Thursday, April 28, 2022

My Inception-8 (Milestone)

Written by: Shailendra S.
मेरे प्रिय दोस्तों!
  मैं शैलेंद्र एस. सप्रेम नमस्ते! जैसा कि मैंने आप लोगों को पहले भी बताया कि,
  "माइलस्टोन लिखना मेरे जीवन का सपना था, और इस सपने के साथ में जीना भी चाहता था। "

      या यूं कहूं कि इसे लिखने से पहले मैं मरना भी पसंद नहीं करता।

      हम इसी एक जीवन में कई जिंदगी जीते हैं। जिंदगी की राहों में चलते चलते कई मुकाम हासिल करते हैं, कई मंजिलें हासिल करते हैं।

      बतौर राइटर, मैं ने अपने आपको आपके सामने स्थापित नहीं करना चाहा। खासकर माइलस्टोन के लिए तो बिल्कुल नहीं। उसकी एक वजह यही रही कि मैं माइलस्टोन के लिए प्रोफेशनल राइटर नहीं बनना चाहता था।     

     लगभग 2011 से मैंने लिखना छोड़ दिया था। मैंने physics, chemistry mathematics, economics accountancy, computer science पढ़ने और पढ़ाने वाला था। और शायद इसीलिए मैं खुद को लिटरेचर के काबिल नहीं समझ पाया। बावजूद इसके कि मेरी कई कहानियां नेशनल मैगजीन और रेडियो स्टेशन में प्रकाशित एवं प्रसारित हुई थी। किंतु मैं अपने आप से संतुष्ट नहीं था।

   मेरे पास साहित्यिक शब्द नहीं थे कि मैं उनका प्रयोग करूं और अभिव्यक्ति को प्रस्तुत करने के लिए सही-सही व्याकरण और शब्दों का प्रयोग करते हुए लिखूं।   

      2011 से 2019 के बीच मैं दो बार मृत्यु से भी टकराया। मैंने मृत्यु को प्रत्यक्षत: देखा था।

       इन 8 वर्षों में मैं बेहद ही अवसाद की जिंदगी जी रहा था। मुझे सब कुछ निरर्थक लगता था। कुछ कमियां मेरी थी जिनसे मैं कभी ऊपर आने के लिए सोचता ही नहीं था।

     मैंने सबसे पहले अपने आप को स्थिर और शांत किया। मन के अवसाद को किनारे रख दिया। 

   तब मैंने दुनिया की इस व्यापकता में एक छोटे से बिंदु को देखा। एक ऐसा सितारा जो अपनी रोशनी बिखेरता आ रहा था। यह रोशनी अन्य सितारे से ली हुई नहीं थी, बल्कि उसकी खुद की थी। मुझे आभास हुआ जैसे यह रोशनी उसके अंदर से निकल रही है उस का उद्गम स्थान वह स्वयं है, लेकिन ऐसा नहीं था।

    मेरे जीवन के आसपास ही रहा, मेरी हर खुशी में वह हंसता। मेरे दुख में वह दुखी भी होता। वह मेरे साथ-साथ चलता रहा, लेकिन मैंने कभी उस पर अधिक गौर नहीं किया। जी हां, मैं बात कर रहा हूं उसी एक सितारे की, जो शायद कहीं दूर सितारों की दुनिया से आया है, और जो आगे चलकर माइलस्टोन की कहानी का आधार बना। उसका एक शानदार किरदार बना।

     जिसने बहुत ही कम उम्र में प्रेम का वह जीवन जिया, जिसे लोग जीने के लिए शायद तरसते है। मैं आपकी बात नहीं कर रहा हूं, जहां तक मैं ऐसा मानता हूं। आप कुछ और सोचने के लिए स्वतंत्र हैं।

    महज 17 अट्ठारह वर्ष की टीन एज में मेरे किरदार को एक ऐसी मोहब्बत मिली जिसे वह आज भी अपने मन में स्थापित कर जी रहा है। जबकि किसी मोड़ पर उसे यह बताया गया कि उसकी महबूबा ने जो विवाह किया था, वह एक प्रेम विवाह था।

   एक दिन महफिल के बीच जब मैने उसे उदास देखा तो मैंने उससे इसका कारण जानना चाहा। उसने मुझे कुछ लफ्ज़ों में बयां किया, " मेरे दोस्त मैंने सभी ख्वाब उसे लेकर देखें। आज जिंदगी में उन ख्वाबों को पूरा होते हुए देखता हूं, महसूस करता हूं। लेकिन मेरी जिंदगी में वह शख्स नहीं है जिसे शामिल कर सारे सपने देखे थे। "

   दुनिया की रंगीनियां है, खुशियां हैं, महफिले हैं, यहां तक कि इन सब के बीच में भी हूं, लेकिन इन सब में वह कहीं नहीं दिखती।

    इन्हीं महफिलों में, इन्हीं खुशियों में, इन्ही रंगीनियों में, मैं उसे तलाश करता हूं। तसव्वुर में बसी उसी एक सूरत को मैं देखता हूं। और सच मानो जब वह सूरत मेरी आंखों के सामने आती है न, तो मैं भरी महफिल में अपने आप को तन्हा महसूस करता हूं। 

    तब मेरे सामने यह रंगीनियां, यह महफिल, यह खुशियां कहीं नहीं होती। मेरे दोस्त ! मेरी आंखें पता नहीं क्यों भरने लगती हैं, और फिर दूसरे ही पल उसकी तस्वीर धुंधली होने लगती है। मैं फिर अपने आप को बहुत ही तन्हा महसूस करता हूं।


      उसकी बातों से तो मुझे लगा कि वह किसी दर्द को अपने दिल में छुपाए जिंदगी जी रहा है। उस दर्द तक मैं पहुंचन चाहता था। मेरे अंदर के छुपे हुआ राइटर ने एक कहानी की तलाश की। शायद मुझे मेरा किरदार मिल चुका था। 

    मैंने उसे बहुत कुरेद-कुरेद कर पूछा। कुछ असहजता के बाद उसने मुझे अपनी जो कहानी बताई तो मैं सच कहूं, मुझे उसकी यह कहानी थोड़ा सा अवास्तविक लगी, कोरी भावुकता लगी और यथार्थ की दुनिया से दूर। मैं विश्वास नहीं कर पा रहा था। लेकिन उसने मुझसे कहा यदि तुम चाहो तो इसे लिख सकते हो।

     तब मैंने उससे कहा कि यदि यह सच है कि उसने तुम्हें भुला कर प्रेम विवाह किया था तब वह तो बेवफा हुई तुम्हें भूल गई। अब तुम उसे क्यों याद करते हो ? और क्यों यह चाहते हो कि मैं तुम्हारी यह कहानी लिखूं ? 

