अजनबी
Shailendra S.
(Story of Destiny)
कहानी के किरदार
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कामयाबी या नाकामयाबी से दूर यदि मोहब्बत की बात की जाए तो जिसे एकबार हो जाए तो वह कायदे का इंसान बन जाता था। खैर मैं तो 18 की उम्र में ही कायदे का इंसान बन चुका था और सत्य उर्फ देवेंद्र बनने की प्रक्रिया में था। दोनों की प्रेमिकाओं के रंग-रूप, कद-काठी में लाख भिन्नता सही लेकिन एक समानता थी, और वह थी साहित्य के प्रति रुचि। उनके प्रेम की अभिव्यक्ति जितनी नजरों से होती थी उतनी ही तीव्रता के साथ शब्दों से भी बयां होती थी। दोनों को ही बुक और शेर-ओ-शायरी का बेहद शौक था। और शायद इसलिए कभी-कभी उनका व्यक्तित्व बहुत ही रहस्यमयी हो जाता था।
मैने कहानी में जिस घर गांव का उल्लेख किया है वहां मै दो बार गया। पहली बार, पीहू उर्फ शचि, सत्य उर्फ देवेंद्र और बाबा तीनों थे। पहली बार मैं उस घर में तीन रात और तीन दिन रुक था। मैने वो अटारी भी देखी और अटारी में रखी शेक्सपियर, कालिदास, भगवतीचरण वर्मा, प्रेमचंद्र, ओ हेनरी, कीट्स जैसे प्रमुख साहित्यकारों की किताबें भी। चूंकि मैं हाल ही में अपनी महबूबा की शादी के सदमे में था तो मैं कुछ उदासी में था। अपने में खोया हुआ-सा। सत्य उर्फ देवेंद्र और मुझमें कोई समानता नहीं थी सिवा इसके कि हम दोनों ही अंतरमुखी और एक ही एज ग्रुप अर्थात 23 साल के थे।
बाकी सभी में वह मुझसे 20 नहीं 30 था, जैसे हाइट, पर्सनालिटी, रंग रूप इत्यादि। मैथमेटिक्स और कंप्यूटर साइंस से मुझे जितनी मोहब्बत थी उतनी ही लिटरेचर से। कंप्यूटर साइंस मेरे जीवन-यापन यानी की कमाई का जरिया और लिटरेचर मेरा एक तरफा प्यार। कोई बहुत बड़ा लेखक नहीं किंतु कभी-कभी किसी मैगजीन न्यूज़पेपर में कहानी या कविताएं छप जाया करती थी, बस इतना ही। पीहू और मेरे बीच जो मित्रवत संबंध बन सका उसमें लिटरेचर का पूरा योगदान था। हमारे बीच यही एक समानता थी।
मैं उस घर कैसे पहुंचा और क्यूं पहुंचा इसे बताने या न बताने का यहां कोई मतलब नहीं। जब कहानी उस मोड पर पहुंचेगी तो मैं सत्य से अपनी कलम वापस लूंगा और अपने नजरिया से अपनी उपस्थिति और उन दोनों का चित्रण करूंगा। तब तक मेरी कलम उसके पास ही रहेगी। आप इस कहानी को उसी के नजरिए से ही पढ़िए और महसूस कीजिए। इसलिए मेरी यह कहानी भी प्रथम पुरुष (फर्स्ट पर्सन) में लिखी गई है।
आप यूं समझ सकते हैं कि उस घर में वास्तव में कोई अजनबी था तो वो मैं था। उसी अटारी पर मैंने ओथेलो और चित्रलेखा पढ़ी। उसी खिड़की पर मैने पीहू के साथ खड़े हो कर उस शीशम के पेड़ को देखते हुए उसकी अब तक की प्रेम कहानी के प्रमुख अंश सुने। सत्य के प्रति प्रेम की चमक उसकी आंखों में देखी। जितनी ही मॉडर्न उतनी ही शालीन और सभ्य। सत्य मेरे दोस्त का फास्ट फ्रेंड था, इसलिए आप उसे मेरा मित्र मान सकते हैं।
वो ठंडी के दिन थे। लंच हम बाबा के साथ करते और डिनर उसी अटारी पर, एक दूसरे से हंसी मजाक करते हुए, एक दूसरे की कहानी सुनते हुए। दोनों ने ही अपनी पहली मुलाकात से अब तक की घटनाओं को बहुत ही खुले और बिंदास तरीके से बताया। अपनी निजी और एकांत के क्षणों को भी शालीनता के साथ साझा किया।। बाबा से भी मैं दोपहरी में बहुत सी बातें करता। एक शाम जब सत्य ड्यूटी पर था तो मैं पीहू के साथ उसके बगीचे घूमने के लिए गया। वहीं पर मेरी मुलाकात मंगल से भी हुई। सामान्य कद काठी का बहुत ही मेहनती इंसान।
क्योंकि पीहू के द्वारा उसकी लव स्टोरी के बारे में मुझे मालूम पड़ चुका था तो मैंने उसकी ही जुबानी उसकी भी प्रेम कहानी सुनी। और उसने लजाते, शरमाते, हंसते मुस्कुराते बताया भी। उसकी पत्नी ने बगीचे से पपीते, अमरूद और कीवी तोड़ के दोनों को खिलाए।
तभी वहां सत्य प्रकाश आ गया और उसने हंसते हुए कहा, "भाई यहां हो, थैंक गॉड। बाबा ने बताया है कि पीहू शैलेंद्र के साथ घूमने गई है। मैने सोचा कि कहीं पीहू को ले कर भाग तो नहीं गए !"
"मुझ पर नहीं तो पीहू पर एतबार करो, क्यूं पीहू ?", मैने मुस्कुराते हुए उससे कहा।
"100%, I just joking यार, दोनों ही लिटरेचर में इंटरेस्ट रखने वाले हो तो मैंने सोचा कहां जा सकते हो, कहीं बैठे किसी साहित्यकार की किसी साहित्यिक रचना पर चर्चा कर रहे होगे .... मुझे तो कोई खास इंटरेस्ट नहीं है...."
मैंने हंसते हुए कहा, "कोई बात नहीं जल्दी हो जाएगा। पहले मुझे भी नहीं था। अब देखो हो गया .."
"क्या कहीं तुम भी किसी पीहू से तो नहीं मिले ... हूं ?", उसने शरारत से पूछा था और मैं साफ मना कर गया, "नहीं बस ऐसे ही दो-चार बुक पढ़ी तो इंटरेस्ट जाग गया"
मैंने लिखा न मैं भी सत्य की तरह अंतर्मुखी स्वभाव का था, शायद उससे अधिक ही। चौथे दिन मेरा दोस्त मुझे लेने के लिए आ गया और हम अमरकंटक घूमने के लिए निकल गए। हम दोनों ने बहुत कोशिश की कि वे लोग भी साथ चले। लेकिन उन्होंने साफ मना कर दिया। वजह बाबा का ध्यान कौन रखेगा। रास्ते में मेरे दोस्त ने मुझे बताया की चलते समय पीहू ने उससे कहा था कि आपके दोस्त झूठ भी बोलते हैं, आप उनका ख्याल रखिएगा।
और जब दूसरी बार मैं 2002 में उस घर में गया तो वहां ना तो बाबा थे और न ही पीहू ... दोनों ही इस दुनिया को अलविदा कह चुके थे। लेकिन सत्य था अपनी सर्विस और खेती बाड़ी के काम में उलझा हुआ और अपने शोक को भूलकर बाबा द्वारा समझाए गए कर्तव्य पथ पर मंगल को साथ लिए चलता हुआ। उसी अटारी पर मैंने पीहू की वह डायरी पढ़ी जो शायद उसने मरने से कुछ महीने पहले सत्य के लिए लिखी थी। और आज जब मैं इस कहानी को पूरा कर रहा हूं तो सत्य उर्फ देवेंद्र भी इस दुनिया को अलविदा कह चुका है।
लेकिन जब तक यह कहानी पूरी नहीं होगी, तब तक सत्य उर्फ देवेंद्र मेरे वजूद में सांसे लेते हुए अपनी पीहू के साथ रहेगा। उससे प्यार करता हुआ, उससे लड़ता-झगड़ता हुआ। उससे रूठता हुआ, उसे मनाता हुआ ।उन दोनों के लिए मेरी यही श्रद्धांजलि है - "अजनबी" ।
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इस गांव में यह मेरी पहली बरसात थी। और वह भी बारिश के मौसम का पहला दिन जब इतनी जोर से पानी बरस रहा था। मैं उसी पेड़ के नीचे खड़ा था जहां पर मैं अक्सर बैठा करता था या खड़ा रहता था। मैने सुना था और शायद कहीं पढ़ा भी था कि बारिश में घने और ऊंचे पेड़ के आस पास नहीं होना चाहिए। बिजली गिरने का डर रहता है। गांव की घनी बस्ती से लगभग दो किलोमीटर दूर मैने उस घर की तरफ आश्रय पाने की आस लिए हुए देखा, जिसकी अटारी की खिड़की से मैने उसे कई बार अपनी तरफ देखते हुए देखा था। यद्यपि लगभग 60-70 मीटर की दूरी होने के कारण चेहरा बहुत स्पष्ट नहीं दिखता था।
मिट्टी और पत्थर से बना हुआ खपरैलदार कच्चा घर था जिसकी ऊंचाई से मैं अंदाजा लगा सकता था कि यह दो मंजिला जरूर होगा। यह घर का पिछला हिस्सा था जिस तरफ एक दरवाजा था, जो मुझे अभी बंद नजर आ रहा था। उपरी मंजिल में शायद अटारी होगी, जिसमें एक सामान्य आकार से बड़ी एक खिड़की थी जिसमें लकड़ी के पल्ले लगे हुए थे और जो बाहर की तरफ खुलते थे और अक्सर खुले ही रहते थे।
सुरक्षा की दृष्टि से उसमें लोहे की छड़े लगी थी। इसी खिड़की से मैंने उसे कई बार दोपहरी से शाम के बीच झांकते हुए देखा था। पहली बार जब मैंने उसे देखा तो वह एक इत्तेफाक था। दूसरी बार देखा तो मुझे उसकी कोई आदत नहीं थी, लेकिन इसके बाद मेरी नज़रें हमेशा उस खिड़की की तरफ जाती जैसे उन्हें किसी की तलाश हो।
घर के पीछे के कुछ हिस्से को तार-बाड़ी और बांस की कमटी का एक गेट लगाकर सुरक्षित किया गया था। खिड़की के सामने एक छोटा-सा और कच्चा घर था, शायद मवेशी बांधने के लिए। लेकिन मैंने एक गाय और दो बछड़ों के अलावा कभी कोई दूसरे मवेशी नहीं देखे। उसके बगल से गांव की मुख्य बस्ती से आई हुई कच्ची मुरूम की सड़क जो उसके घर के पास से गुजर कर आगे माइन्स में जाकर विलीन हो जाती थी।
सड़क के दूसरे तरफ एक पुराना शीशम का पेड़ जिसकी छाया में मैं अक्सर बैठा करता था।
मैं एक सामान्य परिवार का सबसे छोटा बेटा था, जिसने माइनिंग से डिप्लोमा हासिल करके एक एल्युमीनियम वायर बनाने वाली कंपनी में इंटर्नशिप हासिल की थी। माइंस के फील्ड के कामकाज में नजर रखने के लिए तथा आने और जाने वाले बॉक्साइड रॉ-मटेरियल और ट्रकों का हिसाब-किताब रखने के लिए मुझे हर दिन यही आना पड़ता था। इस घर से कोई तीन किलोमीटर दूर माइन्स थी जहां से बॉक्साइड अयस्क निकले जाते और ट्रकों में लोड किए जाते थे, और सभी ट्रक इसी रोड से गुजर कर फैक्ट्री तक जाते थे।
ब्लास्टिंग और तेज गर्मी से बचने के लिए मैं अक्सर इसी जगह पर आ जाता था और कभी-कभी तो पूरा दिन मेरा यही पर गुजरता था। यह बहुत ही उपयुक्त स्थान था जहां से मैं पूरी मइंस का निरीक्षण और लोड हुए ट्रकों के हिसाब-किताब रख सकता था। पूरी गर्मी की तेज धूप और लू से इसी शीशम के पेड़ ने मेरी रक्षा की थी।
लेकिन आज वही शीशम का पेड़ इस बरसती हुई बारिश में मुझे डरा रहा था। शाम के लगभग चार बजे से मौसम ने मिजाज बदला था और कुछ देर बाद ही तेज बारिश और हवाएं चलने लगी। बिजली की चमक और बादलों की गड़गड़ाहट से मैं डर रहा था। महसूस होता जैसे कि बिजली अभी-अभी इसी पेड़ पर गिरेगी। मैंने अपनी बाइक पेड़ के नीचे खड़ी छोड़ दी और भाग कर मवेशी घर के दरवाजे पर आ गया। अब मेरे और खिड़की के बीच की दूरी कम थी और वह खिड़की ठीक मेरी नजरों के सामने थी। मैंने देखा लकड़ी के पल्ले जो बाहर की तरफ खुलते थे, हवा के कारण खिड़की की चौखट से बार-बार टकरा के खट-खट की आवाज कर रहे थे। कुछ ही देर में मुझे खिड़की पर वही चेहरा दिखाई दिया जिसे मैं अक्सर देखता आया था। शायद खिड़की की आवाज सुनकर उसे बंद करने के लिए वह आई थी।
मैंने उसकी तरफ देखा, उसने मेरी तरफ देखा। खिड़की को बंद करने के इरादे से पल्लू को पकड़े हुए उसके हाथ रुक गए। उसने इशारे से पूछा, "यहां क्या कर रहे हो ? "मैंने सीधे आसमान की तरफ अपनी उंगली उठा दी। उसने इशारे से फिर मुझसे कहा, "दरवाजे पर आ जाओ"।
मेरे दरवाजे तक पहुंचते-पहुंचते दरवाजा खुल गया। अब मैं उसे पूरा का पूरा देख सकता था। मेरे ख्याल से भी अधिक खूबसूरत। अक्सर मैंने लोगों को आंखों की तारीफ करते हुए सुना है, गलत है। प्रत्येक इंसान की आंखों को यदि ध्यान से देखो तो सुंदर ही दिखाई देंगी। लुभावनी, एक अजीब सी कशिश लिए हुए जो आपको बंधनों में बांधने की कोशिश करती हैं। सुंदर ओंठो में आमंत्रण होता है जो आपको आमंत्रित करते नजर आते हैं। लेकिन जिसकी नाक आपको सुंदर लगे तो समझिए वही आपके लिए सुंदर है।
लेकिन यहां तो आइज, नोज और लिप्स का परफेक्ट विजुअल कांबिनेशन। मैं लगभग भीग चुका था। उसने कुछ मुस्कुराते हुए मुझसे कहा, "अजनबी ! आखिरकार कुदरत ने तुम्हें मेरे दरवाजे तक ला ही दिया, तो अब अंदर भी आ जाओ ... "
उसके इस फ्रैंकनेस से मैं आश्चर्यचकित भी था और बारिश को मन ही मन धन्यवाद दे रहा था कि अच्छा हुआ कम से कम दो अजनबी जो लगभग दो-ढाई महीने से एक दूसरे को केवल देखते आए थे, आज आमने-सामने तो आए। मैंने अंदर कदम रखने से पहले उससे पूछा, " क्या आप अकेली रहती हैं ..?"
"नहीं मेरे बाबा हैं, मैं उनके साथ रहती हूं, अब तो आ जाओगे न ..... ?", उसकी मुस्कुराहट, खिलखिलाहट में बदल गई।
मैं जिस कमरे में खड़ा था, ठीक दरवाजे के पास से ऊपर अटारी को जाती हुई कच्ची मिट्टी की सीढ़ी थी। मैं उसी सीढी की तरफ बढ़ा तो उसने पीछे से हंसते हुए कहा, "अरे ! वहां नहीं मेरे साथ आओ ...."
मैं उसके पीछे-पीछे चल दिया। गैलरी के दो दरवाजे पर करके जिस बड़े कमरे में पहुंचा तो मैं अंदाजा लगा सकता था कि यह बैठक रूम है। सामने आंगन और उसके चारों तरफ पक्की बाउंड्री। बैठक में एक तख्त जिस पर एक बुजुर्ग बैठे थे। उन्हीं के आसपास रखी हुई चार कुर्सियां और एक लकड़ी की मेज।
अपने बाबा से उसने मेरा परिचय करवाया, "बाबा ! ये गौशाला के पास पीछे खड़े बारिश में भीग रहे थे, मैं अंदर ले आई ....."
बाबा ने गौर से मुझे देखा और फिर उससे पूछा, " क्या तुम इन्हें जानती हो ?"
उसने अपने उसी चिर परिचित अंदाज में मुस्कुराते हुए कहा, " नहीं .... अजनबी हैं "
बाबा ने मुझे एक कुर्सी में बैठ जाने का इशारा किया और मैं बैठ गया। मैंने उन्हें ध्यान से देखा, लगभग 80 की उम्र पर कर चुके इस बुजुर्ग के हाथ पांव कुछ-कुछ कांप रहे थे। फिर शुरू हुए उनके सवाल और मेरे जवाब। मैं कहां से आया हूं, क्या करता हूं, मेरा नाम क्या, जाति क्या है, धर्म क्या है, .... इत्यादि .... इत्यादि ... इत्यादि।
इस बीच मैंने ध्यान दिया कि उसे मेरे द्वारा दिए जाने वाले किसी भी जवाब में कोई रुचि नहीं है। वह तो घर के सामान इधर-उधर रखने में व्यस्त थी। इस बीच उसने सिर्फ एक ही ढंग का काम किया और वह था मुझे तौलिया देना ताकि मैं अपने गीले बालों को और कपड़ों को पोंछ सकूं। बरसात अभी भी हो रही थी। कुछ देर बाद वह ट्रे में पानी लेकर आई, " हमारे यहां कोई चाय नहीं पीता इसलिए नहीं बनती है"
मैंने धीरे से मुस्कुराते हुए कहा, "यही काफी है"।
उसने पूछा, "कुछ खाओगे ? "
मुझे कुछ भूख तो लग रही थी किंतु संकोचवश मैंने कहा, " नहीं, किंतु पूछने के लिए धन्यवाद ..."
मैंने बाहर की तरफ देखा पानी कम हो रहा था। मैंने उठते हुए कहा, " अब चलता हूं, शायद पानी निकल गया है ... "।
बाबा ने कहा, " यही सामने से निकल जाओ",
जवाब में मैंने कहा, "नहीं पीछे सड़क के पास मेरी बाइक खड़ी है"।
मैं घर के पिछले दरवाजे तक आया, पीछे-पीछे वह भी आई लेकिन जब मैंने स्वयं दरवाजा खोला तो देखा बाहर बारिश फिर से तेज हो गई थी।
दरवाजे का एक पल्लू पकड़े मैं और दूसरा पल्लू पकड़े वह, हम दोनों मौन खड़े थे। दोनों के मन में एक ही पश्न, "अब " ?
मेरे पास तो कोई समाधान था नहीं, लिहाजा मैं खामोश ही रहा। कुछ देर यूं ही खड़े रहने के बाद उसने दरवाजा बंद किया, सांकल चढ़ाई और अटारी की सीढी की तरफ चल पड़ी। मैं चकित उसे देख रहा था। सीढी के पहले पायदान में पहला कदम रखते हुए उसने पलट कर एक पल के लिए देखा, कोई शब्द नहीं, कोई इशारा नहीं, लेकिन मेरे हालात ऐसे थे कि मैं उसका अनुकरण करने के सिवा कुछ नहीं कर सकता था।
सीढ़ी के प्रत्येक पायदान को चढ़ते हुए मेरा दिल तेजी से धड़क रहा था। मैं नहीं जानता कि उसकी उम्र क्या होगी और ना ही मैंने अंदाजा लगाने की कोशिश की। लेकिन मैं तो तेईस साल का एक ऐसा लड़का था जिसने आज तक किसी लड़की से मजाक तक नहीं किया। आज वही लड़का एक सूनसान और वीरान से घर की अटारी में एक अनजानी-सी लड़की के साथ अकेला खड़ा था। उसने खिड़की खोल दी और कमरे मे हल्का-सा उजाला फैल गया।
तब मैने चारों तरफ अपनी दृष्टि घुमा कर देखा, अटारी बड़ी थी। खिड़की के ठीक बगल से एक बड़ी-सी खाट थी जिसमें एक नर्म मुलायम गद्दा बिछा था, और ऊपर से साफ सुथरा चद्दर। एक कुर्सी, एक छोटी-सी टेबल।
दीवार में कटी हुई बडी अलमारी जिसमें एक आईना, मेकअप बॉक्स, कंघी, तह किए हुए कुछ कपड़े और कुछ किताबें सलीके से रखी हुई थी। मैंने एक किताब उठाई और चुपचाप कुर्सी पर बैठ गया। और वह अपने कमरे को साफ सुथरा करने में जुट गई। मैंने किताब का टाइटल देखा - "द मर्चेंट ऑफ वेनिस" राइटर का नाम, शेक्सपियर। इस नाम से मैं अनजान नहीं था। लेकिन ज्यादा कुछ जानता भी नहीं थी और ना ही आज तक मैंने इसकी कोई किताब पढ़ी थी। मैं इंग्लिश जानता जरूर हूँ लेकिन टेक्निकल, लिटरेचरल इंग्लिश अलग होती है वह मेरे पल्ले नहीं पड़ेगी।
हिंदी मीडियम से पढ़े लड़के का भला शेक्सपियर से क्या सबंध। मैं बुक का पहला पैराग्राफ पढ़ने की भरपूर कोशिश में लगा था और वह अपने कमरे को साफ करने में। अंतर सिर्फ इतना था कि मैं अटक-अटक के पढ़ने की कोशिश में था और वह बिल्कुल प्रोफेशनल अंदाज में। कुछ ही देर बाद जब मैंने कमरे को देखा तो वह बिल्कुल साफ सुथरा हो चुका था, आईने की तरह चमकता हआ। वह खाट में बैठते हुई बोली, " पढ़ना है तो ले जाओ, पढ़कर लौटा देना"
मैंने उत्तर देने के स्थान पर प्रश्न ही पूछ लिया, " आप नॉबेल पढ़ती हैं ?"
उसने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, "हां, लेकिन यह नॉवेल नहीं ड्रामा है। मैने हाई स्कूल में पढ़ी थी।"
उसके इस जवाब ने मेरे सामने बहुत से प्रश्न खड़े कर दिए थे। आखिर यह लड़की है कौन, और इस घर में क्या कर रही है ? जिसने 10th क्लास में शेक्सपियर पढ़ा हो, निश्चित ही साधारण लड़की नहीं हो सकती। उसकी फ्रैंकनेस, उसके बात करने का लहजा, कपड़ों की चॉइस, उसके उठने बैठने का ढंग सभी कुछ तो एक पढ़ी-लिखी शहरी लड़की की तरह लगता था।
अपनी समस्त शंकाओं और प्रश्नों के जवाब तलाशने के उद्देश्य से ही मैंने उससे पूछा , " ओह ! कहां से पढ़ा है अपने 10th क्लास ?"
उसने संक्षिप्त उत्तर दिया , "बॉम्बे स्कॉटिश स्कूल ", बॉम्बे। उस समय बंबई का नाम मुंबई नहीं था।
मैं एक बार फिर हैरान। कुछ और पूछता इससे पहले वह खाट से उठती हुई बोली, " तुम बैठो मैं अभी आती हूं "। मैंने सोचा अजीब लड़की है, कहती अजनबी है, और बुलाती "तुम" है। जबकि मैं बराबर उसे "आप" से संबोधित कर रहा था।
मैंने कुर्सी खिड़की के पास कर ली और बाहर देखने लगा। पानी अभी भी उसी तरह बरस रहा था। सामने गौशाला में गाय अपने दोनों बछड़ों के साथ आ चुकी थी। शायद इसलिए कि मैंने आते समय बांस की कमटी वाला गेट खुला छोड़ दिया था। शीशम के पेड़ के नीचे खड़ी बाइक सुरक्षित भीग रही थी। कुछ देर बाद बाद वह दो कप चाय और कुछ बिस्किट लेकर सामने खड़ी थी। मैंने मुस्कुराते हुए कहा, " आपके यहां तो चाय बनती नहीं, फिर कैसे ?"
उसने भी मेरे ही अंदाज में जवाब दिया, " पहले मैं पीती थी लेकिन बाबा को पसंद नहीं था। उन्होंने स्ट्रिक्टली मुझे मना कर दिया। बस फिर मैंने भी उनके सामने पीनी बंद कर दी। लेकिन जब बाबा शाम को पूजा करते हैं तो मैं बनाकर चुपके से पी लेती हूं। लेकिन हां, पूरे दिन में एक ही बार। "
मैंने अपनी कुर्सी को टेबल के नजदीक खिसका लिया और हंसते हुए बोला, " बिल्कुल इमानदार चोर की तरह, जो गुड तो खा सकता है लेकिन गुलगुले से परहेज करता है ...."
मैं हंसता इससे पहले उसने अपने होठों पर उंगली रखते हुए कहा, " श .... शी अधिक ऊंचा मत बोलो, बाबा सुन लेंगे। "
मैं फिर चकित, " तो अपने बाबा को कह दिया कि मैं चला गया ... !!!"
"हां .... उन्होंने अचानक पूछ लिया, कुछ सूझा नहीं तो मैंने भी कह दिया कि हां ...."
मेरे अंदर गिल्ट की भावना जागृत हुई। मेरे कारण इसे झूठ बोलना पड़ा, "आई एम सो सॉरी, आपको मेरी वजह से बाबा से झूठ बोलना पड़ा"
"बदनियत से बोला गया झूठ जो किसी को आहत करें, किसी को पीड़ा दे जाए, किसी का नुकसान कर जाए नहीं बोलना चाहिए, किंतु यदि वही झूठ किसी की हिफाजत के लिए बोला जाये, किसी की परेशानी को दूर करने के लिए बोला जाए तो उसे ईश्वर भी माफ कर देता है .... ", वह बोले जा रही थी और मैं सुन रहा था।
जिंदगी के प्रति उसका दृष्टिकोण सम्मोहित कर लेने वाला था। और मैं मन ही मन सोच रहा था की मुंबई स्कूल से पढ़ी हुई इंग्लिश मीडियम की एक लड़की इतनी साफ सुथरी हिंदी और इतनी ट्रेडिशनल सोच कैसे रख सकती हैं। आखिरकार मैंने उससे पूछ ही लिया, "आपकी एजुकेशन क्या है " ?
"बैचलर ऑफ आर्ट के फर्स्ट ईयर तक। सेकंड ईयर का एग्जाम नहीं दे पाई ...."
"क्यू... ", मैंने आश्चर्य से पूछा था।
वह थोड़ा सा मुस्कुराई फिर बोली टुकड़ों में जानकर क्या करोगे, चलो मैं तुम्हें पूरी कहानी सुनाती हूं, तुम्हारा टाइम भी पास होगा। मेरे बाबा जिनसे तुम अभी मिलकर आए हो, इस गांव के लोग उन्हें ज्योतिषी पंडित जी के नाम से जानते हैं। ज्योतिष विद्या में परंगत, शुभ-अशुभ मुहूर्त के ज्ञाता। इस गांव के अधिकांश लोगों की कुंडली इन्होंने ही बनाई है।
धर्म-कांड, पूजा-पाठ करवाने के लिए लोग आज भी इन्हें बुलाते है, लेकिन वे अब कहीं जाते नहीं हैं। मेरे पापा दो भाई थे। यही इसी गांव की स्कूल में पढ़े-लिखे। धर्म-कांड करवाने की विधि, पूजा पाठ करवाने की विधि और एस्ट्रोलॉजी का ज्ञान उन्हें बाबा से ही मिला।
ग्रेजुएशन करने के बाद ताऊ जी मुंबई चले गए और इसी ज्ञान की बदौलत वहां उन्होंने अपने आप को स्थापित कर लिया। वहीं उन्होंने अपनी पसंद की शादी भी कर ली। तब मेरे पापा बाबा के पास रहते थे, और वे पढ़ाई के साथ साथ खेती-बाड़ी का काम भी देखा करते थे। बाबा की पसंद से उन्होंने शादी की और मेरा जन्म भी इसी घर में हआ था।
इस बीच ताऊजी पूरी तरह से मुंबई में सेटल हो चुके थे। उन्होंने मेरे पिताजी को भी अपने पास बुला लिया और वही एक कंपनी में नौकरी दिलवा दी। मेरी पूरी पढ़ाई वही हुई है। मेरा एक छोटा भाई भी था, जो मुझसे दो साल छोटा था।
आज से 2 साल पहले दादीजी की डेथ पर हम सभी लोग इकट्ठा हुए थे, सिवाय बड़े भैया के। ताऊ जी ने उन्हें जर्मनी से बीटेक करवाया था और वहीं पर वह जॉब करने लगे थे, इसलिए नहीं आ सके थे। छोटे भाई की हॉफ इयरली एग्जाम शुरू होने वाले थे इसलिए पापा-मम्मी, ताऊजी-ताईजी सभी लोग मुझे कुछ दिनों तक बाबा की देख-भाल करने के लिए छोड़ गए। ताऊजी ने जाते समय मुझसे कहा था कि वो जल्द ही लौट कर आएंगे और फिर मुझे और बाबा को अपने साथ मुंबई ले जाएंगे।
लेकिन फिर उनमें से कोई नहीं आया। पांच डेड बॉडी आईं .... जिस ट्रेन से जा रहे थे उसका बहुत ही भयानक एक्सीडेंट हुआ था .....
"पीहू ... ओ पीहू .... ", तभी बाबा की पुकार सुनाई दी।
वह भी जोर से चिल्लाई थी " आई बाबा ..."
उसकी बात अधूरी रह गई।
"ओह ! तो आपका नाम पीहू है ..."
"हां .... जिस दिन मेरा जन्म हुआ उसी समय एक पपीहा आम के पेड़ पर बैठकर पीहू .... पीहू .... पीहू की रट लगाए था, तो मेरे बाबा ने मेरा नाम भी पीहू ही रख दिया। अच्छा चलो तुम आराम से बैठो मैं अभी आती हूं .... ", कहती हुई वह सीढ़ियां उतरती गई।
पीहू यानी कि एक पपीहे की पुकार जो एक बूंद पानी के लिए स्वाति नक्षत्र का इंतजार करता है। नियति के खेल को उस दिन मैं नहीं समझ पाया था कि एक दिन मैं वही पपीहा बन के रह जाऊंगा जो पीहू ... पीहू... पुकारता हुआ स्वाति नक्षत्र को खोजेगा। एक पपीहे के जीवन में स्वाति नक्षत्र कई बार आता होगा, लेकिन मेरे जीवन में तो उसे सिर्फ एक ही बार आना था। ये पल, ये लम्हे वही स्वाति नक्षत्र थे, लेकिन मैं .... पूरी तरह से अनजान था।
धीरे-धीरे कमरे में अंधेरा बढ़ रहा था लेकिन बरसात उसी तरह हो रही थी। कुछ देर बाद वह फिर से आई लेकिन इस बार उसके हाथ में एक कंडील थी, " यदि मौसम इसी तरह रहा तो लाइट आने से रही इसी से काम चलाना पड़ेगा ... "
कंडील के मद्धिम प्रकाश में उसका चेहरा और उभर कर सामने आ रहा था। उसने टेबल को खिसका कर एक किनारे रखा और कंडील को उसी के ऊपर रख दिया। सामने चारपाई पर बैठते हुए उसने मुझसे कहा, "मैं पैसे दूंगी तुम मुझे इमरजेंसी लाइट ला देना, हां तो मैं कहां थी .... हां इस हादसे के बाद भैया जर्मनी से आए थे। मुंबई की जो भी प्रॉपर्टी थी वह बेच दी। कुछ पैसे बाबा को दिए कुछ अपने पास रख लिए। बोले कि पीहू की शादी में काम आएगा और वापस चले गए। हम लोग को बाद में पता चला कि उन्होंने वही की नागरिकता ले ली है। वहीं की लड़की से शादी भी कर ली है। फिर उसके बाद कभी वापस नहीं आए ..... "
मैं जानता हूं कि उसके जज्बातों को ठेस लगी है, इस समय उसका हृदय रोने को भी कर रहा है। लेकिन अपने चेहरे के समस्त भावों को किसी कुशल अभिनेता की तरह वह मुझसे छुपा रही थी। मैने भी अधिक कुरेदना ठीक नहीं समझा। मेरी तरफ से कोई प्रश्न नहीं हुआ, प्रश्न उसकी तरफ से हुआ था, "तुम्हारा नाम क्या है ..." ?
मैं आश्चर्य से बोला, " बाबा को बताया तो था!! क्या आपने ध्यान नहीं दिया ?"
"नहीं ... पर अब रहने दो। मै तुम्हे अजनबी नाम से ही बुलाऊंगी ... "
"एज यू विश ", मै मुस्कुराते हुए बोला।
"हा ... याद आया ... क्या तुम मेरे लिए शेक्सपियर की ऐज यू लाइक इट ड्रामां पढ़ने के लिए शहर से ला दोगे ?" उसके स्वर में उत्साह था और जवाब में मैंने कहा, " क्यों नहीं, यदि मिल गई तो जरूर ला दूंगा। अब मैं चलू ... ?"
उसने खिड़की से बाहर झांकते हुए कहा, " लेकिन बरसात तो उसी तरह हो रही है। कैसे जओगे ... वो भी रात .को .... " ?
"इट्स ओक... मैं चला जाऊंगा, यहां से पंद्रह किलोमीटर ही तो है फैक्ट्री, धीरे-धीरे पहुंच जाऊंगा..."
मैं उठ कर उसके नजदीक खिड़की के पास पहुंचा और खिड़की से बाहर देखने लगा। मैने कभी सोचा न था कि एक दिन हम दोनों एकसाथ इसी खिड़की से बाहर देखेंगे। मैं कुछ देर बाहर देखता उसके साथ खड़ा रहा। बाहर अंधेरा हो चुका था। बरसात उसी तरह झमाझम हो रही थी।
मैं जाने के लिए जैसे ही पलटा तो उसने मेरी कलाई पकड़ ली,
" ये सुनो ! मत जाओ ... देखो यदि तुम इसलिए जा रहे हो कि मैंने बाबा से झूठ बोला तो सच कहती हूं जानबूझकर नहीं बोला। बस बाबा ने पूछा, क्या तुम चले गए तो मेरे मुख से अचानक ही निकल गया कि हां। यदि मौसम साफ हो गया होता तो मैं तुम्हें न रोकती। लेकिन इस तरह अंधेरी रात में, इस बरसात में मैं तुम्हें न जाने दूगी। मैंने जिंदगी में अपनों को खोया है, अपनो को खोना और उसके बाद भी जीना क्या होता है, मैं अच्छी तरह से जानती हूं। यदि तुम्हारे साथ कोई हादसा हो गया, तुम्हें कुछ हो गया तो क्या मैं अपने आप को कभी माफ कर पाऊंगी, नहीं न ? तो तुम जाने की जिद क्यूं करते हो। यदि कहो तो मैं बाबा से सच कहने के लिए तैयार हूं ...."
उसकी आवाज का कंपन मुझे साफ बता रहा था कि उसकी आंखें नम हैं। मैंने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, "यदि तुम कहती हो तो नहीं जाऊंगा। अब ठीक है, लेकिन हां तुम मैनेज कर लोगी न, और मेरी बाइक ?"
उसने अपने आप को संयत करते हुए कहा, " उसकी तुम चिंता मत करो वैसे भी यह घर बस्ती से बहुत दूर है, यहां लोग दिन को भी नहीं आते-जाते सिवा फैक्ट्री के ट्रक के, तो रात को कौन आएगा ? तुम्हें बाइक सुबह वही खड़ी हुई मिलेगी। "
"लेकिन सुबह बाबा ने देख लिया तो ?"
"बाबा इस तरफ कभी नहीं आते हैं, और वैसे भी सुबह तुम निकल ही जाओगे।"
कितनी सहजता और सरलता से उसके पास मेरे सभी प्रश्नों के जवाब हैं। अंग्रेजी मीडियम से मुंबई के एक बड़े स्कूल में पढ़ी एक फ्रैंक लड़की इतनी संवेदनशील कैसे हो सकती है। यही तो हैं संस्कार जो हमें अपने घर-परिवार से मिलते हैं। अपने सम्मान को दांव पर लगा के एक अजनबी के जीवन की रक्षा करना उसे अपना पहला धर्म नजर आया, और वह वही कर रही थी। तो फिर करने दो उसे अपने धर्म का पालन। अब मैं उसमें कोई व्यवधान क्यों पैदा करूं।
मैंने निश्चय किया अब जैसा रखेगी मैं उसी तरह रहूंगा, जो कहेगी वही करूंगा, जब जाने के लिए कहेगी तभी जाऊंगा, उसकी पूरी इजाजत लेकर। मैं वापस कुर्सी पर आकर बैठ गया तभी अचानक लाइट आ गई। अटारी का दृश्य और साफ हुआ। दीवाल में एक बोर्ड लगा था जिस पर कुछ सॉकेट, स्विच और दो बल्ब। उनमें से एक जल रहा था और दूसरा बंद था। उसे देख कर अंदाजा लगाया जा सकता था कि यह जरूर नाइट बल्ब होगा।
लाइट के आते ही वह एक्टिव हो गई, ": मैं खाना बना लेती हूं, पता नहीं कब चली जाए .... "
उसने कंडील की बाती को धीमा किया, कोने में रखे टेबल फैन को टेबल में रख उसे चलूं कर दिया ..."।
तुम आराम से कपड़े उतार कर लेट जाओ, वैसे भी ये कपड़े गीले हो चुके हैं। उतार दोगे तो पंखे की हवा से सूख जएंगे ..."
"लेकिन मैं पहनूंगा क्या ?", मैं उसे बीच में टोकते हुए बोला।
"ओह ! ये तो मैं भूल ही गई ... एक मिनट रुको ...", अगले ही पल उसने अपनी अलमारी पर तह करके रखे कपड़ों में से एक टीशर्ट और सलवार निकाल मुझे देते हुए बोली, " ट्राई करो, हो जाएंगे ... "
मैं आवक था और मुझे कुछ हंसी भी आ रही थी, " ये टी-शर्ट तो ठीक है, लेकिन ये ..."
"अरे छोड़ो यार, कौन देखता है यहां ! पहन लो, देखो अब मैं आधे घंटे बाद ही आऊंगी। तुम निश्चिंत रहो, यहां कोई नहीं आएगा। और हां, आलू, मटर, गोभी की सब्जी खा लोगे न ?", मैंने स्वीकृति में अपना सर हिला दिया।
"अरे छोड़ो यार, कौन देखता है यहां ! पहन लो, देखो अब मैं आधे घंटे बाद ही आऊंगी। तुम निश्चिंत रहो, यहां कोई नहीं आएगा। और हां, आलू, मटर, गोभी की सब्जी खा लोगे न ?", मैंने स्वीकृति में अपना सर हिला दिया।
वह चली गई। मैंने अपने कपड़े उतारे और पंखे के सामने खूंटी में टांग दिए। रेड कलर की गोल गले वाली टीशर्ट और व्हाइट कलार की सलवार पहन ली और आंख बंद करके चुपचाप खाट पर नर्म मुलायम बिस्तर में लेट गया। उस समय मुझे बिल्कुल आभास नहीं हुआ कि मैं एक अजनबी घर में एक अजनबी कमरे में, अजनबी लोगों के पास हूं। ये सभी मुझे मेरे अपने लगे। मुझे महसूस हो रहा था कि जैसे इनसे मेरा संबंध आज का नहीं बहुत पुराना है। खैर मेरी इंग्लिश इतनी अच्छी नहीं थी कि मैं शेक्सपियर को पढ़ सकूं। मैं अपना मन बहलाने के लिए अलमारी तक गया और दूसरी किताबें देखने लगा।
इंग्लिश राइटर की नॉवेल, कालिदास की अभिज्ञान शकुंतलम, मेघदूत और तीन-चार हिंदी की किताबें भी मिली। एक कहानी की किताब लेकर मैं वापस बिस्तर पर लेट गया। बल्ब सिरहाने में था इसलिए पढ़ने में मुझे कोई दिक्कत नहीं हो रही थी। कहानी इंटरेस्टिंग थी, मैं पढ़ता जा रहा था, और जैसे ही तीसरी कहानी खत्म हुई वह वापस प्रकट हुई।
"ओ मय गॉड.. तुम तो इस ड्रेस में मुझे भी ज्यादा खूबसूरत नजर आते हो .... नजर न लगे।", उसने अपना मुंह बाएं हाथ से दबा रखा था और आंखें आश्चर्य से फटी हुई थी।
"आप मजाक उड़ा रही हैं ?"
"नहीं ... नहीं सच कहती हूं, ईश्वर की शपथ, खुदा की कसम ले लो यार। सच में बहुत स्वीट लग रहे हो। ... "
लेकिन जैसे ही उसका ध्यान मेरे हाथ में पकड़ी कहानी की किताब पर गया तो उसका चेहरा कुछ उतर गया। मैंने पूछा, " क्या हुआ ... "
उसने कुछ उदासी भरे स्वर में कहा, " यह मेरे पापा की स्टोरी कलेक्शन है। उन्हें लिखने का शौक था ..."
"ओह ! वेरी नाइस . ... अभी तो मैंने केवल तीन कहानियां ही पढ़ी है, इंटरेस्टिंग है। लिखने का तरीका, अदाज, वो क्या बोलते हैं राइटिंग स्टाइल बहुत ही अच्छी है ... वहीं सोचूं कि तुम्हारे पास सभी बुक लिटरेचर से संबंधित क्यूं है, लिटरेचर तो तुम्हारी जींस में है, कालिदास से ले कर शेक्सपियर तक ... ?"
