Wednesday, November 3, 2021

मैं डिजिटल युग का

मैं इस डिजिटल युग का,
टेक्निकल विरह प्रेमी कवि हूं।
तुम्हारे अनंत:पुर से,
निष्कासित श्रापित यक्ष हूं।
मेघ नहीं बिट से अपना,
हाल-ए-दिल पहुंचाता हूं।
तुम्हारी विरह वेदना में जब,
ऑफ से ऑन हो जाता हूं।
तब एक अक्षर लिखने को भी,
एट बिट से एक बाइट बनाता हूं।।

एमबी फिर जीबी भी, जब कम पड जाते हैं।
तब चाहत से अपनी,  टेरा बाइट बनाता हूं।

नेटवर्क कंजेक्शन और, व्यस्ततम रूट तुम्हारा।
फिर भी अपना सन्देश,  तुम तक पहुंचाता हूं।

जज़्बातों के छोटे-छोटे पैकेट कर,
हर पैकेट में लिख दोनों का एड्रेस,
फिर सभी को तुम्हें सेंड करता हूं।
उनमें से कुछ तुम तक पहुंचे,
कुछ कंजेक्शन में फंस के लौटे,
आहों के रूटर से उनको,
फिर री रूट दिखलाता हूं।

ये क्रम यूं ही अनवरत चलता रहेगा,
जब तक हर पैकेट तुम तक न पहुंचा दूं।
क्योंकि ?
मैं इस डिजिटल युग का,
टेक्निकल विराह प्रेमी कवि हूं।
मेघ नहीं बिट से तुम तक,
अपनी विरह वेदना पहुंचाता हूं।
Shailendra S.
Mr. भूपेंद्र सिंह बघेल, सतना
को सादर समर्पित।

Tuesday, November 2, 2021

गॉडफादर 2


गॉडफादर 2

पापा ! 
लगभग 25 वर्ष की एक खूबसूरत सी लड़की होठों में गजब की मुस्कुराहट लिए सामने खड़ी थी। उसका संबोधन सुनकर वह चौक गया, " कौन ! कौन हो तुम !! "

       वह कमरे में दाखिल होते हुए बोली, " पापा !! आपने मुझे पहचाना नहीं ...  मैं ... मैं खुशी हूं ... "
" हा ..... खुशी .... तुम यहां !! इस वक्त !!  . ." , उसे एकाएक विश्वास ही न हुआ था खुशी कैसे हो सकती है वह तो . . .

" हां पापा ! मैं ... आपकी बेटी ... " , 

ओह राइटर ! पिता के लिए बेटी के दिल की दीवानगी न पहचान पाये ? खून के रिश्ते ही सब कुछ नहीं होते, राइटर। 

    जलजले का वह दूसरा दिन था। मंजर और भी खौफनाक था। ताश के मानिंद धराशाही इमारतें और उनके मलबे में दबी अनगिनत लाशें, और जो बचे उनके करुण विलाप। दिल दहला देने वाले अविश्वसनीय दृश्य थे। 

    आलीशान कोठी के मलबे के ढेर के नीचे दबी लाशें अभी तक बाहर न निकाली जा सकी थी। बड़ी-बड़ी मशीने, क्रेन का भारी शोर-शराबा और उनके बीच वह स्तब्ध मौन खड़ा न रह सका। न रो लेने की क्षमता और न अपने आप को खुद समेट कर किसी एकांत में बैठ लेने का साहस। वह मशीनों के साथ व्याकुल मलबे के ढेर के बीच इधर उधर बदहवास अर्ध विक्षिप्त सा भागता फिर रहा था। और इस बीच कब वह अपनी कोठी दूर निकल आया पता ही नही चला।

    मध्यम वर्गीय मजदूरों की बस्ती में उसे एक लगभग तीन चार साल की खून से लथपथ किंतु जिंदा लड़की दिखाई दी। उसे अपनो तरफ आते देख वह भी रोते हुऐ उसकी तरफ लड़खड़ाते गिरते पड़ते भागकर उसके पैरो से लिपटा गई। 

