा खुद के लिए और क्या निर्धारित करूं ?

तुम ही बताओ न ? इसलिए कहती हूं न, जहां भी हो एक बार तो आओ, यदि अपने लिए सजा के तौर पर मेरे अंतर्मन की कैद को स्वीकार कर रहे हो, तो फिर मुझे उसी तरह उपेक्षित रख जैसा कि कभी मैंने तुम्हे किया था, तुम भी मेरे हिस्से की सजा निर्धारित करो। 

मैं भी मुक्त होना चाहती हूं। मैं भी नहीं चाहती हूं कि मेरा अब कोई पुनर्जन्म हो। इसी जन्म में सभी हिसाब-किताब हो जाने चाहिए। इसलिए बार-बार पुकारती हूं,

 .,.... आह ! तुम कहां गए 

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हृदय के मानसरोवर में तुम्हारी मनमोहक पावन, प्रांजली मूर्ति स्थापित करने के बाद क्या उसे अब विसर्जित करने का समय आ गया है, मेरे दोस्त

कर भी दूं तो कैसे ? फिर इस सूने मन में क्या शेष रह जायेगामैं नहीं जानती कि इस सृष्टि का अभ्युदय कब हुआ और उसका विनाश कब होगा। लेकिन वे पल मुझे आज भी अच्छी तरह से याद है जो मैंने तुम्हारे साथ गुजारे या तुम्हारे निकट होते हुए भी तुमसे दूर रहकर। 

तुमसे प्रथम मिलन का वह पल मेरे लिए कोई विस्मयकारी नहीं था। मुझे उत्तेजित नहीं कर पाया। और न ही आश्चर्यचकित करने वाला था। हो भी तो क्यों तुम जैसे साधारण व्यक्ति से मिलना विस्मयकारी, उत्तेजक और आश्चर्यचकित करने वाला कैसे हो सकता था भला !!

यह कैसे लिख दूं कि तुमने एक रिश्ते का परित्याग किया जबकि तुमने मुझसे कोई रिश्ता बनाया ही नहीं ; यह भी कैसे लिख दूं कि तुम मेरी नियति थे, मेरे भाग्य में लिखे थे। होते तो आज इतनी दूर कैसे चले जाते ? तुमने त्याग किया और मैंने उसे स्वीकार किया। सहर्ष न सही आंखों में आंसू लेकर भी नहीं, लेकिन निरपेक्ष भाव से तुम्हारे उस सापेक्ष सानिध्य को मौन रहकर, अस्वीकार किया। 

यह भी न लिखूंगी कि जब तुमने मुझसे दूर जाने का मन बना लिया था, तो मुझे कोई पूर्वाभास नहीं हुआ था। लेकिन उस वक्त मैं कर भी क्या सकती थी ? बताओ ? उस वक्त मुझे स्वयं यह आभास नहीं था कि तुम्हारे यूं चले जाने से मुझ पर क्या गुजरेगी। नितांत अकेलापन और गहरे सन्नाटे मेरे जीवन को यूं उदास कर जाएंगे। इसका पूर्वाभास मुझे स्वयं क्यों न हो सका ?

    तुमने त्याग किया इसलिए तुम जान न सके कि त्याग क्या होता है? त्याग तुम्हारे लिए साधारण था। जिसकी तुम्हें कोई ग्लानि, कौतूहल या आत्ममुग्धता नहीं हुई। क्योंकि शायद तुम्हारे लिए किसी को त्याग देना एक तुच्छ भावना थी। एक ऐसी भावना जिस के प्रेरणा स्रोत भी तुम ही थे और प्रणेता भी। 

मैं तो तुम्हारे उस त्याग को बस संचित करती रही और तुम्हारे त्याग की संचिता रही। अपने हृदय में सजोती रही, तुमसे कोई शिकायत नहीं की।

क्यों जा रहे हो ? कब लौट कर आओगे ? लौटकर आओगे भी या नहीं ? कोई प्रश्न नहीं। बस तुम्हें जाने दिया।

आज सोचती हूं, कुछ प्रश्न तो कर ही लेती तो शायद अच्छा होता, शायद तुम कुछ बता ही देते ? खुद को प्रसन्नचित रखना तुम्हारी जीवन शैली जो थी। 

मेरे दायरे व्यापक थे। इतनी व्यापक कि उसमें दुनिया तो समा सकती थी लेकिन शायद मेरे स्वयं के लिए, मेरी प्रसन्नता के लिए उसमें कोई स्थान नहीं था। अनगिनत आयामों में समानांतर जीवन जीना तुम्हारे लिए सहज था, मेरे दोस्त ! लेकिन मेरे लिए नहीं।

शायद इतना जिसमे तुम एक ही पल में केवल और केवल मेरे बारे में सोच सकते थे, मेरे लिए कुछ भी कर सकते थे। और उसी एक पल में पूरी दुनिया के लिए हो जाते थे। उनके सुख-दुख में ऐसे घुल-मिल जाते थे कि तुम्हारा विराट और विशाल व्यक्तित्व मेरे सामने यूं आ जाता था, बस अचानक ही और मैं आश्चर्यचकित रह जाती थी।

   और उस वक्त मुझे भ्रम होने लगता था कि क्या सचमुच तुम कभी मेरे लिए कुछ सोचते हो ? मेरे लिए एक पल भी जीते हो? कई कई बार मैने तुम्हे दूसरों के दुख में, अपनों के दुख में स्वयं दुखित होते हुए देखा, इतना कि तुम्हारे मन की वेदना तुम्हारी आंखें सजल कर जाती थी।

तब मुझे एक भ्रम और भी होने लगता था कि तुम शायद दूसरों के दुख में शामिल न होकर स्वयं दुखी होने लगते हो। यही बात तुम्हारी मुझे अच्छी नहीं लगती थी, और मैं तुम्हें इसीलिए उपेक्षित करती थी कि तुम मेरी उपेक्षा से दुखी होकर मेरे बारे में फिर से सोचो उस पर विचार करो कि मैंने तुम्हें क्यों उपेक्षित किया। तुम मुझसे शिकायत करो और मैं चुपचाप सुनती रहूं। कोई जवाब न दू, और तुम और भी दुखी हो और सिर्फ मेरे बारे में सोचो।

यह क्रम चलता रहे ... चलता रहे ... बस चलता रहे। तुम मेरे बारे में सोचते रहो ...  बस सोचते ही रहो। और मैं इस तरह से तुम्हारे उस एक पल का बदला न जाने तुमसे कितने पलों को सिर्फ और सिर्फ मेरे बारे में सोचने पर मजबूर करके ले लिया करती थी। और तुम ? शायद सब कुछ जानते हुए भी मुझसे शिकायतें करते थे। कहते थे कि लो तुम्हारी मुराद पूरी हुई।

शायद तुम भी तो यही चाहते रहे होगे कि मैं तुमसे इसी तरह बदला लेती रहूं। जानते हो, मैं तुम से बदला लेने के तरीके सोचती थी। तब अनजाने में ही सही, मैं भी तो तुम्हारे ही बारे में सोचा करती थी।

बस !!! यही तो वह भूल कर दी मैंने जो मुझे नहीं करनी चाहिए थी ! तुम्हारे बारे में सोचना ही नहीं चाहिए था। क्योंकि यह सब करने के लिए हमें उस व्यक्ति के बारे में बार-बार और ना जाने कितनी बार सोचना पड़ता है। और इस तरह से वह हमारी हर एक सोच में घर करता चला जाता है। नफरत करने के लिए भी या किसी को दुखी करने के लिए भी तो उसके बारे में सोचना ही पड़ता है न?

किसी के प्रति उदासीन रहकर भला उसे बंदी बनाया जा सकता है क्या

मैं यही करना चाहती थी। लेकिन कैसे कर लेती यह तो संभव ही नहीं था। तो अब पूछती हूं तुमसे, यदि मैंने तुम से बदला लेने के लिए ही सही तुम्हें अपने विचारों का बंदी बनाया और कहीं न कहीं मैं भी तुम्हारी बंदिनी बनी, तो क्या गलत हुआ ?

यदि मैं कभी तुम्हारे प्रति उदासीन रही, तो फिर तुम आज क्यों मेरा जीवन और सासों के आधार बने। अब तुम भी मुझसे बदला लो न, और मेरे बारे में वैसा ही, उतना ही सोचो, उसी भाव से ही सही, जितना कि कभी मैन तुम्हें सोचा था।

और तब मैं फिर से तुम्हारी संपूर्ण जीवनशैली में छा जाऊं। तुम भी मेरे बारे में इतना सोचो, इतना सोचो कि किसी का दुख दर्द दिखाई ही न दे।

किसी की आवाज न सुनाई दे, कोई और तुम्हें विचलित न कर सके। दुनिया की कोई खुशी मुझ तक आने के लिए तुम्हें रोक ही न सके, और तुम विवश होकर मेरे पास चले आओ।

दुनिया के सारे प्रपंच, मान्यताओं, सारी अवधारणाओं, सारे बंधनों, सारी मान मर्यादाओं को तोड़ कर मुझ तक पहुंच जाओ। देखो आज भी पुकारती हूं, हां आज भी,  " आह ! तुम कहां गए ...