मेरी बात सुनकर वह थोड़ा सा मुस्कुरा दी, " नहीं ऐसी कोई बात नहीं है। बचपन से ही पापा को इन किताबों से घिरा हुआ पाया तो मुझे भी पढ़ने का शौक हो गया। हिंदी, संस्कृत तो मुझे बचपन से ही अपने परिवार से सीखने को मिल गई। अंग्रेजी और मराठी स्कूल में पढ़ ली। मुंबई में 10th तक मराठी भाषा भी पढ़ना अनिवार्य है। हां सच कहती हूं, उसके मार्क्स भी जुड़ते हैं ... और तुम अपने बारे में कुछ बताओ ...?"
मैंने कोहनी को तकिया में टिककर चेहरा उसकी तरफ घुमाया, " मैं अपने बारे में क्या बताऊं ज्यादा कुछ बताने लायक है ही नहीं। फिर भी सुनो। हायर सेकेंडरी मैथमेटिक्स से, फिर तीन साल माइनिंग में डिप्लोमा कंप्लीट करने के बाद इंटर्नशिप में एक साल के लिए इस फैक्ट्री में हूं। रहने के लिए फैक्ट्री ने क्वाटर दिया है। खाने के लिए मेस है और ड्यूटी करने के लिए तुम्हारे घर के सामने ये शीशम का पेड़, और यहां से कुछ दूर पर माइंस, बस .... "
"और फैमिली ? ", उसने पूछा।
"हां है न, मम्मी पापा, एक बड़ी बहन, एक बड़े भाई, दोनों की शादी हो चुकी है। मम्मी पापा को इंतजार है कि मेरी ढंग की सर्विस लग जाए तो मुझे भी निपटा दे। ... बस न कि और कुछ पूछना है ?" मैंने हंसते हुए पूछा था।
"ओह ! तो अब शादी होने का इंतजार है !! वैसे कैसी लड़की चाहिए तुम्हें ..", उसने मुस्कुराते हुए पूछा था।
मैं भी उसी के अंदाज में मुस्कुराते हुए बोला, " मेरे चाहने न चाहने से क्या होता है! जरूरी नहीं की जैसा इंसान चाहता हो वही हो, जो होगा देखेंगे ..."
"कोई गर्लफ्रेंड, कोई लव अफेयर नहीं रहा ?"
"रहा भी और नहीं भी, जब मैं फाइनल ईयर में था तो कॉलेज की एक लड़की ने कुछ इंट्रेस्ट दिखाया भी था, मुझे भी गर्लफ्रेंड वाली फीलिंग हुई थी लेकिन जल्दी मालूम पड़ा कि ऐसी कोई बात नहीं है"।
" क्यों ? क्या हुआ था " ?
"क्या हुआ ? ज्यादा मैं भी कुछ नहीं जानता। दो बार डेटिंग भी हुई .... हां ये भी मुझे बाद में पता चला कि किसी रेस्टोरेंट में साथ में डिनर या लांच करने को डेटिंग कह सकते हैं ..."
"सच !! तुम्हे पता नहीं था ?"
"हां सच, तब मुझे यही मालूम था। मैने सोचा कि उसे भूख लगी है इसलिए साथ चलने को कह रही है। ऑल मोस्ट पैसे भी उसी ने पे किए थे। फिर कुछ दिनों बाद उसने अपनी सहेली से कहा कि मैं उसके टाइप का नहीं हूं, सो डंप कर दिया। एक्चुअली में मैं अंतर्मुखी स्वभाव का हूं। मैं ज्यादा घुल मिल नहीं पाता। अपनी फीलिंग आसानी से जाहिर नहीं कर पाता। पार्टी में अपने आप को कंफर्ट नहीं महसूस करता। तो मेरी रिजेक्शन का मुझे कोई खास अफसोस नहीं था। पर मुझे बड़े शहरों का कल्चर समझ नहीं आया।
पार्टी में किसी को अपने साथ ले जाओ फिर उसे छोड़ दो। दूसरों के साथ इंजॉय करो और वह बेवकूफों की तरह एक टेबल पर बैठा रहे। मुझे और भी ट्रेड जैसे इलेक्ट्रॉनिक्स, इलेक्ट्रिकल, कंप्यूटर साइंस मिल रहे थे लेकिन आज के मॉडर्न जमाने में मैंने माइनिंग ही क्यों लिया होगा ? अपने इसी स्वभाव के कारण। अब पिछले दो ढाई महीने से तो आप भी मुझे देख ही रही हैं। मेरा पूरा दिन अकेला गुजरता है। शीशम के पेड़ से लेकर माइंस के बीच .. बस।"
उसने मेरे चेहरे में नजर रखते हुए धीरे से पूछा, "तुम्हे किस तरह की लाइफ पार्टनर या गर्लफ्रेंड चाहिए ...?"
मैने सजाता से अपने मन की बात उससे शेयर की, " मैं चाहता हूं कि मेरा जो भी लाइफ पार्टनर हो वह मुझे समझ सके और मैं उसकी अनकही बातों को भी समझ जाऊं, तब तो कोई बात है। मैं किलोमीटर दूर तक भी सिर्फ उसका हाथ पकड़ कर चलता रहूं, बिना एक शब्द कहे हुए ... और वह बोर न हो ... कोई नजर में हो तो बताइएगा ....", अंत में मैने कुछ मजाकिया लहजा में बोला।
मैं कहते-कहते रक गया। अपनी बातों का उसके चेहरे पर क्या रिएक्शन हुआ देखना चाहता था। मैंने देखा वह अनिमेष मुझे देख रही थी, बिल्कुल मासूमियत से। मैंने उसके चेहरे के सामने चुटकी बजाई, "हेलो जी।... क्या हुआ ? कहानी सुनते-सुनते सो गई क्या ? "
"हूं ...नहीं तो ", वह जैसे किसी सपने से जागते हुए बोली, " सोच रही थी कि तुम जैसे इंसान को कोई डंप कैसे कर सकता है ? रियली शी वास अनलकी ..."
"नहीं ! मैं इतना खास नहीं जितना आप सोच रही हैं ", मैंने कुछ हंसते हुए कहा।
"क्या जरूरी है कि तुम मुझे आप कहो ? क्या तुमसे मैं ऐज में बड़ी लगती हूं ? सच-सच कहना ?"
"नहीं ये बात नहीं है। आप तो उम्र में मुझसे कुछ छोटी ही लगती है, किंतु सींसरिटी, इमोशन, डिवोशन, केयरिंग इन सभी में मुझसे कहीं अधिक हैं। कहा न, मैं जल्दी फ्रेंडली नहीं हो पता इसलिए आप कहता हूं। यदि मेरे आप कहने से आपको अपनी ऐज की फीलिंग होती है तो अब नहीं कहूंगा .... सॉरी। वैसे बाबा क्या कर रहे हैं। उनकी पूजा हो गई ?"
"हां हो गई है, बाहर बैठक में लेटे हैं, कम ही बोलते हैं। अपनी आंखों के सामने पूरे परिवार को खोया है। 9 बजे तक खाना खा के सो जाएंगे फिर सुबह 5 बजे उठेंगे। पता नहीं सोते भी हैं कि नहीं, पर लेटे तो रहते ही है.... आठ तो बज गए हैं। देखो मैं बाबा से पूछ कर आती हूं, हो सकता है वो अभी डिनर कर ले ... "
वह फिर से चली गई और मैं चौथी कहानी पढ़ने लगा। कहानी पढ़ने पढ़ने पता नहीं मेरी आंख कब लग गईं। मैं कुछ सो रहा था और कुछ जाग रहा था कि तभी आहट हुई। मैंने देखा वह थाली लिए हुए मेरे सामने खड़ी है, " उठो ! जरा उधर से चटाई उठाकर इधर तो बिछाना ... "
मैंने उसकी आज्ञा का पालन किया। चटाई बिछा दी। उसने थाली को चटाई के ऊपर रख दिया फिर बोली, "रुकना मैं अभी आती हूँ।"
इस बार जब वह लौट कर आई तो उसके हाथ में पानी का जग और दो गिलास थे। फिर मुझे गिलास में पानी देते हुए बोली, " लो हाथ धो लो ... "
मैंने उसके हाथ से गिलास थाम लिया और खिड़की के बाहर हाथ धो कर उसके सामने चटाई में बैठ गया। थाली और उसके ऊपर ढकी हुई एक और थाली थी। जैसे ही उसने ऊपर वाली थाली हटाई, अटारी सब्जी की खुशबू से महक गई। आलू-गोभी-टमाटर की ग्रेवी वाली सब्जी, राइस पुलाव, आम का अचार और गरमा-गरम पूरियां। दो छोटी-छोटी कटोरियों में उसने सब्जी डाली, फिर एक कटोरी सब्जी, कुछ पूरियां और आम का अचार एक थाली में परोस कर मेरी तरफ बढ़ते हुए कहा, "लो शुरू करो"।
"और तुम ? ", मैंने प्रश्न वाचक दृष्टि लिए उसकी तरफ देखते हुए पूछा। प्रतिउत्तर में उसने मेरी ही थाली से पुरी का एक कौर तोड़ते हुए दूसरी कटोरी की सब्जी में डुबोकर कहा " मैं भी खाऊंगी न, अब तुम भी तो शुरू करो ...।"
सब्जी की कटोरिया अलग-अलग थी। आचार और पूरियां साझे की। दूसरी थाली में शेष सामग्री रखी थी। जो भी कम पड़ता हम उसी से लेते जाते। अचानक लाइट गुल हो गई। उसने पास ही रखी कंडील की बाती बढ़ा दी। अटारी में पर्याप्त उजाला फिर से हो गया। मैं अपनी हसी न रोक पाया।
"ये चुप , कहा न नीचे बाबा है " , उसने मुझे कुछ डांटते हुए और कृत्रिम गुस्सा दिखाते हुए कहा था। मैं चुप हो गया। फिर उसने मुझसे पूछा, " वैसे तुम हंसे क्यों ? "
मैं शरारती लहजे से बोला, "कैंडल-डिनर तो सुना है, लेकिन कंडील-डिनर पहली बार देखा रहा हूं और कर भी रहा हूं, वैसे क्या मैं इसे हमारी फर्स्ट डेट समझूं ?"
"हूं, समझ सकते हो " , उसने थाली में पुलाव डालते हुए कुछ धीमी आवाज में मुझसे कहा।
"कहीं तुम भी मुझे डंप तो नहीं कर दोगी ? "
"क्या पता, पर इतना कहती हूं, डंप नहीं करूंगी। हां हो सकता है एकदिन छोड़कर ही चली जाऊं", उसके स्वर में एक अजीब सी उदासी थी। मेरी रूह कांप गई, "मैं समझा नहीं ?"
तब वह कुछ मुस्कुराते हुए बोली, " कुछ समझने की जरूरत नहीं है, लो पुलाव खाओ ", फिर उसने अपने हाथ से ही एक कौर बनाकर मेरे मुख में डाल दिया। फिर एक कौर स्वयं खाया"।
फिर मुझसे कहा, " अब देख क्या रहे हो उठाओ और स्वयं खाओ .... "
मैंने प्रतिरोध किया, " नहीं आदत बिगाड़ दी, अब तुम्हें खिलाना पड़ेगा ...."
"चलो ठीक है मैं ही खिला देती हूं" , उसने थाली अपनी गोद में रखी और मेरी तरफ थोड़ा-सा और खिसक आई। "
कुछ देर में डिनर समाप्त हुआ। उसने बर्तन समेटे और एक जग पानी और गिलास लेकर वापस लौटी। उन्हें टेबल में किनारे रख दिया। चटाई को झटक कर फिर बिछाया और उसके ऊपर एक दरी, फिर मुझसे बोली, "तकिया मुझे दे दो ...,"
मैं उछल पड़ा " तो क्या तुम यहां लेटोगी ?"
"और नहीं तो क्या मैं हमेशा यहीं सोती हूँ ... क्या मेरे यहां सोने से किसी विश्वामित्र की तपस्या भंग हो जाएगी ? "
"नहीं मेरा मतलब ये नहीं था, चलो हटो तुम चारपाई पर पड़ जाओ मैं नीचे पड़ जाऊंगा।", मैं अपने आप को कुछ असहज महसूस कर रहा था।
"नहीं पहली बरसात है न, कीड़े-मकोड़े निकालते रहते है, तुम ऊपर ही लेटो", यह कहते हुए उसने मेरे सिरहाने से तकिया निकाल ली और नीचे लेट गई।
"अजीब बात है, मेरी चिंता करती हो और खुद की नहीं ? क्या कीड़े-मकोड़े तुम्हारे सगे संबंधी हैं या फिर तुम्हारे दोस्त हैं ", मैंने कुछ मुस्कुराते हुए पूछा।
"तुम मेरे परमेश्वर हो, वो क्या कहते हैं, अतिथि देवो भव", उसने भी मुस्कुराते हुए मेरे ही अंदाज में कहा।
"मान लो कि यदि मैं परमेश्वर हूं, तब मैं अपनी हिफाजत स्वयं कर सकता हूँ ? भक्तों को चिंता नहीं करनी चाहिए ... है न ?"
"वो सब मै नहीं जानती, जो मैं कह रही हूं, बस सुनो और मानो ....", उसने दृढ़ता से कहा। बस यही प्रोमिस तो मैं खुद भी अपने आप से कर चुका था। तभी लाइट आ गई। वह उठी। जग और गिलास को खिड़की में रखा। टेबल फैन को टेबल में। एक स्विच ऑफ, और दो स्विच ऑन। पंखा और नाइट बल्ब चालू। वह फिर लेट गई। स्थित कुछ इस प्रकार थी, पंखा, वह और उसके बाद मैं। मैने अपनी आंखे ऊपर छत में जमाए हुए ही बोला, " पीहू ! यदि बिजली फिर से चली गई तो ?"
उसने धीरे से कहा, "डरना मत, मैं हूं न तुम्हारे पास ..."
मैने उससे भी धीरे आवाज में बोला, " इसी बात का तो डर है ..."
"क्या कहा ...", इस बार उसकी आवाज पहले से तेज थी।
मैने डरने का अभिनय करते हुए कहा , " नहीं कुछ भी तो नहीं ....."
यद्यपि मैं उसे देख तो नहीं रहा था किन्तु मुझे महसूस हुआ जैसे वह अपनी हंसी को रोकने की चेष्टा कर रही हैं। तभी बिजली चली गई लेकिन मैं चुप रहा।
तब उसने पुकारा " अजनबी ! डर लग रहा है ...?"
मैने धीरे से कहा , " हूं ... कुछ-कुछ ...."
"तो लो मेरा हाथ पकड़ लो, फिर डर नहीं लगेगा ...",
उसने अपना दाहिना हाथ चारपाई की पाटी में रखते हुए कहा।
मैने उसका हाथ पकड़ लिया। मैं सच कहता हूं, मैं सो कॉल्ड गर्लफ्रेंड-ब्वॉयफ्रेंड वाले एक रिश्ते से गुजर चुका था, लेकिन मैने कभी भी उसे टच करने की और न ही उसका हाथ थामने की कोशिश की। कभी मन में आया ही नहीं।
लेकिन पता नहीं क्यूं आज मैं चाहता था कि पीहू अपना हाथ आगे बढ़ाए और मैं किसी भी बहाने से उसे थाम लू। वह मेरी केयर करे, मुझसे बाते करे, मुझे प्यार करे जैसे कि एक प्रेमिका या फिर एक पत्नी। शायद इसी "पता नहीं क्यूं" को प्रेम कहते हों ? नहीं जनता। उसके हाथ को थाम कर मुझमें उत्तेजना कम और मन को सुकून अधिक मिला। जैसा कि उसने कहा कि इस बरसात का पहला पानी बरसा है, सांप- बिच्छू भी निकले होंगे। क्या पता इस अटारी में भी आ जाएं। इतना सोचते हैं मेरा दिल तेजी से धड़क उठा।
मैने उसे फिर पुकारा, " पीहू ! ...... सुन रही हो न "
" हूं .... सुन रही हूं ... बोलो ?"
" हूं .... सुन रही हूं ... बोलो ?"
"मैं अंधेरे से नहीं डर रहा ... अभी कुछ देर पहले तुमने कहा न ... वहीं कीड़े-मकोड़ों की बात .... मुझे तुम्हारे लिए डर लग रहा है ...." , मैने किसी तरह अपनी बात पूरी की थी यह सोचते हुए कि पता नहीं वह मुझे कैसे जज करेगी।
लेकिन उसने सिंपल दंग से पूछा " तो ? कोई रास्ता है क्या ? मरना तो मैं भी नहीं चाहती ..."
"हूँ ... है न ... तुम भी चारपाई पर आ जाओ ... तुम चादर ओढ़ लेना। हम दोनों एकदूसरे पर और खुद पर विश्वास तो कर सकते हैं न ? "
वह हंसते हुए बोली, " इतनी फिलासफी बताने की जरूरत नहीं है, चलो खिसको .... पकड़ो तकिया ... "
मैने तकिया ले ली, और बिस्तर के किनारे आ गया। खिड़की खुली थी, कुछ उजाला आ रहा था या फिर कुछ अंधेरा होने से आंखों ने खुद को एडजेस्ट कर लिया था। वह उठी, एक स्विच ऑफ किया, शायद नाइट बल्ब का। फिर मेरे बगल में आ के लेट गई।
मैने चद्दर उसकी तरफ बढ़ाई लेकिन उसने ओढ़ने के स्थान में उसे तह कर के अपने सिरहाने रख लिया।
फिर मेरी बाईं हथेली को अपने गाल के नीचे रखते हुए मेरी तरफ पलटते हुए पूछा " अब तो नहीं लग रहा न डर ? "
फिर मेरी बाईं हथेली को अपने गाल के नीचे रखते हुए मेरी तरफ पलटते हुए पूछा " अब तो नहीं लग रहा न डर ? "
" नहीं ...."
कुछ देर चुप रहने के बाद उसने कहना शुरू किया, "मेरे बाबा कहते हैं, वैसे तो प्रत्येक जीव में और निर्जीव में भी ईशर का वास होता है, लेकिन किसी-किसी में अधिक ही होता है। शायद इसीलिए प्रत्येक पत्थर देवता की तरह नहीं पूजा जाता ... जानते हो अजनबी ! इसी गौशाला के पास आज से दो साल पहले मेरे पापा-मम्मी, ताऊजी-ताईजी और भाई की लाश रखी गई थी। वो दिन था और आज का दिन है, तब से मैं हमेशा इसी अटारी में सोती आ रही हूं। कल तक मैं महसूस करती थी कि जैसे उन सभी की आत्मा यही भटक रही है। लेकिन आज उनके भटकने का एहसास नहीं हो रहा है, बल्कि लगता है जैसे उन्हें मुक्ति मिल गई हो। तुम यहां उनके मुक्तिदाता बन के आए, निश्चित ही तुम्हारे अंदर देवताओं का वास हैं ... थैंक्स ... यहां आने के लिए ..."
यह सब कहते कहते उसकी हिचकियां फूट पड़ी, मेरी हथेली उसके आंसुओं से गीली होने लगी। यदि आपका मित्र दुखी हो, रो रहा हो, तो सारे लिंग-भेद, जाति, धर्म को भूल कर उसे गले लगाना चाहिए। यही मित्रता का धर्म है। और मुझे मित्रता के उसी धर्म को निभाना था। मैने उसे कुछ अपनी तरफ खींच के अपने गले से लगा लिया, " न... पीहू मत रोओ, मैं कोई देवता नहीं, न ही कोई पत्थर देवता होता है। हमारा विश्वास ही उसे देवता बनाता है। तुम मुझे उसी विश्वास के साथ देख रही हो, मान रही हो, वरना ऐसी कोई बात नहीं ..."
वह सिसकती जा रही थी, और मैं अब उसे चुप भी नहीं करना चाहता था। इन आंसुओं का बह जाना भी जरूरी था।
मैं बस उसके बालों को, उसके सर को सहलाता जा रहा था। कई बार मैने भी खुद को रोने से रोका, लेकिन मेरी भी आँखें सजल हुईं। कुछ देर में ही वह भी रोते-रोते सो गई।
कितना कुछ इंसान के अंदर छुपा होता है। ऊपरि तौर से हंसता-मुस्कुराता रहता है, और अंदर ना जाने कितने तूफान, न जाने कितने दर्द छिपाए रहता है। यह भी मेरे जैसी अंतर्मुखी है। तभी तो जब मैं अपने अफेयर और अपनी पसंद की लड़की के बारे में अपनी फीलिंग उससे शेयर कर रहा था तो मंत्रमुग्ध और अनिमेष सुन रही थी। लेकिन प्रश्न ये था कि यदि उसने अपनी समस्त भावनाओं और अपने जीवन के दर्द की अभिव्यक्ति इतनी सहजता से मुझसे की तो फिर मैं इसके लिए अजनबी क्यों ?
लगभग 5 घंटे पहले मैं गौशाल के सामने खड़ा था। पहली बार पीहू से इशारों में बात की थी, और अब वह अपने सभी दर्द भूल मुझे अपनी बाहों के बंधन में बांध निश्चिन्त सो रही है, बिल्कुल सहज, सरल और शांत। मेरी पीठ पर उसकी बाह की पकड़ कुछ ऐसी है जैसे वह मुझे अब कभी भी खुद से दूर नहीं जाने देगी।
यदि मैं अपनी कहूं तो मैं अभी तक किसी दर्द से नहीं गुजरा, न अपनो को खोया, न किसी से जुदा हुआ। लेकिन उसके दर्द मुझे मेरे अपने लगे। उसे दिलासा देते समय मैं खुद क्यूं रोया ? उसके कुछ अधूरे आंसू मेरी आंखों से क्यूं बहे ? यह प्रेम नहीं तो क्या है ? लेकिन अलग ही स्तर का प्रेम। जिसमें सरलता है, सहजता है और इन सबसे बढ़कर विश्वास है। क्या सुबह मुझे अपनी सारी फीलिंग्स इससे कहनी चाहिए ?
नहीं, अभी नहीं। अभी उसे समय देना चाहिए। कही उसे यह महसूस न हो कि उसके कुछ कमजोर पलों का मैने भावनात्मक रूप से फायदा उठाने की कोशिश की। लेकिन मैने जो प्रेम और विश्वाश अपने प्रति उसकी निगाहों में देखा है, निश्चित ही समय आने पर उसकी जुबान पर भी आएगा। मुझे तो करना है सिर्फ उन पलों का उन लम्हों का इंतजार। यदि ना आए तो मैं उन्हें खींच कर लाऊंगा। तय कर लिया, अब किन्हीं भी हालात में मै उसे अपनी जिंदगी से दूर न जाने दूंगा।
मैंने एकबार फिर उसके चेहरे की तरफ प्यार से देखा, उसके माथे को चूमा और फिर मैं भी कब सो गया पता ही नहीं चला।
सुबह मैं उठा नहीं बल्कि उठाया गया। एक नए अंदाज में, मेरे गालों में तेजी से चिकोटि काटी गई, "उठो, सुबह के पाँच बज गए, बाबा स्नान कर रहे हैं, लो चाय पियो .... मैं अभी आती हूं "
वह चली गई। मैं उठा, सबसे पहले मैंने अपने कपड़े बदले। उसके कपड़ों को तह करके अलमारी में रख दिया। फिर चाय पी ही रहा था तब वह वापस आ गई। बाहर उजाला फैलना शुरू हो गया था।
"ब्रेकफास्ट में क्या खाओगे", उसने बड़ी ही शालीनता के साथ चाय का कप उठाते हुए मुझसे पूछा।
"कुछ नहीं, अभी तो मैं अपने कमरे जाऊंगा फिर तैयार हो कर यहीं आऊंगा, खाना मेस में खा लूंगा।"
मैं जल्दी-जल्दी अपने जूते पहने और बाहर आ गया। सीढ़ी उतरते समय मैंने पलट कर उससे कहा, " बाय, फिर मिलते हैं"। कहने को बहुत कुछ था लेकिन हम दोनों ही खामोश थे। मैंने अपनी बाइक स्टार्ट की खिड़की की तरफ देखा और उसे खिड़की पर खड़े हुए पाया। यूं तो इसी जगह से मैंने उसे कई बार इस खिड़की पर खड़े हुए देखा था, एक अजनबी की तरह। लेकिन आज वह मेरे लिए अजनबी नहीं थी मेरी अपनी थी। उसकी वो जाने।
उस दिन कंपनी की मीटिंग में सभी अंडर ट्रेनी को ऑफिस वर्क और बॉक्साइट अयस्क के परिशोधन की कार्य प्रणाली को समझने के लिए एक माह तक प्लांट में रखने का फैसला लिया गया। शाम को 5 बजे फुर्सत हआ। चूंकि यहां का बॉक्साइट हिंडालको कंपनी रेणुकूट को सप्लाई होता था, परिशोधन के लिए एक बड़ा संयंत्र स्थापित किया गया था। इसलिए आसपास का इलाका काफी डेवलप हो चुका था। यहां से लगभग 50 किलोमीटर मुख्य शहर था। मैने जल्दी से दो इमरजेंसी लाइट खरीदी। यहां शेक्सपियर की एज यू लाइक इट ड्रामा बुक मिलने का तो सवाल ही नहीं था।
जून के अंतिम सप्ताह के दिन थे। मौसम खुला हुआ था। अभी शाम होने में काफी वक्त था। मैंने तय किया की मैं आज ही इमरजेंसी लइट पहुंचाऊंगा और फिर मौका मिलते ही अपने बारे में बताऊंगा कि अब एक माह तक मैं फिल्ड में नहीं आऊंगा।
जब मैं घर के पीछे पहुंचा तो अटारी की खिड़की खुली हुई थी। मैंने लगभग दस मिनट इंतजार किया लेकिन वह नहीं आई। शायद उसने दिन भर मेरा इंतजार किया होगा और थक हार कर उसने अब इंतजार करना छोड़ दिया होगा। अब मेरे पास एक ही रास्ता था कि मैं सामने के दरवाजे में दस्तक दूं। द्वार को तीनों तरफ से पक्की बउंड्री बनकर आंगन का रूप दिया गया था। मेन गेट में थपकी देते हुए पुकारा "बाबा"। लेकिन कोई आहट नहीं मिली तब मैंने तेजी से पुकारा "बाबा" और दरवाजे में पहले की अपेक्षा तेज थपकी दी। चंद सेकंड में दरवाजा खुला सामने वह खड़ी थी।
अपने चेहरे में आई लाली और आंखों की चमक को छुपाती हई वह मुझसे बोली, "इस समय !! पूरे दिन कहां थे ?"
मैंने उसे सब कुछ बताया फिर इमरजेंसी लाइट उसकी तरफ बढ़ते हुए बोला, " तुमने कहा था न लाने के लिए ?"
"हां, अंदर आ जाओ बाबा से मिलकर जाना ..", वह दरवाजे से हटते हुए बोली।
बाबा बैठक में उसी तख्त में बैठे हुए थे। मैंने हाथ जोड़कर अभिवादन किया। बाबा की वृद्ध आंखें संकुचित हई और दिमाग में जोर डालते हुए बोले, "अरे, तुम वही हो न जो कल आए थे, आज कैसे ?"
मैं कुछ बोलता कि इससे पहले पीहू बोल उठी, "बाबा, इमरजेंसी लाइट खराब हो गई हैं, मैंने नई मंगाई थी वही देने के लिए आए हैं ..."
"अच्छा किया बरसात शुरू हो गई है, लाइट का कोई भरोसा नहीं रहता", फिर मुझसे बोले, "तुम बैठो"
मैं कुर्सी में बैठ गया। मैंने कुछ बात करने के इरादे से उनसे बोला, " गांव के लोगों ने मुझे बताया है कि आपको ज्योतिष विद्या का बहुत अच्छा ज्ञान है ..... मतलब आपकी भविष्यवाणी अधिकांशत: सही होती है ?"
"बेटा मैंने तो आज तक कोई भविष्यवाणी नहीं की है, हां कुंडली जरूर बनाई है और उसे देखकर कुछ अनुमान लगा लेता हूं, बस इतना ही है। हो सकता है कुछ लोगों के लिए सही हो जाती हों ", उन्होंने मुस्कुराते हो कहा।
मैंने भी कुछ मुस्कुराते हुए उनसे कहा, " आप मेरी भी कुंडली बना दीजिए, हमारे यहां इन सब चीजों को नहीं मानते हैं, इसलिए किसी की भी नहीं बनी है"
तभी पीहू ट्रे में पानी का गिलास रखे हुए पास आई थी, "कुंडली की क्या जरूरत पड़ गई, शादी कर रहे हो क्या ?"
"नहीं मन में जिज्ञासा है, इसलिए बाबा से कह रहा था ", मैंने अपनी सफाई पेश की।
तब बाबा बोले "अच्छी बात है, मानना न मानना तो हमारे ऊपर है, पर ग्रह नक्षत्र का प्रभाव हम पर पड़ता है और यह जन्म से ही पड़ता है। जन्म के समय ग्रह और नक्षत्र की स्थिति स्वभाव, भाग्य और भविष्य की घटनाओं को प्रभावित करती हैं। हम इसके द्वारा व्यक्ति के स्वभाव का अनुमान भी लगा सकते हैं। यह प्राचीन विद्या है जो काफी हद तक वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित है। हमारे जितने भी प्राचीन खगोल शास्त्री और ज्योतिषी थे उन्होंने जो तथ्य प्रस्तुत किए आज उसे विज्ञान प्रमाणित करता है। यदि तुम्हारी इच्छा है तो मैं तुम्हारी कुंडली बना दूंगा। अपनी जन्मतिथि समय और स्थान का विवरण लिख दो ...", फिर वे पीहू से बोले, "पीहू ! इन्हें एक कागज और पेन दे दो और इमरजेंसी लाइट के पैसे न दिए हों तो वो भी दे दो ...",
फिर उन्होंने मेरी तरफ देखा। मैं समझ गया। मैंने जेब से रसीद निकाली और पीहू को देते हुए बोला, " वन ईयर वारंटी है, संभल के रखना।"
मैं मन ही मन सोच रहा था बाबा पोंगा पंडित नहीं है बल्कि पढ़े-लिखे और समझदार व्यक्ति हैं। ज्योतिष विज्ञान की समझ तो है ही, आधुनिक ज्ञान विज्ञान की भी समझ रखते हैं।
कुछ देर में पीहू ने एक कागज पेन और पैसे लाकर मुझे दे दिए। मैंने बाबा के कहे अनुसार अपनी डिटेल लिखी और जाने के लिए बाबा से इजाजत मांगी ..."
लेकिन यह क्या मेरे अनुमान के विरुद्ध उन्होंने मुझसे कहा, "रात हो रही है, कहां जाओगे, आज यहीं रुको, कल सुबह निकल जाना ..."
मैंने पीहू की तरफ देखा कि उसका इशारा क्या है, मैं रुकूं या जाऊं? और उसका इशारा स्पष्ट था, "एज यू विश ..."
फिर भी मैंने अपनी तरफ से न रुकने की पूरी कोशिश करते हुए कहा, " बाबा, असुविधा होगी, आपको भी और मुझे भी ..."
उन्होंने मुझे बीच में ही टोकते हुए कहा, "हमें तो कोई असुविधा नहीं होगी और न ही तुम्हें होने देंगे। और हां, पीहू के बड़े भाई के कुछ कपड़े भी रखे है, वो तुम पर फिट आयेगे ...."
अब न रुकने की मेरे पास कोई वजह नहीं थी। वातावरण में कुछ उमस थी। मैंने स्नान करने की इच्छा जाहिर की। पीहू ने कपड़े तौलिया का इंतजाम किया। वही आंगन के एक कोने में स्नान करने के लिए बाथरूम था। जब मैं नहा कर वापस आया तो पीहू और बाबा को एक साथ बैठे हुए पाया। दोनों में कुछ सीरियस डिस्कशन हो रहा था। मैने जब जानना चाहा तो उन्होंने कहा, " कुछ नहीं ! तुम्हारी जन्म-कुंडली बनाई है। उसी के बारे में चर्चा कर रहा था ....."
उनकी बात पूरी होती और वह कुछ और बताते इससे पहले ही पीहू बोली, " क्या बाबा आप भी ? क्या बात लेकर बैठ गए, यह सब बाद में बताइएगा, कौन सी जल्दी है ...."
"लेकिन बात क्या है ...", मैने जानना चाहा।
"कुछ नहीं ..... और बाबा आप .... पूजा नहीं करेंगे ....", उसने विषयवस्तु बदल दी।
बाबा जब बाथरूम में हाथ पैर धोने चले गए तब वह बोली, " कुर्ता पैजामा में बिल्कुल हीरो लगते हो ..."
"लगना ही पड़ेगा ...", फिर मैने उसकी तरफ शरारत से देखते हुए बोला, "तुम हीरोइन जो लगती हो ...."
वह हंसते हुए बोली, "फ्लर्ट कर रहे हो ..."
मैं कुर्सी में बैठ गया और वह बैठक की देहरी में। घर के सामने का भाग पक्का था और पीछे का कच्चा।
"तुम्हें बाबा को कुंडली बनाने के लिए नहीं कहना चाहिए था। तुम्हारी कुंडली बनाने के बाद उन्होंने मेरी कुंडली मंगाई थी, दोनों को देखने के बाद उन्होंने आसमान की तरह चेहरा करके आंखें बंद कर मुझसे कहा कि तुम्हारा इस घर में आना ईश्वर की मर्जी अर्थात नियति है। हमें तुम्हारा स्वागत करना चाहिए। फिर उन्होंने कुंडली के अनुसार तुम्हारा नाम भी बताया देवेंद्र .... जानती हो इस नाम का क्या अर्थ है?"
"नहीं... ", मैंने उसकी तरफ प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा।
" देवेंद्र .... अर्थात देवताओं का राजा"
" वो कौन है ?"
"इंद्र देव ..... उन्हीं का पर्यायवाची है देवेंद्र .... समझे"
उसकी यह बातें सुनकर मुझे हंसी आ रही थी, "जी समझे ..... क्या बाबा !! अपनी पोती का नाम आधुनिक रखा और मेरा इतना ट्रेडिशनल? यह तो नाइंसाफी है।"
"पीहू नाम मेरा निक नेम है ... राशि का नाम देवप्रिया है, जिसे पापा ने स्कूल में बदलकर शचि करवा दिया था, बोले दोनों का मतलब एक ही है ..."
"अब उसका भी कोई अर्थ है ...?"
"हां ... है न। इंद्र की पत्नी का नाम शचि है ... असुरराज पलोमा की पुत्री ...", उसने मेरी तरफ मुस्कुराते हुए कहा।
"अब तुम फ्लर्ट कर रही हो ....", मै हंस था।
मेरी बात पूरी होती उससे पहले बाबा आ गए। बैठक के दोनों छोर में दो कमरे थे। बाबा के आते ही पीहू बाथरूम में घुसी और जल्दी से बाहर भी आई और उत्तर दिशा वाले कमरे में चली गई। कुछ ही देर बाद वापस आते हुए बाबा से बोली, " सब तैयारी कर दी है .... ", बाबा उसके सर पर हाथ फेरते हुए उसी कमरे में घुस गए।
"अब बाबा एक घंटे बिजी रहेंगे ... तुम चाय पिओगे न ...?"
"नेकी और पूछ- पूछ ..."
पांच मिनिट बाद हम दोनों चाय पी रहे थे।
"सॉरी .... कल रात मैं कुछ ज्यादा ही जज़्बाती हो गई थी ... पता नहीं क्यूं ? .... तुम्हें कहती तो अजनबी हूं, लेकिन बहुत अपने से लगते हो ... इसलिए सब कुछ कह गई .... "
"मुझे भी अच्छा लगा .... सच .... मैं अंतर्मुखी स्वभाव का जरूर हूँ लेकिन इंसानी जज्बात समझता हूं .... जल्दी सोशल और फ्रैंक नहीं हो पाता लेकिन अपनों के साथ कैसा बर्ताव करना चाहिए मैं जानता हूं .... मैंने मजाक में भी किसी के जज्बातों की हंसी नहीं उड़ाई .... तुमने मुझे अपना समझा यह मेरे लिए बहुत बड़ी बात है .... और हमेशा रहेगी ..."
"जानते हो जब मैंने तुम्हें पहली बार पेड़ के नीचे खड़ा हुआ देखा तो मैं समझी कि शायद तुम मुझे लाइन मारने के लिए खड़े हो .... लेकिन तुमने तो मेरी तरफ ध्यान ही नहीं दिया ... तुम अपनी डायरी में कुछ नोट करते .... और ट्रक आगे बढ़ जाते .... तुम फिर उसी पेड़ के नीचे जाकर खड़े हो जाते। मुझे अजीब-सा लगता, आखिर तुम करते क्या हो ? एकबार मन में आया जाकर तुमसे पूछूं, लेकिन फिर लगा क्या पूछूंगी ... एक अजनबी से क्या बात करना ...."
"फिर ...?", मैने मुस्कुराते हुए पूछा।
"फिर क्या ... एकदिन मेरे अंतर्मन से आवाज आई कि तुम एक दिन मेरे पास जरूर आओगे, जैसे कोई भविष्यवाणी हुई हो ... और मैंने फिर उस दिन का इंतजार करना शुरू कर दिया .... और देखो तुम आए। कल इसी कुदरत ने तुम्हें मेरे सामने ला के खड़ा कर दिया .... "
"अच्छा !!! तो तुम मेरे आने का इंतजार कर रही थी ?", मैने मुस्कुराते हुए फिर पूछा।
"ईमानदारी से कहूं ... तो हां...", उसने मेरे हाथ से चाय का खाली कप लेते हुए कहा।
"बाबा काफी देर तक पूजा करते हैं, शुरू से है कि ....", मैने यूं ही पूछ लिया।
"नहीं ... पूजा तो शुरू से करते देखा है। लेकिन हां, पिछले दो साल से टाइमिंग बढ़ गई है .... जब जिंदगी में यातनाएं बढ़ जाती है तो इंसान के पास ईश्वर को याद करने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं होता.... हम उसके और निकट होते चले जाते हैं। कुछ लोगों का विश्वास डगमगा जाता है, तो कुछ लोगों का बढ़ जाता है। .... बाबा स्वभाव से ट्रेडिशनल नहीं है और न बहुत ही आधुनिक है। पॉजिटिव थिंकर हैं। नियति और कर्मफल दोनों पर एक समान विश्वास रखते हैं। कभी भी मैंने उन्हें ईश्वर को कोसते हुए नहीं देखा। .... कल बरसात होने से उमस बढ़ गई न ? मैं पंखा लगा देती हूं .... देखो तो तुम्हारे माथे पर कैसे पसीना आने लगा ...",
वह पास आई और पहले अपनी चुनरी से मेरे माथे में गर्मी से उभर आई पसीने की बूंदों को पोछा ... फिर टेबल फैन मेरे पास रख उसे चलूं करते हुए बोली, "यदि 'तुम' से फिर 'आप' पर न आना हो तो एक बात बताऊं .…."
"ओह ! तो तुम मुझसे बड़ी हो, है न ...", मैंने उसकी तरफ मुस्कुरा कर देखते हुए अनुमान लगाया। बदले में वह भी मुस्कुराई और इकरार में अपना सर धीरे से हिला दिया।
मैने फिर पूछा, "अच्छा ! तो बताओ कितनी बड़ी हो मुझसे ...."
तब उसने कुछ लजाते हुए अपने दाहिने हाथ की तर्जनी मुझे दिखा दी।
मैने फिर अनुमान लगाया, " एक साल ....?"
उसने इंकार में सिर हिलाया, "नहीं ..."
"एक महीने ....?"
उसने फिर इंकार में सिर हिलाया।
" तो एक हफ्ते ...", लेकिन वह खामोश।
"तो फिर एक दिन तो हो होगा ही ..."
"ऊ हूँ ...", फिर इंकार।
"नहीं ..... तो अब तुम्ही बताओ ...?", मैंने अपनी हार मानते हुए कहा।
वह थोड़ा सा और मुस्कराते हुए बोली, "पूरे एक घंटे ...", फिर उसकी मुस्कुराहट खिलखिलाहट में बदल गई।
"मतलब हम दोनों का बर्थडे सेम डे, सेम ईयर है ... वॉव", मैं उत्साहित होते हुए बोला।
"सब्जी कौन सी बनाऊं ? .... बंद गोभी, आलू-टमाटर-बैगन, कद्दू, लौकी या फिर पालक-आलू ..."
"कुछ भी जो तुम्हें और बाबा को पसंद हो, मैं खा लूंगा ....", मैने लापरवाही से कंधे उचकाते हुए बोला।
वह पल भर में एक टोकरी में एक लौकी, कुछ टमाटर, चाकू, छिलनी लेकर हाजिर हुई।
"दोपहर अरहर की दाल बनाई थी, फ्रिज में रखी है, उसे फ्राई कर लूंगी, और थोड़ी से चावल बना लूंगी। चल जाएगा न ?"
मैंने हंसते हुए कहा, " दौड़ जाएगा ... "
सब्जी कटने लगी। दोनों आमने-सामने बैठे थे। बीच में एक कुर्सी और थी, जिसमें सब्जी की टोकरी और एक थाली रखी थी। पंखा उसके पीछे लगभग तीस डिग्री के कोण पर रखा हुआ था। उसे कुछ हवा लग रही थी और मुझे अधिक।
उसने पूछा, "तुम्हारा उपनयन संस्कार हुआ है ?"
प्रश्न अप्रत्याशित था विषय वस्तु से अलग जिसकी कल्पना नहीं की थी। मैंने आश्चर्य से पूछा, " उपनयन संस्कार .... मतलब ?"
"मुंडन ...!!!"
"ओह, मुंडन ..... हुआ होगा बचपन में, मुझे याद नहीं .... लेकिन पूछा क्यूं ?", मैंने आश्चर्य से पूछा।
प्रतिउत्तर में उसने मेरे बाल की तरफ इशारा कर कुछ मुस्कुराते हुए कहा, "देखो तो कितने बड़े हैं, कैसे हवा में फ़ुरुर-फ़ुरुर उड़ रहे हैं .... बड़े बाल रखने का शौक है ...?"