     उसे कुछ नहीं सोचा था बस उसे गोद में उठा वापस अपनी कोठी के मलबे के पास आ गया था।

   राइटर जो उस वक्त इस शहर से दूर एक गांव में रहता था, वह भी उस लड़की को देख कर कुछ नही बोला था।  उससे कोई सवाल नहीं किया, दोनो को वह अपने गांव छोड़ गया। तीसरे दिन
 हां तीसरे दिन उसे अपनी पत्नी और बेटी और पिता की लाश मिली थी।

      महज 29 वर्ष की उम्र में उसकी दुनिया वीरान हो गई थी। कभी उसके ग्रैंडफादर जुर्म की दुनिया के गॉडफादर थे। ना जाने कितनी बेनाम संपत्तियां उनके बेटे यानी उसके पिता के नाम थी। लगभग हर बड़े शहरों में उसके नाम से भी न जाने कितने व्यवसाय चलते थे। स्विस बैंक में न जाने कितने मिलियन डॉलर्स थे। कुछ भी काम नहीं आया था। 

     उसके पिता ने कभी अपनी मर्जी से जुर्म की दुनिया छोड़ दी थी, और उसे लेकर एक अजनबी शहर में पिता से दूर आ गए थे।

      अब उसके पास इन के सिवा कुछ न था, और तब उसने फैसला लिया कि वह इस दौलत को अच्छे काम के लिए उपयोग में लाएंगा। 

     मन की सारी बेचैनियों को भूल, अपने सारे दुख-दर्द को किनारे रख अब वह अपनी पूरी क्षमता, अपनी पूरी दौलत के साथ समाज के हित के लिए सामने आया था।

      वह भूल गया अपनी सारी तकलीफ।  अब वह चाहता था की इस तबाही में जो बचे हैं वे अपना जीवन जी सके, सर उठा कर चल सके। मलबे को हटाकर एक शानदार ऑफिस तैयार किया गया। शहर से कुछ ही दूर एक किड्स हाउस की स्थापना की गई।

        ऐसा किड्स हाउस जिसका खुद का हॉस्टल था खुद का स्कूल था खुद के गार्डन थे। हर छोटी-छोटी सुविधाओं से लेकर हर जरूरत की सुविधाएं एक ही कैंपस में। सैकड़ों का स्टाफ और ऐसे बच्चे जो कम उम्र में ही इस तबाही के शिकार हुए थे, अनाथ हुए थे, बेघर हुए थे उन सभी का यह अपना घर था।

       धीरे-धीरे उसे विश्वास हो गया कि उसकी बेटी बच गई वह मरी नहीं है। उसे लेकर अपने उन संघर्ष के दिनों में बेहद खुश था। उस बच्ची ने भी जो तबाही के मंजर देखे थे, उसे भी उसकी निकटता ने उसके मन से दूर कर दिया था। वह उसे हमेशा पापा कह कर ही बुलाती थी। तीन वर्ष बीत गए। उसने उसे एक प्यारा सा नाम दिया - " खुशी."

      और तब एक दिन अचानक ही एक वृद्ध मैले कुचले कपड़े पहने उसके सामने आ खड़ा हुआ। रोते हुए उसने अपनी सारी कहानी बताई कि कैसे उसका लड़का शहर में काम की तलाश में आया था। 

   " बीवी बच्चों के साथ वह आया था साहब ! इस भूडोल में वह और उसकी पत्नी तो मर गए साहब,  लेकीन आसपास के लोगों से पता चला की मेरी पोती बच गई है, वह आप के पास है साहब! मेरे बच्चे की आखिरी निशा८नी, उसे दे दीजिए साहब मैं आपके पैर पड़ता हूं। "

       उस दिन उसके जीवन में दूसरी बार भूकंप आया था। न धरती हिल रही थी, न आसमान। बस उसके पैरों से जमीन खिसक गई थी। उसने पूरी छानबीन की। वृद्ध की हर एक बात सच साबित हो रही थी, और वह सत्य के जितना निकट होता जा रहा था खुशी से अपने आपको उतना ही दूर महसूस करता जा रहा था। असहनीय पीड़ा थी उसके लिए।

       सीने में जैसे एक बड़ा सा पत्थर रख दिया गया हो। कहते हैं अमानत में खयानत नहीं की जाती। यही सोचकर वह खुशी को लौटा देने की बात जब राइटर से कहीं तो वह बड़े ही प्रैक्टिकली अंदाज में बोला, " बूढ़े को ले देकर खिसका दो। वह मान जाएगा यार ! नहीं तो कहो मैं बात करूं?"