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मेरी इतनी सी पुकार से यदि इस सृष्टि के या फिर ईश्वर के कोई नियम टूटते हैं, तो तोड़ते हूं आज मैं। 

इस जीवन से पहले क्या था और इस जीवन के बाद क्या होगा, सच मुझे बिल्कुल पता नहीं। लेकिन मेरे इस जीवन के कुछ अनकहे सत्य जो पूर्णत मिथक न थे, हमेशा मुझसे टकराते रहे। और अच्छी तरह से जानती हूं , आगें भी टकराते रहेंगे।

समाज बहिष्कृत कर दे, नाते-रिश्तेदार अपने संबंधों से निष्कासित कर दें, तो भी इतना दर्द नहीं होता जितना कि तब, जब अपने दूरियां बनाने लगें। अफवाहों को जीवन का यथार्थ मानकर उसे स्वीकार करने लगे और उच्छृंखल और उन्मुक्त लड़की के रूप में परिभाषित करने लगे।

हां मेरे दोस्त ! तब मैंने भी देखा है, अपनो की नजरों में अपने आप को उपेक्षित होता हुआ। मेरे जीवन शैली को बदलने का भरपूर प्रयास करते हुए, मुझे बात-बात पर लज्जित करते हुए, ताने मारते हुए। यह सब कुछ मैंने बहुत कम उम्र में देखा और सहा है। मुझे हर एक पल यही एहसास दिलाया जाता रहा कि मैं एक सामान्य-सी लड़की हूं, और मुझे मेरे जीवन के सारे फैसले लेने का अधिकार नहीं है।

मैं अपनी पसंद का खा तो सकती हूं, यहां तक की कुछ हद तक पहन भी सकती हूं, लेकिन मेरी जीवन-शैली मेरे अधिकार क्षेत्र में नहीं है। 

मैं अपनी खुद की जिंदगी जीने के लिए स्वतंत्र नहीं हूं। यदि ऐसा करती हूं तो न जाने क्या-क्या टूटता है। बस बात-बात पर मुझे यही एहसास दिलाया जाता था। धीरे-धीरे मेरे मन से मेरी अंतरात्मा से मेरे व्यक्तित्व को छीन लिया गया और इस बात का मुझे तनिक भी एहसास न होने दिया !! आश्चर्य किंतु यही मेरे जीवन का एकमात्र सत्य रहा !!

और जानते हो, शायद सुनकर तुम्हें हंसी आएगी। मुझे भी धीरे-धीरे यही एहसास होने लगा कि मैं भी अपनी जिंदगी ही जी रही हूं। सब कुछ तो मेरी ही मर्जी से हो रहा है। किसी की कोई दखलंदाजी नहीं। सभी निर्णय मेरे और केवल मेरे द्वारा लिए गए है। मैं वास्तव में यही तो चाहती थी जो मुझे मिल रहा है इसी में मेरा सुख है। 

उफ! इतना बड़ा भ्रम!!

खुद के व्यक्तित्व को खोकर मैंने एक ऐसा व्यक्तित्व प्राप्त किया जो मेरा था ही नहीं। तो फिर बताओ भला अपने खोए हुए व्यक्तित्व से दूर, एक आर्टिफिशियल व्यक्तित्व के साथ मैं तुम्हारी भावनाओं को कैसे समझ पाती?

मेरे दोस्त ! कहो तो फिर तुम मुझे गुनहगार कैसे ठहरा सकते हो ? यह बात अलग है कि तुमने मुझे दोषी ठहराया नहीं या यूं कहूं कि प्रत्यक्षतः कहा नहीं, बस अंदर ही अंदर मान लिया।

जैसा कि मैंने पहले भी लिखा है की शायद कभी वह समय आए जब मैं खुद अपनी स्मृतियां खो दूं, तब हो सकता है कि तुम मेरी यादों में भी न रहो। हो सकता है, मैं तुम्हें भूल जाऊं। जब स्मृति न होगी तो फिर भला तुम कैसे रहोगे ? शायद यह हो सकता है ?

लेकिन जो अक्षय ऊर्जा मेरे मन में तुम्हारे प्रति समाहित है, और जबतक मैं स्वयं तुम्हें अपने अंतर्मन की कैद में रखती हूं। तब तक यह जीवन यूं ही सुलगता रहेगा। एक ज्वाला बन तुम मेरे अंतर्मन में यूं ही धधकते रहोगे।  मुझे यूं ही जलाते रहोगे। और मुझे इस बात का तनिक भी एहसास नहीं होगा कि ऐसा क्यों हो रहा है। क्योंकि स्मृतियां तो खो चुकी होंगी न।

क्या कभी तुम किसी कलंक से गुजरे हो? यदि नहीं तो निश्चित ही तुम्हें निष्कलंक होने का सर्टिफिकेट नहीं मिला होगा

लेकिन मुझे मिला है ! इल्जाम लगाने के बाद दोषमुक्त भी किया गया। मुझे समझाया गया कि कम उम्र और सही निर्णय न ले पाने की क्षमता के आभाव में यह भूल-चूक कर बैठी, जो क्षम्य है। 

    मुझे मेरे चरित्र प्रमाण-पत्र के साथ क्षमादान दिया गया। एक ऐसे अपराध के लिए जिसे मैं नहीं मानती की कोई अपराध था भी। बदले में मेरा पूरा जीवन, मेरे सारे निर्णय, अपने हाथ में ले लिए गए। मैं खुश, हमेशा हंसते-मुस्कुराते रहने लगी। दूसरे शब्दों में लिखूं तो, मैंने खुद को यातनाएं देनी शुरू की। 

    यातना !! शायद तुम कभी पढ़ो तो विश्वास न कर सको लेकिन सत्य यही है। बिना किसी खुशी के हंसना, बिना वजह से यूं ही मुस्कुरा देना, यह किसी यातना से कम नहीं होता, मेरे दोस्त !

    एक उच्चश्रृंखल जीवन जीने वाली बेफिक्र लड़की अचानक ही सबका हाल-चाल पूछने लगी। सब के सुख- दुख में शामिल होने लगी। उसने एकांत में रहना त्याग दिया। खुद के बारे में सोचना त्याग दिया। सभी गुणा-भाग, हिसाब -- किताब लगाना छोड़ दिया, और सौंप दिया खुद को किसी सुरक्षित हाथों में कि लो अब करो मेरे जीवन के सारे फैसले यदि तुम खुश हो तो मैं भी खुश हूं . . .

     मेरे जीवन की नदी स्वप्रेरित न सही, किंतु बहाव के नियमानुसार बहने लगी। ढलान पर आती तो उसका वेग बढ़ जाता। समतल भूमि पर सामान्य और शांत भाव से बहती। पर्वत-श्रृंखलाओं से गिरती तो झर-झर की आवाज करती। दर्शनीय दृश्य उत्पन्न करती। पत्थरों से टकराती तो कोलाहल मचा देती। खुद बिखरती, जल तरंगे टूटती, और फिर से एकत्र होकर आगे निकल पड़ती। अर्थात उसकी प्रत्येक अवस्था में एक ध्वनि उत्पन्न होती।

संसार को यही ध्वनि एक संगीत के रूप में सुनाई देती और सभी समझते कि मेरा जीवन इसी मधुर संगीत की तरह उल्लासित और आनंदित है।

जल प्रपात के रूप में होने वाली अवनति में भी, लोगों को उन्नति ही दिखाई देती!! भला क्यों न हो ? विहंगम और इंद्रधनुषी दृश्य किसे आकर्षित नहीं करते ? पत्थरों से टकराकर बिखरने में भी एक मधुर संगीत का आनंद लेने की अनुभूति कितनी सुखद होगी, तुम्ही बताओ ?

वेदना में सुख की अनुभूत कितनी दुःखदाई होती है, तुमसे बेहतर और कौन जान सकता है ? तुम भी तो कभी इस वेदना से फलीभूत रहे, मेरी उपेक्षा और तिरस्कार को सहते हुए सदैव ही हंसते मुस्कुराते रहे।

अपनी इन सभी कही-अनकही भावनाओं को तुमसे कह लेने की अदम्य प्यास लिए आज भी मैं तुम्हारा ही इंतजार  कर रही हूं . . . पुकारती हूं तुम्हें ...

    " आह ! तुम कहां गए ...

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जहां तक मैं जानती हूं, तुम एक अति संवेदनशील और भावुक इंसान थे। भावनाएं तुम्हारे लिए महत्वपूर्ण थी। और उनकी अभिव्यक्ति उससे भी अधिक महत्वपूर्ण थी। तुमने अपनी समस्त भावनाओं को मुझसे व्यक्त किया या करना चाहा। शायद यह सोच कर कि मैं उन्हें समझूंगी, या फिर समझने का प्रयत्न करूंगी।

लेकिन मैंने कभी भी प्रत्यक्षत: तुम्हें यह ज्ञात नहीं होने दिया कि मैं किस हद तक और किस ऊंचाई तक तुम्हारी भावनाओं को देखती हूं। उनका सम्मान करती हूं ।

कभी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की, और तुमने मुझे बेहद ही प्रैक्टिकल इंसान समझा। बस यहीं भूल कर गए तुम। तो फिर बताओ मुझे खुद से अधिक समझने का दावा करने वाले तुम, हां तुम ! मुझे समझ ही कहां पाए ?

     जैसा कि मैं हमेशा भ्रम में रही कि मैं अपनी जिंदगी जी रही हूं, ठीक वैसा ही भ्रम तुमने भी तो अपने मन में मेरे लिए सजों रखा था।

     संवेदनाएं आहत होती, मुखर भावनाएं टूटती, तुम्हारी आंखें सजल होती, और भरी आंखों से तुम मुझे देखते। और तुम्हें बस मेरी धुंधली सी तस्वीर नजर आती। इतनी कि तुम खुद भी भ्रम में पड़ जाते। मुझे कभी साफ, स्वच्छ नजरों से तुम कहां देख पाए।

    तुम्हारी आंखों के आंसू खुद ही दीवार बनकर खड़े हो जाते थे। तुम्हारी सारी शिकायतें सभी उलाहने, मैं चुपचाप सुन लिया करती थी। यही सोच कर कि शायद कभी तो तुम मुझे समझ पाओगे।

      किन्तु ऐसा कभी हुआ ही नहीं, यह भी कैसे लिख दूं? मुझे तुम समझ पाए ही नहीं, यह भी कैसे लिख दूं? मैं बेहद प्रैक्टिकल थी, जिसकी कोई भावनाएं, कोई संवेदना ही नहीं। यदि थीं भी, तो वह तुम्हारे लिए नहीं थीं। तुम खुद एक भ्रम में फंसते रहे जैसा कि मैं एक भ्रम में थी कि मैं अपनी जिंदगी जी रही हूं, मुझे सब कुछ मिल रहा है, यही तो मैंने चाहा था।

अब मुझे किस बात की कमी है। मुझे और क्या चाहिए था?

