कर भी दूं तो कैसे ? फिर इस सुने मन में क्या शेष रह जायेगा ?
मैं नहीं जानती कि इस सृष्टि का अभ्युदय कब हुआ और उसका विनाश कब होगा। लेकिन वे पल मुझे आज भी अच्छी तरह से याद है जो मैंने तुम्हारे साथ गुजारे या तुम्हारे निकट होते हुए भी तुमसे दूर रहकर।
तुमसे प्रथम मिलन का वह पल मेरे लिए कोई विस्मयकारी नहीं था। मुझे उत्तेजित नहीं कर पाया। और न ही आश्चर्यचकित करने वाला था। हो भी तो क्यों तुम जैसे साधारण व्यक्ति से मिलना विस्मयकारी, उत्तेजक और आश्चर्यचकित करने वाला कैसे हो सकता था भला !!
यह कैसे लिख दूं कि तुमने एक रिश्ते का परित्याग किया जबकि तुमने मुझसे कोई रिश्ता बनाया ही नहीं ; यह भी कैसे लिख दूं कि तुम मेरी नियति थे, मेरे भाग्य में लिखे थे! होते तो आज इतनी दूर कैसे चले जाते । तुमने त्याग किया और मैंने उसे स्वीकार किया। सहर्ष न सही आंखों में आंसू लेकर भी नहीं, लेकिन निरपेक्ष भाव से तुम्हारे उस सापेक्ष सानिध्य को मौन रहकर, अस्वीकार किया।
यह भी न लिखूंगी कि जब तुम ने मुझसे दूर जाने का मन बना लिया था, तो मुझे कोई पूर्वाभास नहीं हुआ था। हुआ था। लेकिन उस वक्त मैं कर भी क्या सकती थी ? बताओ ? उस वक्त मुझे स्वयं यह आभास नहीं था कि तुम्हारे यूं चले जाने से मुझ पर क्या गुजरेगी।
नितांत अकेलापन और गहरे सन्नाटे मेरे जीवन को यूं उदास कर जाएंगे इसका पूर्वाभास मुझे स्वयं क्यों न हो सका।
तुमने स्वयं त्याग किया इसलिए तुम जान न सके कि त्याग क्या होता है? त्याग तुम्हारे लिए साधारण था। जिसकी तुम्हें कोई ग्लानि, कौतूहल या आत्ममुग्धता नहीं हुई। क्योंकि शायद तुम्हारे लिए किसी को त्याग देना एक तुच्छ वस्तु थी। एक ऐसी भावना जिस के प्रेरणा स्रोत भी तुम ही थे और प्रणेता भी।
मैं तो तुम्हारे उस त्याग को बस संचित करती रही और तुम्हारे त्याग की संचिता रही। अपने हृदय में सजोती रही, तुमसे कोई शिकायत नहीं की।
क्यों जा रहे हो? कब लौट कर आओगे? लौटकर आओगे भी या नहीं? कोई प्रश्न नहीं। बस तुम्हें जाने दिया।
आज सोचती हूं, कुछ प्रश्न तो कर ही लेती तो शायद अच्छा होता, शायद तुम कुछ बता ही देते? खुद को प्रशनचित रखना तुम्हारी जीवन शैली जो थी।
मेरे दायरे व्यापक थे। इतनी व्यापक कि उसमें दुनिया तो समा सकती थी लेकिन शायद, मेरे स्वयं के लिए, मेरी प्रसन्नता के लिए उसमें कोई स्थान नहीं था। अनगिनत आयामों में समानांतर जीवन जीना तुम्हारे लिए सहज था, मेरे दोस्त ! लेकिन मेरे लिए नहीं।
शायद इतना जिसमे तुम एक ही पल में केवल और केवल मेरे बारे में सोच सकते थे, मेरे लिए कुछ भी कर सकते थे। और उसी एक पल में पूरी दुनिया के लिए हो जाते थे। उनके सुख-दुख में ऐसे घुलमिल जाते थे कि तुम्हारा विराट और विशाल व्यक्तित्व मेरे सामने यूं आ जाता था, बस अचानक ही और मैं आश्चर्यचकित रह जाती थी।