    तब उसने कहा कि तुम लिखो या न लिखो तुम्हारी मर्जी। मैं नहीं जानता कि वह बेवफा है या नहीं। लेकिन मेरा दिल कहता है कि नहीं है। मैं तुमसे एक बात कहता हूं, तुम्हारे इस प्रश्न का जवाब अभी आज मेरे पास नहीं है, हो सकता है मुझे बाद में मिले तब मैं तुम्हें अवश्य बताऊंगा।

      लेकिन लिखते समय यह जरूर ध्यान रखना कि किसी भी स्थान पर कोई भी ऐसा शब्द मत लिखना, या कोई ऐसी अनुभूति ना लिखना जिससे यह इल्जाम लगे कि वह बेवफा है।

       तब मैंने अपनी कलम उसकी अनुभूतियों के हवाले कर दी। उसकी अनुभूतियां जो कहती गई मैं उसे लिखता गया। वास्तव में लिखने वाला वह किरदार ही है। मैंने तो उसे कागज पर उतारता रहा। जो मेरे पास शब्द थे, उन्हें ही उसकी भावनाओं के अनुरूप सजाता रहा। और इसलिए माइलस्टोन मैंने फर्स्ट पर्सन में लिखी। उस किरदार को अपने अंदर जिया। उसकी यादों को लिखते समय मैं भी कई बार रोया। उन अनभूतियों  से गुजरा तो मुझे महसूस हुआ कि मेरे इस किरदार दोस्त ने कितना बड़ा दर्द सहा है, और क्यों वह भरी महफिल में अचानक ही उदास हो जाता था।

      सच मानिए मेरे दोस्त, एक दिन जब मैं माइलस्टोन की कहानी के उस मुकाम पर पहुंचा तो मुझे महसूस हुआ कि सचमुच इस सितारे की रोशनी उसकी खुद की अपनी ना थी। उससे दूर ही सही किंतु एक ऐसा सितारा है जिसकी रोशनी से वह खुद रोशन होता रहा। लेकिन वह दूसरा सितारा किसी को दिखाई न दिया। उसे तो बस मेरा किरदार ही देख सकता था।

     अब प्रश्न यह उठता है की कहानी के इस मोड़ पर मैं यह बातें आपसे पुनः क्यों शेयर कर रहा हूं जबकि मैंने यही बातें कहानी के बीच में कुछ वीडियो क्लिप्स में पहले ही शेयर कर चुका हूं।

     तो इसका जवाब देने से पहले मैं आपको यह बता देना जरूरी समझता हूं कि उनके मिलने और बिछड़ने के बीच वास्तव में क्या घटित हुआ था। मेरे किरदार ने उसे बखूबी बयां किया है, उसे आपके सामने रखा है। लेकिन मैं यहां सामान्य शब्दों में आप से कहता हूं। यह बात आपसे शेयर करता हूं। 

    जैसा कि मेरे किरदार ने मुझसे कहा कि जब वह उस लड़की से अपने गांव में पहली बार मिला तो दो-चार दिन उसे मालूम ही नहीं पड़ा कि उसकी आईडेंटिफिकेशन क्या है, हां उसका परिचय क्या है।

    दोनों ने एक दूसरे को जब पहली बार देखा तो एक अजीब-सा खिंचाव महसूस किया। अजीब-सा आकर्षण, जिसे हम आज कह सकते हैं कि पहली निगाह का प्यार। दो-तीन दिनों में उन्होंने महसूस किया कि वे एक दूसरे को चाहने लगे हैं, प्यार करने लगे है। यह एक सामान्य सी बात थी। ऐसा अक्सर होता है। 

   उसने उसके साथ जो पहला रिश्ता बनाया वह था उसके हृदय का और उसने अपने दिल में उसे अपनी प्रेमिका अपनी महबूबा अपनी लवर आप जो भी शब्द देना चाहे, उस रूप में स्थापित किया। फिर जब दोनों ने आपस में प्यार कर लिया, एक दूसरे को चाहने लगे, बातें दोनों के घर तक जब पहुंची तो उन्हें समझाया गया कि ऐसा संभव नहीं है।

     और वजह बनाया गया है एक रिश्ते को। जी हां, मेरे किरदार से कहा गया कि क्योंकि गांव घर के रिश्ते-नातों में उसकी मां तुम्हारी बुआ है, और इस तरह से वह तुम्हारी बुआ की बेटी हुई, तुम्हारी बहन हुई, तो तुम उस से प्रेम कैसे कर सकते हो ? यह गलत है। 

    लेकिन मेरा किरदार यह कभी स्वीकार नहीं कर पाया। उसकी सिर्फ एक ही वजह थी कि जो रिश्ता हमने दिल से बना लिया, उन दो-चार दिनों में बन गया, जब एक दूसरे के मन में स्थापित हो चुके तो अब अपनी उन भावनाओं को कैसे परिवर्तित कर ले ? और फिर उसने अपनी इस बुआ को इससे पहले तो कभी देखा ही नहीं था, इस लड़की से कभी मिला ही नहीं था।

      हां, यदि वह पहले मिला होता उसे पता होता कि यह उसके बुआ की लड़की है तो शायद वह प्रेम की अनुभूति दोनों के मन में आती ही नहीं, वह जज्बात उठते ही नहीं।

     लेकिन रिश्ता दूर का था, वह गांव के रिश्ते में उसकी बुआ लगती थीं। यदि इन दूर के रिश्ते को स्वीकार किया जाए, उन्हे आधार बना दिया जाए, तो वैवाहिक संबंध संभव ही नहीं। यह मेरे किरदार का सबसे बड़ा दर्द था। एक रिश्ता जिसे ढाल बनाया गया।

      जबकि वास्तविकता तो कुछ और थी। पहली यह कि वह लड़की कुल और गोत्र में उससे ऊंची थी। और दूसरा? एक अभिमान था ? कि जिस गांव घर की लड़की हमने ली अर्थात उसकी मां, अब उसी गांव घर में अपनी लड़की को कैसे ब्याह देंगे। उनकी लड़की इसे घर परिवार में इसी समाज में दुल्हन बनकर कैसे आ सकती है, बिल्कुल नहीं आएगी। परंपरा टूटेगी, अवधारणा बदलेगी।

    और तब उस लड़की से कहा गया, उसे समझाया गया कि यदि तुमने इस रिश्तो को यहीं खत्म नहीं किया तो अंजाम बुरा होगा। मेरे किरदार को भी डायरेक्टली तो नहीं लेकिन उसके घर में संदेशा पहुंचाया गया कि समझाओ उसे।

   क्योंकि मेरे किरदार की परवरिश शहर में हुई थी। वह इन मान्यताओं को इन अवधारणाओं को नहीं समझता था। लेकिन वह लड़की समझती थी। वह समझदार थी और इसलिए जब मेरे किरदार ने उससे मोहब्बत मांगी तो उस लड़की ने उससे एकवचन भी लिया था।

    तब उस लड़की ने मेरे किरदार से 3 प्रश्न पूछे और जिन का अर्थ बखूबी यही था कि उनका शारीरिक मिलन संभव नहीं। मन से स्थापित यह रिश्ता उसके अपने लोगों को मंजूर नहीं होगा। और यह रिश्ता समाज में वैवाहिक संबंधों द्वारा स्थापित नहीं हो सकता। नहीं तो उसने मेरे किरदार से दूसरे प्रश्न के रूप में यह कभी नहीं पूछा होता कि जब मेरी शादी होगी और मैं तुम्हें बुलाऊंगी, तो क्या तुम आ सकोगे ?

    यहीं से मेरे किरदार को बखूबी अंदाजा हो जाए कि अब उनका शारीरिक मिलन नहीं हो सकता है। उसने जता दिया कि तुम किसी भूले में मत रहना मैं तुम्हें सशरीर नहीं मिल सकती। 

    इस तरह से उस लड़की ने अप्रत्यक्षतः ही सही मेरे किरदार का परित्याग किया। जिसे मेरे किरदार ने बखूबी स्वीकार किया। कोई इल्जाम नहीं लगाया उस पर। क्योंकि कहीं ना कहीं उसे मालूम था कि वह जो एक वचन लिया गया था शायद इसी दिन के लिए लिया गया था और वह अपनी दिए गए वचनों में भी बंधा था। इसलिए उसने उस लड़की से कुछ नहीं पूछा कि तुमने ऐसा क्यों किया ?

     उसकी वजह समझ कर भी उसने उससे कुछ नहीं पूछा। और मेरे किरदार की शायद सबसे बड़ी गलती यही थी। उसे पूछना चाहिए था, जी हां उसे पूछना चाहिए था। उस वक्त यह बेहद जरूरी था। लेकिन उसने कोई सवाल नहीं किया।

     मैंने अपने किरदार से पूछा कि यदि मैं तुम्हारी इस कहानी को आधार बनाता हूं, तो दोस्त ! समझने वाले तो समझ जाएंगे कि यह कहानी किसकी है। तब क्या वह बदनाम ना होगी ?