हम दोनों इस मायाजाल और भ्रम के कैदी रहे। कैद बढ़ती गई। कसती रही, हम दोनों को जकड़ती रही, इतनी कि उस कैद में हम छ्टपाटा तो सकते थे, किंतु आजाद नहीं हो सकते थे। और इस तरह से हम धीरे-धीरे एक दूसरे से दूर होते चले गए। इतने दूर, जहा किसी भावना का कोई मोल नहीं, किसी संवेदना का कोई स्थान ही नहीं। और वहां था तो केवल एक शून्य, एक निराकार, एक ईश्वर।

और इस तरह एक दूसरे के इष्ट होते हुए भी हम एक अलग ही ईश्वर की तलाश करते रहे। इससे बड़ी विडंबना और नियति हम दोनों के लिए क्या हो सकती थी, मेरे दोस्त ?

शायद यही तो लिखा था। लेकिन तुम इसे भी कैसे मान सकते थे? और आज भी जहां भी होगे, कैसे मान लोगे? जबकि इस अवधारणा को तुम आज भी तथ्यहीन ही मानते होगे ?

तुमने मेरा सानिध्य पाया, निकटता पाई, शायद तुम्हारी दृढ़ इच्छाशक्ति ने तुम्हारी इच्छाओं की पूर्ति की। मैंने तो ऐसा कभी नहीं चाहा, कभी नही सोचा था शायद इसलिए वे मेरे लिए मिट्टी के मोल थे। जब तुम मेरे निकट आए, मेरे सानिध्य में जो जीवन जी रहे थे, मेरे मन में तुम्हारे लिए कोई विशेष भावनाएं या उल्लास जागृत नहीं हुआ।

होता भी तो कैसे? जब इंसान की इच्छाएं पूर्ण होती हैं, तभी तो उसमें उत्साह होता है । वही तो वह पल होते हैं जिन्हें वह खूबसूरती के साथ जीना चाहता है। तुमने वह पल जिएं अपने ही अंदाज में, और मैंने उन्हें केवल गुजरते हुए देखा। बिल्कुल तटस्थ और निरपेक्ष भाव से । क्योंकि उन पलों का मेरे जीवन में आना महत्वपूर्ण नहीं था। वह पल मैंने नहीं चाहे थे। शायद इसलिए मैं उदासीन रही। इसीलिए तो मैं उन्हें केवल गुजरते हुए देखती रही।

उस दिन तुम हमारे साथ एक ऐसा ही पल गुजर रहे थे जिसकी तुमने कल्पना की होगी ? या फिर तुम्हारी दृढ़ इच्छाशक्ति ने मुझसे मांगा होगा। और तुम ? तुम दुनिया के दिखावे के लिए हमसे मांग रहे थे!! या यूं कहूं कि लक्ष्य मैं थी और कह रहे थे मेरे अपनों से।

हां! तो उस दिन क्या कह रहे थे? यही न, तुम याचक हो या फिर लुटेरे !!! सचमुच?

इस शर्त के साथ की कुछ भी वापस ना करूंगा सब कुछ मांग रहे थे।  सुख-दुख, धन वैभव सब कुछ जो हम तुम्हे दे सकते थे, तुमने मांगा और मैंने तुम्हें तटस्थ भाव से सुना।

मैंने तो कुछ भी नहीं दिया, न अपनी खुशियां, न दर्द,   वैभव। बस तुम्हें सुना।

इससे बड़ी उदासीनता तुम्हारे प्रति मेरे मन में और क्या होती भला ? उस दिन तुमने समझा क्यों नहीं ? या यूं कहूं उसी दिन तुम्हें समझ जाना चाहिए था। किस बात का इंतजार कर रहे थे ? क्या घटित होने का इंतजार कर रहे थे?

हां, तो मैं लिख रही थी कि तुम जैसे आए थे वैसे ही चले गए। तुमने जो चाहा, वह तुमको मिल चुका था। मेरी निकटता तुम्हें हासिल हो चुकी थी। मेरे साथ कुछ पल जिंदगी जी लेने की लालसा पूर्ण हो चुकी थी। तुम एक जिंदगी जी कर चले गए और मैं तुम्हें उदासीन भाव से बस देखते रह गई।

मेरे दोस्त ! मैं तुम्हें इस जीवन का एक और रहस्य बताती हूं। शायद यह रहस्य एक स्त्री होने के नाते मैं ही जानती हूं, तुम नहीं जान सकते। क्योंकि तुम उन लम्हों में सहचर होते हुए भी, कभी उस अनुभूति को महसूस नहीं कर सके होगे।

अब मैं तुम्हें जो लिखने वाली हूं या बताने वाली हूं, उससे तुम यह भी समझ सकते हो कि मैं निर्लज्ज हो रही हूं। तो समझ लेना, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता है।

क्योंकि यदि मैं इन पलों को तुमसे साझा कर रही हूं तो, समझ लो मेरे दोस्त कि यहां पर इसकी जरूरत है। नहीं तो मैं ऐसा कदापि नहीं करती। 

मैं बात कर रही हूं, आत्म-संतुष्टि की। एक इंसान आत्म-संतुष्टि का अनुभव कैसे करता है ? जहां तक मैं समझती हूं कि इसका अर्थ है, खुद की संतुष्टि, ना कि सामने वाले की, चाहे वह आपको कितना ही अधिक क्यों न प्रिय हो। 

अब तुम कल्पना करो कि जब एक पुरुष एक स्त्री से अंतरंग संबंध बनाना चाहता है तो किसके लिए ? खुद की संतुष्टि के लिए या उसकी संतुष्ट के लिए ?

जवाब दो, नहीं समझे ? तो चलो अपनी कल्पना का विस्तार और करो। वह उसे छेड़ता है, उसे चूमता है, उसे छूता है, इस कदर कि वह कामातुर हो जाती है। 

तब वह कुछ पल ले लिए ही सही, सब कुछ भूल जाती है। मान-मर्यादा, लाज, शर्म सभी कुछ। खुद को उसकी बाहों में समर्पित कर देती और उसका सहचर जब खुद संतुष्ट हो जाता है, चरमोत्कर्ष के बिंदु पर पहुंचकर नीचे उतर आता है और उसे उसी अधूरी कामाग्नि में जलता छोड़, निढाल सा अपने आप को समेट, किनारे बिस्तर पर लेट जाता है, सो जाता है।  

अब वह स्त्री चाह कर भी अपनी किसी भी इच्छा को संतुष्ट नहीं कर सकती। क्योंकि प्रकृति ने पहल करने और पुरुषत्व से स्त्री को संतुष्ट करने की क्षमता पुरुष को दी, स्त्री को नहीं। अब उसका पुरुष साथी चाह कर भी उसे संतुष्ट नहीं कर सकता। इन परिस्थितियों में वह क्या कर सकती है, सिवाय इसके कि वह अपने सहचर को या तो लज्जित करें, कहे कि तुम मुझे संतुष्ट नहीं कर पाए, या फिर अपने मन की सारी इच्छाओं को समेट कर उनका दमन कर ले

कहने का अर्थ यह है कि वह ठंडी हो जाए। पहल किसने की ? उत्तेजना उसके शरीर में किस ने भरी ? प्रश्न यह उठता है। तो फिर दोषी कौन ? क्या वही स्त्री है ? या फिर उसका सहचर पुरुष ?

   मैं कहना यह चाहती हूं कि दूसरों की संतुष्ट में यदि आप अपनी संतुष्टि खोजते हैं तो आप एक निरर्थक कार्य कर रहें हैं। और इस कार्य का आपको कोई पारितोषिक या पाराश्रमिक नहीं मिलने वाला। यही जीवन का सत्य है। ऐसे बहुत सारे सत्य हैं जिन से रूबरू हम रोज होते हैं लेकिन समझ नहीं पाते।

तब मैं कैसे भरोसा कर लेती मेरे दोस्त ! जो प्रेम की आग तुम मेरे अंतःकरण में प्रज्वलित करना चाहते थे, उसकी संतुष्ट बनकर तुम खुद मेरे सामने भी आते। क्या ऐसा नहीं हो सकता था कि तुम भी खुद को संतुष्ट कर मुझसे दूर हो जाते, बताओ ?

स्वयं को श्रेष्ठता के बिंदु पर स्थापित करना प्रत्येक जीव का प्राकृतिक और नैसर्गिक लक्षण होता है। और शायद इसलिए मनुष्य भी इससे अछूता नहीं है। इसी तरह प्रत्येक जीव के नर में विजेता बनने की प्रबल महत्वाकांक्षा होती है। वह हार स्वीकार नहीं कर सकता। 

पुरूष, स्त्री को जीतना चाहता है। उसका विजेता बनना चाहता है। जबकि सौ में सौ बार वह प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्षतः हारता है। तब वह अपनी हार को अपने पशुबल से जीतना चाहता है, उसे दबाना चाहता है। यदि ऐसा नहीं होता मेरे दोस्त !! तो जरा सोचो, इस दुनिया में बलात्कार जैसी चीजें ना होती।

मैं जानती हूं, तुम ऐसे नहीं थे। लेकिन तुम इसका अपवाद भी तो न थे। मानती हूं कि मेरी उपेक्षा से तुम मेरे प्रति हिंसक नहीं हुए। लेकिन क्या आपने प्रति भी नहीं हुए यदि ऐसा ना हुआ होता तो अपने अंदर की सुकोमल भावनाओं को जो मेरे प्रति थी, उसे एक ही पल में यूं ही न मार दिया होता और मुझसे यूं ही दूर ना चले गए होते ? बताओ, क्या यह सच नहीं है ?

   सच कहना, क्या तुम यह नहीं चाहते थे कि मैं तुम्हारे अव्यक्त प्रेम को स्वीकार कर लूं ? ना तुमने मुझसे कभी खुलकर कुछ मांगा और न ही कुछ कहा; और ना ही मैंने तुम्हें कुछ दिया ही और ना ही पूछा। यदि प्रेम की अभिव्यक्ति तुम्हारी हार होती तो अव्यक्त प्रेम को स्वीकार कर लेने से मैं कौन सा विजेता बन जाती ? हम दोनों की निश्चल भावनाएं अव्यक्त और अस्वीकार के उसी एक साम्य-बिंदु पर सदैव स्थापित रही। साम्य के इस बिंदु पर ना तो तुम विजेता थे और ना ही मैं अपराजिता। और सच मानो तो यह हमारे प्रेम की गहनतम अनुभूति थी, जो कभी शब्दों में बयां नहीं की जा सकती, मेरे दोस्त!