और उस वक्त मुझे भ्रम होने लगता था कि क्या सचमुच तुम कभी मेरे लिए कुछ सोचते हो ? मेरे लिए एक पल भी जीते हो? कई कई बार मैने तुम्हे दूसरों के दुख में, अपनों के दुख में स्वयं दुखित होते हुए देखा, इतना कि तुम्हारे मन की वेदना तुम्हारी आंखें सजल कर जाती थी।
तब मुझे एक भ्रम और भी होने लगता था कि तुम शायद दूसरों के दुख में शामिल न होकर स्वयं दुखी होने लगते हो। यही बात तुम्हारी मुझे अच्छी नहीं लगती थी, और मैं तुम्हें इसीलिए उपेक्षित करती थी कि तुम मेरी उपेक्षा से दुखी होकर मेरे बारे में फिर से सोचो उस पर विचार करो कि मैंने तुम्हें क्यों उपेक्षित किया। तुम मुझसे शिकायत करो और मैं चुपचाप सुनती रहूं। कोई जवाब न दू, और तुम और भी दुखी हो मेरे बारे में सोचो।
यह क्रम चलता रहे ... चलता रहे ... बस चलता रहे। तुम मेरे बारे में सोचते रहो ... बस सोचते ही रहो। और मैं इस तरह से तुम्हारे उस एक पल का बदला न जाने तुमसे कितने पलों को सिर्फ और सिर्फ मेरे बारे में सोचने पर मजबूर करके ले लिया करती थी। और तुम ? शायद सब कुछ जानते हुए भी मुझसे शिकायतें करते थे कहते थे कि लो तुम्हारी मुराद पूरी हुई।
शायद तुम भी तो यही चाहते रहे होगे कि मैं तुमसे इसी तरह बदला लेती रहूं। जानते हो, मैं तुम से बदला लेने के तरीके सोचती थी। तब अनजाने में ही सही, मैं भी तो तुम्हारे ही बारे में सोचा करती थी।
बस !!! यही तो वह भूल कर दी मैंने जो मुझे नहीं करनी चाहिए थी ! तुम्हारे बारे में सोचना ही नहीं चाहिए था। क्योंकि यह सब करने के लिए हमें उस व्यक्ति के बारे में बार-बार और ना जाने कितनी बार सोचना पड़ता है। और इस तरह से वह हमारी हर एक सोच में घर करता चला जाता है। नफरत करने के लिए भी या किसी को दुखी करने के लिए भी तो उसके बारे में सोचना ही पड़ता है न?
किसी के प्रति उदासीन रहकर भला उसे बंदी बनाया जा सकता है क्या?
मैं यही करना चाहती थी। लेकिन कैसे कर लेती यह तो संभव ही नहीं था। तो अब पूछती हूं तुमसे, यदि मैंने तुम से बदला लेने के लिए ही सही तुम्हें अपने विचारों का बंदी बनाया और कहीं न कहीं मैं भी तुम्हारी बंदिनी बनी, तो क्या गलत हुआ?
यदि मैं कभी तुम्हारे प्रति उदासीन रही, तो फिर तुम आज क्यों मेरा जीवन और सासों के आधार बने। अब तुम भी मुझसे बदला लो न, और मेरे बारे में वैसा ही, उतना ही सोचो, उसी भाव से ही सही, जितना कि कभी मैन तुम्हें सोचा था।
और तब मैं भी तुम्हारी संपूर्ण जीवनशैली में छा जाऊं। तुम भी मेरे बारे में इतना सोचो, इतना सोचो कि किसी का दुख दर्द दिखाई न दे।
किसी की आवाज न सुनाई दे, कोई और तुम्हें विचलित न कर सके। दुनिया की कोई खुशी मुझ तक आने के लिए तुम्हें रोक ही न सके, और तुम विवश होकर मेरे पास चले आओ।
दुनिया के सारे प्रपंच, मान्यताओं, सारी अवधारणाओं, सारे बंधनों, सारी मान मर्यादाओं को तोड़ कर हुए मुझ तक पहुंच जाओ।
इसीलिए आज भी पुकारती हूं, हां
. . ., आह ! तुम कहां गए ?