"नहीं ऐसी ही, थोड़ा आलसी हूं ... कटवाना भूल जाता हूं, तुम्हें पसंद नहीं ...?"
उसने फिर मुस्कुराते हुए मेरी आंखों में झांकते हुए कहा, "ऊं हूँ ... "
"ठीक है पसंद नहीं तो कल कटवा लेंगे ... अब ठीक ?"
"किसने कहा कि मुझे पसंद नहीं .....?"
"अभी तो तुमने ही ....!!!", मैंने आश्चर्य जताते हुए कहा।
"तुम बिल्कुल बद्धू हो .... जब कोई लड़की होठों में मुस्कान दिए इंकार करती है, तो उसे इकरार समझना चाहिए ... समझे .... कटवाना नहीं थोड़ा सेट करवा लेना ...."
"जी ... और ज्ञान की बातें हो तो वह भी बता दीजिए", मैंने हंसते हुए कहा।
"कुछ दिन साथ रहो, बहुत कुछ सीख जाओगे ..."
"अच्छा एक बात पूछूं बुरा तो ना मानोगी .... तुमने तो मेरे लव अफेयर के बारे में पूछ लिया, क्या कोई इस तरह का अफेयर तुम्हारे ..... मतलब किसी को पसंद करती रही हो और .... "
उसने हंसते हुए कहा, " इसमें बुरा क्यों मानूंगी ? मैंने तो सोचा था कि तुम कल ही पूछोगे लेकिन कुछ पूछा ही नहीं .... यह सच है कि मैं मुंबई के मॉडर्न स्कूल में पढ़ी, कॉलेज भी ज्वाइन किया लेकिन उतना ही सच यह भी है कि जो मेरे संस्कार माता-पिता और बाबा से मिले, शायद उनकी वजह से मुझे पार्टी, क्लब, डांसबार इन सब में कोई इंटरेस्ट नहीं रहा। रही बात लव अफेयर की तो सच कहती हूं ऐसा कोई चक्कर नहीं रहा। हां .... एक लड़का था जो मेरी ही क्लास में था। बड़ा पढ़ाकू टाइप का, कुछ-कुछ मेरे ही जैसा।
वह दिन भर किताबों में उलझा रहता। दोनों की कुछ हैबिट्स भी मैच करती थी। स्कूलिंग के बाद हम लोग साथ में कॉलेज भी आए। उसके प्रति आकर्षण महसूस करती थी, एज फैक्टर रहा हो या फिर कॉमन आदतें ..... नहीं जानती। लेकिन हां ... यदि उसने किसी भी मोड़ पर मुझसे इजहार किया होता तो उसे मना कर पाना मेरे लिए मुश्किल होता, तब मैं पापा और बाबा से जरूर बात करती ...."
"और तुम्हारे पापा या बाबा मान जाते ? मेरा मतलब ग्रामीण परिवेश में जाति, धर्म, मान, अभिमान, कुल, गोत्र इत्यादि शादी ब्याह में बहुत अहमियत रखते हैं ... यदि तुम्हारे मम्मी-पापा, दादा-दादी, तऊजी
मतलब जो भी परिवार के सदस्य हैं मना कर देते तो फिर क्या करती ..... ?", मैं जानता था कि यह सब मुझे नहीं पूछना चाहिए लेकिन फिर भी पूछ बैठा।
"तब मैं उसके साथ भाग जाती .…", फिर वह जोर से हंसी , " इसका जवाब तुम्हे समय देगा, मैं नहीं। ... ये तुम्हे सुन कर दु:ख हुआ ...?"
मैने मुस्कुराते हुए अपना सर इंकार में हिला दिया।
"मतलब नहीं हुआ ?", उसने रहस्य भरी नजरें मेरे चेहरे में टीका दी।
मैने उसी तरह मुस्कुराते हुए कहा, "जब कोई लड़का मुस्कुरा के इंकार करता है तो उसे डबल इंकार समझना चाहिए ..."
"यदि तुम कहते "हां", तो मुझे डबल खुशी होती।", इस बार उसने संजीदगी से कहा था।
मैने विषय बदलते हुए पूछा, " ये बताओ, ये घर गांव से इतना दूर क्यों है ?"
"वास्तव में हमारा परिवार इस गांव का है ही नहीं, हमारा पुस्तैनी गांव यहां से काफी दूर है, नदी के उस तरफ। हमारी अधिकांश खेती-बाड़ी इसी घर के आस-पास है। बाबा के पिताजी ने उसी की देख भाल के लिए पहले छोटा सा घर यहीं बनवा लिया। फिर धीरे धीरे यहीं रहने लगे। हमारी कई पुश्तों से एक ही संतान चलती आई है। बाबा, उनके पिताजी, और उनके पिताजी सभी अपने माता-पिता की इकलौती संतान ही रहे। पहली बार दो लड़के इस परिवार में हुए थे, मेरे पिताजी और ताऊजी, और देखो केवल भैया रह गए ....",
"तुम ऐसा क्यों सोचती हो ... यह सब एक इत्तेफाक भी तो हो सकता है .... और फिर क्या तुम इस परिवार की सदस्य नहीं हो ... लड़का और लड़की में क्या भेद ...!", मैंने उसे समझना चाहा।
"सच कहते हो कोई भेद नहीं ....", फिर वो थोड़ा सा मुस्कुरा दी।
"अच्छा ये बताओ, दैनिक घरेलू समान, सब्जी भाजी, मसाले .... ये सब ..?"
"घर के सामने एक खेत है, तार बाड़ी से सुरक्षित और सिंचाई के लिए बोर भी है। आलू, प्याज, और मौसमी सब्जियां खूब होती हैं। बटाईदार है, मंगल नाम है। कभी स्वयं ले जाकर गांव-कस्बे में बेचता है तो कभी फेरी लगा के बेचने वाले खुद आ के ले जाते हैं। वही घरेलू सामान भी ला देता है। और भी खेत हैं, गेहूं, चावल, मक्का, बाजार, तिल, अरहर सभी होता है। जब तक बाबा का जी चलता था तो वे खेती करवाते थे, अब सभी बटाईदार देखते है। हिसाब-किताब का जो निकलता है, दे देते हैं। भैया ने जो पैसे दिए और जो इंश्योरेंस के मिले सभी बाबा के नाम से बैंक खाते में जमा है। जरूरत पड़ती है तो निकलवा लेते हैं, लेकिन वैसे कोई विशेष जरूरत आज तक पड़ी नहीं ...",
"हां वो तो तुम्हारी दहेज के लिए रखे हैं न ...? अरे ! बुरा न मानो .... तुम्ही ने तो बताया था कि तुम्हारे भैया ने पैसे देते समय तुम्हारी शादी का जिक्र किया था ...?"
"शादी का जिक्र किया था, दहेज का नहीं। वैसे हम ब्राह्मण में, खासकर इस क्षेत्र में दहेज नहीं चलता है", वह थोड़ा गुस्सा जाहिर करती हुई बोली।
"हम क्षत्रियों में तो चलता है ...", मैंने थोड़ा मजाक करना चाहा।
"तो रोका किसने है, मांग लेना जितना चाहिए होगा ...", उसने लापरवाही से कहा।
"लेकिन किस से? "
"जिससे शादी करोगे ... उसके मां-बाप से "
"उसके मां-बाप नहीं है ..."
सब्जी काटते हुए उसकी नजर नीचे से ऊपर मेरे चेहरे की तरफ उठी, "परिवार में कोई तो होगा ? उसी से मांग लेना....."
तभी बाबा कमरे से बाहर निकलते हुए बोले, " क्या मांगने - देने की बात हो रही है भई ....?"
पीहू चहकते हुए बाबा से बोली, " बाबा ! इन्हें अपनी शादी में बहुत सारा दहेज चाहिए .... तो मैंने कहा जिससे हो तो उसके मां-बाप से मांग लेना। ये कहते हैं कि उसके मां-बाप नहीं है ... तो फिर मैंने कहा जो भी परिवार में हो उसीसे मांग लेना ... तो क्या गलत कहा ?"
"बिल्कुल नहीं ", बाबा पास आते हुए बोले, " अरे मां-बाप ना सही लेकिन मुझ जैसा बूढ़ा कोई बाबा तो होगा न ....", फिर वह थोड़ा हंस पड़े। फिर पीहू से बोले, " जरा पूजा घर से पूजा की थली तो ले आओ, और हां कन्हैया के चरणों में रखा हुआ नारियल भी थाली में रख लेना ..."
पीहू ने थाली में कटी हुई सब्जी को किनारे रख पुनः हाथ पैर धोए और बाबा की आज्ञा का पालन किया। अब वो मुझसे बोले, " तुम तख्त में बैठो "
मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है और क्या होने वाला है। लेकिन बाबा की वाणी में वह प्रभाव था कि जैसा उन्होंने कहा मैंने किया। उन्होंने पीहू के हाथ से थाली ली, मेरे सामने आकर खड़े हो गए। यद्यपि हाथ थोड़ा-सा कांप रहे थे, लेकिन उनकी पकड़ मजबूत थी। मेरे सामने पूजा की थाली थी, दिया जल रहा था। मेरे बाल अभी भी माथे में बिखरे थे। उन्होंने पीहू की तरफ देखा, वह समझ गई कि उसे क्या करना है। उसने वही किया। उसने बाबा के गले से लाल तौलिया निकली, मेरे बालों को समेट कर तोलिया को मेरे सर पर कुछ इस तरह से बंधा जैसे इंसान पगड़ी बांधता है।
फिर बाबा ने रोली का तिलक मेरे माथे पर लगाया। नारियल और चांदी का एक सिक्का उठाकर मेरे हाथों में थमा दिया। तिलक लगाते समय उन्होंने संस्कृत का एक श्लोक भी पढ़ा। जब उन्होंने दूसरा श्लोक पढ़ाना प्रारंभ किया तो पीहू के चेहरे में आश्चर्य के भाव थे, " बाबा ....", शायद वह रोकना चाहती थी। लेकिन बाबा ने इशारे से उसे मना कर दिया।
जैसा कि मैंने ऊपर लिखा कि मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है और क्या होगा। मैंने बाबा से जानना चहा, " बाबा ये सब .... !!!"
तब उन्होंने कुछ मुस्कुराते हुए कहा। यह हमारे पुरखों की परंपरा है कि जब कोई विशेष अतिथि खासकर क्षत्रिय पहली बार हमारे घर आता है, तब हम उसका तिलक लगा कर स्वागत करते हैं। उसे सम्मानित करते है। क्षत्रिय को राजा की श्रेणी में रखा जाता है। अब भले ही राजा - महाराजा का दौर खत्म हो गया हो, लेकिन हमारे इस क्षेत्र में यह परंपरा आज भी चलती आ रही है। हम जाति, धर्म, और कर्म तीनों से बह्मण है लेकिन तुम अभी जाति और जन्म से क्षत्रिय हो। तुम्हें धर्म और कर्म से भी क्षत्रिय बनना पड़ेगा ...."
"वो कैसे बाबा ....", मैं चकित-सा उन्हें सुन रहा था।
"वैसे तो पौराणिक काल में क्षत्रिय के बहुत से धर्म-कर्म की व्याख्या की गई है .... किंतु आज के परिवेश के अनुसार मैं तुम्हें दो बातें बताता हूं। पहला अपने व्यक्तिगत और निजी स्वार्थ का परित्याग कर न्याय हित में जो कर सकते हो करने की कोशिश करना। मैं नहीं कहता कि समाज को बदलने की कोशिश करो लेकिन यदि किसी मजबूर, लाचार, गरीब को तुम्हारी मदद की जरूरत हो तो जितनी कर सकते हो जरूर करना ..."
कुछ देर रुकने के बाद उन्होंने आगे कहना शुरू किया, "दूसरी बात, सहनशक्ति। एक क्षत्रिय में सर्वाधिक होती है। जीवन एक युद्ध ही है, इसे छोड़कर कभी मत भागना। अपनी कमियों से, अपनी भावुकता से, अपने शोक से लड़ते रहना। जीवन में कई ऐसे क्षण आएंगे जब तुम्हारे अंदर पलायनवादी भावना जागृत होगी, सब कुछ छोड़ दूर भाग जाने का मन करेगा, उस समय तुम अपने इस धर्म का पालन करना ....।"
उनके शब्दों का, उनकी वाणी का जादू कहूं या प्रभाव, मैं एक अलग ही दुनिया में पहुंच गया था। मैने हाथ में पड़ी सामग्री पीहू को थमा दी और उठ कर उनके चरण स्पर्श किए। आशीर्वाद मिला, " दीर्घायु हो, यशवश्वी बनो "
मैं वापस कुर्सी पर बैठ गया, और बाबा तख्त में। पीहू ने नारियल और चांदी का सिक्का उसी लाल तोलिया में लपेट कर दिवाल के झरोखे में रख दिया और थाली को वापस पूजा घर में रख दिया। फिर कटी हुई सब्जी की थाली उठाकर रसोई घर में घुस गई। बाबा अपनी माला निकाल कर फेरने लगे। मैं आंगन में टहलने लगा। आंगन काफी बड़ा था, इतना कि 25-30 चारपाई आराम से डाली जा सकती है। मैंने आसमान की तरफ देखा, आज का मौसम बिल्कुल साफ था। कोई बादल नहीं, तारे अपनी क्षमता के साथ टिमटिमा रहे थे, चंद्रमा की आकृति किसी धनुष की तरह हो चुकी थी। बिजली थी लिहाजा आंगन का बल्ब जलने से अंधेरा नहीं था। वैसे भी बैठक आंगन की तरफ पूरा का पूरा खुला हुआ था।
मैं आंगन में चहल कदमी करते हुए सोच रहा था कितनी अजीब बात है, कल के पहले मैं इस घर को सिर्फ दूर से देखा करता था और आज इसके आंगन में टहल रहा हूं। जैसे यह मेरा अपना घर हो, बाबा मेरे अपने हों, पीहू मेरी अपनी हो। और तो और इन सब से जुड़ी हर चीज मेरी अपनी हो। कल तक यह घर, बाबा, पीहू सभी अजनबी थे।
पीहू को मैं खिड़की पर खड़े हुए अक्सर देखता था, कभी कोई बातचीत नहीं हुई थी। और कल यदि इतनी तेज बरसात न होती तो शायद आज भी हम अजनबी ही होते। जब मैं भींगता हुआ उसके पास दरवाजे तक पहुंचा था तो उसने मुस्कुराते हुए यही तो कहा था, "अजनबी ! आखिरकार कुदरत ने तुम्हें मेरे दरवाजे तक ला ही दिया, तो अब अंदर भी आ जाओ ... "। बाबा भी कहते हैं कि मुझे नियति यहां ले आई है।
और फिर आज ? जो सोचा न था वो हआ। श्रेष्ठ कुल के लगभग 80 वर्षीय ब्राह्मण ने 23 साल के लड़के का तिलक लगा कर इस घर में स्वागत किया। तिलक लगाते समय उसे एक मंत्र तो समझ में आया था, "ॐ केशवाय नमः", लेकिन दूसरा मंत्र जिसने पीहू के चेहरे के हाव-भाव बदल दिए, उसे केवल उसने सुना लेकिन कुछ समझ नहीं पाया। मन में सवाल यह भी था कि मेरी कुंडली बनाने के बाद पीहू की कुंडली उन्होंने क्यों देखी ?
इनमें से किसी भी सवाल का जवाब मेरे पास नहीं था। घटनाएं घटती जा रही थी और मैं घटनाओं का हिस्सा मात्र बन उन्हें गुजरा हुआ देखता जा रहा था। कोई रहस्य है या कोई इत्तेफाक या फिर कोई दैवी योग। लेकिन हां जब से बाबा ने तिलक किया मेरे अंदर एक नई ऊर्जा का संचार हुआ। खुद को गौरवान्वित कम और नत अधिक पाया। ठीक उसी तरह जैसे एक फलदार पेड़ में फल लगने से उसकी डालियां झुक जाती हैं।
तभी पीहू रसोई घर से निकलकर मेरे पास आई मुझे यूं टहलता देख उसने पूछा, " सब्जी पक रही है, भूख तो नहीं लगी जनाब को .... कहो तो स्टोरी कलेक्शन वाली बुक दे दूं तब तक उसी को पढ़ो। देखो बाहर कितनी ठंडक है, चारपाई निकाल दूं आंगन में ही बैठो।"
"नहीं रहने दो ... बैठना होगा तो कुर्सी ले लूंगा"
"ठीक है", वह जाने के लिए मुड़ी, दो कदम आगे बढ़ाए भी कि मेरे मुख से अचानक ही मद्धिम स्वर निकला, मैंने उसे पुकार, " पीहू ....", मेरी इस पुकार में अधिकार, प्रेम, अपनत्व सभी कुछ था।
"हूं ... ", वह पलटी थी। मैंने उसे इशारे से अपने पास बुलाया, " पीहू ! मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा कि हो क्या रहा है। मेरी कुंडली बनाने के बाद बाबा ने तुम्हारी कुंडली क्यों देखी ? और उन मंत्रों का अर्थ क्या है, जिन्होंने तुम्हारे चेहरे के भाव बदल दिए थे। ऐसा क्या था कि बाबा को रोकने के लिए तुम्हें उन्हें पुकारा पड़ा ? ", मेरे चेहरे में असमंजस्य और जिज्ञासा के भाव उसे दिखे होंगे शायद, तभी तो वह बोली, " मन को शांत रखो, समय आने पर सब पता चल जाएगा ..."
"लेकिन वह समय आएगा कब .... ", मैंने उतावलेपन से पूछा।
"धीरज रखो वत्स, समय आने पर सब पता चलेगा। इतना स्ट्रेच क्यों लेते हो .... शांत ... शांत ... शांत", और इस तरह उसने मेरी बात मुस्कुरा कर हंसी में उड़ा दी। उस समय मुझे उस पर गुस्सा भी आया, क्या दो मिनट रुक के बता नहीं सकती है ... इस घर के दोनों लोग या तो पागल है या बहुत बड़े ज्ञानी।
अगले ही पल अंतरात्मा से आवाज आई " छी:... कम से कम बाबा के लिए तो यह मत सोचो ... और फिर पीहू के लिए भी क्यूं .... ", मैंने मन ही मन मुआफी मांगी, "सॉरी बाबा .... सॉरी पीहू ..."
पीहू चली गई। मैं आंगन में उसी तरह टहलता रहा, सोचता रहा, और बाबा ? अपनी माल का जाप करते रहे।
लगभग आधे घंटे तक मैं आंगन में टहलता रहा, कभी आंगन के किसी कोने पर जाकर खड़ा हो जाता और आसमान की तरफ देखता, तो कभी बैठक की देहरी में बैठ जाता। एक बार मन में आया कि क्यों ना बाबा से ही पूछूं। लेकिन अगले ही पल ख्याल आया कि क्या पूछूंगा। यही सोच कर विचार त्याग दिया और वापस आंगन में टहलने लगा।
तभी पीछे से पीहू की आवाज आई, " आओ, खाना लगा रही हूँ ...."
मैं जानता था कि आज अटरी में उसके साथ खाने से रहा, खाना तो बाबा के साथ ही खाना पड़ेगा। आखिर बड़ों का लिहाज, मैनर्स नाम की भी कोई चीज होती है। मैंने एक बार फिर से हाथ पैर धोए और ठंडे पानी का छीटा मुंह में मारा। बाल को गीली अंगुलियों से पीछे समेटा। पीहू ठीक कहती है, स्ट्रेच नहीं लेना। जो होगा सामने आएगा। फिर मैं हंसता, मुस्कुराता, टेंशन फ्री, बैठक में पहुंचा। भोजन ग्रामीण परिवेश के अनुसार ही लगाया जा रहा था। बैठक की फर्श पक्की थी। पीहू ने पहले गीले कपड़े से फर्श को साफ किया। फिर चटाई को दो परत करके बिछाया, उसके बाद सामने पटा रखा और उसके बगल में लोटा गिलास में पानी। बाबा ने बैठते हुए मुझे भी इशारा किया, " बैठो ... "
मैं चुपचाप उनके बगल में बैठ गया। पीहू ने परोसी हुई थाली ला पटे पर रख दी। बाबा ने थाली के चारों तरफ पानी घुमाया, हाथ जोड़ मंत्र पढ़ा। मैंने भी वही किया, लेकिन मंत्र ! वो तो आता नहीं था, लिहाजा सिर्फ हाथ जोड़ा। ऐसा करता देख बाबा मुस्कुराए। उन्होंने मेरी स्थिति का अंदाजा लगा लिया था, तभी तो बोले, " मंत्र इससे सीख लेना", इशारा स्पष्ट रूप से पीहू की तरफ था। मैं झेप गया। हम लोगों ने खाना शुरू किया। जो आवश्यकता पड़ती पीहू परोसती गई।
इच्छानुसार भोजन कर लेने के बाद मन में सवाल उठा, अब ? टाइम फॉर स्लीपिंग !! लेकिन कहां ? जवाब बाबा ने ही दिया, " पीहू ! मम्मी वाले कमरे का फैन चलता है न? "
"जी बाबा, चलता है", उसने शालीनता से जवाब दिया।
"बिस्तर लगा दो, अब देवेंद्र को आराम करने दो ...", फिर वे मुझसे बोले, " जानता हूं यह तुम्हारा नाम नहीं है, लेकिन कुंडली के अनुसार यह नाम उपयुक्त है। यदि तुम्हें कोई एतराज न हो तो मैं तुम्हें इसी नाम से बुलाना चाहूंगा ..."
मैंने बाबा की तरफ देखा। उनकी आंखों में प्रश्न था। मैंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, " नहीं बाबा कोई एतराज नहीं आप इसी नाम से बुला सकते हैं, लेकिन इसे थोड़ा सा शार्ट कर दीजिए, मेरा मतलब, "देव" या देवा।"
बाबा ने मुस्कुराते हुए कहा, " देव ठीक रहेगा"
इस तरह मैं बाबा के लिए "सत्यप्रकाश" से देव बन गया और उसके लिए तो "अजनबी" था ही।
पूरा घर तीन लेयर में बना था। पहली लेयर में बैठक, पूजा घर और रसोई। दूसरी लेयर में दो कमरे जिनके दरवाजे गैलरी की तरफ खुलते थे। तीसरी लेयर जिसमें अटारी थी और निचला हिस्सा बैठक की तरह खुला हुआ, साफ सुथरा, हां एक तरफ छोटी सी कोठारी थी। शायद कबाड़ सामान रखने के लिए या फिर जलाऊ लकड़ी कांडा इत्यादि रखे जाने के लिए। पीहू ने बाबा के लिए मेज में एक लोटा पानी प्लेट से ढक के रखा। एमरजेंसी लाइट को जला कर देखा, एक टेबल में रख दी, दूसरी अपने हाथ में उठा ली। जब बाबा आराम से लेट गए तब पीहू ने मेन लाइट ऑफ कर दी। आंगन की लाइट से अभी भी पर्याप्त उजाला आ रहा था। फिर उसने मेरी तरफ देखते हुए कहा, आओ"
मैं कुर्सी से उठा, बाबा से इजाजत ले और उसके पीछे हो लिया। गैलरी के दाहिनी ओर जिस तरफ पूजा घर था, उसका दरवाजा खोल वह अंदर गई। मैने देखा कमरा काफी बड़ा था, ड्रेसिंग टेबल, सोफा, टेबल, डबल बेड, बड़ी-सी आलमारी सभी कुछ व्यवस्थित रखे हुए थे।
"ये मम्मी-पापा का कमरा था ?", मैने पूछा।
"हूं ...", उसने संक्षिप्त जवाब दिया। मैं बिस्तर पर आकर बैठ गया, "काफी अच्छा कमरा है। वह कुछ नहीं बोली।
"तुम वहीं अटारी में .... "
"नहीं ... यहीं ..."
"लेकिन बाबा ...!!!"
"उन्होंने ही इजाजत दी है .."
"इजाजत दी है !!!", मैंने आश्चर्य से पूछा था, "लेकिन कब ? मैंने तो कुछ सुना नहीं !!!"
"रुको .... सब बताऊंगी ...", फिर उसने अलमारी खोलकर कुछ एल्बम निकली और मेरे पास आते हुए बोली, पैर ऊपर करके बिस्तर पर और खिसक जाओ। मैंने उसी तरह किया। वह एल्बम लेकर ठीक मेरे बगल में बैठ गई। यह मेरी मम्मी-पापा की शादी की एल्बम है। हम दोनों ने एक-एक फोटो देखी। फिर उसने अपने और छोटे भाई के बचपन की फोटो दिखाईं। फिर फैमिली फोटो जिसमें ताऊजी की भी फैमिली थी। फिर एक फोटो पर रुकते हुए उसने कहा, " यह मेरे बड़े भैया .... "
" वही जो जर्मनी में रहते हैं ....."
"हूं ..."
क्या नाम है इनका", मैंने जानना चाहा था।
"ध्रुव ...."
"अच्छा नाम है ... और भाभी की कोई फोटो ..."
"नहीं है.... उनका नाम भर मालूम है .... एलिस ..."
"शादी के बाद भैया कभी नहीं आए भाभी के साथ ? ... शायद बाबा से डरते हों ...", मैने पूछा था।
"नहीं ऐसी कोई बात नहीं। मेरे बाबा बहुत मॉडर्न न सही लेकिन इतने पुराने ख्यालात के भी नहीं है। यदि भाभी को लेकर भैया आते तो वह उनका स्वागत करते ... लेकिन सबकी अपनी-अपनी मजबूरियां होती हैं। विदेश जाना आसान है, वहां की नागरिकता पाना भी आसान है, लेकिन वहां के भी अपने-अपने स्ट्रगल होते हैं .... एक नए देश, नए माहौल में खुद को एडजस्ट करना, अपने आप को स्थापित करना आसान नहीं होता है ..."
उसकी बातें सुनकर मैं चकित था, सबके प्रति निष्पक्ष दष्टिकोण। सब की स्थिति-परिस्थितियों को समझने का दृष्टिकोण। कहने को तो छोटी सी बात है, लेकिन यह दृष्टिकोण सबके पास नहीं होता।
फिर उसने अंत में एक एल्बम दिखाई, अपने और भाई के बचपन से लेकर स्कूलिंग तक की। मैंने देखा उसका छोटा भाई वाकई बहुत स्मार्ट लगता था, क्रिकेट खेलते हुए, फुटबॉल खेलते हुए, बैडमिंटन खेलते हुए और स्कूल फंक्शन में ट्रॉफी लिए हुए ..."
वह उसकी एक-एक तस्वीर को बहुत गौर से देख रही थी।
"तुम्हारा भाई वाकई बहुत ही स्मार्ट और सुंदर था, शायद तुमसे भी अधिक। इतने सारे गेम !! लगता है पक्का एथलीट था। देखो, लगता है उसने कई ट्रॉफी जीती हैं यार ..."
भाई की तारीफ ने उसके सब्र के बांध को तोड़ दिया। वह दोनों घुटनों के बीच अपना चेहरा छुपा के रो पड़ी।
"मत रोओ पीहू ...", मैं उसे दिलासा देते हुए बोला, "जो गुजर गया वह अब लौट कर नहीं आएगा, हम लाख आंसू बहा ले, तड़प ले, चाहे कुछ भी कर ले। हम उसे बस याद कर सकते हैं। उसके लिए दुआ मांग सकते हैं कि ईश्वर उसे सद्गति दे ...", मैंने उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा।
कुछ देर बाद वह शांत हुई। फिर मुझसे बोली, "जानते हो, एक बार हम दोनों ही मम्मी-पापा के सामने इस बात पर लड़ गए की सबसे अधिक सुंदर और स्मार्ट कौन दिखता है। पापा ने कहा जैसे इंसान को अपनी दोनों आंखें, दोनों हाथ, दोनों पैर, दोनों कान सुंदर लगते हैं, दोनों एक समान प्यारे हते हैं,
इस तरह संतान होती हैं। चाहे एक हो, चाहे दो हो, चाहे इससे अधिक हों, सभी सुंदर और प्यारे लगते हैं। तो यह फिजूल के सवाल बंद करो और जाकर पढ़ो।
हम दोनों भाई-बहन स्टडी रूम में आ गए। तब उसने अचानक मुझसे कहा, दीदी जब तुम्हारी शादी हो जाएगी न तब मैं अपने जीजाजी से यही सवाल तुम्हारे सामने पूछूंगा, और देखना वो यही कहेंगे कि मैं तुमसे अधिक सुंदर और स्मार्ट हूँ .... तब उसकी उम्र 14 और मेरी 16 साल थी .... आज जब तुमने उसकी तारीफ की, मुझसे भी अधिक सुंदर और स्मार्ट कहा, तो उसकी यह बात मुझे याद आ गई ....", यह सब कहते-कहते एक बार फिर पीहू की हिचकी निकल गई, और मैं पीहू को केवल देखता रह गया।
कुछ देर बाद भारी माहौल को हल्का करने के उद्देश्य से मैंने उसे छेड़ा, "अपने बारे में नहीं पूछा ...?"
"तुमने बताया ही नहीं ..…?", वह संकोच से बोली।
"अब इसमें बताना क्या, पापा स्मार्ट, मम्मी ब्यूटीफुल... भाई हैंडसम तो तुम क्यों न होगी ..? तुम्हारी सुंदरता मुझे खींचती है, तुम्हारा जिंदगी के प्रति दृष्टिकोण मेरी जिंदगी को प्रभावित करता है, और तुम्हारी विचारधारा, मुझे सम्मोहित करती हैं ...", मैंने अपनी बातों की प्रतिक्रिया उसके चेहरे में देखनी चाही।
इंसान को अपनी खूबियों का, अपनी सुंदरता का लाख स्वबोध हो, लेकिन उसी स्वबोध को यदि कोई दूसरा इंसान बोध करता है, आसान भाषा में कहूं तो तारीफ करता है, तो उसका अपने स्वबोध पर विश्वास कई गुना बढ़ जाता है।
"तो मैं तुम्हें सम्मोहित करती हूं ...?", उसने मेरी नजर से अपनी नजर मिलते हुए पूछा था।
"हूं ... और जादू भी, और कभी-कभी तो मैं सोचता हूं कि यदि अजनबी मानते हुए तुम यह कर सकती हो, तो जिस दिन तुम मुझे पूरी तरह अपना मान लोगी तो न जाने क्या करोगी ....?"
"मैने कहा तो था, बहुत अपने से लगते हो अजनबी!! ..... तुम भूल जाते हो ..", फिर उसने कुछ लजाते हुए आगे कहा, "जादू तो तुम करते हो मुझ पर ....", गालों में लाज की लाली लिए उसने नजर झुका ली, "अब ये न कह देना कि फ्लर्ट कर रही हूं ...!"
हम दोनों के बीच कुछ देर चुप्पी रही। एल्बम के पन्ने पलटते रहे वह देखती रही और उसके साथ मैं भी। फिर मैंने धीरे से उससे पूछा, "अब तो बता दो ...?"
"क्या ....", उसने एल्बम एक किनारे रख दिया और दीवार में पीठ कर और पैरों को सिकोड़ कर ठीक उसी तरह बैठ गई जैसे मंडप के नीचे दुल्हन बैठती है। मैं भी उसके बगल में ठीक उसी तरह बैठते हुए बोला, "यही कि बाबा ने कब अनुमति दी ... ?"
वह सर झुकाए चुप थी, जैसे उसे कुछ सूझ नहीं रहा की शुरुआत कहां से करें। फिर उसने बड़ी ही शांति से कहना शुरू किया, " सच, मैं नहीं जानती कि तुम्हारी कुंडली बनाने की बाद बाबा ने मेरी कुंडली क्यों देखी ... उसके बाद उन्होंने जो कुछ भी मुझसे कहा उसके क्या अर्थ निकलते हैं, वही जाने। फिर उन्होंने तुम्हारा तिलक किया, ओम केशवय नमः मंत्र तो सामान्य मंत्र है, केशवय का अर्थ भगवान विष्णु होता है, जग के पालनहार। अक्सर एक राजा की तुलना भगवान विष्णु से की जाती है। लेकिन बाबा ने जो दूसरा मंत्र पढ़ा था, 'नाम्ने विष्णुरूपिणे वराय .....' जानते हो यह मंत्र कब और क्यों पढ़ा जाता है ....?"
मैं चुप, उसके जवाब की प्रतीक्षा करने लगा, उसने आगे कहा, "यह मंत्र विवाह के समय जब कन्यादान की रस्म निभाई जाती है तब पढ़ा जाता है। .... मैं समझ नहीं पा रही हूं कि बाबा ने ऐसा क्यों किया ? मन से तुम्हे दान किया या फिर मेरा परित्याग किया ? कहीं कल तुम्हारा अटारी में होने का उन्हें पता तो नहीं चल गया था ...?"
उसकी बातें सुनकर एक पल के लिए मैं भी सोच में पड़ गया। लेकिन प्रत्यक्षत: अपनी खुशी जाहिर करते हुए उससे बोला, " यह तो बहुत अच्छी बात है, बाबा स्वयं मान गए .... और तुम दूर की मत सोचो शायद हम दोनों की कुंडली देखकर उन्होंने यह निर्णय लिया हो .... मैं तो बहुत खुश हूं.... और रही बात मेरे पेरेंट्स की तो मैं उन्हें मना लूंगा। वे तो बाबा से भी अधिक आधुनिक सोच रखते है .... वे कभी मना नहीं करेंगे ... कहीं तुम जात-पात को लेकर ...."
"नहीं !..., मालूम है ? शुक्राचार्य एक प्रसिद्ध ब्राह्मण ऋषि थे, और उन्होंने राजा नीप से अपनी बेटी कृत्वी का विवाह किया था। अपनी दूसरी बेटी देवयानी का विवाह राजा आयति से किया। श्रृंगी ऋषि का विवाह राजा दशरथ की पुत्री शान्ता से हुआ था।
शकुंतला जो वास्तव में विश्वामित्र और मेनका की पुत्री और ऋषि कण्व की दत्तक पुत्री थी, ने राजा दुष्यंत से प्रेम किया और गधर्व विवाह भी, उनके पुत्र भरत के नाम से ही इस देश का नाम भारत पड़ा। ये सब बाबा मुझसे बेहतर जानते हैं ... यदि यह सब युगों पहले इसी प्राचीन देश में हुआ है तो आज इसके बारे में सोचना मूर्खता है ....
मैं चकित था, "ये सब तुम्हे कैसे मालूम ? क्या टेक्स्ट बुक में .....?"
"नहीं ... नहीं ...! बाबा के पास गीता, महाभारत, वेद पुराण से संबंधित बहुत सी बुक हैं। गर्मियों की छुट्टी में जब आती थी तो पढ़ा करती थी, और राजा दुष्यंत और शकुंतला की तो सच्ची और फेमस लव स्टोरी है। इस पर कालिदास ने अभिज्ञान शकुंतलम नाम से ड्रामा भी लिखा है। अभिज्ञान शकुंतलम, मेघदूत और रघुवंशम् उनकी बहुत ही फेमस बुक है। ये स्टोरी मैने उसी में पढ़ी थी ..."
"वाह ! तो तुमने शेक्सपियर के साथ-साथ कालिदास को भी पढ़ा !! क्या बात है !!! शाबाश, बहुत अच्छे ...", मैंने उसकी तरीफ करनी चाही।
"मैंने कहा न, हिंदी और संस्कृत मुझे बाबा से विरासत में मिली है ..."
"छोड़ो न यार, देखो अभी हमारी नई-नई शादी हुई और तुम पता नहीं कहां की बातें लेकर बैठ गई .... ", मैंने प्यार से उसका हाथ पकड़ते हुए कहा।
"तो कुछ माँग सकती हूं ....?", उसने मेरी तरफ देखते हुए कहा था।
"मांग लो प्रिये .... कुछ भी मांग लो ...", मैं कुछ रोमांटिक होते हुए बोला।
"तो वादा करो, हमारे इस प्रेम को, इस रिश्ते को और इस कन्यादान के बारे में न तो तुम अपने घर वालों को बताओगे और न ही किसी सगे-संबंधी या किसी अपने को ..."
"अच्छी बात है, यदि तुम कहती हो तो ऐसा ही होगा .... वो क्या कहते हैं .... तथास्तु ",
फिर मैंने उसे समझाते हुए आगे कहा, " यह सच है कि मैं तुमसे प्यार करता हूं, लेकिन उससे कहीं अधिक तुम्हारा सम्मान करता हूं .... जब तक तुम्हारी पूर्ण सहमति नहीं होगी, मैं किसी से कुछ नहीं कहूंगा .... और न ही तुम पर इस रिश्ते का अधिकार जताऊंगा .... मन से कह रहा हूं। अब अपने पैर फैलाओ ..."
मैं उसकी गोद में सर रख लेट गया। वह चुप थी, और मैं सोच रहा था। यह मुझे छोड़ना भी नहीं चाहती और ना ही मुझे किसी रिश्ते में बांधने की कोशिश करती है। लेकिन मुझसे प्रेम करती है, क्या यह कम है ? फिर हृदय से आवाज आई, " नहीं यार बहुत है ..."
उसके चेहरे को प्यार से देखते हुए मैंने पुकारा, "पीहू ! ... तुमने जीवन में बहुत दर्द सहे है, अपनों को खोया है। बताओ मैं ऐसा क्या करूं कि तुम्हारे होठों की मुस्कान इसी तरह सलामत रहे, तुम हमेशा खुश रहो ...."
उसने मेरा माथा सहलाते हुए उसी प्यार से पूछा, " मेरी इतनी परवाह क्यों करते हो ... ? अजनबी हो तो अजनबी बनकर ही रहो .... "
"मैं न करूंगा तो और कौन करेगा .... हूँ... प्यार तो मैं तुम्हें करता हूं न, तो तुम्हारी परवाह करने के लिए क्या आसमानी फरिश्ते आएंगे ...?"
"क्या पता आ ही जाए ...", वह धीरे से मुसकाई थी। लेकिन मुझे उसके लबों की ये मुस्कान फीकी लगी। उसके हाथों की उंगलियां मेरे बालों से खेल रही थी। ठीक उसी तरह जैसे कोई माथे से पीछे की तरफ कंघी करता है।
" पीहू !...... बहुत अच्छा लग रहा है, मन को बहुत सुकून मिल रहा है, यदि तुम इसी तरह मेरे बाल सहलाती रही न तो मुझे नींद आजाएगी ...."
"तो सो जाना ..."
"और तुम ..."
"जब मुझे नींद आएगी तो मैं भी सो जाऊंगी ..."
"ऐसे ही ? बैठे-बैठे सो लोगी ?...."
"हूं ...."
"जब तक नींद न आएगी ...?"
"तुम्हे देखती रहूंगी ..."
मैं कुछ देर उसी तरह लेटा रहा और वह बराबर मेरे बालों को सहलाती रही। जब वास्तव में आभास हुआ कि मैं सो जाऊंगा तो मैं उठा। सिरहाने तकिया रखी और लेट गया, " पीहू रात के 10 बज गए, तुम भी आराम करो ...."
बगल में रखी तकिया पर वह भी सर रख लेट गई। कुछ देर बाद उसने मेरी तरफ करवट ली। मेरी हथेली को तकिया और और गाल के बीच रखा, मेरी तरफ देखकर कुछ मस्कुराई फिर आंख बंद कर ली।
मैं नहीं कहता कि जब वह मुझे छूती है या मैं उसे छूता हूं तो मेरे शरीर में कोई उत्तेजना नहीं आती है। बिल्कुल आती है, लेकिन इस उत्तेजना का स्वरूप अलग होता है। मेरी शिराओं में बहते लहू में वासना की आग नहीं बल्कि प्रेम की शीतलता दौड़ती है। मेरे हृदय की प्रत्येक धड़कन, पीहू ... पीहू ... पुकार उठाती है।
उसके होठों से अधिक उसके माथे को चूमने का मन करता है। खुद की सूरत किसी आईने से अधिक उसकी गहरी बादामी आंखों में दिखाई देती है। इसलिए उसकी आंखों में देखते रहने का मन करता है। वह निश्चिन्त आंख बंद कर इसी तरह लेटी रहे और मैं उसे निर्मेष देखते हुए उसके बालों को सुलझाते रहना चाहता हूं।
मैने धीरे से उसके माथे पर बाएं हाथ की हथेली रखी, फिर उसके बालों के ऊपर से फिरता हुआ पीछे गर्दन तक ले गया। जब यही मैंने दो-तीन बार किया तो उसने धीरे से कहा, " अब तुम मुझे सुला रहे हो ... ?"
"हूं .... कोशिश कर रहा हूं", मैने कहा।
" क्यूं ? .... "
"ताकि तुम कोई शरारत न करो ..."
सुनते ही उसने धीरे से अपनी आंखें खोली फिर मेरी आंखों में झांकते हुए कहा, "तो जानकारी के लिए तुम्हें बता दूं कि तुम मुझे सुला नहीं रहे हो बल्कि एक्साइट कर रहे हो ...", फिर वह थोड़ा सा मुस्कुरा दी।
"तो हो जाओ न, रोका किसने है ..."
उसने मेरे कंधे पर एक चपत लगाई, " धत्... अब सो जाओ ...", फिर उसने धीरे-धीरे अपनी आंखें बंद कर लीं।
मैं उसी तरह उसके बालों को सहलाता रहा, और पता ही नहीं चला कि कब मुझे भी नींद आ गई। जब सुबह मेरी आंख खुली तो मैने देखा, जिस तरह हम दोनों रात को लेटे थे उसी तरह पड़े हैं। मेरे बाएं हाथ की हथेली तकिया और उसके गाल के बीच में है और मेरा दाहिने हाथ की हथेली उसके कान के पास। और उंगलियों अभी भी उसके बालों में उलझी हुई हैं। कोई इतना बेखबर सोता है क्या ? मैंने अपना चेहरा उसके चेहरे के नजदीक किया इस तरह की मेरे होंठ उसके होंठों से टकराते-टकराते रह गए। मैंने उसके माथे को चूमते हुए धीरे से पुकारा, "पीहू !... ओ पीहू ...!! उठो पांच बज गए ..."