मैं संभावनाएं व्यक्त कर रही हूं निष्कर्ष नहीं दे रही हूं। हां अपने आप को कदाचित इस बात के लिए दोषी ठहरा लेती हूं कि जिंदगी के इन पलों में मैं थोड़ा सा खुलकर तुमसे बात करती। तुम से पूछती कि तुम मुझसे आखिर चाहते क्या हो। तुम में किसी भी संभावना की तलाश ना करती, लेकिन तुम मुझ में किन संभावनाओं की तलाश कर रहे हो, यह तो पूछ ही सकती थी। 

किंतु कहते हैं ना, सहजता से प्राप्त कोई व्यक्ति या वस्तु हमें आकर्षित नहीं करता। हमारे लिए मूल्यवान नहीं होता। यह मानव का स्वभाव है। और शायद इसी लिए मनुष्य के जीवन में पानी नितांत आवश्यक है, किंतु उसकी कीमत सदैव हीरे से कम होती है। क्योंकि हीरे जवाहरात दुर्लभ है, सहजता से प्राप्त नहीं होते। 

मैंने तुम्हे अपने जीवन में जल की उसी एक बूंद की भांति जरूरी समझा, जिससे मैं अपनी प्यास तो बुझा सकती थी, यहां तक कि हो सकता था कि कुछ हद तक तृप्त भी हो जाती। किंतु मैं तुम्हे अपने जीवन में किसी आभूषण की तरह धारण नहीं कर सकती थी। क्योंकि तुम्हें धारण करने पर मुझे किसी गौरव की अनुभूति नहीं होती। 

तुम जो एक सामान्य व्यक्ति ठहरे, मुझे तो बेशकीमती हीरे की तलाश थी। और वह हीरा मुझे उपलब्ध कराया भी जा चुका था। इस तरह से तुम मेरे जीवन के आधार होते हुए भी मेरे लिए कीमती कभी न रहे। तो फिर मैं क्यों कर तुमसे कोई आकर्षण बांध लेती

किंतु आज जब सोचती हूं, मैं उन पलों के बारे में, तो पता नहीं क्यूं, मन में एक हूक सी उठती है ? काश ! कि वे पल, वे लम्हे फिर से मेरी जिंदगी में लौट आएं, और तब मैं भी अपनी जिंदगी जी लूं, जैसे कि उस दिन तुम जी कर चले गए थे।

अपनी आंखें बंद कर महसूस करू कि जैसे मैंने तुम्हारा हाथ थाम रखा है, और तुम मुझे मेरी अपनी ही दुनिया में, उन्हीं सितारों की दुनिया में लेकर चले गए जहां से शायद तुम आए थे।

हां ! सितारों की दुनिया !!

एक ऐसी दुनिया, जहां जीव का कोई फिजिकल अस्तित्व नहीं। मन में संचित कभी ना नष्ट होने वाली ऊर्जा और उसका वह वास्तविक स्वरूप, जो चिरकाल तक स्थाई और अनंत काल तक अविनाशी।

और हां, जहां न कोई संवेदना, न कोई भावना, और न ही उनके टूटने का कोई दर्द। सब से परे, इन सब से मुक्त, जहां जीवन ही नहीं, जीवन के सारे झंझट भी नहीं।

इस दुनिया के समानांतर शून्य आयाम की अपनी अलग ही दुनिया, जो किसी अनंत बिंदु पर जाकर भी एक दूसरे से न मिलती हो।जो इस सांसारिक दुनिया से बिल्कुल अलग हो। हां, वही सितारों की दुनिया। न जाने किस रहस्य की तलाश में तुम भटक रहे थे मेरे इर्द-गिर्द। और  जाने तुम्हें वे रहस्य मिले भी या नहीं, कौन जाने ?

मेरे स्थिर और संपन्न जीवन में तुम किन जीवन मूल्यों की तलाश कर रहे थे ? या फिर अपने जीवन की कुछ कमियों को मेरे साथ रहकर दूर कर लेना चाहते थे ? या फिर तुम्हें अपनी संवेदनाओं को मुझ से प्रकट करना ही था या फिर किसी अवसर की तलाश में भटक रहे थे ?

कौन जाने क्या सच था क्या झूठ ?

मेरी तयशुदा जिंदगी में, निर्धारित जीवन शैली में तुम्हारा यू हस्तक्षेप करना मुझे मंजूर ना था। इसलिए मैं तुम्हें बार-बार खामोश रहकर आगाह करती रही कि शायद कभी तो समझ जाओ। लेकिन नहीं तुम तो अपनी ही धुन में मस्त निरंतर प्रयास करते रहे।

मुझे कठोर बनने पर तुमने इस हद तक मजबूर कर दिया कि मैं तुम्हें उपेक्षित रखूं या कर दूं! तुमसे तटस्थ रहूं, दूर होती जाऊ।  और तुम्हारी किसी भी संवेदना या भावनाओं के प्रति उदासीन होकर तुम्हें अपनी जिंदगी से बाहर का रास्ता दिखा दूं।

और मैंने वही किया, कहते हैं न, शब्द से अधिक खामोशियां चुभती हैं। और मेरे पास तुम्हारे लिए इससे बड़ा कोई विकल्प न था। तुम बोलते गए, मैं खामोश सुनती गई और एकदिन तुम मेरी खामोशियों के अर्थ समझ गए।

 काश ! तुम इतने समझदार न होते !!!

जब मैंने लेखनी उठाई तो यह सिद्धांत मन में बना लिया था कि या तो तुम्हे आना होगा या फिर मैं खुद तुम्हें तुम्हारे सभी गुनाहों की सजा दूंगी। 

तुम पर एक एक करके सारे इल्जाम लगाऊंगी और उन्हें साबित भी करूंगी और अंततः उसकी सजा भी खुद ही निर्धारित करूंगी। इल्जाम साबित होते, तुम्हारे गुनाह साबित होते, तुम गुनहगार ठहराए जाते। और तब, जानते हो क्या होता ?

मैं अपना बड़ा दिल दिखाते हुए तुम्हें क्षमा कर देती !  हां, मैं ही तुम्हे क्षमादान देती । और इस तरह मैं तुमसे एक पायदान ऊपर उठकर एक पल में ही तुमसे बड़ा दिल रखने वाली बन जाती।

लेकिन बस यहीं पर आकर मेरी लेखनी बंद हो जाती है। मेरे विचारों की श्रंखला टूटने लगती है। और मैं सोचती हूं . . . 

आह ! मैं यह क्या करने जा रही हूं ? और क्यूं कर रही हूं ? ठीक वैसा ही बर्ताव, ठीक वैसा ही व्यवहार मैं तुम्हारे प्रति कर रही हूं, जैसा कि कभी मेरे अपनों ने मेरे साथ किया था।

मुझे गुनहगार ठहराया और बेगुनाही का सर्टिफिकेट भी थमाया। सच इस समाज ने मुझे जो कुछ भी दिया प्रतिरूप में मैं तुम्हें देने जा रही थी !! 

तब सोचती हूं, हे ईश्वर ! मुझे क्षमा करना। मैं यह क्या करने जा रही थी।

हां, मैंने कभी, कहीं इसी में लिखा था कि हम एक काल्पनिक दुनिया में वास्तविक जीवन जीते रहे। अपनी कल्पना शक्ति से हमने जो संसार बनाया था, पूर्व निर्धारित और पूर्वाग्रहों से ग्रसित हम अपनी उसी काल्पनिक दुनिया के काल्पनिक पात्र बन कर रह गए।

    हां, काल्पनिक पात्र ! जो वास्तविक दुनिया में कभी आ ही ना पाए और सदा के लिए उसी की कैद में रह गए।

मृग मरीचिका सी जिंदगी, कस्तूरी मन में लिए !! उसकी तलाश में जीवन पथ पर भटकते रहे। और मैं ? मैं तुम्हें तलाश करती रहीतुम्हे पुकारती रही ।

     "आह ! तुम कहां गए  . . ." ?

🌺 28 🌺


एक दौर ऐसा भी गुजरा था, जब तुम लिखा करते थे, और मैं पढ़ा करती थी। या यूं कहो बस पढ़ लिया करती थी। मेरे दिल में तुम्हारे लिए कोई रूहानी या फिर कोई रोमांटिक जज्बात न थे। अब ऐसे में तुम्हारा लिखा कुछ भी, कैसे भी, सामने आता तो मैं उसे बस पढ़ लिया करती थी।

बिना किसी संवेदना के, बिना किसी भाव के। प्रतिक्रिया देना तो दूर की बात है, मैं तो उसे कुछ पल से अधिक याद भी नहीं रख पाती थी। यदि किसी भी अभिव्यक्ति के लिए मैं पत्थर दिल थी, तो फिर बताओ, ऐसे में मैं भला तुम्हें इबादत करने से कैसे रोक लेती . . . ?

कैसे कहें अब तुमसे,

हम तुम्हारी इबादत के काबिल नहीं,

जब खुद को पत्थर बना लिया हमने।

. . .

रुक-रुक कर चलती है,

कुछ इस तरह से जिंदगी।

वफाओं की तो अब बात नहीं,

खामोश लबों से भी भला,

कोई दुआ निकलती है कभी।

तेरी निगाहों ने भी

देखा होगा वह मंजर,

कि सजदे में आकर भी,

कोई मुराद पूरी होती नहीं ।।

. . .

यदि मैं बात करूं इस वास्तविक संसार की जहां पर आकर तुम मुझ से टकरा गए, और फिर तुम्हें मिला क्या? आज मैं तुम्हारे लिए कुछ लिखती हूं . . .

कोई और ही शख्स था तेरे अंदर,

जो जीता रहा अपनी जिंदगी,

सहेज खुद मेरी यादों को,

हर रोज मिटाता रहा यादें तेरी।

. . .

ताउम्र भटकते रहे तुम जिनकी तलाश में,

उन्हें भी रोते हुए देखा किसी की याद में,

ऐ मुसाफिर ! 

तुझे मंजिल मिली भी तो क्या ?

तुझसे भी बदतर हाल में . . . !!!