      तब उसने कहा कि तुम कोई नाम मत देना। तुम भले ही उसका नाम जानते हो लेकिन कहानी में कहीं उसका जिक्र मत करना। वैसे भी अब इतने साल बीत चुके हैं ! इन 30 सालों में किसे क्या याद होगा ? और जो समझते हैं, समझने देना।

      तब मैंने उससे कहा था कि वह तो वचनों में, वादों में, कसमो में बंध चुकी है। वह आज भी वही निभाएगी। और तुम भी तुम भी तो बंध चुके हो ?

      तब उसने मुझसे एक बात कही कि मैंने उसके बाद इस जीवन में किसी से भी  यदि कोई वादा किया है, कोई कसम ली है, तो वह मेरे हर वादों में है, मेरी हर कसमो में है। मैं उसे शामिल करके हमेशा चलता रहा हूं। मैंने कहीं भी किसी भी मोड़ पर अपने हृदय में स्थापित इस पावन प्रांजल मूर्ति को किसी से नहीं छुपाया। चाहे वह मेरी धर्मपत्नी ही क्यों ना हो। हां मैं आज भी नहीं चाहूंगा कि वह रुसवा हो। इसलिए कहता हूं कि उसके नाम का कहीं जिक्र मत करना।

     और इस तरह से उसकी अनुभूतियों को मेरी कलम ने आत्मसात किया उस किरदार को मैंने अपने अंदर जिया। जी हां मैंने अपने किरदार से कहा कि तुम अपनी यादों में जियो। पहले अपनी उस मोहब्बत को महसूस करो, उसकी जुदाई को महसूस करो और तब तुम इस शरीर के मोह से मुक्त हो सकोगे। 

    किरदार अपनी यादों को जीता रहा और मैं उस किरदार को अपने अंदर महसूस करता रहा। और यही वजह है कि माइलस्टोन के जो भी लफ्ज़ निकले हैं, मैं यह मानता हूं कि वह मेरी कलम से ईश्वर ने खुद लिखे हैं। एक सच्ची मोहब्बत ने लिखवाए हैं।

     जब माइलस्टोन को एक मुकाम पर मैंने रोक दिया और किरदार से कहा कि मुझे नहीं लगता की यह कहानी वास्तविक है। मुझे क्या कोई भी पढ़ेगा तो उसे भी नहीं लगेगा।

    तुम भी काल्पनिक ही लगोगे। और ठीक है, मान लिया कि तुमने ऐसी मोहब्बत की लेकिन हो सकता है उसने ना की हो ? उसने बस तुम्हारे साथ टाइम पास किया हो। जब तक मैं उससे नहीं मिल लेता, उसके अंदर वही जज्बात नहीं देख लेता जो तुम्हारे अंदर मुझे दिखे तो मैं इस अवास्तविक सी कहानी को दुनिया के सामने लेकर नहीं लाऊंगा। जब मैं खुद ही विश्वास नहीं कर पा रहा हूं तो लोग क्या करेंगे ? एक काल्पनिक कहानी के तुम एक काल्पनिक किरदार लगोगे।

     सवाल मुझसे होंगे, मुझसे पूछे जाएंगे। ठीक है, तुम्हारी भावनाओं में वह शक्ति थी कि सुंदर शब्द लिखे मैंने। लेकिन फिर उनका कोई मोल नहीं रह जाएगा। तब मेरे उस किरदार ने कहा कि ठीक है मैं तुम्हें अपनी मोहब्बत से मिला दूंगा।

    और इस तरह से उसने 30 साल बाद अपनी उस मोहब्बत को खोज निकाला। हां खोजना ही तो कहेंगे इसे। इससे पहले उसने कभी भी उसकी कोई सुध नहीं ली थी और वह जब उस पते पर मुझे लेकर पहुंचा तो मैंने देखा, महसूस किया कि मेरे किरदार ने जिस तरह उसे अपने मन में स्थापित करके जीवन जिया है उस तरह उसकी महबूबा ने भी उसकी मासूम सी सूरत लिए अपनी जिंदगी जी रही है।

     और उसे इस बात का कहीं ना कहीं बेहद दुख है कि उसने मेरे किरदार को किसी मोड़ पर एहसास कराया था कि हमारा मिलन नहीं हो सकता। वह रोता हुआ चला आया, वह पुकारती रही, लेकिन मेरा किरदार पलट कर नहीं देखा।

     दर्द दोनों को था। एक को इस बात का दर्द था कि उसने दर्द दिया और एक को इस बात का दर्द था कि इस तरह से वह मुझे दर्द देकर जो आहत हुई है जो उसने दुख उठाए हैं, शायद वह उसी कारण से उसकी जिंदगी में आए हों।

    मैंने तो दिल से चाहा था कि मेरा किरदार अपनी महबूबा के पास रुके, उससे बातें करें। लेकिन मेरे किरदार ने साफ मना कर दिया। उसने मुझसे कहा कि आज मैं उसके किसी कसम मैं नहीं हूं, किसी वादे में नहीं हूं, किन्ही रस्मों में नहीं हूं। 

    यह हृदय में स्थापित रिश्तों को इस समाज, अपने ही लोगों से छुपाती फिरेगी। और यदि वह सबके सामने लाती है, तो जहा उसके अपने लोग हैं, उनका ह्रदय टूटेगा। उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचेगी। वह सच कह नहीं पाएगी और मेरा किरदार झूठ सहन नहीं कर पाएगा।

    इसलिए उसने कहा कि मेरे राइटर मुझे तुम्हारे साथ ही चलना है। अब, अब तुम लिख सकते हो तो लिख दो, मुझे कोई एतराज नहीं कि यह कहानी अवास्तविक है। इसके किरदार अवास्तविक हैं। स्थान, घटनाएं यह अवास्तविक है। अब इसे मेरी तरफ से अलविदा कह दो, दूसरी बार।

    जी हां माइलस्टोन का यह दूसरा भाग है, अलविदा। अब मुझे अपने किरदार को फिर अपने अंदर जीना पड़ेगा वह फिलिंग्स लाने के लिए वह शब्द पाने के लिए मुझे खुद ही एक कैरेक्टर बनना होगा। 

    उसे रिसेंटली अलविदा कहने के लिए मुझे शब्द खोजने होंगे, और इसलिए मैं अपने ब्लॉग में, माय इनसेप्शन टाइटल में, जहां पर या तो मैं अपने थॉट्स रखता हूं या फिर जहां पर कुछ वास्तविक घटनाएं हैं, इस बात को वहीं लिख रहा हूं।

      ताकि आप लोग यह समझ ले की माइलस्टोन का जो दूसरा पार्ट है अलविदा, वह क्यों लिखा गया उसे लिखने की जरूरत क्यों महसूस की गई।
तो फिर लीजिए एक बार पुनः मैं अपनी कलम को मैं अपने किरदार की अनुभूतियों के हवाले करता हूं।

Thanks
Shailendra S.