मेरी इतनी सी पुकार से यदि इस सृष्टि के या फिर ईश्वर के कोई नियम टूटते हैं, तो तोड़ते हूं मैं। इस जीवन से पहले क्या था और इस जीवन के बाद क्या होगा, सच मुझे बिल्कुल पता नहीं। लेकिन मेरे इस जीवन के कुछ अनकहे सत्य जो पूर्णत मिथक न थे, हमेशा मुझसे टकराते रहे। और अच्छी तरह से जानती हूं , आगें भी टकराते रहेंगे।
समाज बहिष्कृत कर दे, नाते रिश्तेदार अपने संबंधों से निष्कासित कर दें तो इतना दर्द नहीं होता जितना कि जब अपने दूरियां बनाने लगें, अफवाहों को मेरे जीवन का यथार्थ मानकर उसे स्वीकार करने लगे, और मुझे उच्छृंखल और उन्मुक्त लड़की के रूप में परिभाषित करने लगे, तब मैंने देखा है अपनो की नजरों में अपने आप को उपेक्षित होता हुआ।
मेरे जीवन के रास्तों को बदलने का भरपूर प्रयास करते हुए, मुझे बात-बात पर लज्जित करते हुए, ताने मारते हुए। यह सब कुछ मैंने बहुत कम उम्र में देखा और सहा है। मुझे हर एक पल यही एहसास दिलाया जाता रहा कि मैं एक सामान्य सी लड़की हूं, और मुझे मेरे जीवन के सारे फैसले लेने का अधिकार नहीं है। पी
मैं अपनी पसंद का खा तो सकती हूं, यहां तक की कुछ हद तक पहन भी सकती हूं, लेकिन मेरी जीवन शैली मेरे अधिकार क्षेत्र में नहीं है।
मैं अपनी खुद की जिंदगी जीने के लिए स्वतंत्र नहीं हूं यदि ऐसा करती हूं तो न जाने क्या-क्या टूटता है। बस बात-बात पर मुझे यही एहसास दिलाया जाता था। धीरे-धीरे मेरे मन से मेरी अंतरात्मा से मेरे व्यक्तित्व को छीन लिया गया और इस बात का मुझे तनिक भी एहसास न होने दिया गया। आश्चर्य किंतु यही मेरे जीवन का एकमात्र सत्य रहा।
और जानते हो, शायद सुनकर तुम्हें हंसी आएगी। मुझे भी धीरे-धीरे यही एहसास होने लगा कि मैं भी अपनी जिंदगी ही जी रही हूं। सब कुछ मेरी ही मर्जी से हो रहा है। किसी की कोई दखलंदाजी नहीं।
सभी निर्णय मेरे और केवल मेरे द्वारा लिए गए है। मैं वास्तव में यही तो चाहती थी जो मुझे मिल रहा है इसी में मेरा सुख है।
उफ! इतना बड़ा भ्रम!!
खुद के व्यक्तित्व को खोकर मैंने एक ऐसा व्यक्तित्व प्राप्त किया जो मेरा था ही नहीं। तो फिर बताओ भला अपने खोए हुए व्यक्तित्व से दूर रह, एक आर्टिफिशियल व्यक्तित्व के साथ मैं तुम्हारी भावनाओं को कैसे समझ पाती?
मेरे दोस्त! कहो तो फिर तुम मुझे गुनहगार कैसे ठहरा सकते हो ? यह बात अलग है कि तुमने मुझे दोषी ठहराया नहीं। प्रत्यक्षतः कहा नहीं, बस अंदर ही अंदर मान लिया।
जैसा कि मैंने पहले भी लिखा है की शायद कभी वह वक्त या समय आए जब मैं खुद अपनी स्मृतियां खो दूं, तब हो सकता है तुम मेरी यादों में भी न रहो। तब हो सकता है मैं तुम्हें भूल जाऊं। जब स्मृति न होगी तो फिर भला तुम कैसे रहोगे? शायद यह हो सकता है?