    एक दिन तुमने बातों ही बातों में अपनी दो ख्वाहशे जाहिर की थीं, पहली तुम एक हसीन और जवान मौत मरना चाहते हो, और दूसरी मरने से पहले अपने संपूर्ण जीवन की याददाश्त खो देना चाहते हो। 

    उस दिन तुम्हारे कहने के अर्थ को मैं भली-भांति नहीं समझ पाई थी। लेकिन आज उन बातों के अर्थ मुझे समझ में आते हैं।

     तुम पुनर्जन्म नहीं चाहते। इसलिए मरते समय अपनी पूरी याददाश्त खो देना चाहते हो, ताकि तुम्हारी कोई अधूरी ख्वाहिश मन में न रह जाए। चलो यह भी सही। मरते समय तुम मुझे भी याद न करो, तो कोई बात नहीं। इससे फर्क भी क्या पड़ता है

साहिल पे खड़ी तू बेखबर,

लहरों से जूझता मेरा मुकद्दर,

क्या जरूरी था बेवजह था?

और शायद तब मेरे लिए कही अपनी इन पंक्तियों को भी भूल जाओ ? है न

उपहास नही उड़ा रही, पर ऐसा हो सकता है क्या ? इसका होना या न होना भी अब तुम पर ही छोड़ती हूं।

मैं तुम्हें अपना आदर्श भी नहीं बना सकती क्योंकि आदर्श के प्रति निष्ठावान होना नितांत आवश्यक है। और मैं तुम्हारे प्रति किसी भी निष्ठा को स्वीकार नहीं करती।

तो क्या इस अंतर्मन में कोई आस, कोई पुकार अब भी शेष है ? जो मुझे तो सुनाई देती है, किंतु तुम तक नहीं पहुंच रही। 

शायद यह मानव की प्रवृत्ति है उसका स्वभाव है कि जो उसके पास है, वह उसके लिए तुच्छ होता है। उसमें कोई आकर्षण प्रतीत नहीं होता। सुदूर स्थापित चाहे वे कोई तथ्य या स्वप्न हों, आकर्षक और लुभावने होते है। हमे प्रभावित करते हैं, अपनी तरफ खींचते हैं।

    जब तक तुम मेरे पास थे, तब तुम में कोई रस या आकर्षण नहीं दिखाई दिया, मेरे दोस्त। अब जबकि दूर हो, तो तुम्हारी निकटता के लिए मैं तरस रही हूं, तुम्हारी तरफ खिंच रही हूं। 

लेकिन अब तुम हो कहां ? होते तो पूछती मेरे दोस्त!  संवेदनाओं का मूल्य क्या होता है ? किसी को अपनी जिंदगी में शामिल कर उसकी यादों में जीने की कीमत क्या होती है ? यदि इन सब की कोई कीमत है तो मैं तुमसे अवश्य लेती, मांगती तुमसे। कहती, निर्मोही तो बन ही गए, मेरे कर्जदार तो ना बनो। चुका दो इसे और चाहो तो फिर से चले जाना।

   तुम्हें इतने सारे पत्र लिखे लेकिन इन्हें किस पते पर पोस्ट करूं ? समझ नहीं आता, कभी तुम तक मेरे ये पत्र पहुंचेंगे भी या नहीं या कहीं किसी दिन मैं खुद ही इन्हें फाड़ कर किसी चलती राह में न फेंक दूं ! कौन जाने क्या हो !! 

   मैंने अपने हृदय में तुम्हारे प्रति उपजे प्रेम या दोनों के अंतर्मन के संबंधों को  कभी नही लिखना चाहा। मैंने जब भी संवेदनाओं की अभिव्यक्ति चाही तो तुम्हें लिखा। और सच मानो मैं आज भी सिर्फ तुम्हे लिखते रहना चाहती हूं।

   इसलिए नहीं कि तुम मेरे जीवन का सबसे हसीन लम्हा हो जिसे मैं हर दिन जीना चाहती हूँ। बल्कि इसलिए कि मैं तुम्हें खुद से जोड़ कर रखना चाहती हूं। तुम मेरे अकेलेपन के हमसफर हो, मेरे दोस्त। 

अकेलापन !!! जब कभी तुम मेरे इन पत्रों को पढ़ोगे तो शायद तुम्हें हंसी भी आएगी। मैं जानती हूं तुम्हें विश्वास करना मुश्किल होगा और खासकर इस एक लब्ज़ पर "अकेलापन"। 

ना तुमसे झूठ नहीं बोलूंगी। देखने को तो कोई अकेलापन नहीं है। बड़ी आबाद महफिले हैं। उससे भी कहीं ज्यादा भीड़ है मेरे आस-पास, जितना कि उस समय थी, जब तुम मेरी जीवन शैली में थे। तुम्हें देख कर भी अनदेखा करना, तुम्हें महसूस करते हुए भी उपेक्षित रखना, मेरी जीवनशैली ही तो थी। 

आमोद-प्रमोद के सभी साधन है मेरी जिंदगी में । मैं जी खोलकर हंसती भी हूं, जिंदगी को जीती भी हूं। बस यही तो नहीं है मेरे पास, तुम्हें अनदेखा करना, तुम्हें उपेक्षित रखना। और सच मानो तो जिंदगी का यह खालीपन आज मेरी इन सुख सुविधाओं से परिपूर्ण जिंदगी पर भारी पड़ गया। 

और शायद इसीलिए मेरे मन में कभी-कभी यह विचार भी आता है कि यदि कहीं मैंने तुम्हें पूर्णतः स्वीकार किया होता, तुम्हें अपनाया होता और कहीं उसके बाद तुम चले गए होते, मुझसे दूर हो गए होते, तो फिर मेरा क्या होता ? कल्पना का यही एक बिंदु मेरी आज की जीवनधरा को हिला देता है मेरे दोस्त। 

तो फिर आज मेरे पास इसके सिवा और कौन सा रास्ता था कि मैं क्यों न तुम्हें अपनी इस जीवनधरा की धरातल का आधार ही बना लू ? और वही मैंने किया।

मैंने तुम्हें कई पत्र लिखें और किसी भी पत्र में तुम्हारे प्रति मैं किसी एक विचारधारा पर केंद्रित नहीं रह पाई। यदि कहीं कोई विचारधारा बनाई भी तो अगले किसी न किसी पत्र में उसका खंडन भी कर दिया। क्योंकि लिखा न, कि तुम मेरे प्रियवर भी और मेरे इष्ट भी। तो फिर तुमसे क्या छुपाना ! 

क्योंकि प्रत्येक पत्र मेरी अलग-अलग मानसिकता के आधीन लिखे गए हैं। इन पत्रों में मैंने तुम्हें जी भर के कोसा भी, जी भर के तुम्हें उलाहने भी दिए, जी भर कर तुम्हें स्वीकार भी किया, जी भर कर तुम्हें अस्वीकार भी किया। वेदना की गहन अनुभूतियों में कई बार मेरे आंसू शब्द बनकर इन पन्नों पर बिखरे। कई बार हंसी हूं, कई बार रोई हूं। कई बार मरी हूं, कई बार जिंदा भी हुई हूं।  तुम्हें प्रतिपल महसूस भी किया है, और एक ही क्षण में तुमको खुद से बहुत दूर जाते हुए भी देखा है। कुल मिलाकर कहूं तो मन की सारी भड़ास निकाल ली। 

इतना तो सत्य है कि मैंने अपनी जिंदगी इन पत्रों में जी ली। तुम्हें पा भी लिया और फिर से एक बार खो भी दिया। तुम्हारी निकटता भी हासिल की और दूरियां भी। तुम्हारे स्पर्श को अपने शरीर के रोम रोम में, हृदय के स्पंदन में, मन, अंतर्मन के प्रत्येक कोने में महसूस किया और फिर एक पल में ही उसे अपने पल्लू से झाड़ भी दिया।

अब भावुकता को छोड़, पत्थर सी कठोरता के आवरण को धारण कर, तुम्हारे ही जैसी निर्मोही बन एक बार फिर लिखती हूं,

" यदि संबंधों की प्रगाढ़ता दूरियां लाती है, तो जाओ मैं तुम से कोई संबंध नहीं रखती। "

 " यदि एक संभावना, अनंत संभावनाओं को जन्म देती हैं, तो जाओ मैं तुम में किसी भी संभावना की तलाश नहीं करती।"

" यदि मेरी एक पुकार, जो अब मेरे अंतर्मन की वेदना बन चुकी है, "आह ! तुम कहां गए ...", तुम्हारे लौट आने की संभावना की तलाश है, तो जाओ आज इसी क्षण, मैं इसका भी परित्याग करती हूं।"

" यदि तुम्हारी निकटता, संबंधों की प्रगाढ़ता, तुम्हारे महत्व को कम करती है; तो यह दूरियां ही सही। तो जाओ मैं उस निकटता की की अब चाह नहीं रखती।"

मैं तुम्हें मुक्त करती हूं, अपनी इस दर्द भरी पुकार से भी -

 " आह ! तुम कहां गए !!"