Thursday, April 14, 2022

🌷माइलस्टोन🌷 ( कविताएं )💖

मैं चलती राहों का लेखक।
जिंदगी के इस सफर में ये मेरे हमदम ! मेरे दोस्त !! जो मिलो तुम किसी मोड़ पर तो हम बयां करें तुम्हें अपना हाल-ए-दिल।  कैसे जिए हम तुम्हारे बिना।
(0)
चिर वियोगिनी प्रीत तुम्हारी,
प्रेम योगेश्वर क्षणभंगुर काया,
कल्प वृक्ष, चिर शांत हृदय,
स्थिर मन की विस्तृत छाया।
अस्तांचल में अस्त सूर्य से,
ले रश्मि किरण बन मृदुल चांदनी,
निशा पथिक सुने अंबर में,
विचलित अब कुछ शरमाया।
तुम अलसाई जब प्रिय बाहों में, 
डूब नेत्र-नीर मैं अकुलाया।
प्रिय बाहों में अब छोड़ तुम्हें, 
विधु संग आगे बढ़ जाता हूं।
हां , मैं चलती राहों का लेखक,
माइलस्टोन पर लिखता हूं।
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷

मिले तुम्हे मुक्कमल जहां, मेरे बगैर भी।
मिले तुम्हे मुक्कमल खुशी, मेरे बगैर भी।
  कभी तुम मुझे खोजना,
  अपनी मुकद्दस दुआओं में,
  तो कभी मैं खोजता फिरुगा,
  तुम्हें यूं ही चलते-चलते,
  इन्ही  वीरां रास्तों में।
 
कभी जज़्ब होंगे जो आंसू,
तुम्हारी निगाहों में,
तब रोएगा यह आसमा भी,
बन सावन की घटाओं में। 
   जब कभी उठेगी कोई बेचैनी,
   तुम्हारे दिल के किसी कोने में।
   जब खुलेगी कोई,
   बंद तिजोरी यादों की।
  जब कभी बहेगी कोई पुरवाई,
  फिर बिना किसी मौसम के।
  जब कोई सिहरन सी उठेगी,
  तुम्हारे बदन में।
  हां तब तुम समझना,
  मैं तुम्हारे दामन को छूकर,
  बस गुजर गया।
 
जब तुम्हें शिकायत होगी
इस जमाने से,
जब कभी रुसवा होंगे
तुम्हारे जज्बात भरी महफ़िल में।
जब तुम्हारे कदम रुक जाए
चलते-चलते कुछ डगमगाए से।
हां तब तुम समझना,
मैं तुम्हारा दामन पकड़ कर वहीं खड़ा हूं ...




जिंदगी के इस सफर में ये मेरे हमदम ! मेरे दोस्त !! जो मिलो तुम किसी मोड़ पर तो हम बयां करें तुम्हें अपना हाल-ए-दिल।  कैसे जिए हम तुम्हारे बिना ....

मेरी मुकद्दस राहों के हमसफ़र तुम, 
हमारा यही अंदाज-ए-बयां सही। 
वक्त मिलता नहीं वक्त से मुझे, 
बेवक्त होकर वक्त के निशान खोजते हैं। 
तुम्हारी गुजरी यादों में, 
अंदाज-ए-ख्याल ढूंढते हैं ।

मेरी गिरेबा पकड़ने वाले ये शख्स बता !
क्या तूने कभी किसी से, मोहब्बत न की ?

    अपने दिल पर हाथ रख, 
    कह दे जरा तू मुझसे, 
    ये मेरे हमदम ! मेरे दोस्त !!
    तो मैं यकीं कर लूं शायद , 
    पर जरा संभल के ! 
    उसी पल कहीं तेरा दिल 💓,
    धड़कने से इंकार न कर दे।

साहिलों पर आकर मौजे,
किसे चूमती है? 
दरिया कोई खुद-ब-खुद, 
अपनी प्यास, क्यूं बुझाता नहीं ? 

  ये जो प्यासे हैं दरिया, 
  ये जो प्यासी है मौजे, 
  ये जो प्यासे हैं लब,
  किसके लिए ? 
  आंगे बढ़ कोई समुंदर क्यूं,
  इनकी प्यास बुझाता नहीं ?

 गर निकलता अपनी मंजिल की तलाश में,
 तो अपनी दास्तां वही लिखता मेरे दोस्त ।
 पर यह तो है तुम्हारी यादों का कारवां। 

 मिलते हैं मील के पत्थर। 
 उन्हीं पत्थरों पर,
 दो दिलों के निशां छोड़ता हूं। 

   जो कभी तुम गुजरो  किसी मंजिल की तलाश में, 
    हां तब तुम्हें ये निशां मेरी याद दिलाएंगे। 
     हमारी वफा, हमारी बेवफाई की, 
     दास्तां तुमको सुनाएंगे। 

रहेंगे जब तक ये मोहब्बत के रास्ते, 
चलते रहेंगे राही, गुजरते रहेंगे मुसाफिर। 
अपने सीने पर लिए निशां, 
मील के पत्थर तब भी यही रहेंगे।

काश ! इस रूह को तस्कीन, 
सफक का लिबास और मुकद्दस लबों को,
शब-ए-इंतजार मिला होता। 
काश !!

(हमारी प्रीत के लिए, ये मेरे दिलबर)
स्वच्छंद मधुर तुम्हारी ह्रदय वेदना, 
सदैव शीतल सर्वथा ध्यान वंचिता।
निर्झर बहती विकल रागिनी, 
मौन साध मन की अनुरागी पीड़ा।
शांत प्रलय, सृष्टि में अब शेष प्रेम, 
जैसे उमड़ा मन में चिर स्थिर यौवन।
अनभिज्ञ नहीं तुम, रख निज नयन दृष्टि,
करती हो आलोकित पथ सर्वथा।
सघन रात्रि तम, किंतु भयभीत नहीं मैं।
आलोकित जीवन के इस पथ पर,
उन्मुक्त, निडर भाव से फिरता हूं।
हांं, मैं चलती राहों का लेखक,
माइलस्टोन पर लिखता हूं। 

जो काजल बह आया अखिओं से,
कोई भग्न हृदय या स्वप्न उदास।
दिनकर भी उलझा है विधु से,
ले अलको में नवीन सुप्रभात ।
सृष्टि नियम बंधे हैं शायद तुमसे,
जो जगी हो, अबतक प्रिय के साथ।
या फिर जागे बीते स्वप्न हृदय के,
ले पूरा होने का सकल्प तुम्हारे साथ।
मिलते हैं दिन दिनकर से, निशा चंद्र से,
प्रतिपल होती तुम मेरे पास।
रिश्तों में उलझी इस करुण कहानी को,
अब मैं अपनी कविता में सुलझाता हूं।
हां , मैं चलती राहों का लेखक,
माइलस्टोन पर लिखता हूं ।

यादों में है, हां सावन का वह पहला दिन,
जब बादल जी भर दिनभर बरसे थे।
मेघों की पुलकित गर्जन ने जब,
एक उत्सव का एहसास कराये थे।
भीगी - भीगी बरसातों में हमने जब,
बाहों के हार एक दूजे को पहनाए थे।
आलिंगन,मौन स्वीकृत का वो एक पल,
जलते होठों ने भी जब प्यास बुझाए थे।
दो प्रेमी,दो पागल पूरी कर सगाई की रस्में,
जब खुले आकाश के मंडप में आए थे।
आंगन की देहरी में सट कर बैठे हम,
बहती हवाओं ने विवाह मंत्र सुनाएं थे।
मेघ आक्षादित अंबर का वह मंडप,
तड़ित भी अग्नि कुंड से जलते थे।
तब कहीं दूर वन अभ्यारण में,
बाराती बन मयूर नाचे थे।
दोनों की अंजुली में गिरती धारा,
छत ने भाई के किरदार निभाए थे।
आंगन परात में डूबे हम दोनों के पग,
बूंदों की टप-टप ने जब पाव पखारे थे।
हर्षित नयन आखों से टपके मोती ने,
हस कर जो तुम्हारी मांग सजाए थे।
सृष्टि के हर एक कण बने गवाह हमारे,
एक दूजे को, मन ही मन अपनाए थे।
आ जाते हैं अब भी सावन के वे मौसम,
एकाकी जब-जब उस देहरी आ बैठा हूं।
अपनी शादी की हां, वो एक-एक रस्में,
संतृप्त हृदय हर सावन में दोहराता हूं।