लेकिन जो अक्षय ऊर्जा मेरे मन में तुम्हारे प्रति समाहित है, और जबतक मैं स्वयं तुम्हें अपने अंतर्मन की कैद में रखती हूं। तबतक यह जीवन यूं ही सुलगता रहेगा। एक ज्वाला बन तुम मेरे अंतर्मन में यूं ही धधकते रहोगे। मुझे यूं ही जलाते रहोगे। और मुझे इस बात का तनिक भी एहसास नहीं होगा कि ऐसा क्यों हो रहा है । क्योंकि स्मृतियां तो खो चुकी होंगी न।
क्या कभी तुम किसी कलंक से गुजरे हो? यदि नहीं तो निश्चित ही तुम्हें निष्कलंक होने का सर्टिफिकेट नहीं मिला होगा?
लेकिन मुझे मिला है! इल्जाम लगाने के बाद दोषमुक्त भी किया गया। मुझे समझाया गया कि मैंने नादानी में कम उम्र की वजह से सही फैसला न ले पाने के निर्णय के आभाव में यह भूल-चूक कर बैठी, जो क्षम्य है।
मुझे मेरे चरित्र प्रमाण पत्र के साथ क्षमा दान दिया गया। एक ऐसे अपराध के लिए जिसे मैं नहीं मानती की कोई अपराध था भी। बदले में मेरा पूरा जीवन, मेरे सारे निर्णय, अपने हाथ में ले लिए गए। मैं खुश रहने लगी। हमेशा हंसते मुस्कुराते रहने लगी। दूसरे शब्दों में लिखूं तो, मैंने खुद को यातनाएं देनी शुरू की।
यातना !! शायद तुम कभी पढ़ो तो विश्वास न कर सको! लेकिन सत्य यही है। बिना किसी खुशी के हंसना, बिना वजह से यूं ही मुस्कुरा देना, यह किसी यातना से कम नहीं होता।
एक उच्चश्रृंखल और उद्दम जीवन जीने वाली बेफिक्र लड़की अचानक ही सबका हालचाल पूछने लगी। सब के सुख- दुख में शामिल होने लगी। उसने एकांत में रहना त्याग दिया। खुद के बारे में सोचना त्याग दिया। सभी गुणा- भाग, हिसाब- किताब लगाना छोड़ दिया। और सौंप दिया खुद को किसी सुरक्षित हाथों में कि लो अब करो मेरे जीवन के सारे फैसले यदि तुम खुश हो तो मैं भी खुश हूं . . .
मेरे जीवन की नदी स्वप्रेरित न सही, किंतु बहाव के नियमानुसार बहने लगी। ढलान पर आती तो उसका वेग बढ़ जाता। समतल भूमि पर सामान्य और शांत भाव से बहती। पर्वतों से गिरती तो झर- झर की आवाज करती। दर्शनीय दृश्य उत्पन्न करती। पत्थरों से टकराती तो कोलाहल मचा देती। खुद बिखरती, जल तरंगे टूटती। और फिर से एकत्र होकर आगे निकल पड़ती। अर्थात उसकी प्रत्येक अवस्था में एक ध्वनि उत्पन्न होती।
संसार को यही ध्वनि एक संगीत के रूप में सुनाई देती और सभी समझते कि मेरा जीवन इसी मधुर संगीत की तरह उल्लासित और आनंदित है।
जल प्रपात के रूप में होने वाली अवनति में भी, लोगों को उन्नति ही दिखाई देती!! भला क्यों न हो? विहंगम और इंद्रधनुषी दृश्य किसे आकर्षित नहीं करते?
पत्थरों से टकराकर बिखरने में भी एक मधुर संगीत का आनंद लेने की अनुभूति कितनी सुखद होगी? तुम्ही बताओ ?
वेदना में भी सुख की अनुभूत कितनी दुःखदाई होती है? तुमसे बेहतर और कौन जान सकता है?
तुम भी तो कभी इस वेदना से फलीभूत रहे, अपनो की उपेक्षा और तिरस्कार को सहते हुए सदैव ही हंसते मुस्कुराते रहे।
अपनी इन समस्त कही-अनकही भावनाओं को तुमसे कह लेने की अदम्य प्यास लिए आज भी मैं तुम्हारा ही इंतजार कर रही हूं . . .
to be continued
Shailendra S.