मेरी पुकार या फिर माथे के चुंबन का प्रभाव था, मैं नहीं जनता, उसने धीरे से अपनी आंखें खोली, पहले मुझे गौर से देखा फिर नजर उठा कर पूरे कमरे को, "सुबह हो गई ? .... कितने बज गए", अलसाई हुई आवाज में उसने मुझसे पूछा। मैंने उसे अपनी रिष्ठ वॉच दिखाई।
"ओह ! पांच बज गए, लेकिन ये कैसे हो सकता है ? हम तो अभी-अभी सोए न ? जरूर तुम्हारी घड़ी खराब होगी, तुम मजाक कर रहे हो ... मैं जाकर बाहर देखती हूं ....", वह उठी और तेजी से कमरे से बाहर निकल गई। जब लौट कर आई तो उसके हाथ में पानी से भरा एक लोटा था, " हां यार, तुम सच कह रहे हो बाहर तो धीरे-धीरे उजाला भी फैल रहा है, बाबा नहा रहे हैं, अब तुम भी उठो और जल्दी से मुंह धो लो, मैं चाय बना कर लाती हूं ...."
मैंने उसके हाथ से लोटा थाम लिया और पीछे की तरफ आ गया, कुल्ला किया मुंह धोया फिर वापस कमरे में। कमरे में बैठा मैं सोच रहा था, मैं बाबा को कैसे फेस करूंगा। मेरे अंदर वही संकोच वही झिझक जन्म ले रही थी जैसे सुहागरात के बाद मुझे अपने कमरे से बाहर निकलना हो।
कुछ देर बाद वह चाय की ट्रे लेकर हाजिर हुई। ट्रे को बिस्तर पर रखकर बगल में बैठ गई। उसके चेहरे में खुशी झलक रही थी। वह कुछ चहकते हुए बोली, ": जानते हो बाबा ने क्या कहा ...? बाबा ने कहा की हो सकता है तुम्हें सुबह चाय पीने की आदत हो, तो पूछ के बना देना... फिर बाबा ने कहा, मैं जानता हूं कि शाम को तुम चोरी से चाय बनाती हो, कभी इसलिए नहीं टोका कि चलो दिन में एक ही बार तो पीती हो ... लेकिन अब छुप कर पीने की कोई जरूरत नहीं। तुम दिन में दो बार पी सकती हो, एक सुबह और एक शाम को ........ थैंक यू यार यह सब तुम्हारी वजह से हुआ। पता नहीं बाबा पर कौन सी मोहनी डाल दी है। ... गलती मेरी ही थी, पहले मैं दिन में दसों बार चाय पीती थी ... गलत था न ?"
मैंने स्वीकृति में अपना सर हिलाया, " बिल्कुल गलत था ... किसी की आदत लगना बुरी बात है ..."
हम दोनों चाय पी रहे थे और लगातार बातें करते जा रहे थे। वह बेहद खुश थी, और नजर भी आ रही थी। मैं यही तो चाहता था।
फिर चाय पीते हुए अचानक ही वह बोली, "तुमने मुझसे पूछा था ना कि तुम ऐसा क्या करो कि मैं हमेशा खुश रहूं ....?"
"हूं ... तो बताओ ..?"
"तो आज संडे है न, ऑफिस से छुट्टी होगी ? तो मैं तुम्हारे साथ आज घूमना चहती हूं। लगभग तीन साल होने को आए मैं इस घर से बाहर निकली ही नहीं। क्यों न हम आज कस्बे के मार्केट चलें ? मैं कुछ सामान खरीद लूंगी। कुछ घरेलू, कुछ अपने लिए, फिर शाम को लौट आएंगे ...?"
"और बाबा .…?"
"बाबा सुबह 10 बजे तक खाना खा लेते हैं, शाम को तो लौट ही आएंगे ..."
"वो ठीक है, लेकिन क्या जाने की इजाजत दे देंगे ....?"
"यदि मैं पूछूंगी तो पता नहीं। लेकिन हां, यदि तुम इजाजत मांगोगे तो हो सकता है ...", वह शरारत से मुस्कुराते हुए बोली।
"हूँ... चलो तो मैं ट्राई करूंगा ..."
"लेकिन अभी नहीं, जब वो खाना खा ले तब पूछना। अब बाहर चलो बाबा पूजा कर रहे है, तब तक तुम भी फ्रेश हो के तैयार हो जाओ ...", ट्रे ले के बाहर निकलते हुए बोली।
कुछ देर में जब मैं बाहर आया तो वह बोली, "बाथरूम में कपड़े तौलिए रख दिए है, जाओ"
मैं बाथरूम में घुस गया, 15 मिनट बाद जब बाहर आया तो उसे सब्जी काटते हुए पाया। मैं उसके पास बैठ गया। बाबा अभी भी पूजा घर में थे। कुर्सी खींच के मै उसके पास बैठते हुए बोला, " पीहू ... आज इस घर में ससुराल वाली फीलिंग आ रही है ... मैं बाबा को फेस कैसे करूंगा ... मुझे शर्म आएगी ..."
"क्यूं आएगी ? तुमने कौन सी चोरी की है ... ?", मेरी तरफ देखते और कुछ मुस्कुराते हुए उसने पूछा।
"वो तो हम दोनों ही जानते हैं न, बाबा तो चोर ही समझेंगे न ?", मैने संजीदगी से कहा।
"विश्वास करो ऐसा कुछ नहीं समझेंगे बाबा ... तुम शर्म महसूस मत करो ...", उसने समझाया।
"मैं बाहर घूम सकता हूं ..?"
"हां ... तुम ऐसा क्यों नहीं करते मेरी बगिया घूम आओ, मंगल से भी मिल लेना, देखना कहीं उसकी तबियत तो खराब नहीं है। तीन दिन से नहीं आया। गाय मुझे ही दुहानी पड़ती है ..."
"ठीक है ... बगिया है किस तरफ ... ?"
"आओ मैं बताती हूं ..."
मैं उसके पीछे-पीछे घर के बाहर आ गया, "देखो, सामने वह छोटा सा घर जो दिख रहा है न, वही है मंगल का घर। वहीं पर है बगिया। इस पगडंडी से निकल जाना, सीधे उसके घर पहुंच जाओगे ..."
"ठीक है .... मैं अभी आता हूं ...", मैंने पगडंडी पकड़ ली।
कुछ ही देर में मैं बगिया पहुंच गया। एक बड़े खेत को चारों तरफ से तार लगाकर सुरक्षित किया गया था। खेत के पश्चिमी दिशा में आम, अमरूद और पपीते के फलदार पेड़ लगे थे। बगिया के शेष भाग में हरी सब्जी लगाई गई थी। मुझे मंगल कहीं नहीं दिखा। तब पीहू के बताए अनुसार मैंने घर का दरवाजा खटखटाया। इस घर के स्थान पर झोपड़ी कहूं तो ज्यादा उपयुक्त होगा। दो कमरे का कच्चा मकान, सामान्य ऊंचाई से कम का दरवाजा, और एक छोटी-सी खिड़की।
दो-तीन बार दस्तक देने के बाद दरवाजा खुला। सामने लगभग 32-33 साल का एक दुबला-पतला युवक खड़ा था। उसने प्रश्नवाचक दृष्टि से मेरी तरफ देखा। बदले में मैंने उससे पूछा, " मंगल " ?
उसने हां में अपना सर हिलाया और एक प्रश्न भी "आप कौन ...?"
मैंने पीहू के घर की तरफ इशारा करते हुए कहा, " मैं बाबा का गेस्ट हूं ... वही जिनका ये खेत है ... "
परिचय होने के बाद मैंने उसका हाल-चाल पूछा। पीहू की आशंका आधारहीन नहीं थी। उसे पिछले 3 दिनों से बुखार आ रहा था। लगभग आधे घंटे तक मैं उसके साथ बैठा रहा, बातें करता रहा। यहां के माहौल और लोगों के बारे में उसने बहुत सारी बातें बताई। अपने समय का सातवीं तक पढ़ा हुआ लड़का था। खड़ी हिंदी और कुछ-कुछ अंग्रेजी के शब्द भी समझ जाता था, और कुछ बोल भी लेता था।
उसके साथ मैंने पूरी बगिया घूमी। उसने कुछ हरी सब्जी और पपीता तोड़ एक झोले में डालकर मुझे दिया।
"और कोई है तुम्हारे साथ , कि अकेले ही रहते हो ?"
उसने खेत के दूसरी छोर पर इशारा किया मैंने देखा एक औरत खेत में काम कर रही है।
"भैया जी वह मेरी बीवी है "
"और .... लड़के बच्चे नहीं है ?"
"है न भैया जी, 9 साल का एक लड़का है। अपने बड़े पापा के साथ कस्बे में रहकर पढ़ता है। अब आप तो जानते हैं, यहां ढंग की स्कूल तो है नहीं, दाऊ साहब की मेहरबानी है, हम उनकी खेती-पाती देखते हैं, जितना हो सकता है खुद कर लेते हैं, बाकी फिर बटाईदारों को दे देते हैं। रूपए पैसे से दाऊ साहब ही हमारा ध्यान रखते हैं।
मैंने मुस्कुराते हुए उसकी तरफ देखा फिर उसकी पीठ थपथपाते हुए बोला, " तो दाऊ साहब की मैनेजर हो ....?"
"अरे क्या भैया जी, आप तो इतनी बड़ी पदवी दे दिए। हम तो मजदूर आदमी है ... । दाऊ साहब तो हमारे लिए भगवान है। मैं इधर-उधर आवारा फिरता था। ये जो हमारी बीवी को देख रहेह न ? हम दोनों एक दूसरे को पसंद करते थे, लेकिन इसके घर वाले इसका हाथ मेरे हाथ में देने के लिए तैयार नहीं थे। अब कैसे दे देते, मैं कुछ करता-धरता तो था नहीं। तब दाऊ साहब ने मुझे अपने यहां रखा, काम दिया और प्रयास करके मेरी इसी से शादी भी करवा दी ... गांव की बस्ती में पुराना घर है। मां-बाप वहीं रहते हैं। यहां टेंपरेरी जुगाड़ बना रखा है। क्या है न भैया जी कि खेती-पाती का काम है, दौड़ धूप पड़ जाती थी।"
उसकी बात सुनकर मैं थोड़ा सा हंस दिया, " यार तुम्हारी स्टोरी बड़ी इंटरेस्टिंग है, इससे यह बात तो पता चलती है कि इंसान को एक बार प्रेम जरूर करना चाहिए ..."
"काहे भैया जी ....", उसने कुछ लजाते हुए पूछा।
"वह ढंग का इंसान बन जाता है ...", मैने हंसते हुए कहा।
फिर मेरे साथ वह भी हंस पड़ा। उसने फिर पूछा, "और आप भैया जी, दाऊ साहब को कैसे जानते हैं ....? मतलब कोई रिश्तेदारी है या जान पहचान ...?"
उसका प्रश्न करना था कि मैं सावधान हो गया, जब मुझे कुछ नहीं सूझ तो मैंने एक कहानी बना ली, "बाबा के जो छोटे बेटे हैं न, मतलब थे, वो मेरे पिताजी के बहुत अच्छे दोस्त थे, वहीं से जान पहचान है। मेरे पिताजी को बाबा भी जानते हैं, जब मेरी यहां माइंस में सर्विस लगी तो पिताजी ने कहा था कि मैं उनसे मिल लूं ..."
"ओह ! आप पीहू के पापा की बात कर रहे हैं न, पुष्कर भैया की ? तो आप उन्हीं के यहां रहते हैं ..."
"नहीं कंपनी ने कस्बे में क्वाटर दे रखा है, ... कभी-कभी मिलने आ जाता हूं। बाबा पूजा कर रहे थे और मैं घूमने इस तरफ निकल आया। बताया था उन्होंने कि मंगल नाम का एक लड़का खेत की देखभाल के लिए रहता है, तो तुम्हारा नाम भी मालूम पड़ गया ... अच्छा तो अब मैं चलता हूं .... मैं शाम को आऊंगा दवाई लेकर तुम्हारी ..."
पीछे से उसकी आवाज आई, " जी भैया जी नमस्ते ..."
बदले में आगे की तरफ बढ़ते हुए मैंने पीछे हाथ हिला दिया। यह मेरी मंगल से पहले मुलाकात थी। तब मुझे क्या पता था कि यह इंसान आगे चलकर मेरे जीवन के सभी सुख-दुख का साथी बनेगा। बाकी तो एकदिन सब छल कर जाएंगे।
जब मैं घर पहुंचा तो बाबा को तख्त में बैठे हुए देखा, "मैं झुक कर उनके चरण स्पर्श किए, झोला दीवार के सहारे टिका दिया और एक कुर्सी खींच कर बैठ गया..."
बाबा ने पूछा, "मंगल से मिले, कैसा है ? पीहू ने बताया कि तुम बगिया की तरफ गए हो ..?"
"जी इस झोले में सब्जी और पपीता उसी ने दिया है, 3 दिनों से उसे बुखार आ रही है। मैंने कहा कि मैं शाम को उसे दवाई लाकर दे दूंगा ... मेरे बारे में पूछ रहा था कि आप लोगों को मैं कैसे जानता हूं ... "
" क्या बताया ...?"
मैंने अपना सर नीचे किए हए कहा, "बाबा झूठ बोला, कहा कि पीहू के पापा और मेरे पापा दोस्त थे ..."
बाबा खामोश थे, "सॉरी बाबा, कुछ समझ न आया तो यही बोल दिया ...."
"कोई बात नहीं ... अच्छा ही किया "
कुछ देर बाद मैने उनसे फिर कहा, " बाबा मुझे आपसे एक इजाजत चाहिए ?"
"हां... हां ... कहो", बाबा ने मेरे चेहरे पर अपनी नजर गड़ाते हुए कहा।
"बाबा मुझे कुछ कपड़े खरीदने थे, पहनने के लिए। वो क्या है कि मुझे कपड़ों की क्वॉलिटी का कोई आईडिया नहीं। कभी पापा तो कभी मम्मी खरीदती हैं। तो मुझे .... तो मैं सोच रहा था कि ... मैं पीहू को ...?", आगे की बात मेरे गले में घुट के रह गई।
"अच्छा ! .... लेकिन आज तो रविवार है। क्या दुकान खुली रहेगी ..?"
"हां .. हां बाबा कुछ दुकानें खुली रहती है ...", मेरा दिल तेजी से धड़क रहा था।
"तो अपने साथ पीहू को ले जाना चाहते हो .…"
" ज .. जी बाबा "
"पीहू से पूछा ... ?"
" ......", मैं चुप रहा।
"अच्छा पीहू से पूछ लो यदि उसे कोई एतराज न हो तो ले जाओ। लेकिन हां, ध्यान रखना, उसे कोई असुविधा नहीं होनी चाहिए और दूसरी यदि बरसात हो तो भींगना मत कहीं रुक जाना, ना हो तो समय से घर वापस आ जाना ..."
तभी पीहू रसोई घर से बाहर आती हुई बोली, " कौन कहां जा रहा है बाबा ?"
"अरे ... इसे कुछ अपने लिए कपड़े खरीदने थे तो कह रहा था कि इसे कपड़ों की क्वॉलिटी का कोई आईडिया नहीं है, तो तुम्हें ले जाना चहता है। टाइम हो, मन हो तो चले जाओ .... क्या कहती हो ?"
वह कुछ सोचते हुए फिर अनमने मन से कहा, "जी बाबा ..... वो ... यदि आप कहते हैं तो ..."
उसकी बातें सुनकर मैं एकदम से चौंक पड़ा। गजब का अभिनय, फसा दिया इस लड़की ने।
मैं कुछ कहता या वह कुछ कहती उससे पहले बाबा बोल उठे, " यदि मन नहीं है तो मत जाओ ..."
मेरे दिल मैं आया कि मैं अपना सर दीवार पर दे मारू। सत्यानाश कर दिया इस लड़की ने। तभी वह बोली "अरे नहीं बाबा ... मन की बात नहीं है, चली जाती हूं। घरेलू सामान भी कुछ खरीदने हैं, वह भी खरीद लूंगी। .... लौट आऊंगी टाइम से ..."
"जी .... थैंक्स ए लॉट...", मैं उसे घूरते हुए बोला और वह थोड़ा सा मुस्कुराते हुए बोली, "मेंशन नॉट", फिर वह फिर से रसोई घर में घुस गई। मैं जानता था, पक्का हंस रही होगी।
बाबा अपनी छड़ी उठाते हुए बोले, "मैं भी मंगल से मिल कर आता हूं.... तुम बैठो.... मैं थोड़ी देर से लौटता हूं ..."
"जी बाबा, क्या मैं भी ...."
मेरी बात पूरी होती इससे पहले वो बोले, "नहीं ... नहीं... तुम यहीं रहो .... मैं धीरे-धीरे चला जाऊंगा"
बाबा के जाते ही मुझे मौका मिला। मैं सीधे रसोई घर के दरवाजे में पहुंचा, " अच्छा !! तो मेंशन नॉट .... हूं"
उसने देखा। मैं रसोई घर में घुसता इससे पहले वह तेजी से बोली, " नहीं ... नहीं ... जूते पहने हैं, खबरदार ! रसोई घर के अंदर नहीं ... मैं बाबा को बुला दूंगी ...."
"तो बुलाओ ...", मैने अपने दोनों हाथ कमर में रखते हुए आगे बोला, "मैं क्या बाबा से मै डरता हूं ...."
"अ .. अच्छा ! बकरी कब से शेर बन गई ... ओह ! तो मतलब बाबा कहीं गए हैं"
"हां बगिया गए हैं, मंगल से मिलने। लेकिन वो सब तुम छोड़ो, बाहर आओ ...", मैं कृत्रिम गुस्से से बोला।
"क्या करोगे ? मारोगे ...?"
"नहीं .... लड़ना है तुमसे ..."
"तो लड़ो... लड़ना तो जुबान से होता है न, टच करने की क्या जरूरत है ... देखते नहीं मै दाल फ्राई करने जा रही हूं ..."
"तुम्हारी दाल मेरे बिना नहीं गलेगी ..."
"हाय ! सच ? ..", उसने आश्चर्य जताते हुए कहा।
"किसी तरह तो बाबा से परमीशन मिली थी, और तुम ... सब बिगाड़ने जा रही थी ..."
"और कुछ ..?"
"हां ... तुम बाहर आओ ..", मैने जिद पकड़ ली।
"चुपचाप कुर्सी में बैठो ..."
"तो तुम नहीं आओगी ...?"
"आती हूँ यार, सांस तो ले लो ... बिलीव मी"
कुछ देर बाद वह तख्त में बैठते हुए बोली, " हां कहो, क्या शिकायत है ?"
"वो सब छोड़ो... तुम्हारे कपड़े कहां हैं ? मुझे दिखाओ ..."
"लेकिन तुम तो लड़ने वाले थे न ? ... गुस्सा खत्म .. हूं ...."
"टाइम वेस्ट मत करो .... अटारी में हैं क्या ?"
"हा, लेकिन वो डेली के पहनने वाले है ..."
"तो और कहां हैं ?"
"मम्मी के कवर्ड में ... लेकिन क्यूं?"
"आओ मेरे साथ ...", मैने उसकी कलाई पकड़ तख्त से उठाते हुए बोला।
वह मेरे साथ आई, कवर्ड खोल दी, " ये रहे ... "
हैंगर में उसके सूट लटके थे, मैंने एक-एक करके उन्हें देखा। फिर एक सूट पर मेरी नजर ठहर गई। मैने उसे निकलते हुए कहां, " हां ये अच्छा लगेगा ..."
"मतलब ..."
"जब मेरे साथ चलोगी तब इसे ही पहनना ... देखो तुम गोरी तो हो ही, ये डार्क कलर अच्छा लगेगा। फिर ये कलर तो तुम्हारी आंखों के कलार से भी मैच करता है। सच ! तुम पर बहुत अच्छा लगेगा।"
उसने सूट वापस हैंगर में टांग दिया। फिर मुझे डांटते हुए गुस्से से बोली, " चलो बाहर ..."
"क्या हुआ !!!"
"मैं अपनी पसंद का खाती हूँ, और अपनी ही पसंद का पहनती भी हूं ... तुम अपने विचार मुझ पर थोपने की कोशिश करने वाले कौन होते हो ...", यह कहते हुए वह बाहर निकल गई।
मैं कौन होता हूं ...!!! अब इसे क्या हुआ !! ठीक है, नहीं पसंद तो शालीनता से भी तो मन कर सकती थी। इतना अपसेट होनी कि क्या जरूरत थी। मैं कुछ देर तक ठगा हुआ वहीं पर खड़ा रहा। फिर बाहर उसी कुर्सी में चुपचाप बैठ गया। उपेक्षा का असहनीय दर्द जब बढ़ गया तो मैं रसोई घर के दरवाजे के पास पहुंचा, " पीहू ... !"
कुकर का ढक्कन बंद करते उसके हाथ रुक गए, मेरी तरफ देखा। पल भर के लिए नजरे टकराई। फिर मैंने नजरे झुका ली, "मैं जा रहा हूं ... बाबा से कहना, फैक्ट्री में जरूरी काम था ... याद नहीं रह गया था। अचानक याद आया तो चला गया ..."
मैं उसके जवाब की प्रतीक्षा किए बिना, बैठक की सीढ़ी की तरफ बढ़ा .... "
"ये रुको ... मेरी बात सुनो ....", पीछे से उसकी पुकार सनाई दी। लेकिन मैं बढ़ता ही गया। पीछे से रसोई में बर्तन की गिरने की आवाज सुनाई थी, शायद कुकर के ढक्कन को उसने एक तरफ फेंक दिया था।
मैं आंगन पार करके दरवाजे तक पहुंचा ही था कि वह भागती हुई आई और पीछे से मेरी कमर में अपने दोनों हाथ से घेरा बना मुझे कस कर पकड़ लिया, " मत जाओ प्लीज !! देखो मैं सारी बोल रही हूँ न, मुझसे गलती हो गई, न जाने क्या बोल गई ...",
"छोड़ो पीहू ...", मैंने कुछ उदासी और कुछ उपेक्षित भाव से कहा।
उसने रोते हुए कहा, " नहीं ..नहीं ...", इसके साथ ही उसकी पकड़ और कस गई। मैं जब कुछ देर तक यूं ही उदासीन खड़ा रहा तब उसने एक झटके से मुझे छोड़ दिया और सामने आकर खड़ी हो गई। फिर अपनी आंखों के आंसू पूछते हुए बोली, " जाना चाहते हो न, तो जाओ ... लेकिन कभी न कभी तो लौट कर आओगे न ?, लेकिन जब आओगे तो मुझे नहीं पओगे ...... मेरा मरा मुंह देखोगे ..... "
फिर वह एक झटके से आंगन से होते हुए बैठक पहुंची और उसके बाद गैलरी में घुस गई। उसने मुझे उपेक्षा का दर्द दिया और बदले में मैंने उसे। दिल के जज्बात दोनों के आहत हुए, दोनों की आंखों से आंसू बहे, दर्द दोनों को हुआ। लेकिन मेरे दर्द की टीस उसे थी, और अब उसके दर्द की मुझे हो रही थी। मैंने अपने आप को शांत किया। उसके पीछे गया, कमरे का दरवाजा अंदर से बंद नहीं था।
मैंने देखा वह बिस्तर पर औंधेमुंह लेटी सुबक रही है। मैं उसके बगल से ही बैठ गया। फिर साहस जुटा के उसके कंधे पर हाथ रखते हुए पुकार, " पीहू ...! "
हमदर्दी के एक पुकार ने उसकी सिसकियां और बढ़ा दी, " पीहू ... मत रोओ प्लीज, देखो मैं सॉरी कह रहा हूं न ... मुझे माफ कर ...", कहते-कहते मेरा कंठ भी अवरुद्ध हो गया। मैंने अपना सर उसके सर के ऊपर रखते हुए गमगीन में कहां, "यह तुमने क्या कहा दिया ... ईश्वर ना करे मुझे कभी वह दिन देखना पड़े ... उससे पहले मैं मर जाऊं ....",
वह पलटी और एक झटके से मुझे खुद से लिपटा लिया। कुछ इस तरह की जैसे वह अब कभी मुझे नहीं छोड़ेगी। सिसकते हुए उसने कहा, "प्लीज इस न कहो। सॉरी तो मुझे कहना चाहिए ... मुझे तुमसे ऐसे बात नहीं करनी चाहिए थी ..."
"भूल जाओ ... लेकिन एक बात पूछूं ... क्या केवल तुम इसलिए अपसेट हुई थी कि मैंने तुम्हारे लिए सूट सेलेक्ट किया ... या फिर कोई और वजह थी ?"
वह कुछ देर तक यूं ही सुबकती रही। जब वह कुछ न बोली तो मैने कहा, " ओके... जाने दो "
तब वह बोली, "तुमने इस सूट के अलावा कोई और शूट सेलेक्ट किया होता तो मैं ऐसे रिएक्ट न करती। ..... उस दिन मेरा बर्थडे था जब दादी की मौत की खबर मुंबई पहुंची थी। पापा ने ये सूट बर्थडे गिफ्ट के रूप में मुझे प्रेजेंट किया था ... और जानते हो उन्होंने भी वही कहा था जो तुमने आज कहा ... पापा की इच्छा थी कि ये सूट पहन कर उनको दिखाऊं, लेकिन फिर पापा ने मौका ही नहीं दिया .... फिर मैने इस सूट को कभी नहीं पहना ..."
वह अभी भी सिसक रही थी। कहते हैं रो लेने से जी हल्का हो जाता है, और मैं चाहता था कि उसका जी हल्का हो जाए। मैं उसे गले से लगाए, अपनी बाहों में समेटे बैठा था।
कुछ देर बाद मैने उसे समझाते हुए कहा, " पीहू ! ... हम अपनी यादों से जितनी तेजी से दूर भागते हैं न, वे यादें कई गुनी तेजी से हमारी तरफ भागती हैं ... हमें रुलाती हैं, हमें दर्द देती है। हमें अपनी यादों से दूर नहीं भागना चाहिए, बल्कि उन यादों को अपनाना चाहिए। उनके साथ जीने की आदत डालनी चहिए। जानता हूं मुश्किल होता है, पर किया जा सकता है। मेरी मानो तो इस सूट को आज तुम पहनो, तुम्हारे पापा इस सूट में तुम्हें देखना चाहते थे न ? तो मैं देखूंगा, और तुम देखना मेरी नजरों से तुम्हारे पापा तुम्हे देख रहे होंगे ..."
"ओह सत्य !!! मुझे छोड़ कर कभी मत जाना, वादा करो, जब तक इस दुनिया में रहूं तुम मेरे साथ रहोगे ...", उसने मुझे और कस के पकड़ लिया था। उसने पहली बार मुझे मेरे नाम से पुकारा था, वरना दादा जी के लिए तो "देवेंद्र" और उसके लिए "अजनबी" ही था।
हालात गमगीन थे, मैने उन्हें पटरी पर लाने की कोशिश की, "वादा ! तुम्हे छोड़ कर कौन मूर्ख जाएगा !! तुम जैसी और कहां मिलेगी मुझे ... हूँ... जरा मेरी तरफ देखो ..."
फिर मैने उसके चेहरे को अपनी हथेली में लेते हुए बोला, " जिसका चेहरा इतना प्यार हो, जिसकी आँखें बादामी हों, होंठ गुलाबी हों, गाल सिंदूरी हो, बाल सुनहरे हों ", फिर उसकी नाक में तर्जनी रखते हुए आगे बोला, " और जिसकी नाक परफेक्ट हो, मेरी पसंद की .... "
मैने देखा, उसके सिंदूरी गाल और भी सिंदूरी होते जा रहे थे, उसने कांपते स्वर में कहा, " और ...."
"हां है न, बहुत कुछ है। जिसे हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी और मराठी भाषाएं आती हों, जो शेक्सपियर भी पढ़ती हो और कालिदास भी, और जिसे खाना बनाना भी आता ही और गाय दुहना भी, और ...."
"बस बहुत हो गई मेरी तारीफ, बाबा आते होंगे ..."
"नहीं पीहू ... मैं सच कह रहा, ज्ञान, समझ और सुंदरता का इतना सुंदर समन्वय मैने कभी नहीं देखा ...."
फिर वह झटके से मेरा हाथ किनारे कर, उठते हुए बोली, "बाबा आ गए तो दोनों पिटेंगे... समझे ? बाहर चलो ..मुझे अभी चावल और रोटियां बनानी हैं ..."
मैने अपनी खीझ का प्रदर्शन किया, " ये सुनो, रोमांटिक बातों से डाक्टर ने परहेज रखने को कहा है क्या ...?"
बाबा को गए लगभग आधे घंटे हुए थे। इस आधे घंटे में, हम लड़े - झगड़े, रोए, एकदूसरे को सांत्वना दी, गले लगाया, रोमांटिक बाते भी हुईं। क्या कुछ नहीं हुआ। लगा जिंदगी सुपर फास्ट ट्रैक में चल रही है।
बाबा कुछ देर बाद लौट कर वापस आए। हम दोनों ने साथ खाना खाया। पीछे पीहू ने भी। मैंने रिस्ट वॉच देखी, सुबह के 10 बज चुके थे। पीहू ने मुझसे कहा कि मैं कुछ देर आराम कर लूं, तब तक वह रसोई को साफ सुथरा कर समान समेट ले। उसके बाद मार्केट चलेंगे। मैं बेडरूम में आ गया और बिस्तर पर लेट गया। बाहर धूप नहीं थी, मौसम नर्म था। बादल छाए हुए थे लेकिन पानी बरसने का कोई आसार नजर नहीं आ रहा थे।
मैं अकेला था, और जब अकेला होता हूं तो निष्पक्ष भाव से पीहू के बारे में सोचता हूं। उसे पढ़ाई बीच में नहीं छोड़नी चाहिए थी। आखिर हादसे किसके साथ नहीं होते लेकिन अपना कैरियर अपनी जिंदगी को इस तरह बर्बाद करना कहां तक उचित है। अभी तक मैंने उसे जितना भी जाना, उसे समझा, तो यही पाया कि इतनी कम उम्र में जो ज्ञान उसके पास है वह बहुत ही कम लोगों के पास होता है। शायद लाखों-करोड़ों में एक।
उसे चार भाषाओं की ही नहीं बल्कि कई विषयों की नॉलेज है। यदि वह अपने ज्ञान को क्रमबद्ध तरीके से सही दिशा में उपयोग करें तो बड़ी से बड़ी ऑफिसर बन सकती है। कोई भी बड़ा एग्जाम देने के लिए सिर्फ ग्रेजुएशन ही तो चाहिए। फर्स्ट ईयर तो कंप्लीट ही है, दो साल और लगेंगे तब उसकी उम्र 25 वर्ष होगी। कौन सी अधिक उम्र हो जाएगी ? चलो मान लिया एक-आध साल एंट्रेंस की तैयारी में लग जाएगा। तब भी 26-27 साल की उम्र में वह अपने पैरों पर खड़ी होगी, अपनी एक नई पहचान के साथ।
ठीक है इस बीच उसके पास मेरे लिए ज्यादा समय नहीं होगा तो क्या फर्क पड़ता है ? बाबा के पढ़े गए मंत्र को यदि मैं स्वीकार कर लूं तो अब मैं उसका जीवन साथी हूं, उसका पति हूं। यदि अपने दिल की बात स्वीकार करूं तो वह मेरी प्रेमिका और मित्र दोनों है। यदि मेरी तरफ उठती उसकी निगाहों को पढूं तो मैं उसके लिए सब कुछ हूं। अजनबी कहती है तो क्या फर्क पड़ता है, कहने दो उसे। उसकी दिल की धड़कन, उसकी निगाहें, उसका मेरे प्रति विश्वास, पुकार की कशिश, बाहों के घेरे, आलिंगन सभी तो मुझे समझ में आता है। तो फिर मैं उसके अच्छे-बुरे के बारे में क्यों नहीं सोचता ? मैंने निश्चय किया की उपयुक्त समय जानकर मैं उससे आज जरूर बात करूंगा।
मैं अपने विचारों में खोया ही रहता यदि वह न आ गई होती।
"क्या सोच रहे हो ...?"
"ये बाद में बताऊंगा, हां किसके बारे में सोच रहा था ये बता सकता हूं ....", मैने मुस्कुराते हुए कहा।
"हां ... जानती हूं, झूठ बोलोगे ... कहोगे.... तुम्हारे बारे में"", मेरे पास बैठते हुए उसने मेरी ही तरह मुस्कुराते हुए कहा।
"नहीं .... ये झूठ नहीं है .... सच में मै तुम्हारे ..."
"रहने दो .... रहने दो ... पता है ... ", उसने उपहास से कहा।
"यार तुम दिल तोड़ देती हो ....", मैने रूठने का अभिनय किया।
"थोड़ा किसको ना मैं भी थोड़ा लेट लूं, थकान लग रही है ...", उसने मुझे खिसकने का इशारा किया।
मैं बिस्तर की दूसरी छोर पर खिसक आया। वह तकिया में सर रखकर लेट गई, उसकी आंखें बंद थी। मैंने ध्यान दिया कि उसकी सांसे तेज-तेज चल रही हैं। चेहरे ही नहीं पूरे शरीर में थकान के निशान दिखाई दे रहे थे।
मैंने उसके सर पर हाथ फेरते हुए पुकार, " पीहू... ओ पीहू ...!"
"हूँ.... बोलो ...", उसकी आंखें अभी भी बंद थी।
"क्या हुआ ? ... तबीयत तो ठीक है न ?", मैंने पूछा।
"हूं ठीक है ... बस थोड़ा सा थकान लग रही है .."
"देखो कोई दिक्कत हो तो हम अगले संडे चल सकते हैं ...?", उसकी थकान को मद्दे-नजर रखते हुए मैंने कहा।
"तुम चिंता मत करो .... बस थोड़ी सी थकान है। आराम कर लूंगी तो ठीक हो जाऊंगी...", मेरी तरफ करवट करते हुए वह बोली। आंखें उसी तरह बंद थी।
मैं उसे गौर से देख रहा था, मुझे महसूस हुआ जैसे उसे सांस लेने में तकलीफ हो रही हो। मैं कुछ देर तक चुप रह रहा। लगभग 10 मिनट तक हम लोगों के बीच पूरी तरह से खामोशी रही। वह आंख बंद करके लेटी रही और मैं उसे टुकुर-टुकुर देखता रहा। कुछ देर बाद उसने स्वयं पूछा, " क्या सोच रहे थे मेरे बारे में ....?"
इस अप्रत्याशित प्रश्न से मुझे कुछ राहत मिली, "देखो मैं जो कहने जा रहा हूं, हो सकता है तुम्हें महसूस हो कि मैं तुम्हारी निजी जिंदगी में दखल देने की कोशिश कर रहा हूं। मैं सोच रहा था कि तुम ग्रेजुएशन कंप्लीट क्यों नहीं कर लेती। मानाकि कस्बे में कॉलेज नहीं है लेकिन शहर में तो है ... या फिर मुंबई में हॉस्टल में रहकर। जानता हूं बाबा को तकलीफ होगी लेकिन अपना कैरियर अपनी पढ़ाई यूं बीच में छोड़ देना क्या उचित है ? देखो, मैं मंगल से बात कर लूंगा, वह घर की देखभाल कर लेगा। रही बात बाबा के खाने पीने की तो उसके लिए भी कोई न कोई इंतजाम किया जा सकता है .... और फिर मैं भी यही हूँ...?"
मैं आगे और कुछ बोलता इससे पहले ही वह मुस्कुराते हुए बोली, " हूँ.... तो यह सब सोचा जा रहा था.... मंगल रोज न सही लेकिन दूसरे-तीसरे दिन तो आता ही है, घर के आगे-पीछे की सफाई कर देता है। उसकी बीवी 'कमली' कच्चे घर को को साफ कर देती है, गोबर से लीप -पोत देती है। मुझे बस पूजा घर रसोई और यह कमरा साफ-सुथरा रखना पड़ता है। और अटारी में झाड़ू लगाना कौन सी बड़ी बात है। तो घर को मैनेज करने की बात नहीं है। लेकिन बाबा को मैं छोड़कर नहीं जा सकती, पापा ने एक्सीडेंट के पहले मुझे यही एक काम तो सौंपा था, आज इससे भी भाग जाऊं ? नहीं हो सकता। और तुम ही बताओ पढ़-लिख कर क्या करूंगी ? जब तक हूं बाबा की सेवा करना चाहती हूं ...."
"जब तक हूं ....!!! ये तुम कैसी बातें कर रही हो ..", मैं उठकर बैठ गया था। लगा जैसे कोई झटका लगा हो।
उसने भी एक झटके से आंखें खोली फिर खोए -खोए स्वर में बोली, "क्या हो गया ? मैंने कुछ गलत कह दिया क्या ....?"
मैं उसके चेहरे की तरफ केवल देख रहा था। मुझे यूं देखता देख अगले ही पल वह बोली, "ओह ... तुम पता नहीं क्या समझ बैठे ... मेरा मतलब था कि जीवन और मृत्यु हमारे हाथ में नहीं है, सिंपल सी बात है। मुख से निकल गया .... लेकिन तुम भी तो समझो .... "
"अब दुबारा इस तरह की बातें मुझसे मत करना ....", मैं उसके माथे पर अपनी हथेली फेरते हुए भावुकता से बोला, "पल भर के लिए तुमने तो मेरे अस्तित्व को हिला दिया। लगा जैसे पैरों के नीचे से किसी ने जमीन छीन ली हो और सर के ऊपर से आसमान ... चारों तरफ वीरानियां ही वीरानियां नजर आईं...", भावुकता के इस क्षण में मेरी आंखें भर आई थीं।
एक पुरुष को अपनी प्रिय स्त्री की आंखों में आंसू देखकर जितनी तकलीफ होती है, उससे कई-कई गुना तकलीफ एक स्त्री को उस पुरुष की आंखों में देखकर होती है जिसे उसने मन से प्रियवर मान लिया हो । मेरे आंसू देख कर वह भी अंदर से हिल गई। मुझे अपनी तरफ खींच, मेरा सिर अपने सीने में रख लिया, फिर धीरे-धीरे मेरे बालों को सहलाने लगी।
कुछ देर बाद मुझे समझाते हुए बोली, "ये सब इतना आसान नहीं है, जिस कॉलेज से मैंने फर्स्ट ईयर कंप्लीट किया वहां से टीसी और माइग्रेशन सर्टिफिकेट लाना पड़ेगा, और रेगुलर पढ़ाई के लिए यहां से लगभग 70 किलोमीटर दूर जाना फिर लौटना, ये सब मैं नहीं कर पाऊंगी। और बाहर रहकर पढ़ने का तो मैं सोच भी नहीं सकती .... और फिर कॉलेज की डिग्री लेकर मैं करूंगी क्या ...?"
"तुम अपने ज्ञान को अपने नॉलेज को यूं जाया नहीं कर सकती ...", मैंने अपने आप को नियंत्रित करते हुए कहा।
"तो क्या यदि मैं कॉलेज नहीं पढ़ूंगी तो मेरा ज्ञान निरर्थक है ?"
"नहीं मेरा मतलब यह नहीं है। मैं तो यह कहना चाहता हूं कि यदि तुम्हारे पास डिग्री नहीं होगी तो उस ज्ञान को तुम यूटिलाइज नहीं कर पाओगी ..."
"यह किसने कह दिया ? करूंगी न !! तुम्हारे ऊपर ...", फिर वह खिलखिला कर हंस पड़ी।
"देखो मैं मजाक के मूड में नहीं हूं ...", मैंने उसे डांटने का अभिनय करते हुए कहा, " चलो कोई दूसरा रास्ता निकलते हैं, डिग्री तो तुम्हें हासिल करनी पड़ेगी ... हां प्राइवेट ... ओह ! मैं भूल कैसे गया ... !! जानती हो मेरे बड़े भैया तो यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं ... वह हमारी हेल्प करेंगे, हां ये ठीक रहेगा, लेक्चर के लिए तुम्हें कौन से प्रोफेसर की जरूरत है। तुम तो सेल्फ स्टडी करके भी टॉप कर लोगी ..."
"तुम्हारे पास तो हर समस्या का हल होता है। अजनबी! तुम पहले क्यों न मिले ...", वह प्यार भरी नजरों से मुझे देखती हुई बोली।
"अब तो मिल गया न .... संभाल के रख लो... चलो कस्बा चलते हैं ... और यदि मैं भूल जाऊं तो ध्यान रखना मंगल के लिए दवाई भी लेनी है ...", मैं उठते हुए बोला, "चलो .... उठो जल्दी तैयार हो जाओ ..."
"देखो कल के तुम्हारे कपड़े धुल दिए थे। बाहर सूख गए होंगे। प्रेस कर देती हूं, फिर उसके बाद तैयार हो जाऊंगी...", वह बेड से उठते हुए बोली।
"कपड़े धूल गए !! कब ?", मैंने आश्चर्य से पूछा था।
उसने सहजता से जवाब दिया, "जब तुम बगिया गए थे ..."
"ओह ! लाओ ... प्रेस मैं खुद कर लूंगा .. तब तक तुम तैयार हो जाओ ...."
"तुम रुको मैं अभी आई ......", यह कहते हुए वह निकल गई और 10 मिनट बाद जब वह लौट कर आई तो तह किए हुए कपड़े बेड पर रख दिए। मैंने देखा, प्रेस किये जा चुके थे।
"कर लो मेरी खूब सेवा .... कर दो मेरी आदत खराब फिर कल को तुम्हें ही भुगतना पड़ेगा ...."
वह हंसते हुए बोली, "फ्लर्ट करना छोड़ो, बहुत दूर तक का प्लान न बनाओ ..... तुम अपने कपड़े जल्दी से पहनो और निकालो कमरे से बाहर, मुझे तैयार होना है ..."