अब सब कुछ सिमट कर रह गया। कोई कर्म नहीं बचा जिसे जोड़ घटा कर आगे की कहानी मैं तुमसे कह सकूं। अब इसे यही विराम देना होगा।

तो लो, मैं सजा निर्धारित करती हूं। स्वयं के लिए भी और तुम्हारे लिए भी, जो मैं बार-बार लिखती आ रही थी, हां वही फैसला देती हूं, तो सुनो ,

"बिना कुछ कहे, मुझे बिना कुछ बताए, बिना कोई शिकायत दर्ज कियेतुम मुझे यूं छोड़ कर जाने के लिए, मेरे दोषी पाए जाते हो। समझे न, मेरे दोषी पाए जाते हो मेरे दोस्त। और तुम्हारी सजा यही है कि तुम मेरे अंतर्मन की कैद में हमेशा रहो। तुम्हें कभी मुक्ति ना मिले। ताउम्र या यूं कहो जन्म जन्मांतर की उसी कैद में सदैव छटपटाते रहो, लेकिन तुम्हें मुक्ति ना मिले। 

यदि कोई मोक्ष की तलाश भी है, तो वह भी तुमसे सदैव दूर ही रहे। मेरे बगैर तुम्हें कोई मोक्ष भी ना मिले। "

तो लो हो चुका फैसला, और मैंने तोड़ दी अपनी कलम . . .।

मैंने एक न्यायाधीश के पद और उसकी गरिमा को बरकरार रखते हुए फैसला दिया है।  कलम भी तोड़ दी। अब न्यायधीश की कुर्सी से उतरती हूं और कटघरे में तुम्हारे ही सामने खड़ी होती हूं; और फिर तुमसे कहती हूं,

मेरे दोस्त ! मेरे प्रियवर !! मेरे इष्ट !!! नहीं कहती कि तुमने मेरे साथ छल किया लेकिन मुझे छोड़कर तो गए ना। कभी मैंने तुम्हें कालिदास के मेघदूत के यक्ष की तरह श्रापित और अभिशप्त जीवन जीने का श्राप दिया थामुक्त करती हूं आज तुम्हें उस श्राप से। अंगीकार करती हूं तुम्हें हृदय से, रखती हूं तुम्हे अपने अंतर्मन में। अब कोई परवाह नही कि तुम इस भौतिक जगत में जीवित भी हो या नहीं। नहीं परवाह है कि तुम्हारी यह कैद इस जन्म की है या फिर जन्म-जन्मांतर की। तुम आजाद पंछी थे न ? खुले आकाश में उड़ना चाहते थे न ? तो लो कैद कर लिया ना तुम्हें ? अब कहां जाओगे तुम ? नहीं कहती कि इस कैद से मुक्त होने के लिए तुम जितना फड़फड़ाओगे; मैं खुश होती रहूंगी। लेकिन हां, जब तक तुम मेरे अंतर्मन में ज्वाला बनकर दहकते रहोगे; तब तक मैं भी तो तड़पती रहूंगी। जब तक तुम्हें अपने अंतर्मन की कैद से मुक्त ना कर दूं, तब तक किसी और के लिए कोई स्थान नहीं होगा। यदि तुम मेरे बंदी हो तो मैं भी तुम्हारी बंदनी हुई न ? तो चलो तुम इसी में खुश हो लो !! 

मैंने लिखा न; तुम रूहानी, रोमांटिक और आभासी दुनिया के काल्पनिक पात्र थे, जो वास्तविक दुनिया से परे थे, और मैं भी अब उसी काल्पनिक दुनिया में तुम्हारे साथ रहने आ गई हूं। और शायद इसीलिए मैंने तुम्हें सजा के तौर पर अपने अंतर्मन की कैद दी। इतना तो हक बनता है मेरा? वह तुम मुझसे नहीं छीन सकते।

सांसारिक दुनिया छद्म होते हुए भी वास्तविक प्रतीत होती है, और तुम्हारी  काल्पनिक दुनिया वास्तविक होते हुए भी छद्म प्रतीत होती है। यही तो वह विरोधाभास है जिसके मध्य हम दोनों ही जीते रहेंगे, ताउम्र के लिए अपनी उसी कैद में रहकर।

जिसे जिंदगी का यथार्थ माना, वास्तविक माना, वे छल कर गए। मुझमें जब किसी भी यथार्थ और वास्तविकता से रूबरू होने की हिम्मत नहीं बची थी; तो ऐसे में मैं क्या करती ? मेरे पास तुम्हें एक काल्पनिक दुनिया देने के सिवा और कुछ भी न था !

भविष्य में हो सकता है यह काल्पनिक संसार भी न हो। यादों से बने इस विहंगम काल्पनिक संसार में हम और तुम सदैव के लिए न रह सके, तो भी क्या

 हम अपनी यादों से अपने इस काल्पनिक संसार को और भी सुंदर बनाएंगे। और भी मन लगाकर सजाएंगे। हमारी यादों का यही संसार अब हमारे लिए वास्तविक, इस जीवन का सत्य और रहस्य भी होगा।

    जीवन में सफलता पाने के लिए यदि तुम इस काल्पनिक संसार को छोड़ कर आगे बढ़ना चाहो तो भी मैं न रोकूंगी। यदि तुम बढ़ सकते हो तो बढ़ जाना, यदि इस संसार से पार हो सकते हो तो निकल जाना। 

कोई बंधन नहीं है। और न ही अपने मन में इस बात का कोई दुख पालना कि तुम मुझे अकेला छोड़ कर चले गए। 

लेकिन हाँ, इतना कहे देती हूं , तब भी मैं तुम्हें अपने अंतर्मन की कैद से मुक्त नहीं करूंगी .…. कह देती हूं, चाहो तो लिख कर ले लो ....

तुम्हारी .........

.......... (तुम जो भी लिखना चाहो)

🌺 29 🌺

समाप्त 


जजमेंट के बाद कुछ लिखना शेष नहीं बचा था। मैंने भी समझ लिया था कि " आह ! तुम कहां गए ", समाप्त हुई। लेकिन 30 पत्रों में से एक पत्र लिखना छूट गया था। या यूं कहूं कि इस पत्र के टुकड़ों को जोड़ना भूल गया था। बाद में जब उन्हें जोड़ा तो यह पत्र सामने आया। अब उसे कहानी के बीच में मैं कहां जोड़ता ? इसलिए उस पत्र को मैं  पुनरिश्च  में जोड़ रहा हूं ....

पुनरिश्च

हां मेरे दोस्त ! अब मैं तुमसे कैसे कहती, कैसे तुम्हे समझती कि प्रतिकार, स्त्री की लज्जा उसके आभूषण होते हैं। ये आभूषण तो मैने तुम्हारे सामने पहने थे। तुम्हे ... तुम्हे नही दिखाई दिए तो मैं क्या करती

जरा ईमानदारी से इन पलों को, उन लम्हों को तुम याद करो, जब मैं तुम्हारे सामने होती थी, तुम्हारे नजदीक बैठती थी, तुम्हारे पास होती थी, तुमसे बातें करती थी। और जब अचानक मेरी नजर तुम्हारी नजरों से टकरा जाती थी, तो मैं अपनी नजरें झुका न लेती थी, शरमा न जाती थी ?  

तुम याद करके कोई भी एक ऐसा पल, एक लम्हा बता सकते हो क्या जब मैंने कभी तुमसे ऊंची आवाज तक में बात की हो ? दुनिया से लड़ने झगड़ने वाली मैं, जब मैं तुम से बात कर रही होती थी तो मेरी आवाज में जो सॉफ्टनेस होती थी, जो लचीलापन होता था, तो क्या तुम उन्हें कभी महसूस नहीं कर पाए ? वे तुम्हे कभी दिलाई न दिए

तब ये तो तुम्हारी नजरों का धोखा था, इसमें भला मैं क्या कर सकती थी ? हां, कहो मेरे दोस्त ! भला मैं क्या कर सकती थी

 हां मेरे दोस्त ! यदि तुम मेरी उन झुकी हुई नजरों को ना देख पाए, मेरी आवाज की सॉफ्टनेस को नहीं महसूस कर पाए, मेरा यूं शरमा जाना तुम नहीं देख पाए, तो इसमें मेरा कोई दोष नहीं, मैं कहीं से गुनहगार नहीं हूं।

मैं मानती हूं कि मैं तुमसे कम ही बात करती थी। लेकिन जो पल जो लम्हे मैंने तुम्हारे साथ बिताए। उन पलों में, उन लम्हों में क्या तुम मेरे अंदर कोई जज्बात नही देख पाए ? मेरी नजरों में अपने लिए प्यार, अपने लिए वह सम्मान नहीं देख पाए तो तो मैं क्या कर सकती थी मेरे दोस्त। यह तो तुम्हारी नजरों का धोखा था। इसमें भला में क्या कर सकती थी ?

      मेरी खामोशियों में यदि तुम्हें अपने लिए उपेक्षा दिखाई दी, मेरे अंदर के जज्बात ना देख पाए तुम, तो इसमें मैं कहां से गुनहगार हो गई, जो इतनी बड़ी सजा देकर चले गए तुम मुझे, बताओ ?

    यदि मेरी झुकी हुई नजरों में तुम्हें अपने लिए मोहब्बत ना दिखाई दी, दिल की धड़कनों को तुम मेरे चेहरे में ना पढ़ पाए, उसे तुम देख न सके तो इसमें तुम्हारी नजरों का धोखा था मेरे दोस्त। इसमें मेरा कहीं से कोई दोष नहीं था।

   यदि मेरी नजरों में तुम्हारे लिए वह प्यार, वह कशिश, वह सम्मान नहीं दिखाई दिया तो इसमें मैं भला क्या कर सकती थी ?

    तुम्हारे सामने बैठना हो, या तुम्हारे पास बैठना हो, यदि मेरी आवाज में वह कंपन, वह कशिश, अपने लिए वह मोहब्बत नहीं देख पाए तो फिर मैं भला क्या करती ? क्या पूछती ? क्या मैं तुमसे खुले शब्दों में पूछते कि हां बताओ तुम मुझसे क्या चाहते हो ? जबकि मैं तुम्हारी आंखों में सिर्फ और सिर्फ खुद को ही देखती थी। इसे साइंटिफिक रीजन कह सकते हो या मन का दर्शन कि जो नजरों के सामने होगा तो आंखों में उसी का प्रतिबिंब बनता है, किसी और का बन ही नहीं सकता। जब मैं प्रतिपल खुद को ही तुम्हारी आंखों में देखती थी तो मैं भला तुमसे क्या पूछती ?

और मान लो मेरे दोस्त, यदि मैंने तुमसे पूछ ही लिया होता, और यदि कहीं तुमने मुझसे कह दिया होता कि कुछ नहीं। तो फिर क्या होता ?

तब क्या मेरी कल्पनाओं की वह संपूर्ण सृष्टि हिल ना जाती ? एक पल में वह सृष्टि डगमगा ना जाती मेरी कल्पनाओं की वह दुनिया भी तो तुम एक पल में ही उजड़ देते न ?

तब मेरे पास क्या बचता ? मेरी कल्पनाओं की वह दुनिया भी तो खो जाती है। मुझसे दूर हो जाती। वास्तविक रूप में ना सही लेकिन तुम मेरी उसी काल्पनिक दुनिया में सदैव मेरे साथ होते थे। और मैं उसे एक पल में कैसे खो देती ? इतना बड़ा रिस्क में कैसे ले सकती थी ?