      लेकिन क्या उसकी आत्मा यह स्वीकार कर लेगी ? कभी नहीं, यही बातें उसके दिमाग में बराबर घूमती रही, " खुशी अमानत है, एक मरे हुए इंसान की आखिरी निशानी,, जो उसके पिता तक पहुंच नहीं ही चाहिए "

    एक बच्चे को खिलौने देकर बरगलाया जा सकता है, उसने वही किया था। खुशी के लिए ढेर सारी खिलौने खरीदे। अच्छे-अच्छे, सुंदर-सुंदर रंग-बिरंगे कपड़े। उसकी पसंद पूछ पूछ कर हर एक चीज उसके लिए ली। और दूसरे दिन . . .

      वह रोती रह गई, चिल्लाती रह गई , " पापा ... पापा ... मैं नहीं जाऊंगी, मैं कहीं न जाऊंगी . . 
    लेकिन मुकद्दर तो दूसरी बार उसके साथ खेल खेल चुका था। भागकर खुद बेडरूम में आया , अपने आप को कैद कर लिया। बाहर खुशी की रोने, चीखने, चिल्लाने की आवाजें आती रही। वह भी रोता रहा।

         15 वर्ष बाद वही खुशी उसके सामने खड़ी थी, आत्म विभोर हो उसने अपनी बाहें फैला दी।

   एक बेटी को फिर से पिता की बाहें मिली। और एक पिता को बेटी का सहारा। बचपन की स्मृतियां अमित होती हैं, और शायद इसीलिए वह अपनी बेटी की स्मृति में आज भी पापा है। न तो संबोधन बदला और ना ही उसका वह प्रेम। न ही उसकी वह आशाएं जिसे लेकर कभी वह जलजले की तबाही की जमीन पर खड़े अपने धर्म पिता की तरफ पहला कदम बढ़ाया था। 

     उसने अपनी पूरी आपबीती सुनाई थी कि कैसे वह यहां से दूर दूसरे राज्य में जाकर भी न तो यह शहर को भूल पाई और न ही कभी उसे। कैसे उसे बराबर अपने पापा की याद आती रही। आज फिर वह बेसहारा है। उसके ग्रैंडफादर की डेथ के बाद किस तरह से अपने ही लोगों ने, अपने ही गांव के लोगों ने, अपने ही रिश्तेदारों ने उसे उपेक्षित कर दिया।

      " पापा ! आज मैं फिर अनाथ हो गई हूं ... "
अंतिम शब्द कहते कहते हैं वह फफक कर रो पड़ी।

      उसने उसे कोई दिलासा नही दिया , बस उसे अपने सीने से लगा कर कहा, " अनाथ तो मैं हो गया था बेटी , मेरे रहते तुम कैसे अनाथ हो सकती हो ? अभी मैं जिंदा हूं . . .

      एक-एक करके उसने अपनी उपलब्धियों के सभी प्रमाण पत्र और मार्कशीट दिखाई। और यह देखकर वह दंग रह गया कि पिता के नाम के स्थान पर आज भी उसी का नाम लिखा है।

    जिस रिश्ते में छल, कपट, लालच, लेन देन का प्रपंच नहीं होता, वही रिश्ता होता है, एक पिता और पुत्री के बीच। एक बेटी के मन में पिता की संपत्ति को लेकर ना तो कभी कोई लालच जागता है और ना ही वह कभी उस पर अपना अधिकार ही जताती है। वह पिता की सबसे अच्छी सलाहकार मित्र और हमदर्द होती हैं। 

   उसने कई बार मना किया कि इस वक्त वह किड्स हाउस नहीं जाएगा, लेकिन वह कहा मानने वाली थी। उसने आलमारी से प्योर व्हाइट सूट निकल उसे पहनाए। जहां भी वह कुछ भी न नुकुर करता तो  डांट भी पड़ती । 