"मेरे यहां रहने से क्या दिक्कत है ...?"
"सीधे से कपड़े पहनो और निकालो ... समझे", उसने बेड से कपड़े उठाकर मेरे हाथ में रखते हुए कहा, "और लो ये पैसे .... जेब में पड़े थे।"
मैंने चेंज किया, पैसे जेब में डाले, ड्रेसिंग टेबल में रखे मोर पंख को उठाया और उसके गालों को उसी से टच करते हुए कमरे से बाहर आ गया। लेकिन आंगन की तरफ न जाकर पीछे कच्चे घर की तरफ निकल गया। पीछे का दरवाजा खोल उसी शीशम के पेड़ तक गया, कुछ देर तक खड़ा इधर-उधर देखता खड़ा रहा।
कुछ देर बाद खिड़की की तरफ देखा। अचानक मुझे कल की शाम याद आई, वो बरसात याद आई। इसी पेड़ के नीचे खड़ा मैं भीग रहा था, फिर आश्रय पाने के इरादे से इसी घर की तरफ भागा था। दरवाजा बंद होने के कारण गौशाला के पास खड़ा हो गया। फिर इसी खिड़की पर दिखाई दिया एक चेहरा, एक इशारा ... और फिर ... मेरी दुनिया बदल गई।
मैं अनिमेष खिड़की को देखता हुआ यही सोच रहा था कि तभी खिड़की पर वही चेहरा दिखाई दिया।दोनों हाथों से खिड़की की छड़ पकड़े हुए। मैं सीधे घर की तरफ भागा और अटारी पर आकर रुका।
मुझे सामने देख उसने पूछा, "यहां क्या कर रहे हो... मैंने तुम्हें आंगन ...",
वह आगे बोलती, इससे पहले मैने उसके होठों में अपनी उंगली रख दी ..." श ...शी ... बिल्कुल चुप ..."
मैं दो कदम पीछा आया, वह अब पूरी की पूरी सामने थी। खिड़की से आता उजाला उसके खुले सुनहरे रेशमी बालों से छन सिंदूरी गालों से टकरा रहा था। बादामी कलर का सूट उसकी खूबसूरत बादामी आंखों से मैच कर खुद अपनी सुंदरता बढ़ा रहा था। होठों में लाल रंग की लिपस्टिक जो नाममात्र के लिए लगाई गई थी, वह खुद उसके गुलाबी होठों से अपने रंग को मिक्सअप करने की नाकाम कोशिश कर रही थी। लबों पर फैली हल्की-हल्की मुस्कान उसके आंगन के गमले में आज ही खिले ताजे गुलाब को चुनौती दे रही थी। और उसकी चितवन ...? किसी हिरणी की चितवन को भी लज्जित कर रही थी ...."
"क्या देख रहे हो ... बताया नहीं कैसा लग रहा है ये सूट ... ?", उसने कुछ शरमाते हुए पूछा।
मैने पीछे आए अपने दो कदम वापस लिए। आगे बढ़ा और उसे कस कर गले से लगा लिया, "तुमने इसे पहना तो इसने अपनी सुन्दरता पा ली ... तुम्हारे पापा ने सच कहा था ... आई विश ! यदि हमारी भी बेटी हो तो तुम जैसी हो, वह तुम पर जाए ", कहते हुए मैने उसका माथा धीरे से चूम लिया, " ... अब चले ...?"
"हूं ...", वह कुछ और लजाते हुए बोली।
जल्दी लौट आने का वादा कर हम दोनों ने बाबा से विदा ली। लगभग दो किलोमीटर चलने के बाद बस्ती से कुछ पहले सड़क दो भागों में बटती थी, एक बस्ती की तरफ जाती थी और दूसरी कस्बे की तरफ जाती हुई मुख्य पक्की सड़क से मिलती थी। हमने दूसरी वाली रोड पकड़ी। अब बाइक स्मूथ चल रही थी। मैंने उससे कहा, "गिरना मत, हो सके तो मुझे पकड़ लो ....?"
उसने उलाहना दिया, "जब रोड कच्ची थी, ऊबड़-खाबड़ थी तब तो कहा नहीं, अब कहने की क्या जरूरत है ...?"
"मैं तो इंतजार कर रहा था ... और फिर मेरे कहने की जरूरत थी क्या ...?"
"वॉव ! ....":हंसते हुए उसने मेरे दाहिनी कंधे पर अपना दाहिना हाथ रखते हुए कहा, "माय प्लेजर..."
बादलों की छतरी जिसने अभी तक सूरज की तेज धूप को रोक के रखा था, ने अचानक अपना मिजाज बदला। बारिश की बड़ी-बड़ी बूंदें टप-टप गिरने लगी। यद्यपि अभी तक बारिश तेज नहीं हुई थी, फिर भी जब वह शरीर और चेहरे से टकराती तो लगता जैसे छोटे-छोटे पत्थर आसमान से बरस रहे हों। मैंने बाइक की स्पीड कम कर ली, और उसने अपना चेहरा मेरे पीठ पर कुछ इस तरह से छुपा लिया कि बारिश की बड़ी-बड़ी बूंदे उसके चेहरे से न टकरा सके। चलती हुई हवा में ठंडक महसूस होने लगी और मिट्टी से सोंधी--सोंधी खुशबू उठने लगी।
जैसा कि मैंने ऊपर लिखा कि मैं कॉलेज के समय सो कॉल्ड बॉयफ्रेंड-गर्लफ्रेंड वाले रिश्ते से गुजर चुका था लेकिन इतनी नजदीकी तो दूर की बात है, मैंने कभी उसका हाथ तक नहीं पकड़ा था। पहली बार एहसास हुआ कि इतने सुहाने मौसम में यदि आपका मनपसंद साथी आपके साथ हो तो मन ऑटोमेटिक ही रोमांटिक हो जाता है ... मैंने एक फिल्म का गाना कुछ बदल कर गाना शुरू किया।
पीहू ... पीहू...
पीहू ... पीहू ..
दिल कहता है पीहू ...पीहू ..
जब बाग में कोई फूल खिला तो
पपीहे ने कहा पीहू ... पीहू... पीहू ... पीहू...
परबत पे छाई काली घटा
तो बोली हवा पीहू ... पीहू... पीहू ... पीहू...
जब कोई अच्छा लगता है
बड़ा प्यारा प्यारा लगता है
तो दिल करता है पीहू ... पीहू... पीहू ... पीहू...
जैसा बन पड़ रहा था, मैं गा रहा था। पीछे बैठी मेरे कंधे पर अपना सर छुपाए वह बराबर हंस रही थी।
फिर उसने फिल्मी अंदाज में इस गीत के आगे की लाइन कही ....
"पीहू ... पीहू... क्या है, यह पीहू ... पीहू..."
मैंने रिप्लाई किया,
"पीहू का मतलब आई एल यू .....
आई लव यू ....
आई लव यू ...."
वह और तेजी से हंसी थी, "बस करो, मुझे फ्लर्ट करना नहीं छोड़ोगे .... बदमाश कहीं के। जानते नहीं मैं तुमसे एक घंटे बड़ी हूं ... बड़ों का कुछ तो लिहाज करो। और यह क्या 1942 लव स्टोरी' का गाना गा रहे हो .... कोई ऐसा गीत गाओ जो तुम्हारा हो"
मैंने कुछ और रोमांटिक होते हुए कहा, " जी नहीं मैडमजी, ये गीत '1942' का नहीं, ये गीत तो 'लव स्टोरी 1997' का है ...."
वह कुछ सोचते हुए बोली, " नहीं 1942 का है ..."
मैने विरोध किया, "नहीं 1997 का है ...."
"शर्त लगा लो......?"
मैने अपने कंधे पर रखे उसके हाथ को थप-थपाते हुए कहा, "लगा ली ..."
उसने फिर पूछा, " क्या लगा ली ..."
"मतलब ...?"
"यही की शर्त में क्या लगाया ..."
"ओह हां ....", मैंने कुछ सोचते हुए कहा, "तुम ही बताओ ...."
उसने भी कुछ सोचते हुए कहा यदि मैं हरी तो मैं तुम्हें एक गिफ्ट दूंगी और यदि तुम हारे तो तुम मुझे ..."
मैंने हंसते हुए कह, "तो चलो दोनों ही एक दूसरे के लिए खरीदेंगे ...."
"मतलब ... ?"
मैंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, "मतलब ये मैडमजी, कि ये गाना 1942 का नहीं है, और न ही 1997 नाम से अबतक कोई मूवी बनी है ... ये सौदागर मूवी का गाना है .... ", फिर मैं जोर से हंसा।
"वो तो मुझे मालूम था कि 1997 नाम से अभी तक कोई मूवी नहीं बनी है, वो तो तुम इस ईयर का नाम बता रहे हो, इसीलिए तो इतने कॉन्फिडेंटली शर्त लगा ली। हां ये नहीं मालूम था कि ये सौदागर फिल्म का गाना है ...."
"वाह !! ... सो इंटेलीजेंट! ... आई इंप्रेस्ड ..."
"बाबा ने कहा है, भींगना नहीं है ...", वह मुझे समझती हुई बोली।
"मिट्टी की गुड़िया नहीं हो कि घुल जाओगी ... वैसे भी आगे से मैं भींग रहा हूँ, तुम मेरे पीछे सुरक्षित हो ...", मैंने एहसान जताने वाले लहंजे मे कहा था।
"ओह ! .... थैंक्स, लेकिन पीछे से तो तुम मेरे कारण सेफ हो ....", उसने भी एहसान जताने वाले लहंजे मे कहा था।
"कहां सेफ हूं...? इतना छिटक के जो बैठी हो ...", मैंने शिकायती की।
तब वह बिल्कुल थोड़ा-सा सीट में आगे खिसकते हुए बोली, "अब ठीक है न ..?"
उसकी इस अदा ने मेरा मन मोह लिया। मुझे उस पर बहुत सा प्यार भी आया, और साथ ही एक विचार भी। ये वही पीहू है जिसे बेडरूम के बिस्तर में एकांत के क्षणों में मेरे नजदीक और इतने नजदीक की एक दूसरे की सांस एक दूसरे के चेहरे पर टकरा जए, लेटने में कोई संकोच नहीं, लेकिन चलती हुई राह में उसे अपनी मर्यादा का ज्ञान है। सच कहता हूं मेरे मन में कभी विचार नहीं आया कि मेरी होने वाली अर्धांगिनी छुई-मुई सी हो, बिल्कुल भी नहीं। वह फ्रैंक हो, पढ़ी-लिखी हो, समझदार हो, यदि किसी दृष्टिकोण में मैं गलत हूं तो मेरा विरोध भी करे, किंतु कहां पर कैसा व्यवहार करना है, उसे मालूम होना चाहिए। और पीहू मेरी सोच से, मेरी तसव्वुर से कई पायदान ऊपर थी।
वैसे भी बूंदा-बांदी ही हो रही थी, पांच मिनट बाद वह भी बंद हो गई। जब हम कस्बा पहुंचे तो मौसम पूरी तरह से खुल चुका था। मैंने उससे कहा, "पहले अपने कमरे चलता हूं, कुछ पैसे ले लूं, जेब में ज्यादा नहीं है ..."
"जानती हूं.... इसीलिए मैं घर से लेकर आई हूं, क्या जरूरत है ...", उसने लापरवाही से कहा।
"जरूरत क्यों नहीं है, शर्त जो हारा हूं ...."
"मैं जानती हूं तुम जान बूझकर हारे हो ... नहीं तो जब तुम्हें सही फिल्म का नाम मालूम था, तो तुमने 1997 क्यों बताया .... इतना तो मैं समझती हूं ..."
"देखो ! जीतेंगे तो दोनों और हारेंगे भी तो दोनों साथ-साथ ... समझी ?"
"हूँ... समझी ..."
"क्या समझी ...?"
"यही कि फिर से फ्लर्ट कर रहे हो ... पर चलो तुम्हारा घर भी देखते हैं ... ", मुस्कुराते हुए उसने कहा।
"घर कहां यार ... ये तो कंपनी का छोटा सा क्वाटर है ... मेरा घर तो अमरकंटक में है, यहां से 50 - 60 किलोमीटर दूर .... जब फॉर्म भरने चलेंगे तब देखना। ... चलोगी न ?"
"देखेंगे ....?", उसने अपने दोनों कंधे उचकाते हुए लापरवाही से कहा।
जब वह मेरे साथ क्वाटर पहुंची कमरे की हालत देखकर पहले तो जमकर मुझे डांट लगाई फिर कमरे की हालत सुधारने में उसे 15 से 20 मिनट लगे। इस बीच मैं उसे बराबर कहता रहा कि रहने दो मैं लौटकर कर लूंगा .... लेकिन उसकी एक ही दलील थी कि अभी तक क्यों नहीं किया था ...? और इस दलील का मेरे पास कोई जवाब नहीं था।
मैंने कवर्ड खोल कर कुछ पैसे निकले, इस बीच वह पीछे से आई, और चुटकी बजाते हुए बोली, "इधर लाओ ... शॉपिंग मुझे करनी है तुम्हे नहीं ...."
"एज यू विश ...", मैंने पैसे उसके हाथ में रख दिए।
बाबा ने सच कहा था। संडे का प्रभाव कस्बे में दिखाई दे रहा था। कुछ दुकाने ही खुली थी। मैंने उसके सामने ऑफर पेस की, "अभी कुछ दिन पहले छोटा सा मूवी हाउस खुला है, मैं एक बार गया था, अच्छा है, साफ सुथरा, सीट भी अच्छी है। दुकानें तो कोई खास खुली नहीं ... चलो मूवी देखते हैं ?"
"बाबा के जान पहचान वाले मिले तो ...?"
मैंने उसकी चुनरी माथे पर डालते हुए बोला, "अब ? चलो कोई नहीं पहचान पाएगा ..... "
"कौन सी मूवी लगी है ....?"
"मैं नहीं जानता ... चलो देखते हैं .."
जब हम पहुंचे तो "खमोशी" का पोस्टर लगा हुआ था।
"अरे वाह !! डियर सलमान ...", वह खुश होते हुए और कुछ मुझे जलाने के अंदाज में चहकी। मुझ पर कोई असर न देख फिर खुद ही मेरी आंखों में देखते हुए शरारत से बोली, " यू जेलिस... है न ? "
मैने उतनी ही लापरवाही से कहा, "नहीं तो .... सलमान तो मुझे भी पसंद है ..."
"लड़कों को सलमान कब से पसंद आने लगा !!", उसने कड़वा सा मुंह बनाते हुए कहा।
"पोस्टर को और ध्यान से देखो ..."
"हूँ ... क्या है ?"
"हीरोइन 1942 वाली है ...", मैंने मुस्कुराते हुए उसे बताया।
"अरे हां.... वहीं है ..", उसने पोस्टर को ध्यान से देखते हुए आश्चर्य से कहा।
"तुम यहीं रुको मैं टिकट लेकर आता हूं .. मूवी देखी तो नहीं है ..."
"नहीं दो साल से मै घर से निकली ही नहीं... कैसे देखूंगी ... चलो देखते है ..."
मूवी हाउस कोई बहुत बड़ा थिएटर नहीं था, लेकिन था साफ सुथरा, उसमें फर्स्ट क्लास भी थी। मैंने फर्स्ट क्लास की दो टिकट ली।
ना बोल पाने की मजबूरी के साथ माता-पिता और बोल सकते की पूरी क्षमता लिए पुत्री के संबंधों और भावनाओं को प्रस्तुत करती इस मूवी में कई ऐसे मोड़ आए जब मैंने महसूस किया कि उसकी आंखें भर आई है, और उसने मेरे हाथ को अपने कांपते हाथों से पकड़ लिया।
चर्च के फादर के सामने अपने प्यार को कन्फेस के रूप में स्वीकार करती नायिका से जब फादर ने पूछा, " ये लड़का है कौन.... क्या हमारे गांव का है ? "
और उसके जवाब में नायिका का यह कहना "नहीं अजनबी है ....", उसे रुला गया। उसके हृदय से उठी हूक उसके लबों से सिसकी बन के निकली, और उसने अपना सर मेरे कंधे पर टिका दिया।
अजीब इत्तेफाक से गुजर रहा था मैं। मूवी भी देखने को मिली तो पीहू आंखों में आंसू दे गई। और मैं ईश्वर से मन ही मन प्रार्थना कर रहा था कि मूवी का अंत सुखद हो। तब मैं क्या जानता था कि मेरे जीवन की जो कहानी शुरू हो चुकी है उसका अंत एक ऐसे मोड़ पर होगा जहां पर मैं अकेला, तन्हा, आंखों में वीरानियां लिए अपने आप से पूछूंगा, "क्या इसी दिन के लिए मेरी किस्मत, मेरी नियति मुझे यहां लाई थी ... ?"
चूंकि मूवी का अंत सुखद था इसलिए बाहर निकलते समय हमारे चेहरे लटके हुए नहीं थे। वह बात-बात पर हंस रही थी, और न जाने मुझे क्यों महसूस हो रहा था कि जैसे उसकी हंसी के पीछे एक अनकहा दर्द छुपा है। लेकिन उसका अभिनय इतना शानदार था कि मुझे जल्द ही यकीन हो गया कि यह सब मेरे मन का वहम है।
मूवी हाउस से कुछ ही दूर पर एक गार्डन था। टहलने के इरादों से हम दोनों ने उसमें प्रवेश किया। रंग-बिरंगे फूलों की क्यारियां, बच्चों के लिए कुछ आकर्षक झूले, फिसल-पट्टी, .....", कुल मिलाकर गार्डन बहुत बड़ा ना होते हुए भी आकर्षण था।
"कितना अच्छा गार्डन है .... ", उसने खुश होते हुए कहा।
"हूँ...", मैंने चलते-चलते एक क्यारी से कुछ गुलाब और रेन लिली के फूल तोड़े। तभी 18 - 19 साल का एक लड़का भागता हुआ मेरे पास आया, "सर फूल तोड़ना मना है, फाइन लगेगा ..."
मैंने पीहू को आगे बढ़ते रहने का इशारा किया और उससे मुस्कुराते हुए पूछा,:"यार क्या तुम्हारी कोई गर्लफ्रेंड नहीं हैं ....!!!"
"लेकिन सर ...,", वह कुछ शरमाते हुए बोला, "यदि किसी ने देख लिया तो मुझे ...."
"कोई नहीं देखेगा ..... प्रोमिस ...", फिर मैं भागता हुआ पीहू के पास पहुंचा। उसके हैंडबैग को ओपन कर सभी फूल उसके अंदर डालते हुए बोला, " छुपा लो नहीं तो मुझे फाइन लगेगा.... और उस लड़के की नौकरी चली जाएगी ...."
"अरे ! तो फिर तोड़े क्यूं.... और अच्छा यह बताओ तोड़े किसके लिए हैं ...?"
"अच्छे लगे तो तोड़ लिए ... अब क्या बताऊं किसके लिए ? यदि सच कहूंगा तो कहोगी कि फ्लर्ट कर रहा हूं ...? है न ?", मैने हंसते हुए कहा।
उसने हंसते हुए कहा, "वो तो तुम करते ही हो ...", उसकी आंखों की शरारतें, शोखियां, मेरी तरफ देखने का अंदाज सभी कुछ मुझसे चीख-चीख कर कह रहे थे, " शी लव्स मी ..."
जीवन के वे पल, वे लम्हे जो आप हंसी-खुशी आज गुजर रहे हैं, उनकी अहमियत उस वक्त पता नहीं होती है। वे बस गुजरते चले जाते हैं। लेकिन इसी जीवन में एक समय वह भी आता है, जब हम अकेला होते हैं, तन्हा होते हैं, मायूस होते हैं, आंखें सजल होती हैं। अंतर्मन से एक टीस उठती है, दिल में एक अजीब-सा दर्द होता है .... तब उन्हीं लम्हों के लिए मन तरस जाता है। दिल रोता है, तड़पता है, लेकिन फिर वे लम्हे आपके जीवन में कभी लौटकर नहीं आते। मैं जिंदगी के इसी मोड़ से गुजर रहा था और वह मेरी हमसफर थी।
हम लगभग एक घंटे तक पार्क में रुके थे। हमने एक ही नजर से फूलों की सुंदरता देखी। हंसते खिलखिलाते मासूम बच्चों को झूला झूलते हुए देखा, फिसल पट्टी में उन्हें फिसलते हुए देखा। फूलों की सुंदरता देखी, उनकी खुशबू को महसूस किया। एक ऐसी रोमांटिक दुनिया जिसके सभी रास्ते हमें रूहानी दुनियां की तरफ ले जा रहे थे।
अटारी में पहली रात उसने पूछा था कि मुझे कैसी लाइफ पार्टनर की चाहत है, और उसके जवाब में मैंने कहा था, " जो मुझे समझ सके। मैं उसकी अनकही बातों को भी समझ सकूं। किलोमीटर दूर तक भी सिर्फ उसका हाथ पकड़ कर चलता रहूं, बिना एक शब्द कहे हुए ... और वह बोर न हो ...आपकी नजर में कोई हो तो बताइएगा ?"
ठीक उसी तरह मैं आज उसका हाथ पकड़े बगीचे में टहल रहा था। पार्क के अंदर टहलने हेतु जितने भी रास्ते बने थे उन रास्तों से हम कम से कम दो बार गुजरे। एक दूसरे का हाथ पकड़े हुए बिल्कुल मौन। उस रात दिल्लगी में पूछे गए मेरे प्रश्न का जवाब आज मुझे इस पार्क में मिल रहा था।
"चलो चलते हैं, बाहर कुछ खाते हैं। मुझे तो कुछ-कुछ भूख लग रही है ...", मैंने पार्क के गेट की तरफ चलते हुए कहा।
पार्क के गेट के अगल-बगल चाट-टिक्की, गोलगप्पे, सैंडविच, मूंगफली-चना इत्यादि के ठेले लगे थे। हम दोनों ने टिक्की और गोलगप्पे खाए फिर उसने कहा, " खाली हाथ चले तो बाबा क्या सोचेंगे ? चलो कुछ खरीद लेते हैं .... "
कुछ प्रयास करने के बाद एक रडीमेड कपड़ों की की दुकान खुली मिली, उसने अपने लिए एक सूट और मेरे लिए जींस, टी-शर्ट और बाबा के लिए कुर्ता पैजामा खरीदा। फिर उसने कहा, "यहां एक बुक की दुकान भी है, मेरे पापा मेरे लिए यहां से किताबें भी लाया करते थे ...."
थोड़ा प्रयास करने पर वह दुकान मिल गई, ज्यादातर बच्चों की पढ़ाई-लिखाई से संबंधित किताबे थीं। उसने अपने लिए कुछ नॉवेल और अन्य दूसरी किताबें खरीदी। फिर उसीने ध्यान दिलाया कि मंगल के लिए दवाई भी लेनी है। फिर हम मेडिकल की दुकान पर पहुंचे और मंगल के लिए फीवर और एंटीबॉयोटिक की कुछ टैबलेट ली। पैसे का भुगतान करते हुए उसने मुझसे सामने की दुकान से आइसक्रीम लाने को कहा। जब मैं लौटा तो उसे बाइक के पास खड़े पाया। इन सब में लगभग 5 बज गए। मैने कहा, "अब चले .... आइसक्रीम चलते हुए खा लेंगे ... फिर मुझे लौटना भी तो है ..."
मैने बाइक स्टार्ट की, वह उसी तरह सामान्य ढंग से बाइक की सीट में बैठी और बाइक वापस गांव की तरफ लौट पड़ी। कुछ दूर चलने के बाद मैने उसे पुकार, "पीहू ...!"
"हूं ..."
"मंगल ने लव मैरिज की थी क्या ?"
"हूं ... सुना है, तब मैं 10 - 11 साल की थी"
"तुम लव मैरिज करोगी या अरेंज ...?"
"जहां बाबा चाहेंगे ... "
"बाबा ने तो कन्यादान का मंत्र पढ़ दिया ...?"
"अरे वो तो ऐसे ही ... तुम उसे सीरियस मत लो"
पता नहीं क्यूं उसकी ये बात अच्छी नहीं लगी, "मेरे सीरियस लेने या न लेने से क्या फर्क पड़ता है ? बाबा तो सीरियस ले रहे हैं न, नहीं तो .... एक ही कमरे में मुझे तुम्हारे साथ रहने देते ? क्या तुमने इसे सीरियस नहीं लिया ?"
"नहीं ...", उसने उपेक्षित सा जवाब दिया।
उसके इस जवाब में मुझे अंदर तक तोड़ दिया। मैं खामोश हो गया। खामोशी के इन लम्हों में मैं सोच रहा था, अजीब है ये लड़की !! कभी तो इतना प्यार जताएगी कि जैसे मैं ही इसके लिए सब कुछ हूं, और फिर अचानक मुझे खुद से बहुत दूर कर देगी। इसके मन में, इसके हृदय में क्या चलता रहता है, क्या मैं कभी पढ़ पाऊंगा ? क्या कभी जान पाऊंगा ? या फिर यह भी मेरे लिए एक पहेली एक अजनबी बनके रह जाएगी। मैने कहां न मै अंतर्मुखी और भावुक स्वभाव का इंसान हूँ। जिसे मैने अपना मान लिया, उसकी उपेक्षा मेरे हृदय में दर्द, एक अजीब सा सूनापन भर देती है, हृदय के सारे भाव मेरी सूरत में दिखाई देने लगते है, मेरी अंदर की करुणा पिघल कर आंखों में झलकने लगती है।
"पीहू ... सॉरी मुझे तुमसे ये सब बातें नहीं करनी चाहिए थी ...", मैने कोशिश की कि मेरी आवाज के कंपन का एहसास उसे न हो, लेकिन मेरा चेहरा तो उसे बैक मिरर में दिख रहा होगा। मैने उसे धीरे से घुमा दिया। सड़क सूनी थी ठीक मेरे मन की तरह। कुछ देर बाद मेरे दाहिने कंधे में रखा उसका दाहिना हाथ मेरी कमर में आ गया और उसका चेहरा मेरे कंधे में था। उसकी गर्म सांसे मेरी गर्दन से टकरा रही थी। मैने उलाहने भरे स्वर में उससे कहा,"पानी की बूंदे गिर रही है क्या ?"
उसने कोई जवाब नहीं दिया। अचानक मुझे महसूस हुआ जैसे मेरे कंधे पर सचमुच पानी की कुछ बूंदे पड़ी हों, लेकिन यह क्या ये बूंदे गर्म क्यों? मैं आगे कुछ और सोचता इससे पहले उसके शरीर का कंपन जो शायद हिचकी रोकने की कोशिश में उसके शरीर में पैदा हुआ था, मुझे अपने शरीर पर महसूस हुआ। मेन सड़क पर बाइक रोकना मुझे उचित महसूस नहीं हुआ। आगे एक गांव की तरफ टर्न होती कच्ची रोड पर मैंने बाइक उतार दी। उसने अपने आप को सामान्य करते हुए धीरे से पूछा, "हम कहा जा रहे हैं .... ?"
मैं कुछ बोला नहीं मेरी बाइक चलती रही और रोड के किनारे गांव से कुछ पहले ही एक मंदिर पर जाकर रुक गई। मैंने धीरे से कहा, "उतरो पीहू ..."
मैंने बाइक खड़ी की और मंदिर की तरफ बढ़ते हुए कहा "मेरे साथ आओ ..."
यह एक प्राचीन मंदिर था जिसमें माता पार्वती और भगवान शिव के विवाह के समय की भव्य मूर्ति थी। मूर्ति में भगवान शिव को माता पार्वती के गले में वरमाला पहनाते हुए दर्शाया गया था। इसी गांव का एक लोकल व्यक्ति जो फैक्ट्री में काम करता था, मैं उसके साथ इस मंदिर में एक बार आ चुका था। मुझे मंदिर में दो-तीन लोगों के सिवा कोई नहीं दिखाई दिया। शायद दर्शन करके लौट रहे थे। जब हम दोनों मंदिर में पहुंचे तो वहां कोई नहीं था। हम दोनों ने ही श्रद्धा भाव से ईश्वर को नमन किया।
प्रार्थनाएं ईश्वर द्वारा स्वीकार या अस्वीकार की जा सकती है। किंतु सच्चे हृदय के भाव जब ईश्वर तक पहुंचाते हैं तो वह अवश्य ही स्वीकार होते हैं। आज पीहू से सच कहना मेरे लिए बहुत जरूरी हो गया था।
मैंने उसके दोनों हाथ अपने हाथ में थाम लिए, फिर उसकी आंखों में देखते हुए कहा, "पीहू ...! मैं तुमसे बिल्कुल नहीं कहूंगा कि जिस दिन मैंने तुम्हें पहली बार खिड़की पर खड़े हुए देखा तो मुझे तुमसे प्यार हो गया था। उस दिन तो मैं तुम्हारा चेहरा भी ठीक से नहीं देख पाया था। और इस तरह मैंने तुम्हें दो-ढाई महीने खिड़की पर अकसर खड़े हुए देखा। तब मन में एक जिज्ञासा पैदा होती कि सुनसान घर में अकेली रहने वाली तुम कौन हो ... ? बरसात से बचने के लिए जब मैंने तुम्हें पहली बार नजदीक से देखा तो तुम्हारी सुंदरता भी उतने ही नजदीक से दिखाई दी। मेरे मन में आकर्षण पैदा हुआ, लेकिन तब भी प्रेम जागृत नहीं हुआ।
उस पल भी नहीं जब मैं पहली बार तुम्हारे बाबा के साथ बैठा था। लेकिन जब उस रात तुमने बरसती हुई रात में मुझे लौटने न दिया, बाबा से छुप कर मेरे रहने का इंतजाम किया, मेरे साथ बैठकर खाना खाया और जिस विश्वास के साथ तुम मेरे साथ एक ही चारपाई पर लेटी रही, उसी पल मुझे तुमसे प्यार हो गया और यदि तुम अपने हृदय से पूछोगी तो यही आवाज तुम्हें भी सुनाई देगी। अब इस प्यार से इनकार करना हम दोनों के लिए बेमानी होगी। तुम कुछ भी कहो, लाख इनकार करो, लेकिन मुझे तुम्हारी आंखों में अपने लिए प्यार ही प्यार दिखाई देता है। मैं किसी ईश्वर की सौगंध खाकर कोई कसम या वादा नहीं करूंगा। मंदिर में भी इसलिए खड़ा हूं कि आज मैं जो कुछ भी कहूं तो देवता मेरे कथन के साक्षी हों। तुम बाबा की बात मानने या न मानने के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र हो। लेकिन मैं उनके आदेश की अवहेलना कभी नहीं कर सकता। और करूं भी क्यूं जब मैंने तुम्हें हृदय से अपना मान लिया, बल्कि यू कहो कि तुम्हारा हो गया। अब इस मूरत को मेरे हृदय से कोई नहीं निकाल पाएगा, शायद तुम भी नहीं ...."
मैं आगे कुछ और बोल पाता कि उसका शरीर एकदम से लहराया और वह मेरे ऊपर लुढ़कती चली गई। लगा जैसे उसके पैरों में जान न रह गई। शरीर जैसे ठंडा पड़ता जा रहा हो, हृदय की धड़कने कम हो रही थीं। मैं घबरा गया और उसे अपने सहारे पर लेकर वही फर्श पर बैठ गया,
"पीहू ! ओ पीहू ,,....क्या हुआ ... उठो ... उठो प्लीज ...", उसकी हालत देखकर मैं घबरा गया। मेरा पूरा शरीर पसीने से तर-बतर होता जा रहा था। मेरी पुकार और घबराहट देखकर मंदिर में झाड़ू पोछा लगाने वाला लड़का और पुजारीजी जो शायद अभी-अभी पहुंचे थे मेरे पास आए। मैंने उसकी हथेली अपनी हथेली से रगड़ना शुरू किया और पुजारी जी ने उसके मुंह में पानी के छीटें मारे।
कुछ देर बाद उसे होश आया। उसने मेरी तरफ देखा फिर अपने चारों तरफ इकट्ठी भीड़ को। इशारे से पानी मांगा। अपने कंधे पर लटके हुए बैग से उसने अपने लिए एक टैबलेट निकाली। मैने आशंकित मन से पूछा, " ये किसलिए ?"
उसने धीरे से कहा, " सर दर्द और कभी-कभी घबराहट होने लगतो हैं ... शायद इसीलिए चक्कर भी आ गया था। घबराने की जरूरत नहीं ..."
कुछ देर बाद वह सामान्य हो गई। फिर उसने मुझसे खुद कहा, "चलो चलते हैं, नहीं देर हो जाएगी। बाबा इंतजार कर रहे होंगे ..."
हमें घर पहुंचते पहुंचते लगभग शाम 6:30 बज गए थे। उसने कहा पहले मंगल से मिलना है। चलो पगडंडी से बाइक निकल जाएगी। वह मंगल से मिली, उसे टैबलेट्स दी और बताया कब और कैसे खाना है। फिर वह कमली से बोली, "कमली तुम कल सुबह आ जाना, मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं है। घर की साफ सफाई कर देना। तीन दिन से पीछे कच्चा घर और अटारी भी नहीं साफ हुई है, थोड़ा उसे भी देख लेना ..."
लौटते समय उसने मुझे हिदायत दी, "देखो बाबा को मेरी तबीयत के बारे में कुछ मत बताना प्लीज। वैसे भी बाबा कमजोर हैं, वृद्ध हैं, फालतू में घबरा जाएंगे ..."
मैं मौन था। घर के अंदर घुसते ही वह बिल्कुल सामान्य हो गई जैसे कि कुछ देर पहले कुछ हुआ ही न हो। उसने चहकते हुए सब कुछ बताया। कैसे सिनेमा देखी, कैसे पार्क घूमी, कैसे फूल तोड़ने पर उस लड़के ने मुझ पर फाइन लगाने की बात की, कैसे मैंने डर कर सारे फूल उसके हैंडबैग में डाल दिए थे। कैसे आइसक्रीम खाई, कैसे कपड़े खरीदे, और कैसे अभी अभी उसने मंगल को जाकर दवाई दी। लेकिन वह एक वही बात छुपा गई।
"बाबा ...! मैं गाय को बांध के भूसा देकर आती हूँ ....", मैने पूछा, "मैं भी साथ चालू ..."
वह गाय दुहने के लिए एक छोटी बाल्टी उठाते हुए बोली, "हां ... आ सकते ही .….."
मैं उसके पीछे-पीछे हो लिया। गाय कमटी के गेट के पास अपने दोनों बछड़ों के साथ खड़ी थी। उसके गेट खोलते ही वे तीनों अपने-अपने खूंटे के पास आ के खड़े हो गए। उसने एक बड़ी टोकरी उठाते हुए मुझसे कहां, "कोठरी में भूसा रखा है, लो निकाल लाओ ... तब तक मैं खली ले आती हूं ...", तब मैने पहली बार जाना कि कोठरी में कबाड़ नहीं भूसा रखा है।
उसने किसी दक्ष किसान की तरह उन्हें गाय और बछड़ों के खाने के मिट्ठी के बर्तन में मिक्स किया, और फिर अंदर जा कर साबुन से अच्छी तरह से हाथ पैर धो के वापस आई। अब वह गाय दुहने में व्यस्त हो गई। काम समाप्त होने पर मुझसे बोली, "ये सब काम मंगल करता है .... लेकिन चार दिन से मुझे करना पड़ रहा है ..."
मैं सोच रहा था कि मुंबई के बॉम्बे स्कॉटिश स्कूल में क्या ये भी सिखालाया जाता होगा !!! फिर हम दोनों साथ ही बाबा के पास पहुंचे।
फिर उसने बाबा को उनके लिए खरीदा कुर्ता-पैजामा दिखाया, "बाबा देखना, यह आप पर बहुत अच्छा लगेगा ...."
मैं कुर्सी में मुस्कुराता हुआ सब सुन और देख रहा था। मंदिर में आज मैंने उसकी जो हालत देखी, उसे छोड़कर जाने का मन नहीं कर रहा था। लेकिन अंदर ही अंदर एक संकोच की भावना भी जागृत हो रही थी की बाबा क्या सोचेंगे। और मैंने लौटना ही बेहतर समझा, मैं उठा बाबा के पैर छूते हुए बोला, "बाबा मैं जा रहा हूं कल से वही फैक्ट्री पर ड्यूटी करनी है ..."
बाबा की मौन स्वीकृत मिल चुकी थी। मैंने उसकी तरफ देखा। शायद मैं उसकी आंखें, उसके चेहरे के भाव पढ़ना चाहता था की क्या वह मुझे रोकना चाहती है या नहीं। जब मुझे कुछ समझ में नहीं आया तो मैं दरवाजे की तरफ बढ़ गया। दरवाजे के पास पहुंच गया किंतु बाहर पैर रखने की इच्छा नहीं हो रही थी। मैं फिर पलट कर उसकी तरफ देखा और मेरे मुख से अनायास ही निकल गया, "पीहू ...! प्यास लगी है, एक गिलास पानी पिला दो ...."
पीहू कुछ कहती या रिएक्ट करती इससे पहले ही बाबा ने पूछा, "ड्यूटी तो सुबह से शुरू होगी न ?"
मेरे मन में एक आस जगी। मैंने अपने चेहरे की खुशी और उत्साह को छुपाते हुए कहा, "जी बाबा ..."
"तो फिर अभी क्यों जा रहे हो, सुबह चले जाना ... वैसे भी रात के समय बाइक से सफर करना अच्छा नहीं ... "
मैं यही तो चाहता था। मैंने तपाक से कहा, " जी बाबा ... ", मैने मना करने की कोई औपचारिकता नहीं निभाई। मैं वापस कुर्सी पर आकर बैठ गया और पीहू ने एक गिलास पानी लाकर दिया। बाबा से कुछ देर बातें हई। फिर वे हाथ पैर धो के पूजा करने चले गए। पीछे पीहू ने भी अपने हाथ पैर धोए फिर मुझसे कहा, "तुम नहा लो ... तब तक मैं सब्जी काटती हूं ..."
मैं जब नहा कर वापस लौटा तो सब्जी कट चुकी थी।मैंने पीहू से मुस्कुराते हुए कहा, "मैं तुम्हारे साथ खाना बनवाऊं ....?"
उसने कुछ आश्चर्य से मेरी तरफ देखा और पूछा भी लिए, " तुम खाना बना लेते हो ...?"
"हां ... मैं नौवीं क्लास से 12वीं क्लास तक मां के साथ रसोई में अक्सर घुस जाता था। मां मना करती थीं, लेकिन खाना बनाना सीखना मेरी जिद थी और मैंने सीखा... "
वह थोड़ा हंसते हुए बोली, "वाह ! खाना बनाना सीखने के लिए तुम्हें पूरे चार साल लगे !! नाइस ... वेरी फास्ट। चलो तो फिर देखते हैं आज ...."
उसने कटी हुई सब्जी को अच्छे से धुला फिर रसोई घर की तरफ बढ़ते हुए बोली, " तो आ जाओ ...",
मैं उसके पीछे-पीछे रसोई घर में पहुंचा। उसने फिर पूछा "सब्जी बना लोगे न..."
"तुम आलू, बैगन, टमाटर की सब्जी की बात कर रही हो ? यदि कहो तो कोफ्ता, पनीर, छोले भी बनाकर खिला सकता हूं ...."
"तो ये रही मसालदानी, ये नमक, ये गैस चूल्हा, ये लाइटर, ये पानी ... और कुछ।"
"बर्तन ..?"
"ये बगल में ... बर्तन के हैंगर में सभी टगे हैं, जो मन हो उठा लो", उसने इशारे से बताया, "तब तक मैं कुकर में दाल चढ़ा देती हूं, फिर फ्राई कर लेंगे। बाबा सूखी सब्जी से भरपेट नहीं खा पाएंगे ..."
मैने सुझाव दिया, "क्यों न मै ग्रेवी वाली सब्जी बनाऊं, तुम चावल चढ़ा दो, उसे फ्राई कर लेंगे ..."
"आलू, बैगन, टमाटर की रसे वाली सब्जी अच्छी लगेगी ...?", उसने सशंकित मन से पूछा।
"हां क्यों नहीं ... आज ट्राई करके देखो ..."
मैं सब्जी बना रहा था और वह चावल धो रही थी। मैंने उससे कहा 5 मिनट भिगो के रखा रहने दो फिर आधा चम्मच देसी घी डाल के पकने के लिए रखना ..."
"लेकिन यह कौन सा तरीका है, फ्राइ तो हम बाद में करेंगे न ...!", उसने मुझे टोंका।
"हे बालिके ! लेकिन आज हेड सैफ मैं हूँ, और तुम मेरी असिस्टेंट। मैं जैसा कहूं वैसा आंख बंद कर फॉलो करती जाओ ..."
"लो बंद कर ली, अब बताओ कुकर में ढक्कन कैसे लगाऊं ...", अपने द्वारा कहे गए लफ्जों के साथ उसने शानदार अभिनय भी किया। मुझे चुप देखकर उसने थोड़ा गुस्सा जाहिर करते हुए कहा, " बड़े आए आंख बंद करके इंस्ट्रक्शन फॉलो करवाने वाले...."
पीहू ... जी हां पीहू ..., यही तो है पीहू। एक रोते हुए इंसान को हंसा दे और एक हंसते हुए इंसान की आंखों में आंसू ला दे। मैं मुस्कुराते हए बाहर से एक कुर्सी ले आया। रसोई घर के एक किनारे रखते हुए बोला "इसमें आराम से बैठो ... मुझे जो करना होगा, मैं कर लूंगा ..."
उसने फिर मासूमियत से पूछा, आंखें बंद करके ...?"
"नहीं .... आंखें बंद कर लोगी तो मैं अपनी सूरत कैसे देखूंगा ..."