क्या ऐसा नहीं होता कि तब मैं सदैव के लिए तुमसे दूर हो जाती ? हां मेरे दोस्त मैं तुम्हें खोने से डरती रही और इसी लिए तुम से सच छुपाती रही। तुम से कभी कुछ नहीं कह पाई।

       हां मेरे दोस्त सत्य यही था। मेरे कुछ ना पूछने की वजह यही थी, और मेरी खामोशियों के ना जाने तुम क्या-क्या अर्थ निकालते रहे। तुम्हें समझना चाहिए था मेरे दोस्त, तुम्हें समझना चाहिए था। तुम तो समझदार थे। 

     काश कि यदि आज तुम मेरे पास होते, मुझे देखते, महसूस करते तो हो सकता है तुम मेरे लिए लिखते,

हमे देख कर उनके कदम,

खुद - ब - खुद लड़खड़ा जाते हैं।

हमने देखा है उन्हे भी

अपनी नजरों से अपलक देखते हुए।

और वो कहते हैं हमसे,

उन्हें हमारी मोहब्बत का नशा नहीं।

और फिर आगे लिखते, शायद खुद अपने लिए ...

हमारी आंखों के पैमाने,

आज भी खुद-ब-खुद छलक जाते हैं।

उन्होंने भी देखा होगा अपनी नजरों से,

और हम कहते हैं, हमने पीनी छोड़ दी।

इसी में कहीं लिखा था मेरे दोस्त कि मृग मरीचिका सी जिंदगी कस्तूरी मन में लिए, उसकी महक लिए जीवन पथ पर भटकती रही, तुम्हें तलाश करती रही, तुम्हे पुकारती रही। यदि कस्तूरी मेरे मन के अंदर थी, तो मैं भला क्यों भटकती, उसकी तलाश क्यूं करती ?

यहां भी गलत लिखा, तुम से झूठ बोला था मेरे दोस्त। क्योंकि नारी का स्वभाव होता है, प्रतिकार करना। वह कभी स्वीकार नहीं कर सकती। और मान लो दोस्त, यदि उसने स्वीकार कर लिया, उसका महत्व कम हो जाता है। जिस पल उसने प्रेम को स्वीकार किया, अपनी सहमति दी वह निरर्थक हो जाती है।

तुम्हारे प्रेम की वह कस्तूरी जो मेरे मन मे है, मैंने उसे जान लिया था मेरे दोस्त। मैं ने पहचान लिया था उस सुगंध को जो मेरे हृदय से में बसी थी। जो मेरी अंतरात्मा तक को महका देती थी। 

मृग मरीचिका सी जिंदगी कस्तूरी मन में लिए, उसकी महक लिए जीवन पथ पर भटकती रही, तुम्हें तलाश करती रही, तुम्हे पुकारती रही। गलत लिखा, जबकि मेरे जीवन का सच यह है कि आज भी वह कस्तूरी मेरे हृदय, मेरे मन में है। मैं उस की महक को आज भी महसूस कर सकती हूं।

इसलिए मैं तुम्हे कहां तलाश करू ? जब मन में ही लिए बैठी हूं तो तुम्हे किन राहों में खोजू ? लेकिन एक लालच तो मन में है ही कि तुम सशरीर मेरे पास आओ। मेरी काल्पनिक दुनिया से निकल, उसी तरह हंसते मुस्कुराते मेरे सामने तो आओ एक बार।

और जब तुम आओगे तो हो सकता है, मैं आगे बड़ कर तुम्हे गले न लगा सकूं। लेकिन तुम्हे देख कर मैं अपनी नजरे झुका लूंगी। झुका लूंगी क्या, नजरे खुद ब खुद झुक जाएंगी। 

उस समय मेरे चेहरे में आई लाज की लाली को तुम देख सकना, तो देख लेना तुम। बनावटी नही होगी ! किसी को देख कर कोई यूं ही नहीं शरामात !! हृदय की धड़कन यूं ही नहीं दिखाई देती चेहरे में किसी के लिए। तुम समझदार हो, मुझसे अधिक समझदार हो, फिर भी पता नहीं क्यूं ये सब तुमसे कह रही हूं, तुम्हे लिख रही हूं ? तुम्हे क्यूं समझा रही हूं, तुम्हे पुकार रही हूं ?

कहते हैं न, जब कोई आस न बचे, तो पुकार ही एक आस होती है। उसे पुकारो, मन के पूरे आवेग के साथ उसे पुकारो। अपनी पुकार में, अपनी आवाज में वह कशिश पैदा करो, वो दर्द पैदा करो जिस दर्द से खिंचा हुआ वह चाला आए। तुम आओगे ; एक दिन जरूर आओगे !! तुम्हे आना ही होगा, मुझे विश्वास है।

और मेरे दोस्त ! जिस दिन तुम आओगे न, तो तुम्हे ये मेरे नजरें खुद ब खुद झुकी हुई मिलेगी ? मेरे चेहरे में लाजों की लाली मिलेगी। और मैं ? .... उस वक्त तुम्हारी आंखों में देखूंगी कि क्या मैं अब भी उसमे हूं, उसमे दिखाई देती हूं ? या कि तुम मुझे किन्ही राहों में खो कर आ गए हो ? हां मेरे दोस्त ! तब भी मैं तुमसे कुछ नही कहूंगी, तुमसे कुछ नही पूछूंगी कि तुम मुझे छोड़ कर कहां चले गए थे, किन राहों में खो गए थे, भटक गए थे। 

मैं उसी तरह शांत मन से, सहज भाव से अपने घर के अंदर आने के लिए रास्ता दूंगी। तुम्हे बैठने के लिए कहूंगी। और फिर चुपके से, अपने घर के किसी कोने से, मैं तुम्हे उसी तरह छुप के देखूंगी, जी भर कर देखूंगी जैसे की पहले कभी मैं देखा करती थी। 

इस जीवन का यही एक सत्य है मेरे दोस्त ! जिसे हम मन से स्वीकार करते हुए भी, दुनिया के सामने नहीं कर पाते। मन में कुछ और होता है, दुनिया को दिखाते कुछ और हैं। दुनिया  तो अब छोड़ो दोस्त, हम उस के सामने भी नहीं कह पाते, स्वीकार नहीं कर पाते, जिसके लिए मन में ये संवेदनाएं जन्म लेती है, जिसके लिए ये जीवन के सभी सत्य और रहस्य होते हैं।

जैसे की मैं ! मन में तुम हो, और दिखाती कुछ और ही हो , जैसे तुम मेरी जिंदगी में कही हो ही नहीं। तुम मेरे लिए कोई मायने नहीं रखते, कोई महत्व नहीं रखते। और इस तरह मैं भी तो प्रतिपल खुद से ही झूठ कहती आई हूं, और शायद उस दिन भी मैं तुम्हे यही सब दिखाने की कोशिश करू और हो सकता है फिर तुम्हे महसूस हो कि शायद तुमने यहां आ कर कोई गलती कर दी।

लेकिन कहे देती हूं तुमसे, उठाना मत वहां से। जाना मत वहां से। जीवन के सभी सत्य और असत्य से परे, तुम चुपचाप उसी तरह बैठे रहना। वहां से उठने की कोशिश भी न करना। सिर्फ बैठे रहना तुम मेरी नजरों के सामने। मान लेना तुम, मुझे तुमसे कोई लगाव नहीं है, कोई चाहत नहीं है, कोई मोहब्बत नहीं है। फिर भी वहां से उठने की जुर्रत नहीं करना तुम, कहे देती हूं। जब तक मैं न कहूं चुपचाप बैठे रहना। हिलना मत वहां से, मैं तुम्हारे सामने बैठूं या ना बैठूं। फिर भी तुम बैठे रहना वहीं, कहे देती हूं, जाना मत, जब तक मैं तुम्हे इजाजत न दूं।

यदि जाना आवश्यक भी हो, तो मुझसे पूछना, मेरी इजाजत जरूर लेना तुम। नही तो कहे देती हूं मैं, उस दिन, उस पल, उस क्षण तुम मेरे गुनहगार होगे। और कहती हूं मैं तुमसे, तुम्हारे इस गुनाह की सजा मैं निर्धारित नहीं करूंगी। हां मैं नहीं करूंगी, कोई और ही करेगा, उस से डरना तुम। डरना उस परम पिता परमेश्वर से तुम।

      तुम मेरे जीवन के लक्ष थे या हो, यह भी नहीं कहूंगी ! लेकिन वे पल हो जो मैने तुम्हारे पास रह कर गुजरे, तुम्हारे साथ रह के बिताए हैं। वे लम्हे हो तुम, जिन ... जिन लम्हों में मैंने जीना सीखा, हंसना सीखा, मुस्कुराना सीखा। लाग-लपेट से दूर, एक सच्चे इंसान के साथ बैठना सीखा। उसकी आंखों में अपने लिए कशिश देखी। नजरों में अपने लिए सम्मान देखा, अपने लिए मोहब्बत देखी मैंने। 

 अब कैसे भूल जाऊं उन लम्हों को

कभी यहीं-कहीं लिखा था मैने, " यदि रूठे हो तो रूठे रहो मेरी बला से, मैंने तुमसे ऐसा क्या पा लिया कि उसे सजों कर रखूं ! और मैने तुम्हे ऐसा क्या दे दिया कि उसे तुम भुला न पाओगे !! ऐसा कौन सा दर्शनशास्त्र है जो जिंदगी को जीने की कला सिखा दे, और ऐसी कौन सी जिंदगी है जो स्वयं में एक दर्शनशास्त्र ना हो", क्या इसे सच मान लिया है तुमने ? यदि नहीं तो कोई बात नहीं। लेकिन यदि हां, तो यह भी तो लिखा है न " तुम मेरे इस मन के दर्शनशास्ञ भी, और मेरे इस तन के भौतिकशास्त्र भी" , अब इसे भी तो सच मानो। देखो ! अब सब कुछ तुम पर ही छोड़ दिया है मैने। 

मैं तुम्हें सदैव लिखते रहना चाहती हूं, ताकि कल को मैं रहूं या ना रहूंतब भी मेरा प्रेम सदैव तुम्हारे लिए सर्वत्र रहे, बिखरा रहे। और उन्हे समेटते हुए शायद तुम कभी मेरे द्वारा लिखे गए कथनों से यह जान सको कि मेरा जीवन भी तुम्हारे बिना सदैव अपूर्ण ही रहा...! ये जिंदगी जो मैं जी रही हूं, अब यह एक छद्म प्रतीत होती है।  इससे बड़ा स्वीकार तथ्य मेरे लिए और क्या होगा ? तुम्ही कहो, और क्या सुनना चाहते हो ? आज मैं वह सभी कुछ लिखने और स्वीकार करने के लिए तैयार बैठी हूं, मेरे दोस्त ?