(01)
जब गलियों में बिखरे मोती, 
लिटरेचर क्यों बर्बाद करें,
दौर-ए-जमाना मुफलिस का, 
चलो समेटे उनको ही, 
अपना संसार आबाद करे,
गुजरा हूं इन राहों से मैं, 
अपनी पहचान बनाता हूं,
हां, मैं चलती राहों का लेखक,
माइलस्टोन पर लिखता हूं।

(02)
नहीं हाथ में कलम सुनहरी,
ना चांदी-सा चमचम पेपर,
ना ही साथ में महबूबा प्यारी, 
हाथों में है एक छोटा पत्थर,
कुरेच-कुरेच कर लिखता हूं। 
हां, मैं चलती राहों का लेखक,
माइलस्टोन पर लिखता हूं।

(03)
ना ही स्वप्न की चमक लिए मैं, 
ना ही स्वप्निल सी उनिंदी आंखे, 
ना ही गर्जन की धमक लिए मैं, 
शांत सरोवर सी मेरी बाहें,
प्रेम-पत्र को फाड़ चुका मैं, 
निश्चल हृदय तुम्हें बुलाता हूं।
हां, मैं चलती राहों का लेखक,
माइलस्टोन पर लिखता हूं।

(04)
कठोर धरातल का भोगी मैं, 
खादी के बिस्तर त्याग चुका,
किसका लालच दोगे तुम, 
कागज के इस टुकड़े पर,
मैं खुद की तस्वीर बनाता हूं।

(05)
धधकती ज्वाला का पथ यह, 
बिन फायरप्रूफ में चलता हूं ,
नहीं चंद्र खिलौना है यह, 
अब यही बात बतलाता हूं।
शीतल धवल चांदनी-सी ये रातें, 
क्या यह आस दिलाता हूं ? 
हां, मैं चलती राहों का लेखक, 
माइलस्टोन पर लिखता हूं।

(06)
दे दिलासा मजबूरी का, 
खुद अपने दिल को समझाता हूं।
मोह प्रीत के सारे बंधन,
अब तुम पर ही अजमाता हूं।
रो सको तो जी भर रोना, 
मैं न कोई रोक लगाता हूं।
पी सको तो छक कर पीना, 
इस जीवन के, अश्रु बिंदु मैं लाया हूं।
देवों सी किस्मत जो पाई थी तुमसे,
अब संकुचित हृदय तुम्हें लौटाता हूं।

(6)
छोड़ गुलिस्ता मैं बढ़ आया,
राहों के पत्थर अब चुनता हूं। 
भोर की अजान नहीं मैं, 
संध्या के गीतों में ढलता हूं। 
सूनी गलियों में स्तब्ध नहीं मैं,
विरह गीत अब लिखता हूं। 
सूनी बाहें हैं अब भी मेरी,
भीत हृदय तुम्हें बुलाता हूं।

(07)
त्याग मिलन की अभिलाषा को, 
विरह वेदना में अब जलता हूं। 
अधर-अमृत को त्याग तुम्हारे,
विषपान अब करता हूं।
जिन राहों में था साथ तुम्हारा, 
उन राहों में मैं भी तो भटका हूं।
भटकन को अब छोड़ तुम्हारी, 
खुद को नई दिशा दिखलाता हूं।

हां मेरे दोस्त, 
लो फिर तुम्हे अलविदा  मैं कहता हूं।

      जिंदगी के बेहतरीन और खुशनुमा पलों को जीते हुए हम, उन राहों से बस यूं ही अचानक जुदा न होते। काश ! उनकी टीस और कसक हमें ताउम्र न सताती, काश !!
     बेवजह कोई रोता नहीं किसी के लिए,
     यादों के कारवां दिलों में,
     जब तूफान बन कर चलते हैं।
     बेवजह फीकी सी मुस्कान लबों पर,
     लाता नहीं कोई, किसी के लिए।।

मुकम्मल होती जिंदगी तो,
  मुकम्मल होती प्यार की यह दास्तां।
मुकम्मल होती वजह तो, 
  मुकम्मल होती हमारी राहें जुदा। 

किंतु ऐसा हो न सका, 
ये मेरे हमदम ! ये मेरे दोस्त।

है अधूरी-सी जिंदगी, 
अधूरी दिल की दास्तां।
गुजरते हैं इस दिल से, 
बस यादों के कारवां।।

(08)
ये बेचैन उदासी की रातें तेरी, 
मैं भी तो इन रातों का जागा हूं। 
ख्वाबों कि स्वप्निल दुनिया में तेरी, 
मैं भी तो इन बाहों में सोया हूं। 
अनजान नहीं था आहों से तेरी, 
तुझसे लिपटकर मैं भी तो रोया हूं।
खुद्दार अमानत थी तू उसकी, 
बेवजह बेवफा नहीं कहलाया हूं। 
प्रेम अगन की लौ में जलकर, 
अब कुंदन बन मैं चमका हूं।

(09)
दुनिया का दस्तूर यही, 
अब हर दिल सौदाई है।
शिखर बिंदु पर आकर भी, 
फिर आंखें क्यों नम हो आई हैं।
नजरों से ओझल प्रीत तुम्हारी, 
अब मेरे मन की सच्चाई है।
वक्त बेवक्त कर याद तुम्हें, 
मशहूर महफिलों में करता हूं। 
मेरे हर गीतों में जिक्र तुम्हारा,
अब यही बात बतलाता हूं।

(10)
मन से उठती हूंक हृदय की, 
सरल भाव तुम तक पहुंचाता हूं।
प्रबल प्रवाहित धारा में निकल दूर, 
फिर तुम तक ही आ जाता हूं । 
छोड़ जमाने की रंजिश को,
स्नेह-प्रीत की कविता गाता हूं।
भीगे नयनों की अमृतवाणी से, 
अपनी दूरी दुनिया को समझाता हूं।

(11)
राधा-सी प्रीत तुम्हारी, 
मैं भी तो मोहन सा तरसा हूं।
कदंब डाल के झूलों में, 
मैं भी तेरे साथ का झूला हूं।
तुम हो मेरी प्रीत तपस्विनी, 
मैं भी तो देवों सी किस्मत लाया हूं।
गंगा-यमुना की रीत छोड़ अब, 
सरस्वती संग आगे बढ़ आया हूं।
पुनर्जन्म की आस नहीं, 
अब इसी जन्म को जीता हूं। 

(12)
पूजा की यह थाल तुम्हारी,
दीपक की लौ सा मैं जलता हूं। 
प्रतीक प्रेम के फूल तुम्हारे, 
अब सुहाग सेज पर रखता हूं। 
लो शरमा लो जी भर के तुम, 
पलके बन मैं अब झुकता हूं। 
गालों की लाली समेट लो तुम, 
मेहंदी बन इन हाथों में रचता हूं। 
निज एकांत का हक लो मुझसे, 
लो मैं अपनी राहों में चलता हूं।
इस जीवन के अंदाज यही, 
लो भेट तुम्हें मैं करता हूं।
हां, अब तुम्हें अलविदा मैं कहता हूं।

(13)
खामोश मोहब्बत तकदीर तुम्हारी, 
बीती बातों में मैं भी तो जीता हूं। 
ले हृदय में पवन प्रीत तुम्हारी, 
अब सरे राह मैं फिरता हूं।
आ जाती हो जब अंखियों में तुम, 
मैं अश्कों की दीवार बनाता हूं।
मायूसी बन जब छा जाती चेहरे में,
अगले ही पल हंसने लग जाता हूं।
मैं चलती राहों का लेखक, 
माइलस्टोन पर लिखता हूं।