"हे भगवान !! फिर से फ्लर्ट ... ", कहती हुई वह कुर्सी पर बैठ गई।
सच, इसके बाद उसने एक भी काम नहीं किया। सब्जी मैंने बनाई, चावल मैंने पकने के लिए रखें। उसे फ्राई मैंने किया, आटा मैंने गूंथा, रोटियां मैंने बेली और रोटियां को सेका भी मैंने। मां के द्वारा अर्जित ज्ञान होने वाली तथाकथित बहू के काम आ रहे थे। कोई बहुत बड़ी फैमिली के लिए डिनर तो बनना नहीं था। केवल तीन लोगों के लिए 40 मिनट में सब बनकर तैयार हो गया था। बाबा अभी भी पूजा घर में थे।
"तो फिर चलो फालतू के बर्तन समेटों और एक किनारे रख दो। तब तक मैं भी नहा लेती हूं ...", वह कुर्सी से उठाते हुए बोली।
उस दिन जब बाबा ने खाना खाया तो पीहू से बोले, "खाने का स्वाद आज अलग है, लेकिन अच्छा है, आलू बैगन टमाटर की रसे वाली सब्जी बनाना तुमने कहां से और कब सीखा .... तुम्हे तो अच्छी भी नहीं लगती न .... ?"
"बस बाबा आज ट्राई किया कुछ अलग ढंग से बनाने का, अच्छा बना न?"
मैंने सोचा था तारीफ का पूरा न सही कुछ हिस्सा तो मुझे मिलेगा। मैंने पीहू की तरफ भरपूर दृष्टि से देखा। उसने आंखों के इशारे से अपना कान पकड़ते हुए मना कर दिया जैसे कह रही हो," कुछ मत कहना ..."
हम दोनों के खाना खा लेने के पश्चात पीहू ने भी खाना खाया। कुछ देर तक मैं बाबा से बात-चीत करता रहा, फिर मैंने लेटने की इच्छा जाहिर की। बाबा की परमिशन मिलते ही मैं बेडरूम में आ गया और चुपचाप बेड में लेट गया। लगभग 20 मिनट बाद वह कमरे में दाखिल होते हुए बोली, "सो गए क्या ?"
"नहीं ...", फिर मैंने पीहू से पूछा था, " तुमने मुझे बताया क्यों नहीं था कि आलू बैगन टमाटर की ग्रेवी वाली सब्जी पसंद नहीं है ...?"
"हां एक बार एक सहेली के घर में खाई थी, पसंद नहीं आई थी फिर उसके बाद कभी खाने की इच्छा ही नहीं हुई। लेकिन आज मैंने दो कटोरी खाई है ... मुझे तो बहुत अच्छी लगी ... सच ", वह तारीफ करते हुए बोली।
"तो बाबा को क्यों नहीं बताया ? क्या बाबा मेरे हाथ का बना खाना नहीं खाते ....?", मैंने जानना चाहा था।
"तुम कैसी बातें करते हो !", वह थोड़ा-सा रुष्ट होते हुए बोली, " यदि बाबा इतने ही रेसिस्ट होते तो एक क्षत्रिय को एक नारियल और चांदी का सिक्का दे कर सम्मान के साथ अपने तख्त पर न बैठते, उसका तिलक कर अपने घर में स्वागत न करते और अपनी इकलौती पोती के लिए कन्यादान का मंत्र न पढ़ देते। मुझसे कभी न स्वीकार करते की नियति तुम्हें यहां ले आई है, वह चाहते तो इस बात को छुपा ले जाते। नियति के फैसले को नामंजूर कर देते, लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया .... मेरे मना करने की वजह दूसरी थी ...", फिर वह चुप हो गई।
लेकिन मैं जानना चाहा, " कौन सी वजह ...."
".... यदि बाबा को पता चलता है कि मैंने तुमसे खाना बनवाया है तो मुझे डांट पड़ती .... समझे ?", फिर वह थोड़ा सा हंस दी, बाबा इस मामले में पुराने ख्यालात के हैं ..."
"कौनसे ..."
उसने उत्तर दिया, "A husband is prohibited from entering the kitchen if his wife is alive and healthy."
"वाह! तो शायद इसीलिए तुम हमारे साथ नहीं खाती हो ..."
"हां पहले बाबा के साथ बैठकर खा लेती थी ... "
"तुम मानती हो इन सब पुरानी बातों को ...?", मैने आश्चर्य से पूछा था।
"नहीं कोई खास नहीं मानती, और कौन सा इस बात का मुझे बहुत बड़ा एक्सपीरियंस है। लेकिन यदि मानती तो पहले दिन तुम्हारे साथ बैठकर थोड़ी खाती ? लेकिन बड़ों के सामने थोड़ा सा लिहाजा रखना पड़ता है ..."
"यदि तुम कहती हो तो सही ही होगा ... लेकिन पहले दिन की बात तो कुछ और थी, तब बाबा ने कन्यादान का मंत्र थोड़े न पढ़ा था ?", मैंने हंसते ही कहा।
"समझदार हो ..."
"लेकिन मेरे साथ यह सब कुछ नहीं चलेगा ...", मैंने एक गलत परंपरा का विरोध करना चाहा, " मैं बाबा से कह दूंगा कि वे अपना मंत्र वापस ले लें, तुम मेरी दोस्त ही अच्छी ..."
"भूल जाओ .... तब तुम घर में भी ना घुस पाओगे ... समझे मिस्टर ?"
मैं नहीं जानता की मंदिर में मैंने पीहू से जो कुछ भी अपने हृदय की बात कही, उसने कितनी सुनी और कितनी नहीं, या फिर सुनी ही नहीं। लेकिन मेरे लिए यह बहुत अहमियत रखता था की पीहू के लिए मैं क्या हूं, वह मुझे क्या मानती है। दोस्त, प्रेमी या फिर अपना पति। बाबा क्या समझते हैं इससे मुझे कोई खास फर्क नहीं पड़ता। बाबा के द्वारा कन्यादान के लिए पढ़ा गया मंत्र तो मेरी ढाल थी उसके पास रहने की। लेकिन ढाल के इस तरफ और ढाल के दूसरी तरफ दो अलग-अलग शख्सियत अपने-अपने अरमानों को लिए खड़े थे। अब दोनों का ढाल के एक ही तरफ खड़े होना आवश्यक था।
मेरे अंदर चल रहे अन्तर्द्वन्द और उठाते हुए सवालों के सारे जवाब पीहू के पास हैं, लेकिन मैं उसे मजबूर नहीं करना चाहता। यदि बाबा का मानना है कि नियति मुझे इस घर में, पीहू के नजदीक ले आई है, तो अब सारे सवालों के जवाब मुझे नियति ही देगी। अपने मन में चल रहे हैं अन्तर्द्वन्द के कारण मैं आज की खुशियों को नहीं खोना चाहता। मैं जानता था कि मेरे खुश रहने पर पीहू भी खुश रहेगी। मैं उसे बहुत-सी खुशियां देना चाहता था। हर पल, हर लम्हे उसके लिए जीना चाहता था, उसके लिया यादगार बनाना चाहता था।
बाबा ने मेरे और उसके बीच जो रिश्ता बना दिया उसका उसने खुलकर विरोध भी तो नहीं किया। उसने मुझसे भले कहा हो कि वह नहीं मानती, लेकिन बाबा से तो उसने कुछ भी नहीं कहा। हो सकता है कि मेरी तरह उसके अंदर भी कोई अन्तर्द्वन्द चल रहा हो। लेकिन उसके सारे हाव-भाव, मेरे प्रति समर्पण, विश्वास, नजदीकियां इन सभी से एक ही बात स्पष्ट थी कि मैं उसके लिए सर्वस्व हूँ।
मैं यह सब बातें सोच रहा था, और वह अपने बालों को समेट कर और हेयर बैंड लगाने के बाद फेस क्रीम लगाते हुए बोली, "किस सोच में हो, क्रीम लगाओगे ....", फिर मेरे जवाब की प्रतीक्षा किए बिना उसने क्रीम को मेरे दोनों गालों में टीक दिया, "मिला लो ..."
मैने उसे छेड़ते हुए कहा, "तुम्ही मिला दो ... और ये तो बताओ कि किसके लिए इतना सज-सवार रही हो ...?"
अपने दोनों हाथों से मेरे चेहरे में क्रीम को मिलाते हुए बोले, " और किसके लिए .... एक तुम्हीं तो नजदीक हो ..."
"हूँ.... फ्लर्ट कर रही हो ...?", मैंने मुस्कुराते हुए पूछा।"
"नहीं ... अच्छा चलो थोड़ा खिसको, अब मुझे भी लेटना है ..."
मैं खिसक कर बेड के दाहिनी तरफ आ गया। लेकिन वह लेटती इससे पहले मैंने उसे रोकते हुए कहा, "जरा ठहरो ... अपनी अंजुली तो बनाओ ...", फिर मैंने उसके हैंडबैग से अपने ही द्वारा रखे गए फूल चुन चुन के निकाले और उसकी अंजुली में रखता गया, "ये सब तुम्हारे लिए ही हैं ...!"
अपनी अंजुली को चेहरे के पास ले जाकर उसने एक गहरी सांस ली, " आह ! सभी फूलों की मिली जुली खुशबू कितनी अच्छी लगती है न ?", फिर उसने अपनी अंजुली मेरे चेहरे की तरफ बढ़ा दी। मैंने भी गहरी सांस खींची, " सचमुच, कितनी अच्छी खुशबू है, बिल्कुल मदहोश कर देने वाली"।
"ऊं हूँ... अधिक नहीं। कहीं नशा न हो जाए ...", कुछ शरारती लहजे में बोलती हुई उसने अपनी अंजुली में समेटे हुए सभी फूलों को अपने तकिया के पास रख लिए। फिर उसी तकिया में सर रखकर लेट गई। सीलिंग फैन चल रहा था, उसी पर नज़र रखते हुए बोली, " सच-सच बताना मैं कैसी लगती हूं ...?"
मैंने कहा, "कितनी बार बताऊं ? बता तो चुका हूं ..."
"एक बार फिर बताओ ... मैं फिर से सुनना चाहती हूं ..."
"एक बार फिर बताओ ... मैं फिर से सुनना चाहती हूं ..."
"तो सुनो, एक दोस्त के रूप में तुम अच्छी हो, प्रेमिका के रूप में दुनिया की सबसे खूबसूरत लड़की हो, और पत्नी के रूप में दुनिया की यह खूबसूरत लड़की मेरे लिए है ....", मैंने थोड़ा सा मुस्कुराते हुए और उसकी तरफ देखते हुए कहा।
उसने मेरी बात को ध्यान से सुना। सुनने के बाद अपने दाहिने हाथ की तर्जनी से हवा में एक चौकोर बॉक्स बनाया। और फिर हवा से ही कुछ उठा-उठा कर उस बॉक्स के अंदर रखने लगी। उसके इस अभिनय को देखकर मैंने उससे पूछा, ™क्या कर रही हो ... ?"
कुछ देर बाद उसने अपने हाथ रोक दिए और मुझसे बोली, "तुम्हारे कहे गए शब्दों को जो मुझे पसंद आए उन्हें बॉक्स में रख रही थी..."
"अच्छा ...!!! तो मुझे भी बताओ ?"
उसने मेरी तरफ करवट ली। मैंने भी उसकी तरफ करवट ली। उसने मेरी आंखों में झांका, मैंने भी उसकी नजर से नजर मिलाई, उसकी आंखों में देखा। वह थोड़ा सा मुस्कुराई, मैं भी थोड़ा सा मुस्कुराया। फिर उसने मुझसे कहा, "यही कि, मैं अच्छी हूं ... दुनिया की सबसे खूबसूरत लड़की हूं ... और यह खूबसूरत लड़की तुम्हारे लिए है ...", मेरी ही कहे गए शब्दों से उसने अपने हृदय, अपने मन की बात मुझसे कह दी। कितने साधारण ढंग से मुझे समझा दिया कि मैं उसका दोस्त भी हूं, उसका प्रेमी और उसका पति भी।
मैं अचंभित था, यह लड़की कोई साधारण लड़की नहीं हो सकती। मैं बहुत ही किस्मत वाला हूँ कि इसका सानिध्य, इसका साथ, इसका प्रेम यहां तक कि इसके पति होने का दर्जा मुझे इसके अपनों से मिला। यदि ऐसा न होता तो क्या इसके बाबा मुझे एक ही बेडरूम इसके साथ शेयर करने देते ? कभी नहीं।
और क्या खुद यह मेरे साथ एक ही बिस्तर शेयर करती ? कभी नहीं। जब बाबा ने और यहां तक की इसने भी मुझे अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार कर लिया तो अब मुझे अपने घर में भी बात करनी चाहिए।
"पीहू ! ध्रुव भैया की कोई चिट्ठी या कभी फोन वगैरा कुछ ..."
"फोन आने का तो सवाल ही नहीं है क्योंकि यहां फोन लाइन अभी तक पहुंची ही नहीं है। हां एक बार चिट्ठी आई थी। उसी में लिखा था अपनी शादी के बारे में और एक फोन नंबर भी दिया था ...."
"तो क्या कभी तुमने या बाबा ने फोन नहीं किया..?"
"बाबा तो कहीं आते जाते नहीं हैं, पिछले दो सालों से मैं भी घर से बाहर नहीं निकली, तो फोन करने का सवाल ही नहीं होता। हां आज जरूर मन में आया था कि उन्हें फोन करू, लेकिन फोन नंबर ही याद नहीं था। यह ड्रेसिंग टेबल की दराज खोलो, उसी में एक चिट्ठी पड़ी होगी, उसी में नंबर लिखा है ..."
"मैंने दराज खोली उसमें एक चिट्ठी थी मैं निकाल ली, फिर मैंने पूछा, "क्या मैं इसे पढ़ सकता हूं ...?"
"हां क्यों नहीं ...."
चिट्ठी हिंदी में थी और पीहू को संबोधित करके लिखी गई थी। चिट्ठी के प्रत्येक शब्द में भाई-बहन का एक खूबसूरत रिश्ता मेरे सामने उभर कर आ रहा था। बाबा ध्यान रखने के लिए लिखा था और साथ ही साथ अपना भी। किसी भी मुश्किल परिस्थिति में तुरंत फोन करने के लिए भी लिखा गया था। बाबा की सेवा न कर पाने की मजबूरी भी लिखी हुई थी। मैंने चिट्ठी में लिखें फोन नंबर को याद कर लिया। फिर मैंने पूछा था, "क्या तुम भी पढ़ोगी ?"
उसने संक्षिप्त जवाब दिया था, "नहीं मैंने कई बार पढ़ी है। वहीं रख दो, इस बार जब तुम्हारे साथ अमरकंटक चलूंगी तो यदि मुझे याद ना रहा तो तुम ही नंबर लिख लेना ..."
"इसकी जरूरत नहीं पड़ेगी मैंने नंबर याद कर लिया है, वो भी जर्मनी के कोड सहित ..."
"तो हम अमरकंटक कब चलेंगे ...?"
"जब तुम कहो ..?"
"अगले संडे को ...?"
"ठीक है लेकिन मंडे भी रुकना पड़ेगा मैं सोचता हूं कि जब चल ही रहे हैं तो फॉर्म जमा करके ही आएं ... लेकिन 2 दिन के लिए जा रहे हैं तो बबा ....?", मैंने प्रश्नवाचक दृष्टि से उसकी तरफ देखा था।
"उनकी चिंता तुम मत करो ... घर की साफ सफाई कमली और मंगल देख लेंगे ... रही बात खाना पीना कि तो गांव में उनका एक बहुत ही पुराना चेला है। मंगल से बाबा संदेशा भिजवाएंगे तो वह आ जाएगा और रुक जाएगा ... फिर कोई चिंता नहीं ... कम उम्र का है लेकिन बाबा से बहुत अटैच है। "
"उसकी शादी हो गई ..?"
तब वह हंसते हुए बोली, "अरे ... वह इतना भी छोटा नहीं है, मंगल की उम्र का है ..."
"चलो यह तो अच्छी बात है ..."
"लेकिन खाना पीना ...?"
"उसके पास बाइक है और बाबा उसके घर का खाना खा लेते हैं। वह घर से ही ला देगा और रात को रुक भी जाएगा"
"पीहू !! .... बाबा का स्वभाव मुझे चकित करता है। आधुनिक तो मैं भी हूं और बहुत से लोगों को आधुनिकता का दंभ भरते हुए भी देखा है। लेकिन बाबा का इतनी सहजता से तुम्हारे साथ एक ही बेडरूम में मुझे सोने की मौन इजाजत देना ! मुझे समझ नहीं आ रहा है। देखो मैं किसी भी प्रकार से उन्हें जज करने की कोशिश नहीं कर रहा हूं। लेकिन मन में यही सवाल उठता है, और सच कहूं तो बार-बार उठता है, और इसका जवाब मैं सोच नहीं पा रहा हूं ?"
वह मेरी तरफ गहरी दृष्टि से देखते हुए बोली, "विश्वास तो मेरे लिए भी कर पाना मुश्किल है, उतना ही जितना की कन्यादान का मंत्र पढ़ते हुए बाबा को देखकर हुआ था ... आखिर उन्होंने मेरा कन्यादान क्यों किया ? क्यों कहा कि तुम यहां पर ईश्वर की मर्जी से आए हो ? तुम्हारा मुकद्दर तुम्हें यहां ले आया है ... क्यों तुम्हारी कुंडली बनाने के बाद उन्होंने मेरी कुंडली मंगा कर फिर से देखी ...? ऐसे बहुत से सवाल मेरे मन में भी उठाते हैं, लेकिन संकोचवश बाबा से पूछ नहीं पाती हूँ ... फिर सोचती हूं पूछ कर क्या होगा ? यदि उन्होंने कोई फैसला लिया होगा तो मेरे हित में ही होगा ... "
मैं मंत्रमुग्धा उसे सुन रहा था, और वह कहती जा रही थी, "फिर यह भी सोचती हूं कि यही बात तो मैंने पहले दिन तुमसे अटारी में कही थी। याद करो ? ... बाबा ने अपने ज्ञान कौशल से जो देखा वही बात ईश्वर ने मुझे सीधे महसूस कराई थी ... क्यों ? क्यों जब मै तुम्हें पेड़ के नीचे खड़ा देखती थी तो अंतर्मन से एक ही आवाज आती कि एक दिन तुम मेरे घर, मेरे पास जरूर आओगे, और देखी तुम आए।
देर रात तक जागने वाली मैं, जब तुम मेरे पास होते हो, मेरे पास लेटते हो तो मैं अपने सभी शोक, दिल के सारे दर्द भूल कर क्यों निश्चिंत होकर सोती हूं ? मुझे महसूस होता है कि जैसे मेरे मम्मी-पापा मेरे सर पर हाथ फेर कर और मुझे गुड नाइट बोलकर मुझे सोने के लिए कह रहे हों .... और फिर मैं बहुत गहरी नींद सोती हूं, इतनी की एक ही करवट में सुबह हो जाती है ... इस जीवन का अधूरापन अब तुमसे ही क्यों पूरा होता है ? बताओ सत्य !! प्रश्न तो मेरे भी बहुत से हैं, क्या है कोई जवाब तुम्हारे पास ....?
"नहीं, और न ही अब मुझे अपने प्रश्नों के कोई जवाब तलाश करने हैं ...", मैं नहीं चाहता था कि वह फिर से भावुक हो जाए, मैने बात बदलनी चाही थी, "तुम कुछ मत सोचो ..."
"नहीं, ... यदि आज बात उठी है तो मुझे कह लेने दो। जब तुम्हारे बारे में सोचती हूं तो मुझे खुद शर्मिंदगी महसूस होती है ... मैं हूं, या चाहे बाबा हों, तुम्हें रिश्तो में बांधते गए और एक बार भी तुम्हारी मर्जी नहीं पूछी कि आखिर तुम क्या चाहते हो ? और तुम बड़ी ही सहजता से, प्रसन्नचित होकर सभी कुछ स्वीकार करते गए, क्यों ? .... ", फिर मेरी तरफ करवट लेते हुए मेरी हथेली को अपने ऊपरी गाल पर रखते हुए बोली, " यह भी कैसे इल्जाम लगा दूं कि तुमने यह सब मेरे शरीर के लिए किया, उसे प्राप्त करने के लिए किया ..."
फिर उसने अचानक ही कुछ बदले हुए स्वर में मुझसे कहा, "सत्य ! जितना जल्दी हो सके तुम यहां से भाग जाओ, निकल जाओ इस दुनिया से दूर, और हो सके तो फिर कभी लौट के मत आना। भूल जाओ मुझे, भूल जाओ की बाबा ने क्या कहा। यहां तुम्हें दर्द के सिवा कुछ नहीं मिलेगा। तुम तड़पते रहोगे, रोते रहोगे। तुम्हारी तनहाइयां तुम पर हंसती रहेंगी, लेकिन तुम्हारे आंसू पोछने वाल कोई नहीं होगा, हां सत्य कोई नहीं होगा ... मैं भी नहीं ...? .... तुम मेरे लिए अजनबी ही ठीक थे ... मैं तुम्हारे लिए अजनबी ही सही थी .... निकल जाओ सत्य, निकल जाओ मेरी दुनिया से .... भाग जाओ यहां से ..."
"पीहू ... पीहू ... पीहू ... ये तुम कैसी बहकी-बहकी बातें कर रही हो ... क्या हो गया है तुम्हे ?.....", मैंने उसके कंधे को जोर से झंगझोरते हुए कहा था, "न ऐसा नहीं सोचते, .... मैं तुम्हें छोड़कर जा ही नहीं सकता, जानती हो क्यों ? .... मुझे तुमसे प्यार है ... तुमसे अधिक मुझे तुम्हारी जरूरत है ... मंदिर में मै तुमसे यही तो .... "
"हां सुना था मैने .... मैं भी तुमसे कुछ कहने वाली थी, लेकिन चक्कर को भी उसी समय आना था ...", उसने मेरी आंखों में देखते हुए कहा।
"तो फिर यह सब छोड़ो ... ", मैंने उसके गाल को धीरे-धीरे सहलाते हुए बोला, "क्या मेरे छूने पर तुम्हें अजनबीपन महसूस होता है ...?"
"नहीं ...."
"तो फिर मैं अपने घर में बात करूंगा ... हमारी शादी होगी .... बाबा के द्वारा पढ़ा गया मंत्र सच साबित होगा ... वही मंत्र एक बार फिर से पढ़ा जायेगा ..."
"लेकिन बाबा ...."
"मैं यहीं रहूंगा पीहू ... हम दोनों ही बाबा की सेवा करेंगे ... मम्मी-पापा का ध्यान रखने के लिए भैया-भाभी हैं, और फिर कौन सा बहुत दूर है ? हम भी चला करेंगे उनसे मिलने ... हम अपनी शादी में ध्रुव भैया और एलिस भाभी को भी बुलाएंगे ... जिद करके ..... और देखना वे आएंगे भी ..."
"तुम्हारे मम्मी पापा मान जाएंगे ...?", उसने सशंकित मन से पूछा था।
"बिल्कुल .... वे जरूर मान जाएंगे ... मेरे लिए भला तुम जैसी अच्छी लड़की उन्हें और कहां मलेगी ...?", मैं उसे विश्वास दिलाते हुए बोला।
"मैं अच्छी हूं ...?"
"बहुत अच्छी, बहुत ही पवित्र .... गंगा की तरह ... अच्छा जानती हो गंगा नदी कहां से निकलती है ...?"
उसने मुस्कुराते हुए मेरी तरफ देखा और फिर बोली, "अब तुम ही बता दो ..."
मैंने अपने दाहिने हाथ की तर्जनी उसके माथे पर ठीक उस जगह रखी जहां पर बिंदिया लगाई जाती है, "गंगा नदी हिमालय की गंगोत्री से निकलकर बहती हुई ...",
और इसके साथ ही मेरी तर्जनी भी उसके माथे से नीचे खिसकने लगी, जैसे गंगा नदी का प्रवाह मेरी तर्जनी के साथ चल रहा हो,
".... सांस लेती हई, इन लबों को चूमती हुई ....", यह कहते हुए मेरी तर्जनी उसके नासिका के ऊपर से होते हुए, होठों को छूते हुए उसके सीने के बीचों-बीच से गुजर रही थी, " ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों के बीच से गुजरते हुए ... समतल मैदान में ...."
"बस ....", मेरी उंगली उसकी नाभि से कुछ ऊपर तक पहुंची थी कि उसने झट से मेरा हाथ पकड़ लिया, " रुको .... गंगा नदी को समतल मैदान तक ही रहने दो ... मुझे गुदगुदी होती है ..."
"बस ....", मेरी उंगली उसकी नाभि से कुछ ऊपर तक पहुंची थी कि उसने झट से मेरा हाथ पकड़ लिया, " रुको .... गंगा नदी को समतल मैदान तक ही रहने दो ... मुझे गुदगुदी होती है ..."
मैं रुक गया। उसने मेरा हाथ अभी भी उसी तरह पकड़ रखा था। कुछ देर बाद अपने चेहरे के ऊपर रखते हुए वह बोली, "अच्छा चलो .... फिर से .... ऊपर हिमालय की चोटी से ...."
"हूँ ... फिर से ? ठीक है, तो चलो ..... तैयार न ?"
"हूँ ... ", पीठ के बल सीधा लेटते हुए वह बोली, " तैयार ..."
मैंने फिर वही किया, "गंगा नदी हिमालय की गंगोत्री से निकलकर ..... बहती हुई ... सांस लेती हई .... इन लबों को चूमती हुई .... ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों के बीच से गुजरते हुए ... समतल मैदान में ....", और इसके साथ ही चल रही थी मेरी उंगलियां, उसके माथे से लेकर उसके पेट की नाभि तक।
अब हम दोनों के लिए यह एक खेल बन चुका था। और इस खेल को हमने तीन बार खेला। चौथी बार का खेल शुरू हो ही नहीं पया। क्योंकि इससे पहले ही उसने मुझे कसकर अपनी तरफ खींच लिया और बाहों में कस कर भरते हुई बोली, "मुझे तुम उस लड़की से मिलाओ जिसने तुम्हें डंप किया था, मैं उसे थैंक्स कहना चाहती हूं ...."
एक दूसरे को आलिंगन में लिए हम दोनों ही खुद को नियंत्रित करने की कोशिश में अपने आप से ही लड़ रहे थे। हम कोई बच्चे नहीं थे बल्कि उम्र की उस दहलीज में थे जहां यौवन अपने चरम पर होता है। मेरे सीने से टकराती हुई उसकी गर्म उठती-गिरती सांसे और उसके बालों की भीनी-भीनी सी खुशबू मुझे मदहोश करती जा रही थी। सभी संयम, सभी नियंत्रण, शरीर के उन्माद में पानी की तरह बहे जाने के लिए तैयार थे। हम दोनों के लिए ही यह परीक्षा के क्षण थे। धीरे-धीरे उसने अपने आप को नियंत्रित किया फिर मेरे माथे को चूमते हए मेरी बाई हथेली को अपने गाल और तकिया के बीच रख लिया। मैं समझ गया अब यह सोने वाली है। मैंने उसके गाल पर हाथ फेरते हुए कहा, " गुड नाइट ..."
उसकी आंखें बंद थी। उसने मेरे गुड नाइट का भी कोई जवाब नहीं दिया। लेकिन मैं उसे देख रहा था और अपलक देख रहा था। कुछ देर बाद उसने स्वयं पूछा, "क्या देख रहे हो ...?"
मैं चकित था कि बंद आंखों से वह मुझे कैसे देख पा रही है ? फिर जल्दी से बोला, "तुम्हे ..."
"यह तो जानती हूं कि तुम मुझे देख रहे हो, लेकिन मुझमें क्या देख रहे हो ...?", उसकी आंखें अभी भी बंद थी।
मुझे उसकी बात अभी भी समझ में न आई। मैंने खामोश रहना ही बेहतर समझा।
"सॉरी ...", अचानक ही उसने अपनी भारी पलकों को उठाते हुए मेरी तरफ देखा।
"किस बात के लिए ....?"
"यही कि मुझे तुमसे यूं नहीं लिपटना चाहिए था ... तुम्हारा यूं इम्तिहान लेना .... ?"
"नहीं पीहू ! ऐसा कभी मत सोचना। और यह भी कभी न सोचना कि तुम्हारी इन हरकतों से मैं तुम्हें गलत जज करूंगा ... बल्कि मुझे तुम्हारा यूं गले लगना मन को बहुत ही सुकून देता है। तुम्हें अपने अंदर यूं समाहित कर लेने का मन करता है जैसे कि अब मैं तुम्हें कभी खुद से दूर नहीं होने दूंगा ... तुमसे मिलकर मैं कुछ-कुछ स्वार्थी और लालची बन गया हूं ... अब देखो ! मुझे भी तो ऐसी हरकत नहीं करनी चाहिए थी न ...?"
"कैसी .....?"
मैने उसके माथे में पहले की तरह अपनी तर्जनी रखी फिर आंखों के बीच से उसके उठे हुए नाक से होते हुए उसके लबों पे आकर रुक गई ...", उसने कहना शुरू किया, "गंगा नदी हिमालय की गंगोत्री से निकलकर ..... बहती हुई ... सांस लेती हई .... इन लबों को चूमती हुई .... "
मैंने उसे रोकते हुए कहा, "मुझे यहीं पर रुक जाना चाहिए था न ...?"
".... शायद...", उसने मेरा हाथ पकड़ा। मेरी तर्जनी को मेरे होठों में लगाया और फिर उसे मेरे दिल के पास रखते हुए बोली "तुम्हारे दिल में समा जाती है ..."
कुछ देर की खामोशी के बाद मैंने उसे पुकारा, "पीहू ....! कुछ बातें करो न, मुझे नींद नहीं आ रही है ..."
"तुम कुछ पूछो मैं जवाब दूंगी ..", उसने कहा।
"अच्छा चलो ये बताओ जैसा कि तुमने बताया था कि राजा दुष्यंत में शकुंतला से गंधर्व विवाह किया था। इसका मतलब क्या हुआ ? "
"हूं ... तुम्हे नहीं पता ...?", उसने आश्चर्य से पूछा l
"नही, सच में नहीं पता ...", मैंने उसे विश्वास दिलाना चाहा।
"देखो जब लड़का और लड़की एक दूसरे को पसंद करते हैं और साथ रहना चाहते हैं, तो वे मन से एक दूसरे को अपना लेते है। इसमें समाज या उनके सगे-संबंधियों की अनुमति की आवश्यकता नहीं होती है। न ही किसी परंपरा या धार्मिक ढंग से विवाह संपन्न होता है। बस एक दूसरे के साथ पति-पत्नी की तरह रहने लगते हैं, इसे आज के दौर पर लिव इन रिलेशनशिप कहा जाता हैं ...."
"अच्छा !!! यह पहले भी होता था ...?"
"हां, होता था ..."
"अच्छा यह तो बहुत अच्छी बात है ...."
"नहीं, सबसे अच्छा विवाह ब्रह्म विवाह माना जाता है, जिसमें वर और वधू दोनों की सहमति से वैदिक रीति-रिवाजों के साथ उनके पारिवारिक सदस्यों, सगे संबंधियों की उपस्थिति में विवाह किया जाता है...."
"ओह !! और सबसे खराब विवाह ....?"
"राक्षस और पैशाच विवाह, जिसमें लड़की को अपहरण किया जाता है और उसकी मर्जी के खिलाफ उससे विवाह किया जाता है ... और भी कई तरह के होते हैं अब जाने दो ...."
"अच्छा तो पीहू यह बताओ हम लोगों का विवाह किस श्रेणी में आत है ...?", मैंने जिज्ञासु नजरों से उसकी तरफ देखते हुए पूछा।
"मेरी तरफ से तो ब्रह्मा विवाह है और तुम्हारी तरफ से गंधर्व ....", वह थोड़ा सा मुस्कुराते हुए बोली।
"मैं राजा दुष्यंत और शकुंतला की पूरी प्रेम कहानी नहीं जानता, तुमने तो शकुंतलम पढ़ी है न ?"
"हूं ...."
"तो सुनाओ न, इसीलिए तो तुमसे पूछ रहा हूं ..."
"तो सुनो, राजा दुष्यंत की मुलाकात शकुंतला से उनके धर्म-पिता ऋषि कण्व के आश्रम में हुई थी। उस समय उनके धर्म-पिता ऋषि कण्व यज्ञ करने के लिए आश्रम से दूर गए थे। दोनों में प्रेम हुआ और फिर दोनों ने गंधर्व विवाह भी कर लिया और पति-पत्नी की तरह साथ रहने लगे। फिर एक दिन राजा दुष्यंत को याद आया कि उन्होंने तो अपना पूरा राजपाट यहां तक कि अपनी प्रजा तक को छोड़ दिया। उनकी अनुपस्थिति में उनकी प्रजा न जाने कैसी होगी। इसलिए दुष्यंत को अपने राज्य लौटना होता है, लेकिन वह शकुंतला को अपनी अंगूठी देकर जाते हैं और वादा करते हैं कि जल्द ही उसे लेने आएंगे।
दुष्यंत चले जाते हैं। शकुंतला उनकी यादों में खोई रहती है कि एक दिन ऋषि दुर्वासा आश्रम पहुंचते हैं। लेकिन शकुंतला दुष्यंत की याद में इतनी पागल सी हो गई थी की ऋषि दुर्वासा का उसने सही ढंग से स्वागत सत्कार भी नहीं किया। ऋषि दुर्वासा ने अपने तपोवल से यह जान लिया की यह लड़की अपने प्रेमी की याद में इतना कोई है की उसने उनकी तरफ भी ध्यान नहीं दिया है। और फिर दुर्वासा तो दुर्वासा थे। न आगे देखा, न पीछे। शकुंतला को श्राप दे दिया कि जिसकी याद में तुम इतनी पागल हो कि तुमने मेरा अपमान किया वह तुम्हें भूल जाए ....। लेकिन शकुंतला तो दुष्यंत की याद में इतना खोई थी कि उसने यह श्राप तक नहीं सुना। लेकिन इस श्राप को उसकी दो सहेलियों ने सुना किंतु उन्होंने शकुंतला को नहीं बताया यह सोचकर की शकुंतला को बहुत दुख पहुंचेगा।
दोनों सखियों ने दुर्वासा ऋषि कि खूब सेवा की और एक दिन ऋषि से शकुंतला के किए की माफी मांगी। ऋषि का दिल पिघल गया। उन्होंने कहा कि जब वह कोई निशानी वह दुष्यंत को दिखाएगी तो उसे याद आ जाएग ....."
"ओह ... फिर ..?"
"उन दोनों सखियों को मालूम था कि दुष्यंत ने शकुंतला को अपनी अंगूठी दी है और जिसे शकुंतला अपनी जान से अधिक सहेज कर पहनती है, तो जिस दिन वह राजा दुष्यंत के सामने आएगी और राजा दुष्यंत अपनी दी हुई अंगूठी को देखेंगे तो शकुंतला को पहचान जाएंगे। इसलिए फिर से उन्होंने शकुंतला को कुछ नहीं बताया। दोनों सखी अपनी शकुंतला के कोमल हृदय को समझती थी। वे नहीं चाहती थी कि उसके हृदय को कोई ठेस पहुंचे ...."
कुछ दिन बाद ऋषि कण्व अपने आश्रम वापस आए तो उन्हें सारी हकीकत मालूम पड़ी। उस समय शकुंतला प्रेग्नेंट थी, तब ऋषि ने तय किया कि शकुंतला को राजा दुष्यंत के पास हस्तिनापुर भेज देना चाहिए। उन्होंने शकुंतला की विदाई अपनी बेटी की तरह की और शकुंतला को उसकी सखियों और ऋषि कुमारों के साथ हस्तिनापुर भेज दिया। शकुंतला राजा दुष्यंत से मिलने के लिए कितना व्याकुल थी कि रास्ते में नहाते समय वह अंगूठी एक नदी में गिर गई और जिसे एक मछली ने निगल लिया।
शकुंतला को इस घटना का पता भी नहीं चला, और वे बिना अंगूठी के ही हस्तिनापुर के राज दरबार में पहुंच गई।
ऋषि कुमार ने अपना और शकुंतला का परिचय देते हुए बताया कि महाराज ये आपकी धर्म-पत्नी शकुन्तला हैं, जिनसे आपने गंधर्व विवाह किया है। इस समय ये गर्भवती हैं। आप इन्हें स्वीकार कीजिए तथा अपनी संतान को पिता का नाम दीजिए।
लेकिन राजा दुष्यंत दुर्वासा ऋषि के श्राप के कारण शकुंतला को भूल चुके थे। ऋषि कुमार के बहुत याद दिलाने पर उन्हें सिर्फ इतना याद आया कि वह ऋषि कण्व के आश्रम में तो गए थे लेकिन वहां उन्होंने किसी शकुंतला नाम की लड़की से विवाह किया है, यह उन्हें नहीं याद आया।
तब शकुंतला ने प्रमाण के तौर पर अंगूठी दिखाने का फैसला किया लेकिन जैसे ही उन्होंने अपनी उंगली देखी तो पहनी हुई अंगूठी उन्हें नहीं दिखी। सभा में उपस्थित सभी लोगों ने उन पर अविश्वास जताया, उपहास उड़ाया।
तब राजा दुष्यंत ने कहा कि मुझे कुछ याद नहीं है। सभासद इसका निर्णय करें कि मैं क्या करूं। तब राजपुरोहित ने कहा कि महाराज इसका एक ही तरीका है कि इस देवी को सुरक्षित स्थान पर रखा जाए और उसके संतान होने का इंतजार किया जाए। तब हम यज्ञ विधि द्वारा यह पता लगा लेंगे कि यह संतान आपकी है या नहीं। तब आप निर्णय ले सकेंगे।
"यू मीन... DNA टेस्ट उस समय भी होता था ...?", मुझे आश्चर्य हो रहा था।
"शायद ... अब आगे सुनो, शकुंतला को दुर्वासा ऋषि के श्राप के बारे में तो मालूम नहीं था। उन्होंने यही सोचा कि दुष्यंत ने उसके साथ छल किया और सिर्फ उसका शरीर पाने के लिए गंधर्व विवाह किया। जन्म देने के बाद जिसकी माता मेनका ने त्याग कर दिया हो, पिता विश्वामित्र निर्मोही बन उसे ऋषि कण्व को सौंप कर तपस्या करने चले गए हो, और आज जिसे अपने जीवन का सर्वस्व माना वह भी त्याग कर रहा है। जरा सोचो सत्य, शकुंतला के हृदय पर क्या गुजरी होगी। भारी मन से अपने पिता के आश्रम लौटने के लिए तैयार हुई। लेकिन उनकी सखियों ने उन्हें रोक दिया और कहा कि तुम्हें यही रहकर अपने प्रेम को साबित करना होगा, उसकी परीक्षा देनी होगी। लेकिन उन्हें जिस स्थान पर रखा गया था एक दिन किसी अदृश्य शक्ति में उन्हें वहां से उठाकर ऋषि कश्यप के आश्रम में छोड़ दिया, वहीं उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया।
एक दिन एक मछुहारे को मछली काटते समय राजा की वही अंगूठी मिली। धन के लालच में उस अंगूठी को बेचने के लिए जब वह बाजार गया तो साहूकार ने उस राज-मुद्रिका को पहचान लिया और सैनिकों ने उसे गिरफ्तार करके राजा के सम्मुख पेश किया। दुष्यंत ने जैसी ही वह अंगूठी देखी तो दुर्वासा ऋषि के श्राप से मुक्त हुए और उन्हें तुरंत याद आ गया कि अरे यह अंगूठी तो उन्होंने अपनी शकुंतला को दी थी। उन्हें शकुंतला के साथ बिताए गए हर पल, हर लम्हे याद आए। शकुंतला से किया गया गंधर्व विवाह की याद आया। बहुत खूब दिन करने के बाद भी जब शकुंतला का कोई पता नहीं चला तो राजा विक्षिप्त से हो गए।
इधर देवलोक में राजा इंद्र और असुरों के बीच संग्राम चल रहा था जिसमें इंद्र पराजय की अवस्था तक पहुंच गया, तब उसे दुष्यंत की याद आई कि इस समय पृथ्वी लोक में वही एकमात्र शक्तिशाली योद्धा है उसके पास दिव्यास्त्र हैं। उन्होंने तुरंत अपने सारथी को राजा दुष्यंत के पास भेजा और सहायता के लिए बुलाया। राजा दुष्यंत ने बहुत ही पराक्रम के साथ युद्ध किया और इंद्र को विजई बनाया। इंद्र के यहां से लौटते समय रास्ते में ऋषि कश्यप का आश्रम पड़ा तो दुष्यंत ने देखा की लगभग 9 - 10 साल का एक बच्चा ऋषि के आश्रम के पास शेर के जबड़े को अपने दोनों हाथों से पकड़े उसके दांत गिन रहा था।
राजा दुष्यंत को आश्चर्य हुआ कि पृथ्वी पर ऐसा कौन सा योद्धा है जिसे वे नहीं जानते और इतनी कम उम्र का। उन्होंने इंद्र के सारथी से कहा कि रथ आश्रम के पास ले चलो। उन्होंने उसे लड़के को अपने पास बुलाया और उससे उसका परिचय पूछा। उस लड़के ने अपना नाम सर्वदमन बताया।
तभी वहां कुमार की सुरक्षा के लिए मौजूद कुछ दासियां पहुंच गई और उन्होंने बताया कि इसकी माता का नाम शकुंतला है। तब राजा ने जल्दी से उस बालक के पिता का नाम जानना चाहा तब उन्होंने इनकार करते हुए कहा कि यह तो उन्हें भी नहीं मालूम है। तभी राजा ने देखा कि एक काला डोरा जमीन पर पड़ा है। उन्होंने उसे उठाकर बालक से पूछा क्या यह तुम्हारा है, तो बालक ने हां में अपना सिर हिला दिया। तब दुष्यंत ने उस डोरे को जमीन से उठा बालक की बांह में बंधा दिया। यह सब देखकर दासियां आश्चर्यचकित थीं। राजा ने जब इसका कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि यह धागा अभिमंत्रित करके ऋषि कश्यप के द्वारा कुमार की रक्षा के लिए उनकी बांह में बांधा गया था। इस धागे को यदि कुमार के माता या पिता के अलावा कोई दूसरा छुएगा तो यह धागा सर्प बनकर उसे डस लेगा। लेकिन आपने इस धागे को छुआ भी और यह सर्प नहीं बना तो इसका अर्थ यह है की कुमार के पिता आप ही है।
तभी शकुंतला वहां आ गई और राजा दुष्यंत ने शकुंतला को देखा। उन्हें वो मधुर और सुखद पल भी याद आए जो उन्होंने ऋषि कण्व के आश्रम में पति-पत्नी की तरह गुजारे थे। और उन्हें वह पल भी याद आए जब उन्होंने शकुंतला को भरी राजसभा में पहचानने से भी इंकार कर दिया था। उन्होंने अपने किए की बहुत क्षमा याचना की लेकिन शकुंतला पत्थर की तरह खड़ी सिर्फ उनकी बातें सुनती जा रही थी। उन्हें वे पल नहीं भूल रहे थे जब दुष्यंत ने उन्हें राजसभा में पहचानने तक से इनकार कर दिया था। क्योंकि उन्हें अभी भी दुर्वासा ऋषि के श्राप के बारे में कुछ भी ज्ञान नहीं था। उन्हें अभी भी यही लग रहा था की दुष्यंत ने उनके साथ छल किया और अब अपने पुत्र को देखकर अपनाने के लिए तैयार हैं।
ऋषि कश्यप ने तब शकुंतला को पूरी हकीकत बताई कि किस तरह से तुम्हें दुर्वासा ऋषि ने श्राप दिया था जिसकी जानकारी तुम्हें भी नहीं है। इसमें दुष्यंत का कोई दोष नहीं। जब से इन्होंने वह अंगूठी देखी है तब से यह तुम्हें लगातार खोजने की कोशिश कर रहे हैं। तुम्हारा मिलन भी एक दैवी योग था और वर्षों तक एक दूसरे से दूर रहना भी ...."