      पूरी तरह से तैयार कर वह उसे साथ लेकर किड्स हाउस पहुंची। पूरा का पूरा हॉल रंग बिरंगे गुब्बारों और फूलों से सजा था। बीच हाल में एक सेंट्रल टेबल पर जलती हुई कैंडल और हैप्पी बर्थडे केक।
         जैसे ही वह उस तक पहुंचा, चारों तरफ से एक सैलाब उमड़ा। नन्हे छोटे कदमों से दौड़ते हुए उस तक पहुंचा था। हर उम्र के छोटे बड़े बच्चे एक साथ एक स्वर में बोले " हैप्पी बर्थडे टू यू . . . हैप्पी बर्थडे टू यू पापा . . . "

       वह घुटने के बल बैठ गया, बाहें फैला दी। सागर से उठी लहरे जिस तरह वापस सागर की तरफ दौड़ जाती हैं, लौट जाती हैं। उसी तरह उसके चारों तरफ छोटे बड़े बच्चों का समूह सिमट आया।  उन बेताब लहरों के बीच वह ऐसा दिख रहा था जैसे कोई आसमानी फरिश्ता।
एक बहुत ही कम उम्र के छोटे से बच्चे ने उससे कहा "  मैं आपको एक पोयम सुनाऊं ? "

      बच्चे की थोड़ी सी मासूमियत और कहने का भोला भाला अंदाज़ उसके मन को छू गया।

      वह मुस्कुराते हुए बोला " हां बिल्कुल, मैं सुनूगा ...... तुम सुनाओ !"

परहैप्स इन द बैक ऑफ ब्लू स्काई,
 मे बी अ लिटिल हेवेन।
वी नेवर सीन, वी एवर फील।
बट वी सीन यू, वी फील यू ,
यू आर अवर गॉडफादर।।

          उसने कसकर उस बच्चे को अपने हृदय से लगा लिया। आंखों में आंसू आ गए एक बार फिर पूरा हाल तालियों से गूंज उठा। एक बार फिर सभी की एक साथ आवाज गूंजी,

   " हैप्पी बर्थडे टू यू ... डियरेस्ट पापा "

        यहां पर मौजूद हर बच्चे का वह पिता है,  और हर एक बच्चा उसकी संतान है।

      देखो! राइटर देखो!! कभी, कभी इसी शहर में मैंने अपना एक परिवार खोया था। ईश्वर की दयालुता को देखो, कितना दयालु है वह। इसी शहर ने मुझे इतना बड़ा परिवार दिया।

      तुम कहते हो कि खून के रिश्ते यूं ही नहीं बनते। मानता हूं नहीं बनते, पर जरा सोचो ऐसे रिश्ते भी क्या कभी यहां हर किसी को मिलते हैं?

     सभी यहां से एक न एक दिन कुछ बनकर निकलेंगे उनके वजूद की सारी हस्ती में मेरी अपनी भी हस्ती होगी। 

        इनके नाम के साथ मेरा भी नाम होगा। एक माता पिता को अपनी संतान से यही तो एक अनमोल चीज मिलती है।

      देश विदेश के हर एक कोने में इनके वजूद के साथ मेरा वजूद भी होगा। यही मेरे अपने हैं, यही मेरे अपने लोग हैं। यही मेरी पहचान है ?
Shailendra S.
दो शब्द
मुझे खुशी है कि मेरी कल्पनाओं का एक पात्र वास्तव में एक  यथार्थ जिंदगी जी कर चला गया. उसके जाने का दुख तो है, किंतु उसके द्वारा शुरू किए गया काम का कभी अंत ना हो। वह अनवरत उसी तरह चलता रहे Real life के इस गॉडफादर को मेरा सलाम।
      यह कहानी 2006-07 में लिखी और प्रकाशित भी हुई। और बाद में मैंने इसे अपने ब्लॉग में शामिल भी किया। आज मैं अपनी इस कहानी के दोनों पार्ट उन्हे (श्री पुनीत राजकुमार) सादर समर्पित करता हूं
शैलेंद्र एस.

अजनबी - 2

अजनबी (पार्ट 2)       पांच साल बाद मेरी सत्य से ये दूसरी मुलाकात थी। पहले भी मैंने पीहू को उसके साथ देखा था और आज भी देख रहा हूं...