(14)
विरह रागिनी अब किसको दूं,
तुम तो हो मेरे मीत प्रणय के। 
काया की माया में सब बिखरे, 
जो फूल चुने थे तुमने मेरे मन के। 
जो छू ले गए अनुरागी आंचल को,
वे तो थे तार हृदय मेरी वीणा के। 
प्रथम बिंदु नव किसलय यौवन के।
झंकृत मन उल्लासित इस जीवन के।
विहाग राग की रागनी, 
अब इस जीवन में दोहराता हूं।
हां मैं चलती राहों का लेखक,
माइलस्टोन पर लिखता हूं।

(15)
मेरे नयनों के अभिराम रहे तुम, 
अब मेरे गीतों की सजल कहानी।
पाप-पुण्य की आहुति बेदी में,
तुम अध-जलती हवन निशानी। 
बेरंग रंग का वैराग्य नहीं मैं, 
मैं तेरे चेहरे का ही पीलापन हूं। 
पाप-पुण्य हो तुम्हें मुबारक,
अब सरल त्याग मैं करता हूं।

(16)
दे दिलासा मजबूरी का खुद को, 
खुद अपने दिल को समझता हूं।
मोह प्रीत के सारे बंधन, 
अब तुम पर ही आजमाता हूं। 
रो सको तो जी भर रोना, 
मैं न कोई रोक लगाता हूं।
पी सको तो छक कर पीना, 
इस जीवन के अश्रु बिंदु मैं लाया हूं।
देवों की किस्मत तुमसे जो पाई थी, 
अब संकुचित हृदय तुम्हें लौटाता हूं।

(17)
नादान मोहब्बत क्या जाने, 
रो कर हंसना क्या होता है। 
नादान मोहब्बत क्या जाने, 
हंसकर फिर रोना क्या होता है। 
नादान मोहब्बत क्या जाने, 
उस पर मर जाना क्या होता है। 
नादान मोहब्बत क्या जाने, 
हद से गुजर जाना क्या होता है। 
अब तोड़ हदों को सारी मैं, 
तेरी जद में, अपनी हद बनाता हूं।।

(18)
हां ऐसा है अपना यह प्रेम निकेत, 
नत हो अंबर मिलता धरा अशेष। 
काल कलांवित स्थिर ज्वाला, 
करती स्पंदित उर सदा अनिमेष। 
जब टकराती बन मृदुल चांदनी तुम, 
रह जाता मैं बन छाया अवशेष। 
स्वयं की छाया बन मैं तुमको, 
स्वयं में ही खोजा करता हूं।

(19)
तुमसे मिलकर चाहा है तुमको, 
थक शून्य पथ पर चलते-चलते। 
खुद को खो कर पाया है तुमको, 
पुलकित जीवनरस भरते-भरते। 
चिर शांत अवचेतन मन में, 
तुम सजीव हृदय वाटिका सी। 
पल्लवित हृदय वाटिका के पुष्पों को, 
अब मैं तुम को ही अर्पण करता हूं।।

(20)
महफिल मैं कैसे लिख दूं, 
तुमसे कुछ ना कह पाऊंगा। 
चलती राहों में मिल मुझसे, 
अपनी चाहत की कलम साध, 
तेरे दिल के कोरे कागज में,
स्नेह प्रीत की कविता लिखता हूं। 

(21)
स्वप्न सुंदरी बन क्यों, 
अब छलती है यह माया। 
जैसे प्रेम, प्रेम न हो, 
हो जैसे चंदा की छाया। 
पाकर अतुलित जीवन निधि,
आह! फिर मैंने तुमको क्यों खोया। 
शांत स्निग्ध ज्योत्सना बन बैठे तुम, 
जलती नहीं हृदय में अब कोई ज्वाला।
होठों में फीकी मुस्कान लिए मैं, 
सजल नयन तुमको ही खोजा करता हूं।
हां, मैं चलती राहों का लेखक, 
माइलस्टोन पर लिखता हूं।

यादें

(22)
मेरे गीतों की लहरों में जब, 
पावन गंगा सी तुम रहती हो।
सुर-ताल की पुरवाई में, 
फुरुर-फुरुर सी उड़ती हो। 
देख जमाना भी विस्मित होता, 
जब तुम मेरे संग-संग चलती हो।
यादों के झिलमिल आंगन में, 
जब एक प्रेम कहानी तुम कहती हो।
कहते-कहते तुम थक सी जाती हो, 
सुनते-सुनते मैं रुक-सा जाता हूं।
हां, मैं चलती राहों का लेखक, 
माइलस्टोन पर लिखता हूं।

(23)
हो मजबूर दिलों की चाहत से, 
जब तुम मेरे संग बढ़ आए थे। 
मांग दुआओं में मुझको, 
मेरे मन को भी तो भाए थे। 
मेरी ऐसी तकदीर कहां थी, 
जो तकदीर खींच तुम लाए थे।
जो भूले से थे हम दोनों,
अब उसी तकदीर पे हंसता हूं।

(24)
मिलकर तुमसे जब मैंने, 
खुद अपनी दुनिया पाई थी। 
खड़ी दुपहरी में भी साथ तुम्हारे, 
शीतल पवन पुरवाई थी। 
मदहोशी का वह आलम ना था, 
हृदय प्रीत ने ली अंगड़ाई थी। 
मन पुलकित हृदय स्पंदित, 
क्षण भर को जब नजरे टकराई थी। 
मन से उठती इस पुरवाई को, 
अब खींच हृदय सांसो में जीता हूं।

(25)
मन में जब स्मृति आ जाती थी, 
देखा तुम्हें मौन क्यों हो जाती थी।
तुम जागृत मन की स्वप्निल अभिलाषा,
खुद-ब-खुद सामने जो आ जाती थी।
मनमीत मेरे, मनप्रीत मेरे तुम, 
अंखियों ही अंखियों में कह जाती थी।
मिलकर तुमसे कुछ ना कह पाता था 
सब देख तुम्हें मौन क्यों हो जाती थी।
मिलकर तुमसे कुछ ना कह पाता था, 
हर बार तुम ऐसे ही तो मिल जाती थी।
अनकही सी उन बातों को मैं, 
अब अपने गीतों में शामिल करता हूं।

(26)
प्रीत निगाहों से जब देखा तुमने, 
मैं भी तो कुछ शरमाया था।
जिद कर जब बैठी नजदीक मेरे, 
तब मैं भी तो कुछ घबराया था। 
बीती-रीति दुनिया की रस्मों को, 
जब दोनों ने जी भर कोसा था। 
बेचैन मोहब्बत की उम्र रस्मों को, 
मैं अपने गीतों में अब कहता हूं।
सारे बंधन तोड़ चुका अब, 
आजाद परिंदे सा उड़ता हूं।

(27)
हां कुछ ऐसी थी प्रीति हमारी, 
जिस पर सारी दुनिया मरती थी। 
कुछ आसान नहीं था तब भी, 
जब तुम मुझसे रूठा करती थी। 
दे कसमें अपनी, ले वादे मुझसे, 
तुम वापस घर जाया करती थी।
झूठी होती थी वे सारी कसमें, 
जब तुम फिर वापस आ जाया करती थी।
झूठी कसम को, अपने झूठे वादों को,
अब मैं अपने गीतों में शामिल करता हूं।
हां मैं चलती राहों का लेखक, 
माइलस्टोन पर लिखता हूं।

(28)
मिलकर जब हम दोनों को, 
एक राह तो चलना था।
निजता के इस सुने पल को, 
प्रेम हृदय संबंधों से भरना था। 
भूल जमाने की बातों को, 
एक दूजे में ही जीना था। 
तब ना होती कोई बंदिश, 
हमको हर बंधन में बंध जाना था। 
सारे बंधन तोड़ हृदय के, 
अब तुम्हें मुफ्त में करता हूं।