"इस तरह से कहानी की हैप्पी एंडिंग हुई ...", प्रसन्नचित होते हुए मैने पूछा, "सर्वदमन का नाम ही भरत पड़ा था न ?"
"हां, यह नाम उनके पिता ने उन्हें दिया था ..."
"नाम की मीनिंग बताने में तुम तो माहिर हो। क्या इसका भी कोई अर्थ निकलता है ..."
"हां निकलता है न, जो अपनी प्रजा का ध्यान रखें, उनके भरण-पोषण का ख्याल रखें, उन्हें सुरक्षित रखें अर्थात जिसके लिए प्रजा ही सर्वोपरि हो, ऐसा सम्राट ..."
"देखो, किसी दुर्वासा ऋषि को तुम भी नाराज़ न कर देना। पता चला कि वो भी तुम्हे श्राप दे दें और मैं भी दुष्यंत की तरह तुम्हें भूल जाऊं ! तुम्हारे पास तो मेरी कोई निशानी भी नहीं है ....", मैने मजाक किया था।
"अच्छा !! .... तो दे दो कोई निशानी ....?", उसने अपने हाथ फैलाते हुए कहा।
"क्या चाहिए ? ..."
"जो देवेंद्र की इच्छा हो ...", वह भी मजाक के मूड में आते हुए बोली।
"हे शचि! आप हमारी अर्धांगिनी है, आपको हमसे मानोवांछित वस्तु या वरदान मांगने का पूर्ण अधिकार है ....", मैंने भी उसी की लहजे में कहा।
"हे देवताओं के राजा ! तो वरदान दीजिए कि मुझे आपका विश्वास, आपका प्रेम और आपका सानिध्य सदैव मिलेगा ...", यह कहते हुए वह पलंग में ही घुटने के बल बैठ गई और दोनों हाथ मेरे सामने जोड़ दिए।
मैं भी उसके सामने उसी तरह घुटने के बल बैठते हुए बोला, "हे देवी! यह वरदान मांगने की आवश्यकता नहीं है। यह तो आपका अधिकार है और मैं आपको अपने अधिकार से वंचित कैसे कर सकता हूं ? आपको याचक की भांति करबद्ध होने की आवश्यकता नहीं है। अपने संपूर्ण अधिकार और प्रेम के साथ आप मुझे आलिंगनबद्ध कीजिए ...."
और उसने वही किया। उसने मुझे अपनी बाहों में भर लिया और फिर धीरे से मेरे कान में बोली, "देखा साथ का असर ... कैसे शुद्ध हिंदी बोलने लगे ... हूं..."
"हूं ... सच कहती हो तुम, तुम्हारी सुंदरता, जिंदगी के प्रति तुम्हारा दृष्टिकोण और तुम्हारा ज्ञान सभी कुछ तो मुझे सम्मोहित करता है .... यदि मुझसे इतना प्रेम करती हो, तो बन जाओ न मेरी, कर लो न मुझसे शादी ? जब तुम्हारे बाबा को कोई एतराज नहीं, ना ही मेरे घर वालों को होगा तो फिर तुम्हारी तरफ से हां क्यों नहीं होती ...?"
"एक बात बताओ अजनबी ! क्या किसी का होने के लिए किसी बंधन का होना अनिवार्य है ? नहीं न ? तो फिर मैं तुम्हें किसी बंधन में क्यों बांधने की कोशिश करूं ? और सच पूछो मैं तुम्हें किसी बंधन में बांधना भी नहीं चाहती हूं। मैं तुमसे सिर्फ प्रेम करना चहती हूं, सिर्फ तुम्हारी हो के जीना चाहती हूं। हो सकता है जब तुम पूछो तो मैं इस प्यार से भी इंकार करूं, और किया भी है। उसका दर्द तुम्हारी आंखों में देखा भी है। खुद इकरार तो करूंगी लेकिन तुम्हारे पूछने पर इंकार ही करूंगी।
लेकिन कहती हूं, तुम सदैव मुझसे मुक्त रहो, यही तुम्हारे लिए अच्छा है। मैं सदैव तुम्हारी बनकर तो रह सकती हूं, लेकिन तुम्हें अपना बनाकर नहीं रख पाऊंगी ... यही हमारी नियति है ... हां यदि तुम चाहो तो जिससे तुम्हारा मन करे विवाह कर सकते हो, न तो मैं तुम्हें रोकूंगी और न ही मेरे बाबा रोकेंगे, यह वचन देती हूं।
"अब पीहू बात वही है न, मन और हृदय तो इंसान के पास एक ही होता है। मोहब्बत तुमसे हो और शादी किसी और से, मेरे लिए ये मुमकिन नहीं ..",
"क्यों मुमकिन नहीं है ? ये तो देवताओं ने भी किया है। प्रेम किसी और से और विवाह किसी और से। फिर तुम्हारे लिए मुश्किल क्यों ?", उसने प्यार से मेरी बालों पर हाथ फेरते हुए और कुछ मुस्कुराते हुए पूछा।
"वो सब मै नहीं जानता। हो सकता है उनके लिए प्रेम और विवाह की परिभाषाएं अलग-अलग हों। लेकिन मेरा मानना है कि जिससे प्रेम हो यदि उससे विवाह संभव हो तो जरूर करना चाहिए। मैं तो तुमसे इस असंभव की वजह जानना चाहता हूं ..."
"है न .... न होती तो मैं तुम्हें मना न करती ... लेकिन प्लीज अब छोड़ो ना ये सब बातें, मुझे नींद आ रही है ...."।
"पीहू !! पता नहीं तुम्हें कभी-कभी क्या हो जाता है। हंसते-मुस्कुराते अचानक उदास हो जाती हो। पता नहीं कैसी बहकी-बहकी-सी बातें करने लगती हो ... मुझे तुम्हारा व्यक्तित्व रहस्यमई प्रतीत होने लगता है .... ऐसा क्यूं पीहू ?", मैंने उसे और कसकर अपनी बाहों में भरते हुए पूछा।
उसने संजीदगी से कहा, "नहीं, ऐसी कोई बात नहीं ...", मैं उसकी संजीदगी से बेखबर नहीं था। मैं उसकी आंखों में अपने लिए मोहब्बत की कशिश देख सकता था, और मैने देखी भी। उसके हृदय के स्पंदन अपने हृदय में महसूस कर सकता था, और मैने की भी। उसके आलिंगन में अपने लिए दुनिया जहान की चाहत का अंदाजा लगा सकता था, और लगाई भी
।
लेकिन अपनी किस्मत के बीज को अंकुरित होते हुए नहीं देख सका। ऐसा क्यों होता है कि जिसकी मोहब्बत हमारे लिए बहुत मायने रखती है, वही इंसान एक दिन हमसे दूर चला जाता है, और हम चाह कर भी कुछ नहीं कर पाते हैं .... क्यूं ?
उस रात पलकों में कुछ ठहरे हुए आंसू दिल में कुछ अधूरे से अरमान ले वह पहली बार मेरे कंधे पर अपना सर रख सो रही थी। उसका दाहिना हाथ मेरे सीने के ऊपर से होते हुए मेरे दूसरे हाथ की बाह पकड़े हुए था।
और उस दिन मुझे पहली बार यह एहसास हुआ था की पति-पत्नी के बीच ऐसा रिश्ता भी हो सकता है, जो शरीर की कामना और वासना से दूर हो। और सच कहता हूं, मैं ऐसे ही पीहू के साथ पूरी जिंदगी जी सकता था। यदि पीहू विवाह नहीं करना चाहती तो मैं उस पर कोई जोर नहीं डालूंगा। सच ही तो कहती है, प्रेम के लिए किसी बंधन का होना अनिवार्य नहीं।
विवाह एक सामाजिक जरूरत हो सकती है, किंतु प्रेम के होने के लिए नहीं। और क्या पता एक दिन ऐसा भी आए कि पीहू को इस समाज की जरूरत हो और वह स्वयं विवाह के लिए तैयार हो जाए। सबसे पहले मुझे पीहू को अपने मम्मी-पापा से मिलना होगा। जो रिश्ते उसने खो दिए उन रिश्तों से उसे रु-ब-रू कराना अब मेरे लिए बहुत जरूरी हो चुका था। संबंध और परिवार क्या होता है शायद एकबार उन्हें देखकर उसके इरादे बदल जाएं।
लेकिन एक प्रश्न अभी भी जस का तस था, बाबा का इतनी सहजता से पीहू के साथ एक ही बेडरूम में मुझे सोने की मौन इजाजत देना ? किस पर अधिक विश्वास था, मुझ पर, पीहू पर, या फिर पीहू को दिए गए खुद अपने संस्कारों पर ?
कुछ देर बाद मैने पीहू की तरफ करवट ली कुछ इस तरह कि उसकी नींद में कोई बाधा न पहुंचे। अब मेरे होंठ उसके माथे में उस हिस्से को छू रहे थे जहां से गंगा नदी निकलती है, प्रेम की पवित्रता का उद्यम स्थान। सिरहाने रखे हुए एक रेन लिली के फूल को उठा उसके माथे को छुआ और फिर चूम कर उसके गाल के पास रख अपनी आंखे मूंद ली। फिर वही हुआ ..... कब सोए, कब सुबह हुई, पता ही नहीं चला।
उसने सुबह लगभग 6 मेरे गाल में प्यार से चिकोटी काटते हुए जगाया, "अब उठो भी .... सुबह हो गई है ..... कितना सोते हो यार ..."
मैंने अनमने मन से आंख खोली, उसे चाय ट्रे में दो प्याली लिए हुए बेड में बैठे हुए देखा। मैंने शिकायती लहजे में कहा, "तुम तो खुद चैन की नींद सो जाती हो और मैं तुम्हें टुकुर-टुकुर देखता हुआ पड़ा रहता हूं। देर से सोऊंगा तो नींद भी देर से ही खुलेगी न ?"
"ओह ! मुझे देखते हुए !! लो इसी खुशी में चाय पियो ..... मेरी तरफ से थैंक्स समझ कर "
"एक मिनट रुको, मैं मुंह हाथ तो धो लूं ...", मैंने लोटे में रखें पानी को उठाते हुए कहा।
"बाबा बाथरूम में नहा रहे हैं ..... पीछे चले जना ..."
"हां .... हां .... मुझे पता है", मैंने लापरवाही से कहा।
कुछ ही देर में हम दोनों साथ-साथ चाय पी रहे थे। मैं तकिया दिवाल से सटा के उस पर टिक कर बैठा गया और सामने पैर फैला लिए, बिल्कुल रिलेक्स। वह मेरे पास बैठी थी। उसकी नजरें दीवाल में टंगी मम्मी-पापा की तस्वीर पर टिकी थी।
"पीहू ! ... क्या सोच रही हो ...", मैने उसे यूं चुप देख पूछा था।
"यही कि क्या कभी मम्मी भी पापा के साथ बैठ कर इसी तरह चाय ...", आगे के शब्द वह कह न पाई। उसकी संजीदगी उसकी भावुकता मुझे बता रही थी कि उसके हृदय में मेरे लिए क्या स्थान है, कितना प्यार है। कोई लड़की किसी अजनबी को अपने पिता के स्थान पर यूं ही नहीं रखती।
मेरे दिल को तसल्ली मिली, लेकिन उस वक्त मुझे एक बात का पूरा ध्यान रखना था कि वह रोने न पाए। मैने उसका हाथ थामते हुए कहा, " जरूर पीहू ... ऐसा ही होता रहा होगा .... आज भले ही वो हमारे बीच न हों, लेकिन उनकी यादें सदैव हमारे साथ रहेंगी ... इस दुनिया में थे तो साथ और गए भी तो एक साथ ही ..."
कुछ देर बाद वह कुछ खोई-खोई सी बोली, "तुम सच कहते हो, अच्छा हुआ दोनों साथ ही चले गए ...। किसी एक का जाना दूसरे को जीते-जी मार डालता है। सांसे जरूर चलती है लेकिन वह व्यक्ति उसे याद कर हर एक पल मरता है ... अच्छा बताओ ब्रेकफास्ट में क्या खाना पसंद करोगे ... और लांच में क्या दे दूं ..."
मैं मुस्कुराते हुए बोला, " जो पीहू के पापा पसंद करते थे, और जो पीहू की मम्मी पीहू के पापा को लंच में देती थीं ..."
वह भी कुछ मुस्कुराते हुए बोली, "अच्छी बात है, बाबा पूजा करेंगे ... तब तक तुम मंगल के हाल-चाल पूछ आओ। यदि उसकी तबियत में सुधार हो तो कमली को भेज देना .... आज सोचती हूं घर की साफ-सफाई करवा लूं ...", वह बेड से उठते हुए बोली। पीछे से मैने झट से उसकी कलाई पकड़ ली, "कुछ देर और बैठो न ... क्या पीहू की मम्मी पीहू के पापा के पास बस इतना ही बैठती थीं ?"
उसने प्यार से अपनी कलाई छुड़ाते हुए कहा, " पता नहीं.... लेकिन इतना जरुर पता है कि पीहू की मम्मी को पूरा घर भी सम्हालना पड़ता था ..."
"तो ठीक है, तुम चलो अपने काम पर, और मैं चला अपने काम पर ..."
दवाई का असर सकारात्मक था। जब मैं बगिया पहुंचा तो मंगल को बीच खेत में लकड़ी और बांस की मड़ैया में एक खाट पर लेटे हुए देखा। कमली हरी सब्जियां तोड़ रही थी। ट्यूबवेल का पानी क्यारियों के बीच से होते हुए पौधों की जड़ों तक पहुंच रहा था। सूरज की सुनहरी धूप चारों तरफ फैल चुकी थी। मैंने मंगल के पास पहुंचते हुए पूछा, "और मंगल कहो कैसे हो ? अब तबीयत कैसी है ? दवाई का कुछ असर हुआ कि नहीं ? नहीं तो चलो मैं कस्बे में तुम्हें डॉक्टर को दिखा लाता हूं ?"
"अरे भैया जी आप ...!", मुझे देखकर मंगल हड़बड़ा कर खाट से उठकर खड़ा हो गया, "भैया जी बहुत राहत है। अब तो लगता है कि बुखार कभी था ही नहीं। शायद मौसमी बुखार था दो खुराक खाते ही गायब हो गया ..."
"चलो अच्छा हुआ .... पीहू ने कमली को बुलाया है, कुछ काम होगा शायद .... समय हो तो भेज देना..."
"आप भी भैया जी कैसी बातें करते हैं वह तो मेरी बीमारी के कारण जा नहीं पाई अब मैं ठीक हूँ.... तो आज उसे जाना ही था ... ", वह मेरी तरफ हाथ जोड़ते हुए बोला था।
"अब तुम मेरे सामने हाथ मत जोड़ा करो आराम से बैठो ..."
" जी भैया जी, लीजिए आप आम खाइए ....", उसने खाट के सिरहाने में रखी टोकरी मेरे सामने रख दी उसमें पके हुए ताजा आम थे, " .... सुबह-सुबह पेड़ों से पके हुए आम गिरते हैं। कमली ने धो कर रखे हैं .... कहती थी कि पीहू के लिए ले जाना है ... आप लीजिए बाकी वह पहुंचा देगी ..."
तभी कमली वहां आते हुए बोली, "सब्जियां तोड़कर टोकरियों में रख दिया है, सब्जी बेचने वाला आता ही होगा अपने सामने तौलकर उसे देना। कल पीहू बिटिया बुला गई थीं, मैं अब जा रही हूँ। दो घंटे में लौट आऊंगी ...", कमली ने आम की टोकरी उठाई कुछ मेरे खाने के लिए वही खाट पर रख दिए और शेष पास ही रखें एक झोले में डालकर अपने साथ ले जाने लगी ..."
"रहने दो कमली इसे मैं ले जाऊंगा। तुम बस जल्दी से चली जाओ .... कल पीहू की तबीयत कुछ अच्छी नहीं लगी मुझे। उसे तुम्हारी जरूरत है ..."
" जी भैया जी ...", कहते हुए वह तेज कदमों से चली गई।
मड़ैया को तीन तरफ से बांस की कमटी, धान के पैरो और आम की टहनियों को बुनकर बनाई गई बड़ी-बड़ी टटिया लगाकर कवर किया गया था। बरसात से बचने के लिए मड़ैया के ऊपर रखी टटिया को मोटी मजबूत तिरपाल से कवर किया गया था। अंदर जगह पर्याप्त थी, एक तरफ पत्थर की मोटी और लंबी पाटिया को मिट्टी का चबूतरा बनाकर बैठने के लिए जमा कर रखा गया था। जिस पर अभी मंगल बैठा था।
एक तरफ एक बड़े घड़े में पीने का पानी जिसे एक बड़ी प्लेट से ढक कर रखा गया था। उसी प्लेट के ऊपर साफ सुथरी एक गिलास और लौटा रखा हुआ था। मड़ैया को अंदर से मोरपंख और अन्य चिड़ियों के रंग-बिरंगे पंखों से सजाया गया था। खाट में लाल रंग की मोटी दरी, उसके ऊपर एक चद्दर और सिरहाने एक तकिया रखी थी, जिसमें मैं बैठा था।
कुल मिलाकर एक आकर्षक और साफ सुथरी जगह जहां शांति थी, एक अजीब-सा सुकून था। मैंने तारीफ करते हुए मंगल से कहा, " मंगल तुम्हारा यह आशियाना तो बेहद खूबसूरत और लाजवाब है। यह सब तुमने बनाया है ?"
"जी भैया जी .... हम दोनों ने ...", वह कुछ शरमाते हुए बोल रहा था, " फसल की जानवरों से रखवाली करने के लिए इसे बनाया है। कितनी ही गर्मी क्यों न पड़े यहां ठंडक ही रहती है, एक तो चारों तरफ पेड़ पौधे हैं, फिर ट्यूबवेल से सब्जियों की सिंचाई होती रहती है, तो बहने वाली हवा में हमेशा ठंडक रहती है। मेरा हर मौसम इसी में गुजरता है। घर तो अनाज, कपड़े, बर्तन, खाना पीना बनाने के लिए ही उपयोग होता है। सोने-पड़ने का मेरा स्थान मान लीजिए यही है ...."
"और कमली का ...?", मैंने उसे छेड़ा था।
वह सर झुका कर और कुछ लजाते हुए बोला, "कभी- कभी, बाकी उसे घर के अंदर कमरे में ही सोना पसंद है, वो भी दरवाजा बंद करके। कहती है बाहर मुझे डर लगता है ... वह तो दाऊ साहब की कृपा है कि बिजली विभाग से कहकर यहां एक छोटा सा ट्रांसफार्मर लगवा लिए हैं ... उसी से खेत की सिंचाई होती है और घर में रौशनी भी। पिछले साल कस्बा गई थी तो छोटा सा कूलर ले आई है, पहले केवल पंखा था। और वैसे भी उसे गर्मी-बर्मी नहीं लगती है ... सदाबहार है .…", अंतिम शब्द कहते-कहते वह जोर से हंस पड़ा।
"और तुम ...? सो लेते हो उसके बगैर ..?"
"एक बात बताऊं भैया जी, शादी के चार साल तक हम एक बच्चे के लिए तरस गए। और जब गुड्डू हुआ तो जिम्मेदारियां बढ़ गई। हम दोनों ही की जिंदगी उस तक ही सिमट के रह गई। अब एक बच्चा तो मां के पास ही सोएगा न, एक चारपाई में तीन लोग कैसे आते। फिर धीरे-धीरे वह बड़ा होता गया तो हमें खुद ही शर्म आने लगी। इस तरह से बढ़ती दूरियां हमारी आदत बन गई ... अब मुझे खुले में सोने की आदत है और उसे बंद कमरे में ... लेकिन हां जब तक हमें नींद नहीं आती तो हम दोनों यहीं बैठकर बातें करते हैं। कभी-कभी यही बैठकर खाना भी खाते हैं।
प्यार वही है भैया जी, कम नहीं हुआ है .... आज भी हम एक दूसरे को समझते हैं। कोशिश करते हैं कि एक दूसरे की बात न काटे, मुझे नहीं याद आता कि हमारे बीच कभी कोई लड़ाई झगड़ा हुआ हो, और हो भी तो किस बात का। जब उसके सामने कई बेहतर रिश्ते थे, तब सभी को छोड़कर उसने मुझे चुना, तो मैं मानता हूं कि ऐसे रिश्तों का हमेशा सम्मान करना चाहिए, इसलिए मेरी नजर में यदि कभी उससे कोई गलती होती भी है तो मैं उसे समझाता तक नहीं। वह खुद अपने आप समझ जाती है, और फिर वह क्या कहते हैं ... हां सॉरी कहती है ..."
"चलो अच्छा है, कभी-कभी तुम भी सॉरी कह दिया करो", मैंने मुस्कुराते हुए उससे कहा। तभी वहां तीन आदमी साइकिल के पीछे बड़ा-सा बांस का टोकरा बंधे हुए और कुछ झोले हैंडल में टंगे हुए पहुंचे। मंगल ने सभी को बारी-बारी से सब्जियां तौल कर दी, और हिसाब की कॉपी में सभी का हिसाब-किताब लिखता गया। जब वह चले गए तब उसने मुझसे कहा, "भैया जी आपने तो आम खाए ही नहीं ..."
"हां ... अभी ब्रश नहीं किया है न .."
"अरे भैया जी कहां आप अंग्रेजी के चक्कर में पड़े हैं। शुद्ध देसी नीम की दातून किया कीजिए, दांत मजबूत रहते हैं ... ", फिर उसने मडिया के कोने में रखी हुई एक नीम की दातून उठा मेरी तरफ बढ़ते हुए कहा लजिए और मेरे साथ आइए .... मैं आपको पूरा बगीचा घूमता हूं।
मैं नीम की दातुन को दांतों में से चबाता हुआ उसके पीछे-पीछे चल दिया। जैसा कि मैंने लिखा खेत बड़ा था, लगभग तीन एकड़ का। जंगली और पालतू जानवरों से सुरक्षित रखने के लिए चारों तरफ तार की बड़ी लगाई गई थी। एक तरफ छोटा सा गेट था।
गेट से लगभग तीन फुट की पगडंडी जो मड़ैया तक आती थी, जिसे मुरूम और पत्थर डालकर ठोस बनाया गया था, ताकि बरसात के दिनों में या खेत में पानी लगाते समय आवागमन में असुविधा न हो। खेत को दो बराबर हिस्सों में विभाजित किया गया था। एक हिस्से में पूरे मौसम सब्जी बोई जाती थी और दूसरे हिस्से में अनाज की फसल जैसे धान, गेहूं, मूंग, उड़द, मक्का, चना इत्यादि की फसल ली जाती थी। यह सब जानकारी मुझे मंगल से ही मिल रही थी। हम बगीचे में टहलते-टहलते आम के पेड़ के नीचे आ गए।
ट्यूबवेल को सुरक्षित रखने के लिए एक छोटा-सा पक्का कमरा बना था। मैंने देखा ट्यूबवेल का पानी एक बड़ी-सी सीमेंट से निर्मित पक्की टंकी में गिर रहा था। टंकी में नीचे तीन तरफ से बड़े-बड़े छेद थे। उनसे पानी निकाल कर तीन दिशाओं की नालियों से होता हुआ गुजर रहा था। वही तीनों नालियां आगे जा कर सभी क्यारियों में बराबर-बराबर पानी डिस्ट्रीब्यूट कर रही थीं। सब्जी के खेत में एक साथ सिंचाई हो रही थी। वही पर दो बाल्टी, मग और पत्थर की बड़ी बड़ी पटिया बिछी थीं। शायद नहाने और कपड़े धोने की पूरी व्यवस्था की गई थी। मंगल ने एक बाल्टी पानी निकला और मग मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा, " लीजिए आप आराम से दातून कीजिए, तब तक मैं खेत का एक चक्कर लगा के आता हूं। देखूं तो पानी सही से लग रहा है या नहीं ..."
"ठीक है ...", मैं उचक कर टंकी के दीवार में बैठते हुए बोला, " आराम से ... अभी ज्यादा मेहनत करने की जरूरत नहीं ...."
क्योंकि आम पाक रहे थे इसलिए पंछियों का डेरा आम के पेड़ों पर खुशी से ब्रेकफास्ट करते हुए चहक रहा था। कुछ खाए, कुछ अध-खाए आम के फल पेड़ों के नीचे इक्का-दुक्का अभी भी गिर रहे थे। मैं नीम की दातून करते हुए दूर-दूर तक के नजारों को देख रहा था। चारों तरफ मैदानी क्षेत्र जो खंड-खंड के खेतों में बटे हए थे। लगभग 3 किलोमीटर की दूरी पर पर्वत श्रृंखलाएं थी। जो इस क्षेत्र को दो तरफ से कवर करती थी। मैने दातून की, कुल्ला किया, हाथ पैर धोए, पीहू की पहनी हुई स्लीपर को अच्छे से साफ किया। लगभग 15 मिनट में मंगल वापस आ गया।
मुझे सामने चारों तरफ यूं देखाता देखा मंगल मुझे भौगोलिक जानकारी देने लगा, " भैया जी ये जो सामने खेत देख रहे हैं न वो सभी दाऊ साहब के हैं ..... पूरे 80 एकड़ से ज्यादा के काश्तकार हैं। वहां दूर ढलान तक उन्हीं के खेत हैं। उसके आगे एक नदी है, जिसमें हर मौसम पानी रहता है। और सामने जो पहाड़ी देख रहे हैं न वह मैकाल पर्वत श्रेणी है। आस-पास की किसानी मैं ही करता हूं, और जो दूर हैं उन्हें बटाई में दे रखा है ... नीचे की तरफ गांव वालों के भी कुछ खेत हैं, वहां सभी में बटाईदार ही खेती करते हैं ..."
"अच्छा मंगल इन बटाईदार से तुम्हारा क्या मतलब है ?"
"कुछ आधी फसल तो कुछ तिहाई फसल लेते है ... भैया जी यहां नदी के आस पास पहाड़ी क्षेत्र में बहुत सी आदिवासी जन-जातियां रहती हैं, जैसे कोरकू, बैगा, गोंड, वही सब बटाई में ले लते हैं। पहले ये जंगल जलाकर खेती के लिए मैदान बनाते थे। लेकिन सरकार ने जब से रोक लगा दी है तब से यह बटाई में खेत ले लेते हैं, नहीं तो पहले यह अपनी शान के खिलाफ समझते थे ...", मंगल मुझे किसी छोटे बच्चे की तरह समझा रहा था।
मैंने उससे हंसी-मजाक में पूछा, "और कुछ अपने बारे में बताओ। इनमें से तुम कौन से हो ?"
वह कुछ अभिमान और गर्व से बोला, " जी भैया जी, हम राज गोंड है ..."
"ओह ! गोंडवाना राजवंश परिवार से हो, क्या बात है !!!", मैने उसकी पीठ थप-थापाते हुए कहा था ..."
तभी मेरी नजर खेत से काफी दूर एक टीन-शेड पर गई। मैंने मंगल से पूछा, "मंगल ! वह टीन-शेड कैसा ...?"
मेरी बात सुनकर वह कुछ उदास हो गया। जवाब उसके मुख से नहीं बल्कि उसकी आंखों से मिला। भर-भरा कर न जाने कितने आंसू उसके गालों में लुढ़क आए। रुंधे-कंठ से उसने बताया, "भैया जी यह इस परिवार का श्मशान घाट है। जब परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु होती है तो उसका अंतिम संस्कार यहीं पर होता है। वह दिन मुझे अच्छे से याद है जब एक साथ यहीं पर पांच चिताएं जली थीं। लगा जैसे बड़ी-सी होली जल रही हो। पूरा खेत गांव के आदमियों से भरा था। छोटे-छोटे बच्चों से लेकर बड़े- बुजुर्ग तक उस दिन रोए थे भैया जी। पूरे गांव में उस दिन चूल्हा नहीं जला था।
उस दिन दाऊ साहब ने अपने आप को एक कमरे में बंद कर लिया था। यहां की परंपरा है न कि पिता को अपने संतान की चिता के धुएं को नहीं देखना चाहिए। तीन दिनों तक उनकी बॉडी तो अस्पताल में ही राखी रह गई थी। जब ध्रुव भैया जर्मनी से आए तो अंतिम संस्कार हो सका। पीहू बिटिया तो सदमे में थी। वह न तो रो रही थी और ना ही डेड बॉडी से दूर ही हो रही थीं। पागलों की तरह भागते-भागते शमशान घाट में आई थी। मैंने किसी तरह से उन्हें पकड़ कर इसी मड़ैया में बैठा दिया था। वो फटी-फटी आंखों से जलती हुई चिताओं को देखती रहीं और यहां पर तब तक बैठी रही जब तक चिता की आग ठंडी न हो गई। अन्तिम संस्कार में शामिल होने का उनका बड़ा मन था। लेकिन गांव के बड़े बुजुर्गों ने उन्हें वहां तक जाने ही नहीं दिया। बोले, लड़कियों, औरतों और बच्चों का जाना उचित नहीं है।
"पीहू ! ...", मेरे हृदय से एक आह निकाली, जो शायद टीन-शेड से टकरा वापस मुझ तक पहुंची और मेरे दिल की धड़कन बढ़ा गई, "ओह पीहू !! तुमने कितना कुछ अपने इस जीवन में सहन किया। कितने गमों को अपने दिल में दफन किए बैठी हो। मैं तुम्हारे लिए आसमान से चांद-सितारे तोड़ कर नहीं लाऊंगा और न ही तुम्हारे लिए कोई रूमानी और रोमांटिक दुनिया बसाऊंगा ..... मैं तो सिर्फ तुम्हारे साथ तुम्हारे दर्द बांटूंगा। तुम्हारी आंखों से बहते आंसुओं को अपने कंधे में जज़्ब करूंगा। तुम्हारे होठों की सरल और सजीली मुस्कान बनूंगा। तुम्हें एक ऐसी दुनिया देने की कोशिश करूंगा जहां तुम्हारे दर्द मेरे होंगे और मेरी सारी खुशियां तुम्हारे नाम होंगी ..."
अचानक की खुशनुमा मौसम गमगीन हो गया। सुबह की चमकती हुई सूरज की रोशनी मद्धिम-सी हो गई और बगिया की ठंडक न जाने कहां खो गई। बहती हुई हवा की नरमी मेरी आंखों में नमी बनकर उभर आई।
"भैया जी! क्या आप वहां चलेंगे ...?", मंगल ने पूछा था।
मैंने मंगल के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, "नहीं, आज नहीं मंगल। लेकिन आज मैं तुमसे एक वादा करता हूं, मैं तुम्हारी पीहू बिटिया को उस टीन-शेड तक खुद ले कर जाऊंगा ... उसकी आंखों में ठहरे हुए आंसुओं का बहना बेहद जरूरी है, नहीं तो वह सारी उम्र यूं ही घुट-घुट कर जीती रहेंगी ... अब चलो, मुझे फैक्ट्री भी जाना है ...?"
"भैया जी एक बात पूछूं ....?", मंगल मेरे साथ लौटते हुए बोला।
"हूँ .... पूछो ..."
लेकिन मेरी इजाजत मिलने के बावजूद मंगल ने मुझसे कुछ नहीं पूछा। बस खामोशी से मेरे साथ चलता रहा। उसकी असमंजस की स्थिति को देखकर मैंने खुद ही उससे कहा, " जानता हूं मंगल तुम मुझसे क्या पूछना चाहते हो। लेकिन अभी मैं तुम्हें कुछ भी नहीं बता सकता। किसी से वादा जो किया है, लेकिन एक दिन आएगा जब तुम खुद-ब-खुद जान जओगे ..."
मड़ैया तक पहुंचने तक फिर हम दोनों में कोई बात नहीं हुई। मैने खाट में रखे आम के झोले को उठाते हुए मंगल को हिदायत दी, " अच्छा महसूस कर रहे हो तो इसका मतलब नहीं की दवाइयां खाना बंद कर दो..."
मंगल गेट तक मेरे साथ आया, फिर उसने धीरे से कहा, "वादा किया है तो न बताइए, लेकिन मुझे कल ही एहसास हो गया था कि पीहू बिटिया आपको चाहती हैं, आज तक उन्हें किसी अजनबी के साथ इस तरह से बाइक पर बैठे हुए नहीं देखा। वो जिस अधिकार से आपसे बात करती है, जिस तरह से आपको देखती है ... उसे देख कर कोई भी अंदाजा लगा सकता है .... वहीं अपनत्व मैने आपकी आंखों में उनके लिए भी देखा है।..... वैसे भैया जी आप यही क्यों नहीं रहते, आपको भी घर जैसा मासूस होगा और दाऊ साहब को भी एक सहारा हो जाएगा। पीहू बिटिया भी अपने दुख दर्द को भूली रहेंगी ... क्या कहते हैं ?"
उसकी मासूमियत से भरी रिक्वेस्ट को मैं सीधे तौर पर इंकार न कर सका, "चलो देखते हैं ... अपना ध्यान रखना। मैं चलता हूं ... हो सकता है कुछ दिनों तक मेरा आना न हो पाए ...."
कुछ कदम चलने के बाद मैं पीछे पलट कर देखा, मंगल गेट को तार से बांध रहा था, मुझे देखता देखा उसने अपना हाथ हिलाया बदले में मैंने भी अपना हाथ हिला दिया, और तेज कदमों से चलता हुआ घर तक पहुंचा। बाबा अभी भी शायद पूजा घर में थे। मैने आम का झोला बैठक की टेबल में रख दिया। पीहू कही नजर नहीं आई तब मैं पीछे कच्चे घर की तरफ गय तो देखा कमली गाय के गोबर से फर्श लीप रही थी और पीहू उसे बराबर निर्देश दे रही थी कि कौन सा सामान कहां रखना है।
मुझे अपनी तरफ आता देख उसने कहा, " बाथरूम में कपड़े रखे हुए हैं, जाओ जल्दी से नहा लो, उसके बाद मुझे भी नहाना है। फिर खाना बनाना है। तब तक मैं अटारी भी साफ करवा लूं ...."
"बिटिया तुम जाओ, घर की साफ सफाई की चिंता छोड़ दो मैं सब कर लूंगी ..... तुम भैया जी का ध्यान रखो ...", कमली ने हंसते हुए कहा।
"तो ठीक है, मैं जाती हूं। लेकिन थोड़ी-सी गौशाला को भी देख लेना ...", फिर मेरी तरफ पलटते हुए बोली, "क्या देख रहे हो जी, बाल्टी उठाओ अभी दूध भी पकने को रखना है ..."
मैंने दूध की बाल्टी उठाई और वहां से चला आया। उसे टेबल पर रखने के बाद मैं उसके आने का इंतजार करने लगा। लेकिन जब कुछ देर तक वह नहीं आई तो मैं वापस उसे खोजने के लिए लौट ही रहा था कि बेडरूम का दरवाजा खुला पाया। मैंने अंदर झांक कर देखा। वह अलमारी खोले खड़ी थी। मैं दबे पांव उसके पीछे पहुंचा और अपनी दोनों बाहें उसकी कमर में डालते हुए और अपना सर उसके कंधे में रखते हुए उसे पुकारा, " पीहू !..."
"हूँ..."
"क्या कर रही हो ...?"
"कुछ नहीं ... कल जो तुम्हारे किए जींस और टी-शर्ट ली है, उसे पहन के जाना और देखो सारे पैसे तो मुझे दे दिए हैं, वो सभी तकिया के नीचे रखे हुए हैं, जितनी जरूरत हो ले लेना ... "
"परफेक्ट वाइफ वाली हरकत ... हूँ ?", मेरी बाहों के घेरे कसते जा रहे थे।
"हूं ... और देखो जल्दी लौट आना, कहीं रुकना मत। बंद डिब्बे वाली आइसक्रीम लाना मत भूलना। फ्रिज में रख दूंगी फिर रात को डिनर के बाद खाएंगे ..."
मैं चौक गया, "क्या !!! मुझे लौट कर आना पड़ेगा ? बाबा क्या सोचे .. ?", उसने मेरी बात बीच में ही काटते हुए कहा, "बाबा तुम्हें खुद बुलाएंगे ..."
"अच्छा !! वो भला क्यूं ...?"
"क्योंकि .....=मेरा और तुम्हारा, यानी कि हम दोनों का आज बर्थडे है, वह भी हैप्पी वाला ...", उसने बिल्कुल धीरे से कहा था।
"क्या !!! ओ मय गॉड, सच में मैं भूल गया था, अब देखो न तुम्हारी नजदीकियां मुझे सब कुछ भुला देती है ...। तुम्हारा मुझ पर यूं अधिकार जताना, मुझसे इतने अपनत्व से बात करना, प्यार भरी नजरों से मुझे देखना। जब भी इनके बारे में सोचता हूं तो तुम्हारे प्रति मेरा प्यार और भी गहरा होता जाता है। तुम्हारी आवाज की सफ्टनेस, तुम्हारी ब्यूटीनेस मुझे अपनी तरफ खींचती हैं। सीप जैसी ये बादामी आंखे, ये तुम्हारे खूबसूरत लिब्स, ये सिंदूरी गाल, तुम्हारे बालों की भीनी-भीनी सी खुशबू मुझे मदहोश क्यूं कर देती हैं ... ? बोलो पीहू क्यूं ?? "
वह थोड़ा-सा मुस्कुराते, थोड़ा-सा लजाते और कुछ मेरी बाहों में सिमटते हुए धीरे से बोली , " और मेरी नोज कहां है .. हूं बोलो ?"
"शिट यार .... ये मै कैसे भूल गया ...", मैने अपनी तर्जनी से उसकी नाक के अगले भाग को टच करते हुए कहा, "इट्स मोरे सेक्सी, बिल्कुल परफेक्ट, मेरे पसंद की ... ", मैने उसे धीरे से अपनी तरफ टर्न कर उसकी आंखों में देखते हुए बोला, " पीहू ...!"
"हूं ..."
"हैप्पी बर्थडे, तुम जिओ हजारों साल ... और सदैव रहो मेरे साथ ... अरे ! देखो तो ये तो कविता बन गई ... साथ का असर ....?"
"हूँ .... शायद। सेम टू यू ... ", उसने मेरे गाल में चिकोटी काटते हुए आगे कहा, " सोचा तुम विश करोगे, लेकिन जब नहीं किया तो मैं समझ गई तुम भूल गए हो ...."
"हां सच, कहा न जब तुम्हारे पास होता हूं न तो सब कुछ भूल जाता हूं कि आज कौन सा दिन है, क्या डेट है ... यदि तुम पूछती कि बताओ मेरी डेट ऑफ बर्थ क्या है तो झट से बता देता। लेकिन वह डेट आज ही है, कमबख्त यह भूल गया ...", मेरे साथ वह भी हंस पड़ी। फिर कुछ देर उसकी नजरों में देखते हुए मैंने उसे गंभीरता से पुकारा, " पीहू ...!"
"हूँ ..."
"एक बात बताओ ..?"
"क्या ..?"
"लेकिन वादा करो सच कहोगी .. "
"वादा ..."
"झूठ तो न कहोगी मुझसे ...?"
"नहीं कहूंगी ....", उसके चेहरे में उत्सुकता साफ झलक रही थी।
मैंने उसका दाहिना हाथ अपने सर पर रखते हुए नाटकीय अंदाज में कहा, " खाओ मेरे सर की कसम ...."
उसने झट से अपना हाथ मेरे सर के ऊपर से हटा लिया, "अब यह गलती दोबारा मत करना, अब पूछो भी नहीं तो मार खाओगे। बेटा बर्थडे के दिन पिटोगे तुम ..."।
"नहीं ... मैं तो यह पूछना चाहता था कि ...", फिर मैंने दुनिया-जहां की मासूमियत अपने चेहरे पर समेटते हुए आगे कहा, "गंगा नदी निकलती कहां से है ....", अपनी बात खत्म करते-करते मैंने उसका माथा चूमा और कदम-ब-कदम पीछे हटते हुए बोला, "मारना है .... हूं ? लेकिन पहले पकड़ो तो मुझे ...."