इतना भर ही तो प्रेम है मेरा... संवेदना शून्य होने के बाद भी तुम्हारे प्रेम के मोलिसूत्र में बंधा यह दिल अब अंनत शोर की आनन्दमय परकाष्ठा से भर जाता है...!

  हां मेरे दोस्त !  कुछ लोग ताउम्र नहीं बढ़ पाते आगे, वो वहीं कहीं छूट जाते हैं जहां कभी उनको छला जाता है। जहां त्याग दिया जाता है उनका प्रेम। वहीं जहां छोड़ दिया जाता है उन्हें अनंत दुखों के साथ। अपना प्रेम स्वयं में समेटे... वे स्तब्ध मौन खड़े रह जाते हैं  !!! एक यक्ष प्रश्न लिए कि आखिरकार उनका विश्वास क्यों टूटा ? उसका प्रियवर इतना निर्मोही क्यों निकला? उन्हें अपने किन गुनाहों की सजा मिली

तुम मेरे जीवन में अचानक तो आए थे ! कई कई दिनों तक मैं तुम में कोई आकर्षण नहीं बांध सकी। कोई प्रेम महसूस नहीं कर सकी और जब तक मैं तुम्हें समझ पाई, तुम्हें महसूस कर पाई तुम्हें अपना बना पाई, तुम चले गए । 

खुद के छले जाने के अपराध बोध से न तो ग्रस्त हूं, और ना ही तुम पर मुझे छल ने  का कोई आरोप ही लगा रही हूं। और लगाऊं भी तो क्यों मेरे दोस्त जबकि मैंने अपनी भावनाओं का किसी भी पल तुमसे कोई इजहार ही नहीं किया ? तो अपनी किन भावनाओं के साथ छल करने  का तुम पर आरोप लगाऊं ?

मेरे देखते ही देखते छले तो तुम गए। बिखरे तो तुम, टूटे हो कहीं तो तुम। हां मेरे दोस्त ! आज मैंने बड़ी ही सहजता के साथ स्वीकार किया !!! ऐसे ना जाने कितने लम्हे आए जब तुमने अपने हृदय में उपजे प्रेम को मुझे बताना चाहा। मेरे सामने रखना चाहा और मैं बात बदल गई। विषयवस्तु ही बदल दिया, तुम्हें गोल-गोल घुमा दिया। भीषण प्रतिरोध ना सही लेकिन सहजता के साथ तुम्हें मना तो कर ही सकती थी !!

लेकिन मैंने ऐसा कुछ भी नहीं किया ! जीवन पथ पर चलते हुए मुझे कहीं कुछ जो मिला था, उसे मैंने मूलधन के साथ अपनी खामोशियों के ब्याज जोड, तुम्हें वापस किया !!

और मेरी जीवटता तो देखो, तब भी मैं लिखती हूं कि मैं तुम्हें छ्लने के किसी भी अपराध बोध से ग्रस्त नहीं हूं !!

पल भर के लिए ही सही लेकिन मेरे हृदय में जो प्रेम तुम्हारे प्रति अंकुरित हुआ, पल्लवित हुआ, पुष्पित हुआ और उसी एक पल में वटवृक्ष की तरह मेरे संपूर्ण जीवन में छा गया और उसकी छाया से मैं इतना भयभीत हो गई कि मुझे लगा कि मेरा भविष्य कहीं अंधकार में ही न डूब जाए ? मुझे मेरे अपनों से फिर वही तिरस्कार और उपेक्षा न सहन करनी पड़े जो कभी मैंने सहन की थी

उसी एक पल में जो प्रेम तुम्हारे लिए मेरे मन में उत्पन्न हुआ उसे ही मैंने सर्वोपरि स्थान दिया। किसी भी रिश्ते से अधिक ऊंचाइयों में महसूस किया मैंने उसे। हां मेरे दोस्त ! लिखा ना कि किन्ही भी रिश्तो की ऊंचाइयों से अधिक मैंने महत्त्व दिया। हर रिश्ते में कोई ना कोई प्रतिफल की आशा होती है, चाहे वे रिश्ते माता पिता और उनके संतान के बीच ही क्यों न हों, प्रतिफल की आशा जरूर होती है। प्रत्येक रिश्ते की कोई ना कोई मर्यादा भी होती है, उस की लिमिट होती है। कहीं आत्मिक प्रेम होता है, तो कहीं शारीरिक आकर्षण होता है। तो कहीं मोह, ममता, करुणा इत्याद भाव होते हैं। लेकिन तुम्हारे लिए जो मेरे मन में प्रेम उपजा उसमें तो सभी कुछ समाहित था मेरे दोस्त।

यही ऊपर लिखा है ना कि मेरे मन के दर्शनशास्त्र भी तुम और मेरे तन के भौतिकशास्त्र भी तुम।

एक दूसरे के इष्ट होते हुए भी हम एक अलग ईश्वर की खोज करते रहे।

शायद इसीलिए कभी मेरे मन में यह बात आई थी कि मैं तुम्हें स-शरीर अंगीकार करूं। तुम से लिपट जाऊं। तुम्हें जी भर कर चूम लूं। तुम्हें जी भर कर प्यार करूं लूं !!

यह प्रेम कि वह प्रकाष्ठा है मेरे दोस्त, जहां कोटि सृष्टि, अनंत ब्रह्मांड के विस्तार एक बिंदु में समाहित होते हैं। उसी में एकाकार हो जाते हैं।

और सच लिखूं तो मुझे इस प्रेम के प्रतिफल के रूप में तुमसे कुछ भी नहीं चाहिए था। अब तुम बताओ यदि तुम भी इन अनुभूतियों से गुजरे हो, तुमने भी इस प्रकार के प्रेम को महसूस किया है, और उसके प्रतिफल के रूप में तुमने भी मुझसे इसी प्रकार के प्रेम की आशा की हो, और तुम्हारी वे आशाएं टूटी और बदले में तुम मुझे छोड़ कर चले गए, तो क्या तुम स्वार्थी नहीं कहलाए ?

मन की बातें मन में रह जाती है मेरे दोस्त। उसकी अभिव्यक्ति हम कभी उससे भी नहीं कर पाते हैं, जिसके लिए मन के सारे भाव होते हैं। जिसके लिए इस संपूर्ण सृष्टि का प्रेम होता है। जिसके लिए जीवन के सभी सत्य और रहस्य होते हैं। हम कभी उसे भी नहीं बता पाते, उसे नहीं समझा पाते। उस प्रेम को मन में धारण किए रहते हैं। सांसे लेते रहते हैं, प्रतिपल मरते रहते हैं, और दूसरे ही पल पुनः जीवित भी हो जाते हैं।

और इस तरह एक ही जीवन में ना जाने कितनी जिंदगी जीते चले जाते हैं!! अपने इस संबंध को सात जन्मों तक सीमित रखना भी मुझे स्वीकार्य नहीं है!! यह तो अनंत काल खंडों तक चलता रहेगा। मैं मरती रहूंगी, जीती रहूंगी। हां मेरे दोस्त, जब तक मैं तुम में ही समाहित ना हो जाऊं !! इसीलिए तो लिखा न, तुम मेरे प्रियवर भी, और मेरे इष्ट भी।

और सच कहूं मेरे दोस्त, अपने प्रिय और अपने इष्ट के प्रति प्रेम के इस तीव्रतम प्रवाह में मुझे किसी भी रिश्ते के प्रति बेवफा होने का कोई अपराध बोध भी नहीं है। क्योंकि मैं नहीं मानती कि मैंने कोई अपराध किया है। मैंने हर रिश्ते तो पूरी इमानदारी और वफा के साथ निभाए हैं, और आज भी निभा रही हूं। तब तुम्हारे प्रति अपने मन में, हृदय में, अंकुरित पल्लवित और पुष्पित गहनतम प्रेम के प्रति क्यों बेवफा हो जाऊं ? आज यह सब तुम से स्वीकार न करूं तो और किससे करूं ? कहो तो जरा, तुम ही तो बताओ मुझे ?

अपने अंतर्मन की तुम्हें कैद देकर मैं खुद क्यों छटपटा रही हूं ? तुमसे मिलने के लिए, तुम्हें प्राप्त करने के लिए मैं जीवन के सभी अनंत आयामों को पार करने के लिए क्यों तत्पर हूं ? कभी सवालों के घेरे में तुम्हें खड़ा करना चाहती थी, और देखो तो न जाने कितने सवालों के घेरे में आज मैं स्वत: खड़ी हूं

कभी मुझे अपने जीवन का केंद्र बिंदु मान जिस परिधि पर तुम भटकते रहे, आज उसी परिधि पर मैं क्यूं भटक रही हूं मेरे जीवन-परिधि के सभी अनंत बिंदु टूट-टूट कर एक ही बिंदु पर क्यों समाहित हो रहे हैं ? जिस केंद्र बिंदु पर तुम खड़े हो, मेरे अंतर्मन रूपी बृहद आकाश के अनंत सितारे टूट-टूट कर तुम पर ही आ कर क्यूं बिखर रहे हैं ?

     जीवन परिधि के किसी भी स्थान पर रुक मैं जब तुम्हे देखती हूं, तो तुम एक समान दूरी पर स्थिर-से क्यूं दिखाई देते हो? उसी तरह एकनिष्ठ भाव-से, उदासीन-से, जैसे कि कभी मैं तुम्हे दिखाई दिया करती थी ... क्यूं ? क्यूं ?? क्यूं  . . . ???

Shailendra S.

Satna (MP) 9109471972



अजनबी - 2

अजनबी (पार्ट 2)       पांच साल बाद मेरी सत्य से ये दूसरी मुलाकात थी। पहले भी मैंने पीहू को उसके साथ देखा था और आज भी देख रहा हूं...