(29)
पाकर इस जीवन की दौलत, 
जब दोनों में मिलकर खोई थी। 
प्रणय आस लिखने को तब, 
मैंने यह कलम उठाई थी। 
मजबूत इरादों को देख मेरे, 
जब तुम थोड़ा सा मुस्काई थी।
देख जमाना हम दोनों को, 
डर महफिल नई सजाई थी। 
जो ख्वाब हुई दिल की महफिल, 
अब उसकी धूल उड़ाता हूं।

(30)
मंगल गीतों के बीच तुम्हें जब, 
खुद को आंसू पीते देखा था  
बेजान समुंदर की लहरों में, 
तूफानों को उठते देखा था। 
मौन कौतूहल का प्रश्न लिए जब, 
सखियों ने हम दोनों को , 
एक नजर से देखा था। 
शशि मुख्य में चमकी आभा को, 
उस पर मैंने भी तो देखा था। 
वचनों के सातों फेरों में जब, 
तुमने खुद को खोया था। 
तब उन कसमों को मैंने भी, 
मन ही मन में दोहराया था। 
उन कसमों को, उन वादों को,
अब मैं अपने गीतों में दोहराता हूं। 

(31)
आसान नहीं था ये सब होगा, 
किंतु नियति भाग्य यह होना था।
दे दिलासा इस कोमल मन को,
मर्यादाओं पर मिट जाना था।
मेरे जीवन की चंद्र ज्योति को,
कृष्ण पाख में छुप जाना था।
पूरी कर दुनिया की रस्में, 
अब तुमको भी तो जाना था। 
ओस कण में है आंसू के मोती,
यह तुमने ने भी तो देखा था।
बनकर सूर्य भाग्य नक्षत्र का,
एक एक आंसू मैं अब पीता हूं।

(32)
आबाद महफिलों में छोड़ तुम्हें, 
जब मैं आगे बढ़ आया था।
कर अनसुनी पुकार तुम्हारी, 
तब खुद मैं भी तो रोया था। 
प्रेम पथिक का दोषी बन,
अब तुम्हें अलविदा मैं कहता हूं।

संभावनाएं

(33)
अडिग प्रेम की कल्प शिला तुम, 
मैं अकिंचन विचलित धारा। 
चंद्र की मृदुल चांदनी तुम, 
मैं नभ का टिम-टिम तारा। 
तुम उर की महकी उपवन, 
मैं उसका बस एक भंवरा। 
तब भी कहती हो तुम, हो तुम मुझमें, 
जबकि मैं तुम में ही तो घूमा करता हूं।।

(34)
शशि रस हो तुम इस जीवन की, 
देवालय की पावन प्रांजली मूरत-सी।
उपल हृदय कैसे बन सकती तुम, 
नित्य यामिनी की तुम मेरी सहचर।
सुकुमार हृदय कल्पना से उपजी तुम, 
उर प्रांगण में करती अविचल विचरण।
अनल पुलीन नयन जल सूखती तुम, 
विभु कुटीर अनल ईंधन मैं जलता हूं।।

(35)
मेरी नादां बचकानी हरकत पर, 
जब खुद तुम आहत होती थी। 
चुनरी से ढक सर अपना तब, 
ईश्वर से क्षमा याचना जो करती थी। 
नयन मूंद, भूल सब एक पल को, 
ना जाने उससे क्या-क्या बातें करती थी।
कही अनकही उन बातों को अब मैं,
अपनी कविता से सजदे करता हूं।

(36)
निपुणता से जीते इस जीवन में, 
नादानी के उन एक-एक लम्हों को, 
तुम अपने जीवन में तरसी होगी। 
यादों के झिलमिल आंगन में, 
रख सर तुलसी के उस पौधे को, 
क्या फिर तुम सजदा करती होगी? 
तुम्हारी इस नादां हरकत को, 
अब मैं अपनी यादों में जीता हूं।।

(37)
चंदा का नभ में चलते रहना, 
शांत हवाओं का रुक-रुक बहना।
शोख शरारत कि वे बातें, 
नील गगन के उजले तारे, 
ये सब थे मीत हमारे। 
अर्ध रात्रि तक इन खेलों का, 
बस यूं ही चलते रह जाना। 

और अब ? ... आज ?

उन बीती रातों के तुम सपने प्यारे, 
अब इस जीवन के स्याह अधियारे। 
अश्रु बिंदु से रुके जलद का, 
फिर अंबर पर आ छा जाना। 
तारों का वह उजला पन, 
चंदा की वह शोख शरारत, 
सबका एक पल में ही मिट जाना। 
बनने मिटने की अमिट कहानी, 
अब मैं अपने कविता में कहता हूं।

(38)
जीवन पथ पर चलते चलते, 
जब तुम थक-सी जाती होगी। 
अपनों की ही कुछ बातें जब, 
तुमको चुभ-सी जाती होंगी। 
कर बीती बातों को याद तुम, 
मुझसे ही तो बातें करती होगी। 
नयन मूंद कांधे पर रख सर, 
मेरे संग-संग तुम भी तो रोती होगी। 
आंसू की इस प्रखर वेदना को,
मैं अपने गीतों की गागर में भरता हूं।

(39)
दुनिया के प्रचलित पैमानों पर, 
जब उसने तुमको तौला होगा। 
हां तब तक थी तुम वर्जिन, 
उसने भी यह जाना होगा। 
प्रथम आलिंगन के एहसासों को, 
भीगे-भीगे होठों के पहले-पहले चुंबन को,
किसने किस पैमाने से जाना होगा ?
दिल के शबनमी शर्मीले जज्बातों को, 
मैं अपनी कविता में तौला करता हूं।।

(40)
प्रथम रश्मि का फुलवारी में, 
अब भी पहरा तो होता होगा। 
धूप सुनहरी पड़ इन गालों पर, 
उनका रिफ्लेक्शन तो होता होगा। 
चांद उतर सितारों की दुनिया से, 
अब भी तो छत पर आता होगा। 
कैसे भूलोगी तुम वह गुजरे दिन,
जलती दुपहरी में भी जब, 
मैं तुमको खोजा करता था।
तपते मैदानों से उठ बवंडर, 
जा नदियों में पानी पीता था। 
भीगी-भीगी बरसातों में जब 
मैंने हौले से तुमको चूमा था। 
लजराती सकुचाती-सी तुमने भी, 
धीरे से अपने होठों को पोछा था। 
दिल से उठती प्यास लबों की, 
अपने गीतों से सींचा करता हूं। 

(41)
दिनभर जलता सूरज अब भी, 
पश्चिम में धीरे-धीरे ढलता होगा।
आजाद परिंदों के झंडों का, 
वापस घर को जाना तो होता होगा। 
अरुण लालिमा ले इन गालों से,
शामें कुछ ऐसे ही तो ढलती होंगी।
पर अदम्य प्यास भर आंखों में अब, 
तुम किसका रास्ता देखा करती होगी।
चातक-सी अंखियों में प्यास लिए मैं, 
अब स्वाति नक्षत्र को खोजा करता हूं।
हां, मैं चलती राहों का लेखक, 
माइलस्टोन पर लिखता हूं।

(42)
उठती देख घटाओं को जब, 
ये मन मयूर नाचा होगा। 
गहरी काली अंखियों में तब, 
सावन भी घिर आता होगा। 
जड़ों में कंपित शरीर तुम्हारा, 
जब कामाग्नि में जलता होगा। 
नर्म मुलायम बिस्तर में भी,
हृदय संताप तो सहता होगा। 
सुदूर गांव की अमराई में, 
जब प्यारी कोयल जागी होगी। 
कोयल की हर कूक हृदय में,
हृदय हूक बन चुभती होगी। 
जब विरह अग्नि में तुम जलती होगी, 
शीतल पुरवाई तब भी तो चलती होगी। 
हो कर भी ना होगी तुम उसकी, 
हर मौसम, मैं साथ लिए जो फिरता हूं।