तभी बाबा की आवाज सुनाई दी, "पीहू!! ओ पीहू ...", शायद उनकी पूजा खत्म हो चुकी थी।
बाबा की आवाज सुनकर वह कसमसा कर रह गई, " बाबा न होते तो मैं बताती, ... समझ लो उधार रहा... चुकाना पड़ेगा "
मैं झट से बाहर बैठक में आ गया बाबा के पैर छूते हुए बोला, "बाबा आज बहुत देर तक पूजा की आपने ...."
बाबा ने दीर्घायु का आशीर्वाद देते हुए कहा, "हां आज विशेष दिन है, घर में पूजा है। ऐसा करना आज फैक्ट्री में छुट्टी के लिए अर्जी लगा देना, पूजा की कुछ सामग्री पीहू तुम्हे लिखवा देगी, बाजार से ले लेना। दोपहर को बारह बजे तक हर हालत में पहुंच जाना। खाना-पीना पूजा के बाद ही होगा। मंगल को देखने गए ..."
"हां बाबा, पहले से काफी अच्छा हो गया है, उसने आपके लिए आम भिजवाए हैं, कमली भी आई हुई है, पीछे साफ-सफाई कर रही है ... "
"और पीहू? वह नहीं दिखाई दे रही, कहां है ?"
"पता नहीं बाबा...", मैंने अनजान बनने का नाटक करते हुए कहा, "होगी यही कहीं पीछे, शायद कमली के पास ..."
मेरी बात पूरी होती इससे पहले ही पीछे से उसकी आवाज सुनाई दी, "बाबा मैं यही हूँ...", फिर उनके सामने घुटने के बाल अपने हाथ जोड़ कर बैठते हुई बोली, "आप अपने पैर तो छूने नहीं देंगे, क्योंकि बेटियों पैर नहीं छूती हैं, तो हाथ जोड़कर आपके सामने बैठी हूं, दे दीजिए मुझे भी आशीर्वाद ..."
बाबा ने प्यार से उसके सर पर हाथ रखते हुए कहा, " सदा सुहागन रहो, सुखी रहो। ईश्वर तुम्हारी हर इच्छा पूरी करें ..."
उस दिन मैं नहीं समझ पाया था कि बाबा के दोनों आशीर्वाद में फर्क क्यों था। मुझे दीर्घायु होने का आशीर्वाद मिला और पीहू को सदा सुखी और सुहागन रहने का। ईश्वर हर इच्छा पूरी करें, का आशीर्वाद सिर्फ पीहू को मिला, मुझे नहीं। मेरे दीर्घायु होने से पीहू के सदा सुखी और सुहागन रहने का आशीर्वाद पूरा होगा, मेरा उसके साथ होना ही उसकी इच्छा है, जो कि पूरी हो रही है और आगे भी होगी। किंतु मेरी इच्छा तो पीहू के साथ जीवन जीने की थी, जिसे पूरा होना ही नहीं था। यही नियति का लिखा था, और बाबा नियति के लिखे में कोई हस्तक्षेप नहीं करना चाहते थे।
"जो लम्हा-लम्हा गुजरा है, वो एक पल का लिखा था।
तू नसीब नहीं मेरा, बस इक अजनबी-सा रिश्ता था।"
फिर बाबा मंगल से मिलने के लिए बगिया चले गए। मैंने स्नान किया और पीहू के कहे अनुसार उसकी पसंद के कपड़े पहने। जब पीहू ने सामान की लिस्ट मेरी तरफ बढ़ाई तो मैंने उससे पूछा, "तुम भी चलो ना साथ में ?
"जरूर चलती, लेकिन घर में काम बहुत ज्यादा है। लेकिन अभी से जाकर क्या करोगे अभी तो 8 बजे हैं बाजार तो 10 बजे के बाद ही खुलेगी, तब तक मेरी मदद कर दो ...",
"जरूर बताओ ..."
उसने बड़ी सी टोकरी में जिसमें तरह-तरह की कच्ची सब्जियां रखी थी लेकर आई। फर्श में चटाई बिछाई, "सब्जी तो काटनी ही पड़ेगी, चलो अभी काट लेते हैं ...", फिर वह अंदर गई और तीन-चार थालिया लेकर वापस आई और चटाई पर बैठते हुए कहा, "आओ बैठो न "
मैं उसके पास चटाई पर बैठ गया सब्जियां धुली हुई थी सिर्फ उन्हें कटना था, मैंने चाकू से भिंडी को काटते हुए बात आगे बढ़ाई, "पीहू ! यह पूजा कैसी है ? और क्या आप बहुत बड़ी पूजा होने वाली है ?"
"नहीं, ऐसा कुछ नहीं है। मेरे जन्मदिन पर बाबा अक्सर पूजा करवाते हैं, अरे वही यार जिसे कथा सुनना बोलते हैं, और बाबा के कुछ गांव में परिचित हैं, कह लो उनके चेले तो उन्हें बुला लेते हैं खाने के लिए। थोड़ा घर में रौनक बढ़ जाती है ..."
तभी वहां कमली आते हुई बोली, "बिटिया आंगन को भी लिप दूं न ? "
"हां जरूर से लेकिन थोड़ा गाढ़ा लीपना .... न हो तो थोड़ा सा मिट्टी मिला लो ...", पीहू ने उसे समझाते हुए कहा।
बैठक की फर्श पक्की थी। बाथरूम पश्चिम और दक्षिण के कोने में था। उसके आस-पास की फर्श भी पक्की थी। लेकिन शेष आंगन कच्चा था। कमली अपने काम में जुट गई।
मैंने पीहू की तरफ देखते हुए धीरे से कहा, "पीहू आते समय मंगल ने मुझसे एक बात कही थी। सोचता हूं तुम्हारे साथ शेयर करूं। शायद तुम कोई बेहतर रास्ता मुझे बता सको ...?"
"उसने मेरे चेहरे पर नजर गढ़ाते हुए पूछा, "कौन सी बात ...?"
"एक्चुअली उसने सजेशन दिया है मुझे कि मैं क्यों न तुम्हारे और बाबा के साथ इसी घर में रहूं। मुझे घर में रहने की फीलिंग मिलेगी और ....", मैं बड़ी मुश्किल से सिर्फ इतना ही कहा पाया। आगे के शब्द मुझसे नहीं कहे जा रहे थे।
उसकी नज़रें बराबर मेरे चेहरे पर थी जैसे मेरे चेहरे के भावों को पढ़ने की भरपूर चेष्टा कर रही हो। कुछ देर चुप रहने के बाद उसने मुझसे कहा, " हूं .... तो ये बात है। लेकिन देखो यदि तुम यह सोचते हो कि ...."
" नहीं ... नहीं ... पीहू ..", मैंने उसकी बात बीच में ही काटते हुए कहा, "मंगल ने कहा जरूर है लेकिन मैं ऐसा कुछ भी नहीं सोचता हूं। मैं जानता हूं कि तुम लोगों को मेरे सहारे की जरूरत नहीं है। तुम खुद में ही सक्षम हो। अरे ... जब इतने बड़े दुख को तुम दोनों ने एक साथ रहकर सहन कर लिए, तो तुम्हें कमजोर समझना मेरी मूर्खता होगी ....
"तो फिर .... बात क्या है ...?"
मैं कुछ देर तक सोचता रहा कि अपनी बात शुरू कहां से करूं। कैसे पीहू से कहूं। लेकिन कहना बहुत जरूरी था। इससे अच्छा समय नहीं मिलेगा। कहते न इंसान की जिंदगी में कुछ पल, कुछ लम्हे सिर्फ एक ही बार आते हैं और वे आ कर यदि चले जाएं और हम उनकी कीमत नहीं समझ पाए तो फिर वो पल हमारी जिंदगी में फिर दोबारा कभी नहीं आते हैं।
मैंने चाकू थाली में रख दी और धीरे से उसके हाथ को अपनी हथेली में लेटा हुआ बोला, " यहां बात मंगल के विचारों की नहीं है। यहां बात खुद मेरी है, या यू कह लो बात हमारी है ... मैं यहां से सिर्फ 15 किलोमीटर दूर फासले में रहकर यह बिल्कुल नहीं सोचना चाहता कि मेरी पीहू इस समय क्या कर रही हगी, वह कैसी होगी। उसने खाना खाया होगा या नहीं, बाबा अभी पूजा घर में होंगे या फिर उनकी पूजा खत्म हो गई होगी। पीहू मुझे कितना मिस कर रही होगी। क्या वह अभी भी जाग रही होगी या सो गई होगी। हां पीहू .... मै यह सोचकर पागल हो जाऊंगा कि मैं वहां रह सकता था, रुक सकता था लेकिन ...", यह सब कहते-कहते मेरी आंखें भर आई थी।
"अरे ये क्या .... तुम रो रहे हो ...? प्लीज... नहीं ..", उसने दूसरे हाथ की उंगलियों से मेरी आंसुओं को पोछा। फिर मेरे कंधे में अपना सर धीरे से टिकते हुए बोली, "तुम क्या समझते हो .... ये सिर्फ तुम्हारे दिल की बात है ... क्या मैं खुद न तड़पूगी तुम्हारी नजदीकियों को ? ... अच्छा कहो तो, मोहब्बत में फासले किसे मंजूर होते हैं .... जो हमें होंगे ? मै तो उस रात की कल्पना भी नहीं कर सकती जो तुम्हारे बिना गुजरे ... मै सो कैसे सकूंगी ? "
"तो फिर हमे बाबा से बात करनी चाहिए .…*, मैने सुझाव दिया।
"बाबा से क्या कहेंगे ... ? उन्होंने तो कन्यादान तक कर दिया तो उनकी तरफ से भला क्या मनाही होगी ? फैसले तो हमे लेने होंगे ..."
"बस मैं यही तो कहना चाहता हूं ... फैसले तो हमे ही लेने होंगे ... तो फिर लेते है न ...?", मैंने आशा भरी नजरों से उसे देखते हुए कहा था।
"चलो सोचती हूँ, वैसे भी आज घर में पूजा है, ईश्वर कोई न कोई रास्ता जरूर सुझाएगा .... अभी ये काम पूरा करते हैं ...", उसने उदासी को दूर कर अपने चेहरे में मुस्कान लाते हुए मुझे समझाने की कोशिश की। लौकी छीलते हुए उसके हाथ कांप से रहे थे। मैं उसे ध्यान से देख रहा था। इसके मन में आखिर चल क्या रहा है ? तभी उसने नजर उठा कर मेरी तरफ देखा था और मैंने महसूस किया जैसे कि उसकी आंखों भी नाम है, "पीहू ! ये क्या ? मैं चुप हो गया तो क्या अब तुम ....?
खुद को रोकने की असीम चेष्टा के बाद भी उसकी आंखों से दो आंसू लुढ़क आए, "मैं तुम्हारे साथ नाइंसाफी कर रही हूं न ? तुम्हें अपना बना कर तो रखना चाहती हूं लेकिन खुद तुम्हारी नहीं होना चाहती हूँ ? यही सोचते होंगे न ? मुझे कभी-कभी खुद से नफरत होने लगती है। स्वार्थी तुम नहीं स्वार्थी तो मैं हो गई हूं ..."
"नहीं पीहू बात स्वार्थ की नहीं है ..", मैंने उसे समझाते हुए कहा, "मेरे माता-पिता मेरे विवाह का कोई निर्णय लें, उससे पहले मैं उन्हें सब कुछ बताना चाहता हूं। और इसके लिए तुम्हारी सहमति आवश्यक है ... जो विवाह बाबा ने करवाया उसी को मैं पूरे रीति- रिवाज के साथ अपने घर वालों के सामने, इस पूरे समाज के सामने करना चाहता हूं। ताकि मैं किसी को फक्र के साथ बता सकूं कि तुम मेरी धर्मपत्नी हो ..., तुम विश्वास करो मेरे माता-पिता इसमें कोई बाधा उत्पन्न नहीं करेंगे। और ना ही इस बात पर डिसएग्री होंगे कि मैं और तुम बाबा के साथ ही रहेंगे। वह हमें खुशी-खुशी इजाजत दे देंगे। तुम समझती क्यों नहीं की एक बेटे होने के नाते उनके प्रति मेरा भी कुछ कर्तव्य बनता है, मैं उन्हें कब तक अंधेरे में रखूंगा ...?"
उसने चुप-चाप मेरी बात सुनी। कुछ देर बाद उदासी भरे लहजे में बोली, "काश ! उस बरसात में तुम्हें गौशाला के पास खड़े देखकर भी मैंने खिड़की बंद कर ली होती। काश ! उस बरसाती हुई रात में तुम्हें जाने से रोका न होता। काश ! तुमसे अपने जीवन के दर्द ने बांटे होते, तुमसे इमरजेंसी लाइट न मंगवाई होती। काश ! हम अजनबी ही होते ..."
"एक मिनट पीहू जरा रुको ...", मैंने उसे बीच में ही रोकते हुए शिकायत की, "तो क्या आज तुम्हें अफ़सोस हो रहा है कि हम मिले ...?"
"अपने लिए नहीं अजनबी, तुम्हारे लिए हो रहा है, ... जिसे तुम वास्तविक मान रहे हो वह एक छलावे की दुनिया है ... देखो आज हम दोनों का जन्मदिन है, खुशी का मौका है। न तो तुम्हारी आंखों में आंसू होने चाहिए और न ही मेरी। इस पल को हम हंसी-खुशी जी लेते हैं .... इस बात से दूर कि कल क्या होगा। जब कभी भी तुम्हारे घर में तुम्हारी शादी की बात चले तब मुझे बताना .... लेकिन आज इस बात को नहीं खत्म करते हैं। और एक बात याद रखना, मैंने तुम्हें अपना सर्वस्व मान लिया है ... तुम चाहे जिस रूप में मुझे मानो, चाहे प्रेमिका के रूप में, या फिर पत्नी के रूप में या फिर एक अच्छे दोस्त के रूप में ... मैं स्वीकार करूंगी। लेकिन सिर्फ तुम्हारे सामने, अभी समाज के सामने नहीं करूंगी ... एक पति का पत्नी पर जितना भी और जिस स्तर का अधिकार बनता है उससे कहीं ज्यादा के हकदार हो तुम मेरी नजरों में ...."
"नहीं पीहू मुझे तुमसे कोई अधिकार या कोई वादा नहीं चहिए। मुझे तो बस तुम्हारा प्यार चाहिए ....", मैंने उसके सर पर अपना हाथ फेरते हुए कहा, "मुझे तुम्हारी खुशी चाहिए। तुम्हें दुख देकर मैं तुमसे कोई रिश्ता नहीं बनना चाहता ... लेकिन यह कभी मत कहना कि काश हम मिले ही न होते, काश कि तुम मेरे लिए अजनबी ही होते ...", कहते हुए मैं भावुक हो गया था।
पीहू के साथ सब्जियां काटते हुए मैं सोच रहा था, " सच तो कहती है, कल जो होना होगा तो वह होगा ही। उसके लिए आज क्यूं बर्बाद करना। आज जो है उसी को जीते हैं और कौन-सा अभी साल दो साल में मेरी शादी की बात चलने वाली है। अभी तो मैं 23 का हूँ, और जॉब भी तो परमानेंट नहीं है और तब तक हो सकता है पीहू के विचार भी बदल जाएं।
"मुझे अभी फैक्ट्री में भी कुछ टाइम लगेगा और पूजा के सामान भी लेना तो अब मैं चलता हूं .....", मैं पीहू के पास से उठाते हुए बोला।
"ठीक है, अच्छे से संभल के जाना, और सुनो वह मेडिकल स्टोर जहां से दवाई खरीदी थी उसी के पास में एक किराना स्टोर है तुम लिस्ट दे देना वह सभी सामान बांध देगा ....",
वह हिदायत दे रही थी और तभी मेरी नजर अगर में एक कोने पर रखे गुलाब के गमले पर गई दो जोड़ी गुलाब थे। बहुत ही सुंदर बहुत ही प्यारे। उन्हें तोड़ने का मेरा मन नहीं किया। मैंने पूरा का पूरा गमला उठाकर पीहू के सामने रखते हुए कहा, हैप्पी बर्थडे वंश अगेन .."
वह कुछ लजाते कुछ मुस्कुराते हुए बोली, "थैंक्स and सेम टू यू..."
मै अभी दरवाजे तक ही पहुंचा था कि पीछे से उसने पुकारा, "ये सुनो ! पैसे ले लिए न? ", और तब मुझे ध्यान आया कि अरे ! वो तो मैने लिए ही नहीं। मै पलटा था। उसके पास आते हुए बोला, "बिल्कुल परफेक्ट वाइफों वाली हरकत की न ? जाते हुए टोंक दिया ?"
वह भी हंसते हुए बोली, "तुम भी तो परफेक्ट हसबेंड्स वाली हरकतें करते हो ..",
मैं बेडरूम में गया और तकिया के नीचे से पैसे निकाले। बैठक रूम में आया तो बाबा को कुर्सी में बैठे हुए देखा। शायद अभी-अभी पहुंचे थे, और पीहू से पूछ रहे थे कि ये गमला बैठक में क्यों रखा है।
पीहू कुछ जवाब देती उससे पहले मैंने कहा, "बाबा धूप तेज है ना .... फूल मुरझा जाते, इसलिए मैंने यहां पर रख दिया था ..."
"नहीं अभी धूप इतनी तेज नहीं है कि ये मुरझा जायेंगे। पौधों को धूप भी जरूरी होती है। अभी उठाकर वही रख दो ....", बाबा ने मुझे समझाया। मैंने अपना मन मार कर उनके आदेश का पालन किया, फिर उनकी इजाजत ले कर चल पड़ा।
लगभग साढ़े बारह बजे जब मैं लौट कर आया तो शीशम के पेड़ के नीचे एक जीप और कुछ बाइक खड़ी देखीं। घर का लुक भी चेंज हो चुका था। धूप से बचने के लिए एक तिरपाल गौशाला के पास की खाली जगह में दरवाजे को कवर करते हुए लगी थी। उसके नीचे लगभग 20-25 कुर्सियां भी रखी थी जिसमें कुछ बजुर्ग कुछ अधेड़ व्यक्ति बैठे थे। बाबा उन सभी के बीच बैठे बातें कर रहे थे। मंगल और कमली व्यवस्था देखने में एक्टिव थे। मुझे देखते ही मंगल मेरे पास आया, "अरे भैया जी आप आ गए, लाइए सामान का झोला दीजिए ... और आप हाथ-मुंह धोकर कपड़े चेंज कर लीजिए। वह झोला लेकर अंदर चला गया।
मैं घूम कर घर के मुख्य दरवाजे पर गया, देखा वह भी आंगन के ऊपर एक छोटी सी तिरपाल लगी थी और उसकी छाया के नीचे एक पंडित जी पूजा की तैयारी में जुटे थे। मैं मुंह-हाथ धो के बेडरूम में आ गया। बिस्तर पर साफ तह किया हुआ सफेद रंग का एक जोड़ी कुर्ता पैजामा रखा था।
तभी वह कमरे में आई और फैन का स्विच ऑन करते हुए बोली, "तुम आ गए .... बड़ी देर लगा दी .... चलो जल्दी से कपड़े चेंज कर लो पूजा में बैठना है ...."
"मुझे पूजा में बैठना है !!!", उसकी बात सुन मैं आश्चर्य से चौंक उठा, "लेकिन यह पूजा तो तुम्हारे लिए हो रही है न ? तो फिर मुझे ....."
"जन्मदिन मेरा आज अकेले का नहीं है, यह बाबा की इच्छा है ..."
"बाबा की इच्छा है !!! इतने लोगों के सामने ? क्या बताया उन्होंने मेरे बार में ?", मेरे पास सवाल बहुत थे लेकिन उन सवालों के कोई जवाब नहीं थे। इसलिए पीहू से पूछना लाजमी था।
"वह सब मैं नहीं जानती ... बाबा से तुम खुद ही पूछ लेना ... जितना उन्होंने मुझसे कहा तो मैंने तुमसे कह दिया ... अब जल्दी करो .... मुझे भी कपड़े चेंज करने हैं ...", वह कमरे से बाहर जाती हुई बोली।
"ये बाबा भी ... अब इसकी क्या जरूरत थी !!! ... और फिर लोगों को मेरे बारे में क्या बताया होगा .... या बताएंगे ?", लेकिन यह सभी सवाल मुझे फालतू के समझ आए। मैंने उन्हें दिमांग से एक किनारे झटक दिया, "लोगों की नजरों का सामना तो बाबा को करना है। जवाब उन्हें देने हैं, तो फिर मैं क्यों परेशान होता हूं ..", मन की सारी शंका एक तरफ रख कपड़े चेंज किए और बैठक के तख्त में आकर बैठ गया। कुछ देर बाद जब बाथरूम से पीहू बाहर आई और उसने मुझे प्रशंसा भरी नजरों से देखते हुए कहा, "स्मार्ट लग रहे हो ...", कहती हुई वह बेडरूम में चली गई।
आंगन में पंडित जी पूजा की तैयारी कर रहे थे, मैं उन्हें देखते हुए बैठा रहा। कुछ देर बाद पीहू रेड कलर का सलवार सूट और व्हाइट कलर का दुपट्टा डाल कर मेरे सामने आ खड़ी हुई, "कैसी लग रही हूँ ..."
मैंने मुस्कुराते हुए कहा, "बिल्कुल परियों जैसी ... शायद उनसे भी ज्यादा ...."
"बस ... बस अब रहने दो ... इतना काफी है ... अब चलो कुर्सी में बैठो ...", वह रसोई घर में गई और एक गीले कपड़े के साथ वापस आई। फिर तख्त को पोछते हुए मुझसे कहा, "पूजा के रोट-पंजीरी, दही, गुड और जरूरी सामान निकाल कर इसी में रख देते हैं। जरूरत पड़ने पर कमली देती जएगी, "आओ मेरे साथ .... मैं किचन से पकडती जाऊंगी और तुम इसमें रखते जाना .…"
कुछ देर में ही सभी सामान तख्त में जमा के रख दिए गए। तभी पूजा की तैयारी कर रहे पंडित जी ने उसे पुकारा था, बिटिया अब आ जाओ ..."
उसने मेरी तरफ देख कुछ मुस्कुराते हुए कहा, "चलो ... और देखो मेरी बाई तरफ बैठाना .... वो क्या है न किसी भी धार्मिक अनुष्ठान में अर्धांगिनी को दाहिने अंग में स्थान देते है .…"
मैंने भी कुछ मुस्कुराते हुए कहा, "तुम आधे नहीं मेरे पूरे वजूद में हो ... लेकिन एक बार तुम खुद तो स्वीकार कर लो ..?"
"अब ताने मत दो ... न किया होता तो क्या मैं तुमसे ऐसा कहती ....? अब चलो, देखो नाराज मत हो। शिकायतों के लिए पूरी रात है न ?", उसने मेरा हाथ पकड़ मुझे कुर्सी से उठाते हुए कहा।
मुझे नहीं पता था कि इंसान की जिंदगी में धार्मिक अनुष्ठान और इस तरह के कथा-वाचन का क्या महत्व होता है। लेकिन हां, उस दिन मुझे यह एहसास हो रहा था कि किसी अपने के साथ जब हम पूरे मन और ईमानदारी से इन्हें पूरा करते हैं तो मन को शांति मिलती है, और रिश्ते कई गुनी शक्ति के साथ एक दूसरे से बंध जाते हैं। एक मंत्र में पढ़े गए मेरे विवाह की परिणीति इस तरह एक खूबसूरत अंदाज में एक छोटे किंतु हृदय को लुभा लेने वाले धार्मिक अनुष्ठान के साथ होगी, मैंने कल्पना नहीं की थी।
भले ही यह एक छोटी सी कथा हो लेकिन मेरे लिए किसी यज्ञ से कम नहीं। एक ऐसा यज्ञ जो मेरे और पीहू के रिश्ते को जन्म जन्मांतर के लिए जोड़ने जा रहा था। उस दिन अंतरात्मा की पूरी शक्ति, सभी देवी-देवताओं, चर-अचर, जीव-निर्जीव सभी को साक्षी मानकर मन में एक गांठ बांध ली। पीहू मेरी धर्मपत्नी है और रहेगी। अब इस जीवन में और इस जीवन के बाद भी कोई और मेरी जिंदगी में इस रूप में नहीं आएगा और न ही उसके स्थान पर कोई और बैठेगा। फिर चाहे मुझे इसके लिए राम की तरह इसकी सोने की मूरत ही क्यों ना बनवानी पड़े।
पूजा के मंत्र पढ़े गए। कथा का वचन हुआ। हवन हुआ। जो भी समान कम पड़ता, कमली तख्त से उठाकर ले आती। हम दोनों ने किसी नव विवाहित जोड़े की तरह पूजा को विधिवत पूरा किया।
दोपहर के लगभग 2 बज रहे थे जब पूजा समाप्त हुई। मैंने पीहू से कहा, "पीहू मुझे जोरों से भूख लगी है यार ..."
वह हंसते हुए बोली, "कैसे जजमान हो यार ! मेहमान बैठे हैं और तुम खा लोगे ? पहले उन्हें तो खिला दो .... चलो बाहर, मंगल के साथ खाने पीने की व्यवस्था की तैयारी करवाओ ..."
मैं बाहर पीछे कच्चे मकान की तरफ आ गया। अटारी का निचला भाग जो की बहुत बड़ा और खुला हुआ क्षेत्र था उसमें पंगत लगाई गई। पत्तल में खाना परोसा गया। दो तरह की सब्जी, एक सुखी एक ग्रेवी वाली, पूरी, सलाद, अचार, पापड़ सभी कुछ पीहू ने मेंटेन किया था। कभी-कभी तो मैं उसकी कार्य प्रणाली और मेहनत देखकर दंग रह जाता हूं। सब कुछ यह अकेले कैसे मेंटेन कर लेती है ? उसे दिन बाबा ने भी पंगत में बैठकर ही खाया।
लगभग 3 बजे सभी लोग जा चुके थे। जहां पंगत लगी थी वहां साफ-सफाई का काम चल रहा था। मंगल और कमली पूरी मुस्तैदी के साथ काम में जुटे हुए थे। मैंने पीहू से कहा, "पीहू ! मंगल और कमली ने भी तो अभी कुछ नहीं खाया होगा न ? चलो पहले उनको भी खिला देते हैं, हम बाद में खएंगे ..."
उसने मुस्कुराते हुए कहा हम चारों साथ में खाएंगे, "बफर सिस्टम स्टाइल में ... समझे ..."
बड़े-बड़े कटोरे में खाने का सभी सामान निकाल लिया गया। पीहू ने थाली में सभी के लिए परोसते हुए कहा, "अब जिसको जो जरूरत होगी वह स्वयं लेता जाएगा ..."।
हंसी मजाक के बीच, हम लोग लंच कम डिनर पूरा कर रहे थे। कमली ने मजाक में कहा, "चलो आज पीहू बिटिया के साथ खा रहे हैं, ये बड़ी बात है। कल को इनकी शादी होगी, ये तो मंडप में बैठी होगी और हम लोग अकेले ही खाएंगे ... क्यों भैया जी आप आएंगे न ?"
मैंने पीहू की तरफ देखा और उसने मेरी तरफ देखा। मैं कोई जवाब देता कि पीहू ने एक पूरी उठाकर कमली की थाली में डालते हुए कहा, "लो, खा लो कमली, समझो मेरी शादी की है ..."
"ऐसे न चलेगा ..."
तभी मंगल थोड़ा सा गुस्सा जाहिर करते हुए कमली से बोल "तो कैसे चलेगा ... हूं ...बता ? .... समझती नहीं भैया जी यह बात को ... दूल्हे से पूछती है, क्या तुम भी बारात में आओग ?"
"हां ! .... बिटिया सही में ..!!! ... मुझे न पता था ..."
"सुन अब पता चल गया है तो चार गांव में ढोल ना पीटना ...", मंगल उसे समझाते हुए कह रहा था, "इस घर की इज्जत-सम्मान और नमक का ध्यान रखना ...
"देखो अब चुप हो जाओ, ज्यादा ज्ञान देने की जरूरत नहीं है ... इतना मै जानती हु ...", कमली ने मंगल को डांट लगाई।
मैंने महसूस किया जैसे पीहू के खाने की गति धीमी हो गई। वह किसी नई दुल्हन की तरह सर झुकाए, छोटे-छोटे कौर खा रही थी। उसके चेहरे में संकोच और लाज की मिली-जुली भंगिमाएं थीं। मैंने महसूस किया जैसे वह खाते समय बीच-बीच में मुझे तिरछी नजरों से देखती भी जा रही थी। उसके व्यक्तित्व में मॉडर्न और ट्रेडिशन का अद्भुत संगम मुझे नजर आ रहा था। एक तरफ बफर सिस्टम था जो जाति, धर्म, छुआ-छूत, अमीर-गरीब, इत्यादि से परे एक साथ मिल-जुल कर भोजन ग्रहण करना। वहीं दूसरी तरफ शादी ब्याह की बात चलने पर लजाती, सकुचाती, छुईमुई सी पीहू।
हम लोग लगभग 4 बजे फुर्सत हुए। कमली और ने एक बार फिर से पूरे घर की साफ-सफाई की और फिर दोनों चले गए। जब हम दोनों बेडरूम में पहुंचे तो दोनों के चेहरे पर थकान साफ नजर आ रही थी। मैंने लेटते हुए पीहू से कहा, "लेट जाओ, थक गई हो, थोड़ा सा आराम कर लो। और बाबा को भी क्या कहें .... जब जानते हैं की पोती अकेली है तो इतना बड़ा फंक्शन करने की क्या जरूरत थी ..."
"कौन सा बड़ा फंक्शन था ...!! 20-25 लोगों का खाना कोई बड़ी बात होती है क्या ? और कौन सा सभी इंतजाम मुझे अकेले करना था। तुम्हारे जाने के बाद मंगल और कमली दोनों ही लगे रहे। बाहर का सारा इंतजाम उन्होंने ही देखा और रसोई भर तो मेरे जिम्मेदारी में थी ...", उसने लापरवाही से कुछ मुस्कुराते हुए कहा जैसे कुछ हुआ ही न हो।
"लेकिन फिर भी यार इतना खाना बनाना वह भी अकेले बहुत बड़ी बात है ... अब देख क्या रही हो, लेटो....", मैं बेड के एक तरफ खिसक उसके लिए जगह बनाते हुए बोला। वह लेटी तो जरूर लेकिन मुझसे बिल्कुल सट कर।
"अब ये क्या ...? इतनी जगह पड़ी है आराम से लेटो ...",
बदले में वह मेरी तरफ करवट लेकर पलटी, मेरे सीने को अपनी बाहों के घेरे में लिया और मुस्कुराते हुए बोले, "मुझे तो इसी में आराम है जी ... जब को कोई दिक्कत है ..?"
बदले में मुस्कुराते हुए मैंने कहा, "जी ... कोई दिक्कत नहीं है, जो तुम्हें कंफर्ट लगे करो मुझे कोई एतराज नहीं ..."
उसका आधा सर तकिया में और आधा सर मेरे कंधे पर था। उसके बाएं हाथ का घेरा मेरे सीने से होता हुआ दाहिने हाथ की बाह में खत्म हो रहा था। सीलिंग फैन पूरी गति से चल रहा था। कुछ देर मेरी निगाहें उसी पर टिकी रही और फिर धीरे-धीरे मेरी भी आंखें बंद हो गई।
जब दोनों उठे तो शाम को 6:00 बज चुके थे। मैं बैठक में बाबा के पास आ गया और उनसे बातें करने लगा। पीहू ने बाबा से पूछा, "बाबा ! खाने में क्या बना लूं ...?"
बाबा ने अपने पेट पर हाथ फेरते हुए कहा, " तुम लोगो को जो खाना हो बना लो ... मै आज रात नहीं खाऊंगा। दोपहर को लेट खाया है न, तो भूख नहीं है ... मै तो पूजा करके फिर आराम से लेटूंगा ..."
"मैं भी नहीं ...", मैंने बाबा की हां में हां मिलाते कहा।
"तो मैं कौन सा भूखी मरी जा रही हूँ ... हैं ना बाबा ? ... तो मान लूं ना की रसोई का काम खत्म ..?"
"अवश्य ....", मैंने झट से कहा तो बाबा मेरी तरफ देखकर मुस्कुरा दिए। हम सभी कुछ देर और बात करते रहे फिर बाबा के पूजा का समय हो गया। पीहू ने हाथ पैर धो के पूजा की सभी तैयारी की, बाबा पूजा घर में प्रवेश करते, उससे पहले पीहू ने उनसे पूछा, "बाबा हम लोग बगिया चले जाए, वो क्या है कि कुछ खाना अभी भी बचा हुआ है, मंगल को दे दूंगी ... शायद वे लोग खाएं ?"
"हूं ... ठीक है चले जाओ, टार्च ले कर जाना, लौटते में अंधेरा हो जाएगा ... वैसे भी पूजा में मुझे समय तो लगेगा ... थोड़ा घूम आओ, मन भी बहल जाएगा ..."
पीहू ने खाना पैक किया, आइसक्रीम भी रखी, और सभी सामान एक झोले में डाल मुझे पकड़ते हुए कहा, "लो इसे तुम संभालो ... मै टार्च देखती हूं ... वैसे मैं सोचती हूं कि एक इमरजेंसी लाइट मंगल को दे दूं ... बरसात का समय है, लाइट आती जाती रहती है ... आखिर वो भी तो इंसान ही है न ...?"
"हां वो तो है ... मैं तो तभी जान गया था ... जब तुमने उनके लिए आइसक्रीम रखी थी ...", मैं उसके गाल में चिकोटी काटते हुए आगे बोला, "अपने लिए भी रख लो ... उनके साथ हम भी खायेंगे ?"
"पहले ही रख लिया है ... और ये क्या ...? बाबा के पूजा घर में होने का फायदा न उठाओ ..", वह अपने गाल सहलाते हुए और कुछ दिखावटी गुस्सा दिखाते हुए बोली।
"अच्छा जी!! और जो तुम सुबह-सुबह मुझे जगाते समय बेदर्दी से नोचती हो ... उसका क्या ? तब तो मैं कुछ नहीं कहता ... अब मैं भी अपनी मम्मी से बताऊंगा ...", मैने भी अपने गाल को सहलाते हुए बच्चों की तरह शिकायत की।
"वो तुम्हारी नहीं मेरी सुनेंगी ... समझे ... अब चलो ...", फिर उसने कुछ तेज आवाज में कहा, "बाबा हम जा रहे हैं, इमरजेंसी लाइट चालू है ... और दरवाजा हम बाहर से बंद कर लेंगे ..."
बाहर सूरज पूरी तरह से डूब चुका था, लेकिन अंधेरा अभी भी होना बाकी था, उसके एक हाथ में इमरजेंसी लाइट और दूसरी हाथ में टॉर्च थी, मेरे एक हाथ में खाने का झोला था, दूसरा हाथ खली था। मैने उससे कहा, "टॉर्च मुझे दे दो ...",
मैंने किसी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा किए बिना टार्च उसके हाथ से ली और झोले वाले हाथ में एडजस्ट करके पकड़ ली। अब हम दोनों के एक तरफ के हाथ खाली थे। मैंने धीरे से उसका हाथ पकड़ते हुए कहा, "पीहू आज मौसम कितना अच्छा है, देखो हवा में कुछ ठंडक भी है ... लगता है आस-पास कहीं पानी गिर रहा है .... "
"हूँ .... आप कह रहे हैं तो सही ही होगा ...!!", उसने मेरी तरफ प्यार से देखते हुए कहा।
"एक मिनट .. एक मिनट ... क्या कहा ..... आप !!! ..", मैं चौंकते हुए उससे बोला।
वह मुस्कुराते हुए बोली, "हुई न ... हस्बैंड-वाइफ वाली फीलिंग ... "
"हुईं क्या ..?", मैने थोड़ा सा उसका हाथ दबाते हुए कहा, "वो तो हम है ही ... क्यूं नहीं हैं क्या ?"
उसने पहली बार इकरार में अपना सर हिलाया था। मैने मौका देखकर अपने दिल की बात उससे कही, "पीहू ! आज मैने अपनी मां को बहुत मिस किया ... बेटे की शादी एक मां के लिए बहुत मायने रखती है। जब हम कथा सुन रहे थे न तो मुझे मेरी फैमिली की याद आ रही थी ..."
"मै समझ सकती हूँ... लेकिन मैं ... समझ नहीं आता मैं तुमसे क्या कहूं ... कैसे कहूं ?", उसकी बेचैनी बढ़ रही थी।
"इट्स ओक पीहू ! सॉरी ... लेकिन मैं भी क्या करूं .. अपने दिल की बात तुमसे न कहूं तो किससे कहूं .... ? "
"जानती हूं ... इसलिए अपने आप को दोषी भी पाती हूं .... मुझे इतनी दूर तक तुम्हे अपने स्वार्थ के लिए नहीं लाना चाहिए था। पहले ही दिन बाबा का खुल के विरोध करना चाहिए था ... बाबा मान जाते ... लेकिन मैं ही तुमसे प्यार कर बैठी ...", यह सब कहते-रहते उसका गला भर आया।
"नहीं पीहू, प्यार तुमने अकेले ही नहीं किया है, मैने भी तुमसे किया है ... यदि दोषी हैं तो दोनों हैं ... अब छोड़ो न... मुझे भी पता नहीं क्या हो गया है, एक्चुअली इसमें में खराबी है ...", मैने अपने सिर की तरफ इशारा करते हुए कहा, "यह रेडियो बार-बार एक ही स्टेशन पकड़ लेता है ... इसे रिपेयर करवाना पड़ेगा ... करोगी न...?"
वह हंस पड़ी, "आप ऐसा क्यूं सोचते हैं जी ... ये सुनो ! सच तुम्हे अपना गोत्र नहीं मालूम ...",
"अब नहीं मालूम तो नहीं मालूम न.... और मुझे क्या पता था कि पूजा में पंडित जी पूछ लेंगे ... नहीं तो ......
"मम्मी से पूछ लेता ....", उसने कुछ चिढ़ाते हुए मेरे वाक्य को अपने अंदाज में पूरा किया।
"ये सुनो मम्मी के बारे में कुछ नहीं ... उनका मजाक मत उड़ाओ ... समझी ?", मैने उसके कंधे में चपत लगले हुए बोला।
"ओह सो सॉरी , माफ कर दीजिएगा मम्मीज़ बॉय ... ", उसने फिर हंसते हुए मुझे छेड़ा।
"क्या मतलब तुम्हारा .... मै मम्मीज़ बॉय हूँ ... अब सच में तुम मार खाओगी ...", मैने कुछ गुस्सा दिखाते हुए कहा।
"तो ? क्या गलत कहा है ? क्या तुम मम्मी के बच्चे नहीं हो ... बड़े आए मारने वाले। रुको मम्मी से मिलने दो मुझे, सबसे पहले उन्हें बताऊंगी कि आपका बेटा कहने पर ये मुझे मारने को कहते हैं ... देखता आपकी अब खैर नहीं ....", उसने पूरी तरह से "उल्टा चोर कोतवाल को डांटे" कहावत को सिद्ध कर दिया था।
इस तरह हमारे कदम के साथ-साथ हम दोनों की बातें चलती जा रही थीं। कभी वह मुझे छेड़ती तो कभी मैं उसे छेड़ता। इसी हंसी-मजाक के साथ हमारा सफर पूरा हुआ और हम बगिया पहुंचे। मंगल ने हमें आता देख बगिया का गेट खोल दिया और हम दोनों मड़ैया पहुंचे।
झोले में खाना देखकर मंगल बोला, "खाने की इच्छा तो हमें भी नहीं है, लेकिन खुले में रख देंगे तो खराब नहीं होगा। वैसे भी नदी तीर से कल दो लड़कों को बुलाया है, बगिया में कुछ काम है अकेले नहीं हो पाएगा। सुबह उनको गरम कर खिला देंगे ..."
"अभी फ्रिज में और भी रखा है, तुम चिंता मत करना। सुबह कमली आएगी तो मैं उसके हाथ से और भिजवा दूंगी ... लेकिन अभी चलो, सभी मिलकर आइसक्रीम खाते हैं ...", पीहू ने होले से आइसक्रीम का डिब्बा निकाल लिया और झोला कमली को देते हुए बोली, "लो तुम इसे अपने हिसाब से रख लो ..."
आइसक्रीम पैकेट बंद थी। कुल्हड़ में निकाली गई। पीहू ने अपने कुल्लड़ से एक चम्मच मेरी तरफ बढ़ाया, "देखो तो ... कैसी है ...."
मिट्टी की सोंधी-सोंधी खुशबू के साथ आइसक्रीम और भी टेस्टी लग रही थी। उसी तरह मैने अपने कुल्लड़ से एक चम्मच उसकी तरफ बढ़ाया, "मै क्या बताऊं ... तुम खुद ही खा के देखो...."
उसने आइसक्रीम का स्वाद लेते हुए कहा, "सच में कुल्हड़ ने इसका स्वाद बढ़ा दिया है ... ये मिस्टर अब तुम ही खिलाओ ...", उसने अपना चम्मच एक तरफ रखते हुए कहा।
"वैसे भैया जी, ये आइसक्रीम का आइडिया किसका था ...?", मंगल ने पूछा।
"ऑफकोर्स मंगल मेरा था ... मोटी अक्ल वालों को ऐसे आईडिया कहां आते हैं ...?", उसने कुछ मुस्कुराते हुए, मेरी तरफ तिरछी नजर से देखा। साफ निमंत्रण था लड़ने का, लेकिन इस बार मैं मुस्कुरा के रह गया, और उसकी तरफ एक फुल चम्मच और बढ़ाते हुए बोला, " अपने खूबसूरत आइडिया को जी भर के खाओ ..."
be continued ...