(43)
तुमको भी अखरा होगा, 
इस जीवन का यह सूनापन। 
जिन कोनों से छुपकर तुमने, 
चुपके-चुपके मुझको देखा होगा। 
जानी पहचानी आहट के, 
बंद तिजोरी का वह खालीपन, 
अनजानी-सी आहट पाकर भी, 
जब तुमने दरवाजा खोला होगा। 
हर हिचकी याद दिलाती होगी, 
जब तुम्हें याद मैं करता हूं।

(44)
अखियां तो भर आती होंगी, 
जब मुझे इग्नोर तुम करती होगी। 
मेरी मायूसी भी याद आती होगी, 
जब बिंदास हंसी तुम हंसती होगी। 
आह! मेरी मोहब्बत कैसे भूली होगी, 
जब उसे माय लव तुम लिखती होगी। 
दे दिलासा अपनी मजबूरी का जब,
दोहरा जीवन तुम जीती होगी।
 बेपरवाह मोहब्बत के उन फूलों को, 
 मैं अपनी कविता में गूंथा करता हूं।

(45)
ना जाने कितने सपने टूटे होंगे, 
ना जाने कितने अरमान उठे होंगे। 
तुम गुजर गई, मैं बीत गया, 
जब जब तुमने यह सोचा होगा।
मेरी जान, जान पर जान पर बन आती होगी, 
जब उसे मेरी जान तुम कहती होगी।
मजबूर हालातों की सूली पर चढ़, 
सारी वफाएं हम पर ही तो हंसती होंगी।
उन मरहूम वफाओं का मातम, 
अब अपने गीतों में मैं गाता हूं।

(46)
त्याग समर्पण का यह जीवन, 
जब एक पल को तुम ठहरी होगी। 
निकट नीर निधि के रहकर भी जब, 
सुधा बूंद एक जीवन को तरसी होगी।
अनंत पथ पर मौन खड़ी तुम,
हृदय निस्वास, अव्यक्त वेदना बरसी होगी।
मैं भी विचलित जीवन पथ पर,
जब अश्रु बिंदु बन बह निकली होगी।
विभूषित आलोकित जीवन पथ पर,
सिसकी बन तुम्हारी, मैं भी रोया करता हूं।

(47)
दूर कहीं रह कर भी जब तुम, 
मेरे गीतों को सुनती होगी। 
चिर शांत हृदय सागर में भी, 
जज्बातों की लहरें तो उठती होंगी। 
भीड़ भरी दुनिया से दूर कहीं, 
तन्हाई के एक-एक पल को, 
तुम भी तो खोजा करती होगी। 
ढलती शामों को कर याद, 
निज एकांत के उन लम्हों में, 
एक पल को तुम भी तो रोती होगी।
बेचैन उदासी के उन लम्हों को, 
अब मैं अपनी कविता में लिखता हूं।

(48)
देख जमाने में मशहूर मुझे, 
जब तुम अनदेखा सा करती होगी। 
तब चोर हृदय मन की खिड़की से तुम,
चुपके-चुपके मुझको देखा करती होगी।
बदनामी के डर से घबराकर तुम मुझे,
अलग फ्रेम में तो रखती होगी। 
कर कैद उसी फ्रेम में तुमको भी, 
खुद के संग तुमको भी देखा करता हूं।

49

गुजरे जीवन के एक-एक पल को, 

जब खुद के अंदर तुम जीती होगी।

ले पुलकित प्रफुल्लित इस मन को,

संतृप्त हृदय कोठरी जा तुम बैठी होगी।

इस एकाकी जीवन के सुने पल में,

तुम मुझको अपना सहचर पाती होगी।

निर्मोही मन के इस अप्रिय प्रीतम को,

तब तुम जी भरके के देखा करती होगी।

जीवन के इस सुने पल को,

मैं अब अपने अश्कों से भरता हूं।


(49)
तुम जो भूली-सी हो मुझको, 
वक्त कहां अब मिलता होगा। 
बहती नदियों को भी अब, 
सागर से मिलना तो होता होगा। 
देकर अपनी प्रीत दुहाई, 
उसको भी तो जलाना होगा। 
मैं था केवल एक नादानी, 
अब तुमको यह कहना होगा।
 पर कैसी हो भूली सी तुम, 
तब मुझे याद तो करना होगा। 
क्या रख लूं, क्या लौटा दूं मैं, 
अब तुमको ही बतलाना होगा। 
छोड़ तुम्हारी नादानी को मैं,
खुद अपनी नादानी में जीता हूं।

(50)
अब मिलने पर भी क्या होगा,
क्या पा लेंगे, क्या खो देंगे ?
स्नेह प्रीत के मृदु धागे, 
जाने अनजाने फिर से टूटेंगे। 
दे अपनी तकदीरों का दोष, 
फिर एक दूजे को ही लूटेंगे। 
इस दुनिया का दस्तूर वही, 
दे दुहाई अपनेपन का, 
अपने फिर अपनों से ही रूठेंगे। 
स्नेह - प्रीत के मृदु धागों से, 
मैं अपनी कविता को बुनता हूं।
हां मैं चलती राहों का लेखक,
माइलस्टोन पर लिखता हूं।
(51)
आगे पुलकित सा जीवन,
अखियों से मत रोना।
निज दृष्टि लो तुम मुझसे ,
तुम तो हो आगे बढ़ने वाले।
गिर जाने दो मुझको अब,
जिस हद तक गिरना है।
चिर शांत हृदय तुम,
सागर सी लहरों वाले।
बह जाने दो मुझको,
अब जिस धार बह जाना है।
क्या सफाई दें हम तुमको, 
जब खुद को मुजरिम मान लिया हमने,
सब कुछ पाकर, हां तुमको भी, 
बेचैन रहूं मैं, अब मैं खुद को, 
यही सजा सुनाता हूं।

(52)
टूटे कदमों से थक हार, 
अब दूर कहीं आ पहुंचा हूं। 
आस भरी नजरों से भी, 
हर बार पलट कर देखा है। 
अनजाने लोगों से मिल कर, 
जब तुम्हें याद मैं करता हूं। 
अनदेखे अनजाने से चेहरों में भी, 
हर बार वही तस्वीर बनाता हूं। 
यादों में जब आंखें भर आती हैं, 
चुपके से पोंछ उन्हे फिर, 
मैं आगे मैं बढ़ जाता हूं। 
हां मैं चलती राहों का लेखक,
माइलस्टोन पर लिखता हूं।

(53)
(मेरे दोनों किरदारों की एक ही जुबां से)
टूटे कदमों से थक हार हम, 
अब दूर कहीं आ पहुंचे हैं। 
आस भरी नजरों से हमने, 
हर बार पलट कर देखा है। 
अनजाने लोगों से मिल कर, 
जब तुम्हे याद हम करते हैं। 
अनदेखे अनजाने से चेहरों में भी, 
एकदूजे की ही तस्वीर बनाते हैं।
यादों में जब आंखें भर आती हैं, 
चुपके से पोंछ उन्हे फिर, 
हम आगे बढ़ जाते हैं।
हां हम चलती राहों के लेखक,
माइलस्टोन पर लिखते हैं।

Written by:
Shailendra S.

अजनबी - 2

अजनबी (पार्ट 2)       पांच साल बाद मेरी सत्य से ये दूसरी मुलाकात थी। पहले भी मैंने पीहू को उसके साथ देखा था और आज भी देख रहा हूं...